गुरुवार, 31 मार्च 2011

लौंडों की दोस्ती ढेलों की सनसनाहट

यह एक सीख थी जो काफी पहले  एक बड़े बुजुर्ग से मिली थी.और यह इसलिए दी गयी थी कि कम उम्र वालों से ज्यादा मेल मिलाप घुलना मिलना एक सीमा तक ही ठीक है इस बात का हमेशा ध्यान रखा जाय .मतलब  अपने समान वयी लोगों से घनिष्ठता तो ठीक है मगर ज्यादा उम्र के अंतर वालों से दोस्ती में थोड़ा विवेक जरुर बरतना चाहिए अन्यथा वही हो रहता है जो मेरे साथ तो कई बार हुआ है और अभी हाल में एक ट्यूशन पढ़ाने वाले गुरु जी के साथ हो गया ...पहले गुरु जी की बात ..

गुरु जी गाँव के एक रईस/खानदानी अभिजात्य  परिवार में बच्चों का ट्यूशन करते हैं .अब बच्चे रईस परिवार के हैं तो गाँव के बच्चों /स्ट्रीट अर्चिंस से उनका मेल जोल न के बराबर है .लेकिन उनका ट्यूशन कर रहे मास्टर साहब पहले तो गाँव के बच्चो से आते जाते हिल मिल गए मगर उनकी शरारतों से ऊब कर उनसे दूरी बढाने लगे या यूं कहिये थोड़ी अभिजात्यता उनमें भी आ गयी ....गवईं बच्चों ने यह भांप लिया और उनका आक्रोश इतना बढ़ा कि एक दिन ट्यूशन से वापस लौटते वक्त बच्चों ने हंसी हंसी में पहले तो उनका नजर का चश्मा उतारा और फिर उन्हें एक सड़क के किनारे गड्ढे में धकेल कर ढेलों की बौछार कर दी ....सड़क से गुजरते कुछ यात्रियों की नजर इस वाकये पर गयी तो मास्टर साहब की समझिये जान बची ...जैसे ही मैंने इस पूरे वाकये को सुना जी धक् से रह गया सो अलग, वो सीख भी याद हो आयी -लौंडों की दोस्ती ढेलों की सनसनाहट! 

बच्चे, नव युवा मुझे भी आकर्षित करते हैं -कारण स्पष्ट है वे अपेक्षया निश्छल होते हैं और भविष्य की अनन्त संभावनाओं की आहट  लिए होते हैं -उनका दिमाग दुनियादारी से कम प्रदूषित होता है ...सहज होते हैं ,मित्रवत भी ....मगर उनका जो सबसे नकारात्मक पहलू होता है वह है उनकी नादानी -कहते भी हैं नादान दोस्त से दानेदार दुश्मन अच्छे होते हैं ....मुझे यह पता है बल्कि शिद्दत से इस मर्म से गुजरा भी हूँ . मगर उनकी मासूमियत ,आखों में भविष्य की चमक मुझे खींचती है ...ब्लागजगत में मेरे कितने ही युवा मित्र हैं मगर उनकी नादानी मुझे गाहे बगाहे दुखी करती रहती है ....एक मेरे नादान मित्र ने मेरे पिछले पच्चीस सालों के श्रमपूर्वक लिखे डार्विन के मेरे आलेखों को नेशनल बुक ट्रस्ट से अपने नाम  से छपवा लिया ....एक दूसरे कम वयी मित्र मुझे एक उस संस्था के अध्यक्ष पद से बेदखल करने की धमकी दे चुके हैं जो मैंने ही उन्हें प्रेरित कर और उनके ही इमेज बूस्टिंग के लिए वजूद में लाई है  ....ये घटनाएं बड़े बुजुर्गों के सुदीर्घ अनुभव से दी गयी सीखों पर ही मुहर लगाती  हैं-कम उम्र वालों से दोस्ती तो करें मगर विवेक के साथ और एक दूरी बनाकर ही ....एक जगह मेरे अनवरत  रचनात्मक योगदान को ही परे धकेलते हुए जनहित के एक बहुत ही महत्वपूर्ण ब्लॉग को हमेशा के लिए डिलीट कर दिया गया ....शायद उम्र के इस बेमेल मित्रवत सम्बन्ध के बारे में यह अंगरेजी की कहावत ज्यादा मौजू है -फैमेलियारिटी ब्रीड्स कन्टेम्प्ट!...ज्यादा घुलना मिलना भी अपमान की स्थितियों को बढ़ावा दे सकता है ..इसलिए ही अनुभवी लोग रिश्तों में एक मर्यादित दूरी बनाए रखने की वकालत करते हैं ..

