रविवार, 24 नवंबर 2013

मोक्ष का मार्ग मछलियां (सेवाकाल संस्मरण- 12 )

लगता है चिनहट ,लखनऊ तक की याददाश्त तो अभी भी  तरो ताजा है मगर झाँसी प्रवास की यादें कुछ धुंधलाई हुयी सी हैं। फील्ड में मेरी यह पहली पोस्टिंग थी तो काफी रोमांच भी था और एक चुनौती भी।  झांसी में   सिंचाई विभाग के बड़े बड़े जलाशय/बांध हैं जिनसे  मछली पकड़ने का काम ठीके पर देने का काम मत्स्य विभाग का  है और उनकी नीलामी होती रहती है।  अगर आप से पूंछे कि झील(लेक ) और जलाशय (रिजर्वायर) में क्या अंतर है तो आप क्या बतायेगें? चलिए मैं स्पष्ट करता चलूँ? झीलें बहुत पारम्परिक और अमूमन कुदरती होती हैं जबकि जलाशय/बांध सिचाई के लिए मानव निर्मित। अगर पूरे प्रदेश की बात करें तो सबसे अधिक जलाशय झाँसी में हैं -मतलब मत्स्य सम्पदा भी यहाँ सबसे अधिक है। 

 मैंने झांसी मंडल को जलाशयों का समुद्र माना है -जनपद के जलाशयों के नाम मुझे आज भी याद हैं जो मेरी देखरेख के अधीन थे -पहुंज ,बड़वार ,पहाड़ी ,लहचूरा,  माताटीला ,पारीक्षा आदि। और ख़ास बात है कि मत्स्य सम्पदा के मामले में हर जलाशय की अपनी एक विशेषता थी  -जैसे पहुँज  में कुर्सा नामकी मछली की बहुतायत थी ,पारीक्षा में सादे पानी के जल दैत्य गोंछ की जो सड़ी गली लाशों की भी शौक़ीन है। मेरा एक चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी था जो पारीक्षा से अपना ट्रांसफर नहीं चाहता था और उसकी अंतिम इच्छा थी कि उसे मरने के बाद पारीक्षा जलाशय में फेंक दिया जाय और गोंछ मछलियां उसे खा खा कर शव का निपटान करें -अपनी अंतिम इच्छा बताते वक्त वह बहुत ईमानदार दिखता था।  उससे मैं पूंछता कि वह ऐसा क्यों चाहता था तो वह जो कुछ बताता और मैं समझ पाता उसके मुताबिक़ यह उसके मोक्ष का सहज मार्ग था।  मछलियों के माध्यम से मोक्ष! अब तक न कहीं पढ़ा और न सुना था।  

इसी तरह पहाड़ी जलाशय जो मध्य प्रदेश के बार्डर पर था में सबसे पहले मैंने महाशेर मछली देखी जिसे अब तक केवल पहाड़ों पर मिलने वाली मछली मैं जानता था। इसके शल्क (स्केल ) काफी बड़े होते हैं और यह एक नायाब स्पोर्ट फिश है और भारत में एंगलर की पहली पसंद। इसमें चर्बी कंटेंट अधिक होता है इसलिए यह अन्य मछलियों की तुलना में स्वाद ग्रंथियों को ज्यादा संवेदित करती है।  अभी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में वाईस चांसलर वी एन राय साहब से मैं जब मिला तो उन्होंने मुझे याद दिलाई कि किस तरह मेरी आगे की इलाहाबाद पदस्थता में मेरे हस्तक्षेप के बाद  यह रहस्योद्घाटन हुआ  था कि उनके कुछ इलाहाबादी मित्र उन्हें डिनर पर महाशेर के नाम पर सूअर का मांस परोसते आये थे :-) बहरहाल महाशेर से मेरी पहली मुलाकात सनसनीखेज थी जिसका जिक्र आगे होगा।  

