थेनामेला का घोषित पारिस्थितिकी पर्यटन मुझे खास आकर्षित नहीं कर सका बजाय मिस केरल के ...इसलिए मैं तो शाम को वापस हो लिया .मेरा दल वहीं मछलियों के शीशाघर मतलब अक्वेरियम के निर्माण की प्रक्रिया को सीखने में लगा रहा .शाम को डॉ. शोभना ने मुझे फिर घर पर आमंत्रित किया मगर मैंने उन्हें विनम्रता और दृढ आग्रह पूर्वक मना किया -आज मैं थोडा अकेलेपन का आनंद उठाना चाहता था -जिसमें एक अजेंडा किसी इन्टरनेट कैफे में बैठ कर हिन्दी ब्लॉग जगत की सैर का भी था .यह जानने की इच्छा थी कि कहीं कोई नया विवाद /बखेड़ा न शुरू हो गया हो .अचानक याद आया कि मेरे एक और मित्र तथा साईंस फिक्शन फैन जी एस उन्नीकृष्णन भी तो तिरुवनंतपुरम में ही रहते हैं -उनकी खोज खबर क्यूं न ली जाय -फोन मिलाया तो तुरंत लगा और उधर से गर्मजोशी भरी आवाज आई -"हेलों डॉ मिश्रा ,हाउ आर यू ..." अब उन्नी भाई जो यद्यपि बी एच यू में पढ़े हैं, हिन्दी नहीं बोलते -शोभना को तो हम लोगों ने सिखा दिया था मगर लगता है बी एच यू में उन्हें हमारे जैसे हाहाकारी साथी नहीं मिले नहीं तो उन्हें भी मार मार के हिन्दी सिखा दिए होते .मैंने उन्नी को बताया कि मैं उन्ही के शहर से ही बोल रहा हूँ तो उन्हें सहसा विश्वास ही नहीं हुआ -तुरंत आकर मिलने को तैयार हो गए -वह तो मैंने हठात रोका -साईंस फिक्शन की सख्यता ऐसी ही होती हैं अपने ब्लॉग जगत जैसे नहीं कि सुना फलाने पधार रहे हैं तो फिर सौ सौ बहाने शुरू ..खैर ..वे अगले सुबह ९ बजे आने को मान गये .थोड़ी देर में मैं भी इंटरनेट पर यह देखकर कि हिन्दी ब्लॉग जगत सुरक्षित है होटल (अमृता ) वापस आ गया और उसके महंगे रेस्टोरेंट में अकेले खाना खाया ...और जल्दी ही सो गया .हाँ आते वक्त एक मंदिर के बाहर थोड़ी देर नतमस्तक भी रहा ...जब आप ऐसी जगह होते हैं जहां आपको कोई भी नहीं जानता हो तो वहां पूरी तरह नैसर्गिक होकर मन मुआफिक अनिर्वचनीय आनंद उठाया जा सकता है और कहीं कहीं तो मिस्टर बीन भी हुआ जा सकता है -कोई पहचानता थोड़े ही है -मचाये रहो ग़दर ,काटे रहो हल्ला !
विष्णु मंदिर जहाँ मैं लम्बे समय तक नतमस्तक रहा
सुबह जल्दी उठा -होटल के बेतहासा बढ़ते बिल की फ़िक्र कर चाय और नाश्ता बाहर करने को मन बनाया और ६.३० बजे अभी तक निर्जन सड़कों पर सैर को निकल पडा - जो बात सबसे दुखी कर गयी वह थी हिन्दी की बुरी गति /गत /दुर्गति या यूं कहिये की पूरी तरह हिन्दी का सूपड़ा साफ़ दिखना .हिन्दी का कोई नामलेवा भी नहीं मिला मुझे वहां . किस दम पर हिन्दी हमारी राज भाषा है और राष्ट्र भाषा के सपने देख रही है -औकात क्या है हिन्दी की जो अपने देश के ही कई प्रान्तों में नहीं बोली जाती -हाकर के पास हिन्दी अखबार नहीं ,किराना वाला हिन्दी का एक शब्द भी नहीं समझता और स्वतंत्रता के कितने ही दशक बीत गए -स्थानिक लोगों की कोई गलती नहीं है -यह हमारे नीति नियोजकों ,राजनीतिक कर्णधारों की अदूरदर्शिता ,अकर्मण्यता और दृढ इच्छा शक्ति का अभाव ही है -क्या हम देश में समान रूप से हिन्दी की अनिवार्यता के साथ कोई त्रिभाषा फार्मूला नहीं लागू कर सकते ? हम यह कभी नहीं कहते कि हिन्दी में ही सुरखाब के पर लगे हैं मगर कश्मीर से कन्याकुमारी तक कोई तो एक हिन्दुस्तानी भाषा हो -बस कहने को हिन्दी इस देश की लिंगुआ फ्रैन्का है जबकि हकीकत यह है कि उसकी भारत में ही घोर दुर्दशा है -हा हिन्दी ! आश्चर्य तो यह है कि हमारे मिथक ,धर्म आख्यान सब जगह एक ही सरीखे हैं -संस्कृत में देव आराधना हो रही है -वही विष्णु जो यहाँ क्षीर सागर में शयन करते दिख रहे हैं वहां भी बसों के पीछे बने बड़े ब्लो अप पेंटिंग्स में विराजमान हैं मगर फिर भी एक बड़ी संवादहीनता तिर आई है उत्तर और दक्षिण में ! क्या हम चुपचाप इसे देखते और बर्दाश्त करते रह जायेगें ..?