अब छोटों को केवल यह मानकर कि वे उम्र में छोटे हैं नजरअंदाज भी तो नहीं किया जा सकता -कई तो बड़ों के कान काटने में खूब अभ्यस्त होते हैं -बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुभान अल्लाह..और यह भी कि 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर .." मगर एक समन्वयवादी दृष्टि अपनानी ही पड़ जाती है  क्योंकि यह भी आगाह किया  जा चुका है कि 'रहिमन देख बडेंन को लघु न दीजिये  डार जहाँ काम सुई करे कहाँ करे तलवार!

मगर जब आप किसी को ज्यादा प्रोत्साहित करते हैं और अगर वह पर्याप्त विवेक वाला नहीं हुआ  जैसा कि अक्सर होता ही है तो आपके दिए सम्मान/संपत्ति  को वह 'टेक फार ग्रांटेड' ले लेता है ...और आपके किन्ही कारणों से दूरी बनाते ही वह आक्रामक और डिमांडिंग होने लगता है -बढ़त बढ़त सम्पति सलिल मन सरोज बढ़ जाय ,घटत घटत पुनि न घटे बरु समूह कुम्हलाय वाली स्थति  प्रगट हो उठती है ..नव युवाओं में अमूमन बहुत सी सकारामक बातें तो होती हैं मगर उनका बहुत जल्दी नेम फेम पा जाने ,जल्दी ही धनाढ्य और पूज्यनीय होने की प्रवृत्ति जो इन दिनों उफान पर है ,उन्हें काफी धक्के भी देती है -स्थायी सफलता का कोई शार्ट कट रास्ता नहीं होता ...इसे बार बार कहने की जरुरत नहीं है ...मुझे तो लगता है अपने लक्ष्य के प्रति  निरंतर प्रयासरत रहना ,अपने से योग्य बड़ों का बिना संशय सम्मान ,विनम्रता और  कार्य आचरण की इमानदारी आज के युग में भी सफलता के सूत्र हैं ...

ये विचार कई दिनों से मन में उमड़ घुमड़ रहे थे मगर आज ज्यादा प्रबल होकर आपके सामने प्रस्तुत हो गए ..निश्चय ही आपका मंतव्य पहले की ही तरह मुझे इस मुद्दे पर लाभान्वित करेगा..

बुधवार, 16 मार्च 2011

क्या हम जापानियों का यह जीवन दर्शन अपना सकते हैं?

भयंकर भूकंप ,सुनामी ,नाभकीय विकिरण ,ज्वालामुखी और अब भारी बर्फबारी से जापान में  भीषण जन धन हानि और राहत कार्य में आ  रही बाधाओं ने मन को विकल सा कर दिया है. प्रकृति का इतने बड़े पैमाने पर नरमेध  जीवन के प्रति एक वितृष्णा उत्पन्न करता है. जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास गहन हो उठता है. किन्तु आपने समाचार चैनेलो पर देखा होगा कि घटना  का विवरण  देते हुए अधिकाँश  जापानियों के चेहरे भावहीन हैं -वे दुःख से पीड़ित नहीं दिखते . और न ही वे घबराहट से भरे हैं -न कहीं लूटपाट और न हीं कहीं छीना झपटी का कोई दृश्य जबकि प्रभावित शहरों में उनका सब कुछ लुट  गया है -सगे संबंधी काल के मुंह में समां गए हैं .मगर फिर भी ज्यादातर जापानियों के चेहरे  पर आशा और विश्वास की आभा है ...कितने दिलेर हो सकते हैं ये जापानी! 
 गह मोन जीवन दर्शन से प्रेरित एक जापानी कला कृति 