लहचूरा जलाशय झांसी जनपद का दूरस्थ का जलाशय है और वहाँ कतला मछली ख़ास थी।  जलाशयों के ठीकेदार तब ही काफी धनाढ्य लोग थे और एक माफिया सा था उनका जो जलाशयों से मछली का अच्छा ख़ासा व्यवसाय करता था।  तब मछली निकालने का कोटा फिक्स था और उसके ऊपर मछली अनुबंध के मुताबिक़ नहीं निकाली जा सकती थी.  अनुबंध के मुताबिक़  प्रमुख मछलियों जैसे रोहू कतला  और नैन को भी बिना एक बार बच्चा दिए (प्रजनन ) नहीं पकड़ा जा सकता था।  यह बी क्लास कहलाता था/है ।  मैंने झाँसी पहुँचने के पहले यह सब थोडा अध्ययन कर लिया था मगर यह ज्ञान मेरी मुसीबत भी बना।ज्ञान पापतुल्य भी बनता है कभी कभी सचमुच (नालेज इज सिन :-) ।  

  कभी कभी लगता है अधिकारी के पद पर चयन के बाद अधिकारी को पठन पाठन से क्या मतलब? उसे तो आफिस के बड़े बाबू जहाँ कहें चिड़िया (हस्ताक्षर ) बना /बैठा देना चाहिए -आखिर वह उस आफिस में अधिकारी से ज्यादा अनुभवी ,व्यावहारिक ज्ञान वाला होता है।  मैंने देखा है कि मेरे कई साथियों और प्रशासनिक सेवाओं के बहुत से अधिकारी भी बड़े बाबू के सहारे ही सेवाकाल  की वैतरिणी पार करने में लगे रहते हैं।  

मैंने जब ज्वाइन किया तो जनपद में हमारे मंडलीय अधिकारी वी कुमार साहब थे और जिलाधिकारी श्रीमती मजुलिका गौतम जी थीं। मेरे सेवाकाल की पहली जिलाधिकारी।  मैंने पहुँचते ही उनसे सरकारी आवास की फ़रियाद की।  उन्होंने आश्वस्त किया कि देखते हैं खाली होने पर मिल जाएगा।  पत्नी पैतृक घर जौनपुर में थीं तो बिना  आवास की सुविधा के उन्हें लाया नहीं जा सकता था. आज तक भी प्रदेश सरकार में सभी कार्मिकों के लिए सरकारी आवास का न होना खटकता है।  यह एक ऐसा इंफ्रास्ट्रक्चर है जिसकी अनदेखी नहीं होनी चाहिए।  मजबूरी में सरकारी मुलाजिम को इधर उधर जाकर रहना पड़ता है जो उसके कार्यक्षमता और माहौल के अनुकूल नहीं होता।  मगर मजबूरी -मैंने फिलहाल एक कमरे का टेम्पररी आवासीय प्रबंध कर लिया।  जो महारानी लक्ष्मीबाई  के किले के आस पास ही था।  और बनावट ऐसी कि मुझे लगता था  कि इससे अच्छा तो किले के ऊपर ही किसी गुहा गह्वर को खोज कर रह  लिया जाय।  

शहर कोई ख़ास विस्तारित नहीं था तब। मुख्य बाजारों में सीपरी , मानिक चौक और मिलटरी क्षेत्र का सदर बाज़ार तो मुझे हजरतगंज की याद दिलाता था ,. बेहद साफ़ सुथरा और चमाचम।  शाम को घूमने जाते तो लगता था कि  हजरत गंज अपने  एक लघुरूप में साकार हो गया हो और मिलटरी की मेम साहिबाओं का ठाठ बात देखकर तो आँखें चुंधिया जाती थीं -एक तरह के वैभव और ऐश्वर्य का आभास भी होता था।   अब पता नहीं सदर क्षेत्र कैसा है? झाँसी के कोई ब्लॉगर मित्र बतायेगें क्या? मेरा आफिस मध्य में एलाईट चौराहे पर था. और मजे की बात यह कि झांसी में रिक्शे नहीं दीखते थे -पहाड़ी का ऊँचा नीचा क्षेत्र होने के कारण वहाँ ऑटो रिक्शा ही चलता  था भले ही कितनी कम दूरी तक ही जाना हो।  यह मुझे बड़ा ही कौतूहल पूर्ण लगता था।  जारी … 