अप्पम खाकर जैसे जन्म जन्मान्तर की भूख मिट गयी हो
बहरहाल मैं सुबह ही एक सड़क के किनारे के रेस्टोरेंट में गया जहां भीड़ लगनी शुरू हो रही थी ...यहाँ भी वही भाषा का सवाल मुंह बाये खड़ा था -मैंने इडली ,डोसा और उत्पम और उपमा का नाम उचारा कि कुछ भी तैयार होगा ले आएगा बंदा मगर उसने इनकार में सिर हिलाया और दोनों हाथों की उँगलियों से कई बार जो इशारे किये उससे मैंने अंदाजा लगाया कि अभी उन आईटमों के बनने में कम से कम १५-२० मिनट की देर है ..खाने के मामले में मुझसे ज्यादा इंतज़ार नहीं हो पाता -मैंने उसी होटल के एक मूल स्थानिक काल कलूटे कारिंदे से फिर इशारे से खाने को कुछ माँगा -उसने मुझे कुछ सकारात्मक इशारा किया और अगले ५ मिनट के भीतर दो बड़े मोटे फूले फूले पराठे नुमा कोई चीज पहले से लगाई थाली में लाकर पटक दिया और मेरी ओर कुछ विचित्र भाव से देखने लगा -मैंने वैसा व्यंजन न पहले कभी देखा था और न सुना था ...यह अच्छा फर्मेंटेड व्यंजन था यही राहत थी, पर यह था क्या ? मैंने उससे इशारे से उस व्यंजन का नाम जानने की तीव्र उत्कंठा प्रगट की -मेरे हाव भाव और भंगिमाओं को देखकर वह हँस पड़ा -बोला -ऐप्पम ऐप्पम ....माई बाप चटनी या साम्भर कुछ मिलेगा ? उसने साम्भर तो नहीं जो शायद तैयार हो रहा था मगर नारियल की ढेर सारी चटनी लाकर रख दिया -वहां चम्मच छुरी का प्रचलन स्थानिक लोगों में नहीं है -मैंने भी अपने देहाती संस्कारों और दीक्षा का लाभ उठाकर कथित ऐप्पम नाम्नी व्यंजन को चटनी में सराबोर कर सान कर उदरस्थ कर लिया -लगा की जन्म जन्मान्तर की भूख मिट चुकी है -चाय पीकर कुल १५ रूपये देकर बाहर आ गया .इस जबरदस्त नाश्ते का ऐसा प्रभाव रहा कि लंच का आईडिया छोड़ना पडा ..आप कभी केरल जायं तो ऐप्पम भी जरूर खायें -जबर्दस्त आईटम है ....
जारी .....
लालच लगवा दिया न..एक शरीफ डायटिंग पर चल रहे बंदे को. पाप लगेगा!!
जवाब देंहटाएंइसे कहते हैं यात्रावृत्त। इतनी सहजता और इतनी आत्मीयता और इतनी त्वरा ! ये नहीं कि होली में गाँव गए और आज तक यात्रावृत्त पूरा नहीं कर पाए (अपने उपर व्यंग्य :()
जवाब देंहटाएं@
साईंस फिक्शन की सख्यता ऐसी ही होती हैं अपने ब्लॉग जगत जैसे नहीं कि सुना फलाने पधार रहे हैं तो फिर सौ सौ बहाने शुरू
ये कब हुआ?