बुधवार, 20 नवंबर 2013

सभी पुरुष एक जैसे ही होते हैं..... ललित निबंध

सभी पुरुष एक जैसे ही होते हैं..... यह एक ऐसी बात है जिससे  महिलायें ख़ास तौर पर नारीवादी सक्रियक  झट से सहमत हो लेती हैं। उनके लिए यह सार्वभौमिक सत्य है। वे फरेबी होते हैं, झूठे होते हैं वादा करके मुकर जाते हैं।  रूहानी लगाव के बजाय बस रूप सौंदर्य के दीवाने होते हैं।  उनकी चाहतें यकसाँ  ही होती हैं। हर मायनों में सभी समान होते हैं और उनमें भी कुछ और भी ज्यादा समान होते हैं।  यहाँ तक कि अलग से दिखने वाले (नारीवादी पुरुष) भी अंततः आखिर पुरुष ही साबित होते हैं।  मुझे भी यह वाक्य गाहे बगाहे सुनना ही पड़ता रहा है।  अब लाख समझाईये कि नहीं अपुन तो भीड़ से बिल्कुल अलग हैं.एक नायाब पुरुष पीस हैं मगर उनके चेहरे का अविश्वास इतना अटल रहता है कि कभी कभी और अब तो अक्सर ही खुद भी अपने बारे में शक होने लगता है कि कहीं हम भी वाकई 'सभी पुरुषों' की ही श्रेणी में तो नहीं आते -सोचते हैं खुद को कहीं आजमा के देख ही लिया जाय कि अपनी असलियत आखिर है क्या ? वालंटियर्स चाहिए।  

मैंने कभी ,मतलब अंतर्जाल में पहला कदम रखने के दरमियान ही एक मित्र से तब इस जुमले की हकीकत को गहराई से समझने का प्रयास किया था।  इसके पहले वे इस गूढ़ रहस्य को उजागर करतीं अंतर्जाल छोड़कर ही कहीं लुप्त हो गयीं और मेरा प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया।एक आधी दुनिया के मित्र ने जब फिर इस जुमले को उछाला तो मैं जैसे इसकी मीमांसा के लिए तैयार ही बैठा  था।  मैंने अनुनय किया कि कृपा कर इसे व्याख्यायित किया जाय और बिना व्याख्या अंतर्जाल न छोड़ा जाय।उन्होंने एक चिढाऊ स्माईली बनाकर कहा कि मैं सब जानता हूँ -मैंने जवाब दिया कि मैं क्या जानता हूँ यही बता दिया जाय ताकि सत्यापित कर सकूं कि वह  सही या गलत हैं। उन्होंने बात का एक आखिरी छोर पकड़ा दिया कि आप सभी पुरुष बड़े वो होते हैं। और एक शातिराना स्माईली छोड़कर चल दी हैं -लगता है अभी बात की तह तक पहुँचने में कई चैट सेशन बीत जायेगें।  

मैं तो विज्ञान और उसमें भी जैव विज्ञान  का एक अदना सा अध्येता रहा हूँ -चार्ल्स डार्विन को अपना ईश्वर पैगम्बर सब कुछ मानता हूँ -उनके अनुसार तो विभिन्नता प्रकृति का नियम है -तो पुरुष एक जैसे तभी हो सकते हैं जब वे जुड़वां हों और वह भी एक ही निषेचित अंड की उत्पत्ति हों।  तो सभी पुरुष एक जैसे कैसे हो सकते हैं। इसलिए मेरी तो वैज्ञानिक मान्यता यह है कि सभी  पुरुष और न ही नारी एक जैसे होते हैं।  नारियां तो बिल्कुल ही एक जैसी नहीं होतीं।  बहुत फर्क होता है उनमें, यह मेरा स्वयं का सुदीर्घ अनुसन्धान है।  एक अंग्रेजी कहावत के जनक ने भी यही कहा है कि नारी नारी में बहुत फर्क होता है -" सम वीमेन ब्लश व्हेन दे आर किस्ड ,सम स्वेयर , सम काल फार पोलिस बट वर्स्ट आर दोज हू लाफ " देखिये न यह कहावत यह सिद्ध कर देती है कि नारियां अलग अलग होती हैं। मेरी इस बात से आप निश्चय ही झट से सहमत हो जायेगें :-) 
मगर मेरे एक फेसबुकिये मित्र हैं जो इससे असहमत हैं।  वे कहते हैं कि सभी नारियां भी एक जैसी होती हैं , उन्होंने अपनी पीड़ा सरे आम फेसबुक पर साझा की थी , जो याद है उसके मुताबिक़ वे अपने पुरुष दोस्तों से घनिष्ठ होते होते सहसा ही पलट जाती हैं। 

 वे कहती हैं -
१ -मैं आपकी बहुत इज्जत करती हूँ मगर मैंने कभी उस निग़ाह से आपको देखा ही नहीं। 
2 -आप मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं मगर उसके आगे नहीं 
३- मेरे लिए मित्रता से बढ़कर दुनिया में और कुछ नहीं है मगर मित्र से मैं शादी नहीं कर सकती।  
४-दोस्ती मित्रता अपनी जगह  विवाह शादी अपनी जगह 
5 -आपने तो कभी पहले बताया ही नहीं। मैं तो किसी और के हाथों महफूज हो गयी हूँ। .

मित्र का मानना है सभी एक सा ही सोचती हैं।  एक जैसी ही हैं। तो चलिए यह मानने में क्या गुरेज कि सभी पुरुष या नारी एक जैसे ही होते हैं :-) आपकी भी तो अपनी कोई राय होगी इस मुद्दे पर या निजी अनुभव होगा तो क्यों नहीं साझा करते यहाँ? मानवता का मार्ग दर्शन होगा! 

रविवार, 17 नवंबर 2013

चिनहट से विदाई (सेवा संस्मरण -11)

चिनहट से विदाई का वक्त आ गया था।  झांसी जल्दी ज्वाइन करना था।  चिनहट के दो ढाई साल के प्रवास में कोई सामान वगैरह तो था नहीं इसलिए एक ट्रेलर वाली जीप पर पलंग रजाई गद्दा बर्तन आदि लाद  फांद और उसी पर खुद बैठ हम अपने जौनपुर के पैतृक गाँव आ गए। सामान व पत्नी को वहीं छोड़ा। और खाली हाथ झाँसी को चल पड़े। मगर रुकिए अभी कुछ बची खुंची यादें चिनहट की रह गयीं हैं, उन्हें निबटा लूं। चिनहट से बस कुछ किलोमीटर की दूरी पर कुकरैल का वन था/है।  वहाँ घड़ियालों की सैंक्चुअरी तब स्थापित हो रही थी। वन्य जीव अधिनियम 1972 के अधीन घड़ियाल और मगरमच्छ अबध्य प्राणी हैं।  इनकी तेजी से घटती संख्या को देखकर इनकी प्रजाति को बढ़ावा देने के उद्येश्य से कुकरैल में उनके प्रजनन स्थल की स्थापना की गयी. भारत में एलीगैटर नहीं मिलते।  मगरमच्छ और घड़ियाल मिलते हैं।  घड़ियाल तो गंगा और सहायक नदियों का एक मुख्य निवासी है। मैंने जब इन विशाल सरीसृपों के पुनरुद्धार की परियोजना कुकरैल में देखी थी तो सहज ही रोमांच हो आया था।  आप भी जब लखनऊ जाएँ तो कुकरैल जाकर इनका साक्षात्कार कर सकते हैं। 