@ जब आप ऐसी जगह होते हैं जहां आपको कोई भी नहीं जानता हो तो वहां पूरी तरह नैसर्गिक होकर मन मुआफिक अनिर्वचनीय आनंद उठाया जा सकता है
पश्चिम में मैंने इसका खूब आनन्द उठाया :)
@ हिन्दी की बुरी गति /गत /दुर्गति .....
राज्य नहीं इसके लिए हिन्दी वालों की काहिली और गर्व का अभाव जिम्मेदार है। कितने लोग तो सही लिखना तक नहीं जानते :(
किसी तमिल, मराठी या बंगाली वाले से मिलिए और देखिए भाषा को लेकर वे लोग कितने जागृत हैं! आज हिन्दी में स्तरोपयुक्त पत्रिकाओं का अभाव है जब कि इन भाषाओं की समृद्धि दर्शनीय है।
अप्पम कि एप्पम
जवाब देंहटाएंभाषा की समस्या के लिए राजनीतिका इच्छा शक्ति का अभाव ही मूल कारण है।
भाषावाद के सामने धार्मिक एक्य कहीं टिकता नहीं ये बात हम सभी पर लागू होती है पर संवाद के लिए हमारे आग्रह... उनके पूर्वाग्रह हैं और उनके आग्रह... हमारे पूर्वाग्रह , समस्या केवल इतनी सी है ! अरविन्द जी कभी सोचा आपने कि उत्तर प्रदेश में कुछ लोग मलयाली ,कन्नड़ .तेलगु बोलते दिख जायें ? किसी मलयाली पर्यटक को मलयाली में जबाब देता हुआ उत्तर प्रदेशिया सुपुरुष / सन्नारी ? नहीं ना ...यह स्वाभाविक भी है पर देशवाद और राष्ट्रवाद के अनुकूल बिलकुल भी नहीं ! क्षेत्रीय संस्कृति की समरूपतायें ,भाषा की हों या पहनावे की ,खटकती केवल तब हैं जब कोई बाहर से उनमें प्रविष्ट हो ! हम केरल जायें और वहां की भाषा के चंद शब्द भी सीख कर ना जायें ये भी सिक्के का दूसरा पहलू है ! केरल हो या उत्तर प्रदेश जैसा कोई अन्य अन्तर्समूह ...शायद जीवन इसी अन्तर्समूह संसार में गुज़र जाने का भाव हमे दूसरे समूह से अंश मिलन की गुंजायश भी नहीं छोड़ता ! मेरा इरादा भाषावाद पर हुई राजनीति पर चर्चा करने का बिलकुल भी नहीं है मैं केवल अरविन्द और अली जैसे पर्यटकों से होने वाली चूक पर ध्यान देना चाहता हूँ ...यानि मेरे लिए अपेक्षायें द्विपक्षीय होनी चाहिये !
जवाब देंहटाएंदेश इतना खूबसूरत है ...उसके लोग भी इतने ही खूबसूरत हैं... विविधता को भी सहजता से लें और अपनी जिम्मेदारियों को भी ध्यान में रखें यानि थोड़ी से मलयाली मुझे भी आनी चाहिये का भाव ! राजनेताओं को घृणा फैलाने में देर नहीं लगती पर हमें मुहब्बत का सहारा तो हैं ...तो क्यों ना एक अंगुली अपनी तरफ भी उट्ठे ?
शेष फिर...क्योंकि यात्रा की थकान से मैं स्वयं भी बाहर नहीं आ पाया हूँ अब तक ! आपके संस्मरण न जाने क्यों अपने से लगते हैं जैसे मैं खुद ही वहां घूम रहा होऊं :)
वाह अली जी वाह ! मुझसे यह बात छूट ही गई थी। बेटे के साथ money circle खेल रहा हूँ। वह इतना सताए हुए है कि ये बातें दिमाग में आईं और टिपियाते वक़्त छूट गईं।
जवाब देंहटाएंकेरल में हिंदी नहीं जानने वालों की कमी बहुत ही अखरती है ...केरल भ्रमण के दौरान एक बार गाडी ख़राब हो जाने पर इसी भाषाई दिक्कत का सामना करना पड़ा ...ड्राईवर बड़ी मुश्किल से लोगो को अपनी बात समझा पाया ....ये तो गनीमत है कि अपने दक्षिण भारतीय मित्रों के कारण कुछ शब्द मलयालम के पतिदेव जानते थे और मैं तमिल के ..