चिनहट में ही पर्यटन विभाग ने एक 'पिकनिक स्पाट ' बना  रखा था।  यह शहर से काफी दूर निर्जन में होने के कारण प्रेमी जोड़ों की पहली पसंद था।  यहाँ अब तो पर्यटन विभाग ने मान्यवर काशीराम इंस्टीच्यूट आफ टूरिज्म मैनेजमेंट खोल दिया  है, मगर तब पर्यटन के नाम  पर एक कमरा था बस।  हमारे प्राचार्य महोदय ने उधर जाने की  प्रशिक्षुओं को मनाही कर रखी थी. और इसकी सूचना मुझे भी मेरे ज्वायनिंग के समय ही दे दी गयी थी।  मैं विस्मित  कि पब्लिक प्लेस पर जाने की आखिर मनाही क्यों ?कारण पूछा तो एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट और यह कहकर टाल दिया गया था कि मैं खुद जान जाऊँगा।  मगर उत्कंठा भी तो कोई चीज है। शाम होते होते मुझे पता लग गया था।  दरसअल वहाँ जोड़े एक ख़ास मकसद से आते थे और घंटे आधे घंटे कमरे में रहकर चल देते थे।  कई बार उम्र की कई बेमेल जोड़ियां भी आती थीं।  उन्हें सामने सड़क से प्रायः स्कूटर से आते और जाते हुए मैं खुद भी देखता था।  वहाँ पर्यटन विभाग का एक चौकीदार भर था।  अब आपसी सहमति से प्रगाढ़ संबंध पर किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए यह बात मेरे दिमाग में आती तो थी मगर खुद भी उधर जाने की इच्छा ही नहीं रहती थी। मेरे प्रिसिपल साहब का आदेश मेरे लिए काफी था -उनके निर्देश से वह एक प्रतिबंधित स्थान था तो था -मंजूर।  और फिर उस अंगने में मेरा क्या काम था? 

मगर घर से तीन माहों या अधिक की ट्रेनिंग पर आये युवा या अधेड़ प्रशिक्षुओं के लिए यह स्थल आकर्षण का केंद्र था। वे गाहे बगाहे उधर हो आते और प्रिंसिपल साहब की डांट  भी खाते। एक दो बार मैंने वहाँ के सेट अप ,इंतजाम आदि के लिए सरकारी शिष्टता के साथ मुआइना भी किया तो यही पाया कि लोगों की जैवीय प्रवृत्ति के शमन के बहाने से वहाँ का चौकीदार अवैध कमाई में लिप्त था।  बाद में चिनहट थाने के एक  सिपाही को भी अपना हिस्सा लेने की लत पड़  गयी तो वह अक्सर उधर ही मंडराता रहता और कमाई की फिराक में रहता।  आने वाले जोड़ों को डराता धमकाता और रकम वसूलता।  एक बार वही सिपाही  हमारे  एक प्रशिक्षु को पकड़े लगभग घसीटते प्रिंसिपल के पास ले आया।  और कहा इन्हे संभालिये।  माजरा समझने में वक्त तो नहीं लगना था मगर मेरे हस्तक्षेप पर प्राचार्य साहब ने सुनवाई शुरू की।  

गलती हमारे प्रशिक्षु की यह थी कि सिपाही अपने स्टीरियोटाइप के अनुसार जब जोड़े को डांट धमकाकर यह सुना  रहा था कि अगर उसकी (महिला ) साथी को इतना ही शौक है तो ट्रेनिंग संस्थान के सारे ट्रेनीज को वह बुला देगा -तब अपने वे अपने  प्रशिक्षु  महाशय न जाने  किस आशा और उत्साह से यह सुनते ही दूर से भाग कर वहाँ पहुँच कर व्यग्र हो उठे थे। और सिपाही हतप्रभ।  बहरहाल प्रिंसिपल साहब ने प्रशिक्षु को तो डांटा फटकारा ही मगर सिपाही को धमकाया कि अगर वह फिर इधर दिखा तो जिले के एस पी साहब से लिखित शिकायत कर दी जायेगी।इसका असर हुआ और सिपाही का दिखना बंद हो गया।  मेरे चिनहट से प्रस्थान तक वह पर्यटन स्थल बदस्तूर जीवंत था।  मगर अभी कुछ माह पहले जब मैं वहाँ गया  तो वहाँ एक विशाल बिल्डिंग वजूद में थी और  मान्यवर काशीराम इंस्टीच्यूट आफ टूरिज्म मैनेजमेंट  स्थापित हो गया है। प्रणयोत्सुक जोड़ों के प्रणय  स्थल का नामो निशान मिट गया था।

चिनहट की इन कुछ भूली बिसरी यादें आपसे साझा कर अब आपको हम  लिए चलते हैं झांसी जहाँ से मेरे नौकरी का एक नया फेज शुरू होने जा रहा था। … जारी ... 

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

झांसी गले की फांसी दतिया गले का हार.......(सेवा -संस्मरण जारी-10)

चिनहट पोस्टिंग के ही दौरान 1986 में हेली के प्रसिद्ध धूमकेतु का दर्शन मैंने वहीं के प्रदूषण और शहरी चकाचौंध से रहित ग्राम्य परिवेश से किया था।  मुझे मेरे बड़े चाचा  डॉ सरोज कुमार  मिश्रा जो नासा में वैज्ञानिक रह चुके हैं ने  पक्षी निहारण  और व्योम विहार की मेरी तब की अम्येच्योर रुचियों के चलते एक सात गुणे पचास मैग्नीफिकेशन का बाइनाक्यूलर गिफ्ट कर रखा था।  मैंने इसी से लखनऊ क्षेत्र में सबसे पहले हेली का कमेट  ढूँढा था यद्यपि  उम्मीदों के विपरीत वह बहुत धुंधला धब्बा सा लग रहा था -मैंने अखबारों में यही रिपोर्ट भेजी थी कि 'ईद का चाँद हो गया हेली" … मेरे चिनहट प्रवास के दौरान यह यादगार घटना रही इसलिए यहाँ जिक्र कर रहा हूँ। हेली कमेट फिर 75 -76 वर्ष बाद लौटेगा यानि 2061 में और तब मैं धरती पर नहीं रहूँगा -हाँ बच्चे नाती पोते अगर इस संस्मरण को कभी पढ़ेगें तो वे शायद गौरवान्वित हों ले कि उनके एक बाप दादा ने हेली के कमेट को देखा था। मगर  पता नहीं विज्ञान की मेरी अभिरुचि का मेरे वंशजों तक में संवहन होता रहेगा या नहीं।  प्रसंगवश यह बता दूं कि कुछ ऐसी भी विश्व -हस्तियाँ हुयी हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में ही हेली कमेट को दुबारा देखा -जैसे महान लेखक  मार्क ट्वेन (November 30, 1835 – April 21, 1910)।  

जैसे ही हेली दर्शन का  रोमांच या नशा उतरा मुझे इत्तिला दी गई कि निदेशक मत्स्य से मुझे तुरंत जाकर मिलना है।  दिल की धड़कने बढ़ीं मगर जल्दी ही संयत हो गईं क्योंकि अब अज्ञात का  भय सहने की आदत सी पड़ती गई थी।अगले दिन मैं निदेशक मत्स्य से उनके चैंबर में जाकर मिला। उस समय निदेशक थे वीरेंद्र कुमार जौहरी साहब जो विभागीय सेवा से ही प्रोन्नत हुए थे।  मुझे देखते ही बोले, " झांसी जाओगे? सहायक निदेशक का पद खाली है " मेरे सामने सीमित विकल्प थे ,केंद्र सरकार में मुझे लिए जाने का मामला खटाई में पड़  गया लगता था।  मैंने एक आज्ञाकारी मातहत की तरह  हामी दे दी और उन्होंने मुझे ट्रांसफर आर्डर  पकड़ा दिया।  आर्डर लेकर मैं कुछ और शुभ चिंतकों से औपचारिकता वश मिलने गया जिनमें तो पहले जिक्र में चुके  चुके के डी पाण्डेय साहब ही थे जो अब संयुक्त निदेशक मत्स्य पद पर प्रोन्नत हो चुके थे।  