जवाब देंहटाएं@कुछ शब्द दूसरी भाषाओँ के सीखने चाहिए जरुर ...मगर अपने देश की भाषाई विविधता में यह इतना व्यावहारिक नहीं लगता ...इसलिए कम से कम एक भाषा ऐसी जरुर होनी चाहिए जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक लोग आसानी समझ सके ...दक्षिण प्रान्तों में शिक्षा में विकल्प के रूप में हिंदी है ही नहीं ...या आप अंग्रेजी माध्यम चुन सकते हो या प्रांतीय भाषा .....ऐसे में हिंदी की दुर्गति होनी स्वाभाविक है ...
यात्रा वृतांत बहुत ही सहज स्वाभाविक लगा ...विशेषकर मंदिर के आगे नतमस्तक देख कर ...:)...केले के पत्ते पर परोसे गए दक्षिण भारतीय व्यंजन की तो बात ही निराली है .
beautiful description of mouth watering dishes..
जवाब देंहटाएंNice post !
१९९८ में हम भी गए थे -तिरुवनंतपुरम । लेकिन भाषा की ऐसी कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई। शायद ये इसलिए भी कि कब इंग्लिश बोल ली , पता ही नहीं चला ।
जवाब देंहटाएंखाने की भी कोई दिक्कत नहीं हुई ।
हाँ , दक्षिण भारतियों को उत्तर भारतियों को देखकर कुछ तो अजूबा सा लगता ही है । शायद इसका एक कारण तो है रंग का अंतर। कहीं न कहीं रंग भेद आ ही जाता है , अपने ही देश में ।
लेकिन इसीलिए तो यहाँ अनेकता में एकता है।
मुझे अपने अल्पकालिक दक्षिण - प्रवास के दिन याद आ रहे हैं , बस
जवाब देंहटाएंवे दिन इतने चटखोर नहीं थे ...
हर बार किसी नये व्यंजन का वर्णन करके हमलोगों को ललचवाते हैं और ऊपर से ब्लॉग जगत पर ये इल्जाम---"साईंस फिक्शन की सख्यता ऐसी ही होती हैं अपने ब्लॉग जगत जैसे नहीं कि सुना फलाने पधार रहे हैं तो फिर सौ सौ बहाने शुरू" ये कोई अच्छी बात थोड़े ही है.
जवाब देंहटाएंभाषा के सवाल पर मैं अली जी की बात पर सहमत हूँ. ज़िम्मेदारी दोतरफा होनी चाहिये. वैसे इतना चिन्तित होने की ज़रूरत नहीं है. मेरे विचार से दक्षिण के राज्यों में केरल और तमिलनाडु ही ऐसे हैं, जहाँ हिन्दी बिल्कुल नहीं बोली जाती. आन्ध्र वाले तो अच्छी-खासी हिन्दी जानते हैं.
अप्पम बहुत ही स्वादिष्ट है । और भी व्यंजन चटकाइये, आनन्द आयेगा । हल्के भी हैं और रुचिकर भी । यहाँ के भोजों में हम यही सब ढूढ़ते हैं ।
जवाब देंहटाएंडॉ साहब ,
जवाब देंहटाएंलगता है आप विशिष्ट अंगरेजी भाषी लोगों के बीच ही रहे !
आज की पोस्ट बडी ही सात्विक है. अब यहां ऐप्पम कहां से लायें? आज किसी मद्रासी र्स्टोरेंट पूछ कर देखते हैं. इसकी शक्ल देखकर खाने की इच्छा होने लगी है.
जवाब देंहटाएंताई ने आज चौथ का व्रत कर रखा है तो हम यही चटका आते हैं. :)
रामराम.
munh me pani aa gaya.
जवाब देंहटाएंअरे इसे खाने के लिए हमें कहीं जाने की क्या जरूरत जब कहेंगे घर में बन जायेगा, बन जाता है :)
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक यात्रा वृत्तांत...दक्षिण भारतीय व्यंजन सुस्वादु होने के साथ साथ सुपाच्य भी होते हैं....तेल मसालों का ज्यादा प्रयोग नहीं होता...अप्पम के साथ इश्टू का कॉम्बिनेशन है...अगली बार वो ट्राई कीजियेगा
जवाब देंहटाएंबेहतरीन यात्रा प्रसंग..
जवाब देंहटाएंगिरिजेश भईया की बात ही कह दे रहा हूँ - "इसे कहते हैं यात्रावृत्त। इतनी सहजता और इतनी आत्मीयता और इतनी त्वरा !"
जवाब देंहटाएंखूबसूरत वृत्तांत ! आभार ।