उन्होंने राज की बात यह बतायी कि मुझे झांसी भेजने की राय उनके ही द्वारा निदेशक को दी गयी थी क्योकि उनके मुताबिक़ मेरी सेवाओं का कोई लाभ विभाग को नहीं मिल पा  रहा था।  मगर उन्होंने सचेत किया कि मैं 
झांसी  पहुँच कर अपनी स्पीड वहाँ के रिटायर्ड पूर्वाधिकारी की तुलना में काफी कम रखूँ।  मैं तत्काल उस वाक्य का निहितार्थ नहीं समझ पाया -हाँ झांसी पहुँचने पर इस 'महावाक्य' को  समझने का प्रयास करता रहा और पूरी तरह आज भी नहीं समझ पाया -एक जन सेवक का प्राथमिक काम जनता की सेवा है।  और कोई भी स्पीड गौण है, और गैर उल्लेखनीय है।  मगर मुझे फिर पांडे जी ने ऐसा क्यों कहा था? क्या उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं था? हाँ ,पाण्डेय जी की ईमानदारी के किस्से कहे जाते थे मगर शायद उन्हें अपनी ईमानदारी का काफी फख्र था और उसके मुकाबले वे दुनियां के  हर  आदमी को कमतर ईमानदार मानते थे।  ऐसी ईमानदारी का एक नशा सा होता है।  

ईमानदारी निश्चय ही एक नियामत है ,सबसे अच्छी नीति है मगर ढिंढोरा पीटने का बायस नहीं। यह व्यक्ति विशेष का  एक निजी जीवन मूल्य है। मगर वो है क्या कि एक जुमला काफी बहुश्रुत हो चला है कि "ईमानदारी होनी ही नहीं दिखनी भी चाहिए" … लो कर लो बात और ढिंढोरा पीटो।  मैं तो मानता हूँ कि आप ईमानदार हैं तो यह दिख ही जाएगा स्वयमेव ही, उसे सायास दिखाने की जरुरत ही नहीं।  और कोई व्यक्ति , सरकारी मुलाजिम सहसा ही ईमानदार नहीं हो जाता  -यह एक वह जीवन मूल्य है जो संस्कार , पारिवारिक परिवेश और खुद की वंशाणुवीय संरचना (जेनेटिक मेक अप ) के मेलजोल से उपजता है. 

बहरहाल मैं झांसी जाने को उत्कंठावश तैयार था।  मेरी नौकरी के पहले  फील्ड अनुभव का रोमांच सा था मुझे। यद्यपि एक दो लोगों ने डराया भी। एक और जुमला तब और आज भी बड़ा मशहूर है -झांसी गले की फांसी दतिया गले का हार ललितपुर न छोड़िये जब तक मिले उधार " तो मैं मंत्रमुग्ध सा फील्ड की दुश्वारियों से बेखबर आंनदित फांसी के फंदे की और बढ़ चला था। .... जारी। … 

रविवार, 3 नवंबर 2013

देहाती औरत!

कहते हैं कुछ दिनों पहले नवाज शरीफ ने अपने प्रधान मंत्री को देहाती औरत कह दिया जो कथित तौर पर रोज रोज पाकिस्तान को लेकर ओबामा के पास जाकर रोना रोते रहते हैं। इस पर तरह तरह की समीक्षायें ,टीका टिप्प्णियां और भाष्य हुए . मोदी ने इस बात की निंदा की . बात आयी गयी हो गयी . मगर अभी कल ही एक बिहारी नेता ने अपने मुख्यमंत्री नितीश जी को भी देहाती औरत कह दिया जो मोदी को लेकर निंदा पुराण बाँचते रहते हैं . कहा गया कि नितीश मोदी से इर्ष्या रखते हैं . आखिर देहाती औरत से अभिप्राय क्या है ? बिहार से लेकर पाकिस्तान तक के एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में यदि देहाती औरत से कोई समान अभिप्राय निकलता हो तो यह एक महत्वपूर्ण विवेचन का विषय निश्चित ही है .

मेरा लालन पालन और एक उम्र तक निवास भी ग्रामीण परिवेश में ही हुआ है . अब भी छठे छमासे गाँव आना जाना होता रहता है और सेवा निवृत्ति के बाद गाँव में ही बस जाने का प्लान है . देहाती औरत का विशेषण मेरे भी समझ में बिल्कुल बेजा ही नहीं है . सभी नहीं मगर गाँव की ज्यादातर औरतों में मैंने सहजता का ज्यादा आग्रह देखा है .शहरों का मिथ्याचरण (सोफिस्टिकेशन) उनमें नहीं होता . सभी मानवीय आवेग -गुस्सा, प्रेम,घृणा और द्वेष और उनका प्रगटीकरण उनमें अपने मौलिक रूप में देखे जा सकते हैं . वे जबर्दस्त झगड़ालू ,स्नेहमयी ,प्रेममयी सब हैं . गालियां देने में भी उनकी कोई सानी नहीं है . बहुत सहज होकर वे 'सुभाषितम' का धड़ल्ले से आपसी विनिमय करती हैं . जैसे कोई अनुष्ठान का धाराप्रवाह मंत्रोंच्चार हो रहा हो . मैं तो आज भी इस अनुष्ठानिक कलरव से लज्जावश नेपथ्य में हो लेता हूँ . कहीं कोई यह न देख ले कि मैं इस नारी -निनाद का रससिक्त श्रवण कर रहा हूँ .

देहात की औरतों की इस सम्भाषण स्पर्धा में लैंगिक विशेषणों का धड़ल्ले से प्रयोग होता है जो कभी कभी मुझे उनकी यौन विषयक कुंठाओं का आभास सा देता है और बहुत सम्भव है कि उनके दैनिक सम्भाषण से उनकी कतिपय कुंठाओं का कुछ शमन भी हो जाता हो . इसके अलावा गाँव की ज़िंदगी अभावों की और काफी श्रम साध्य होती आयी है तो  उनसे मनोमुक्ति के लिए भी कोई मनोरंजन और टाईम पास चाहिए सो एक गाली गलौज के संवाद का सेशन भी क्यों न हो? मेरी एक अंतर्जालीय घनिष्ठ मित्र ने उत्कंठा वश मुझसे कभी उन लैंगिक विशिष्टियों युक्त गालियों को बताने को  कहा था जो प्रायः ग्राम्य वधुओं द्वारा इस्तेमाल में आती हैं -मैं उन्हें संकोचवश बता नहीं सका था . आपके मन में कौतुहल हो तो मुझे अलग से मेसेज कर सकते हैं -एक और कोशिश कर सकता हूँ . अब तो टेलीविजन आदि के बढ़ते प्रभाव में गाँव की औरतें भी मिथ्याचरण अपनाने लगी हैं -तथाकथित 'सभ्य' होने लग गयी हैं . और गालियों आदि के विनिमय के बजाय शिष्टाचरण से काम लेने लगी हैं . अब तो मुझे यह लगने लग गया है कि गाँव की औरतें 'तो शिष्ट' होने लग गयी हैं मगर शहर की औरतें अब आदिम होने लगी  हैं .

तो गावं की औरतों में लगाने बुझाने(झगड़ा ) ,चुगली करने , ईर्ष्या करने के आदिम मानवीय भावों के भी होने के आरोपण हैं -मंथरा आदि के चरित्र यूँ ही वजूद में नहीं आये। मगर मैं यह मानता आया हूँ कि गाँव की औरतें बहुत भोली होती हैं ,मुंहफट तो होती हैं मगर दिल की साफ़ होती हैं . जीभ भले कलुषित हो, ह्रदय निष्कपट होता है . निहायत भोली ऐसी कि कोई भी चंट आदमी उन्हें छल सकता है . चंटों के सामने वे कत्तई भी महफूज नहीं रह पातीं . यह ग्राम्य भोलापन मैंने कई शहरी नारियों में भी देखा है -भले वे शहरी हो गयी हों मगर मन उनका ग्राम्य बोध लिए ही होता है . कैलाश गौतम जी की एक कविता की पंक्ति अकस्मात याद हो आयी है जो गाँव की औरतों के भोलेपन को इंगित करता है -

उसको शायद पता नहीं वह गाँव की औरत है
इस रस्ते पर आगे चल के थाने पड़ते हैं .......

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