ऐसा आत्मविश्वास और तटस्थ कर्मयोग तो  गीता के उपदेशों में वर्णित है .अब जापानियों के जीवन दर्शन में मेरी रूचि बढ़ चली थी ..मैंने उनकी संस्कृति के मुख्य बातों को जानने  के लिए अंतर्जाल को खंगालना शुरू किया और जो सामने आया आपके साथ बांटने का मन हो आया ...दरअसल जापानियों की संस्कृति और आचार व्यवहार में एक मुख्य घटक या उसे उनका जीवन दर्शन भी कह सकते हैं -Gaman (उच्चारण गह मोन  )  कहलाता है - मतलब कितना भी विपरीत समय न आ  जाय घबराना नहीं है ,अधीर नहीं होना है ,भावनाओं का इजहार नहीं करना है .हिम्मत से परिस्थितियों का सामना करते जाना है .न किसी से कोई गिला न कोई शिकवा .. ऐसा नहीं है कि उनमें भावनाएं नहीं हैं या घर  के ही किसी अजीज के बिछड़ जाने का सदमा नहीं पहुंचा है ...यह सब स्थितियां है मगर उसका प्रदर्शन नहीं है ...असहायता ,निरीहता का प्रगटीकरण नहीं है .भावों पर बचपन से अभ्यास करके लगाया  गया अंकुश उनके चेहरे पर  स्वाभिमान और गरिमा की झलक बनाये रखता है . गह  मोन घोर विपत्ति में भी मानव चेतना की अभिजात्यता /कुलीनता का मानो एक उत्सव है ..चाहे कुदरत का कहर हो ,राष्ट्रीय या पारिवारिक आपदा वे हर समय सौम्य ,दृढ प्रतिज्ञ बने रहते हैं -शायद   गीता के "स्थिति प्रज्ञ'   होने का सबसे व्यावहारिक उदाहरण ये जापानी अपने इस गह मोन  जीवन दर्शन के जरिये   ही प्रस्तुत करते हैं .

उनके लिए सब कुछ ठीक होने का भाव स्थाई है -असह्य स्थति को भी गरिमा और सम्मान से बिना समझौता किये सहते जाना ! उनका साहस ,संघर्ष और  सहने की क्षमता विलक्षण है .उनकी कुछ कलाकृतियों में भी इसी जीवन दर्शन का भाव आरोपित होता है जैसे कि  ऊपर  काठ की बनाई गयी ये चिड़ियाँ जो विपरीत परिस्थितियों से अनवरत संघर्ष और उनसे उड़ कर मुक्त होने का प्रतीति कराती हैं .गमन में राष्ट्र के लिए ,समाज के लिए मर मिटने /प्राणोत्सर्ग का भाव भी है! अब ऐसे जीवन दर्शन को बिना करनी और कथनी के भेद के जीवन में आत्मसात करने वाली कौम अगर पूरी धरती पर अपने विकास और समृद्ध आर्थिकी का झंडा बुलंद किये हुये है तो इसमें कैसा आश्चर्य? क्या हम इन गुणों को अपना सकते हैं ? क्या हम भी गह मोन जीवन दर्शन के अनुयायी हो सकते हैं? आईये मनन करते हैं!
इस लेख को  भी देखिये :

जापानी चरित्र

शनिवार, 12 मार्च 2011

सुनामी का सितम :सवाल और सबक

सुनामी का सितम :सवाल और सबक

आज तो बस यही दिमाग में उमड़ घुमड़ रहा है -कृपया इस पोस्ट को पढ़ें और अपने विचार भी यहाँ ,वहां जहाँ सुविधाजनक समझें दें!यह एक वैश्विक मुद्दा है और मानवीय जिजीविषा के समक्ष एक बड़ी चुनौती.

                     क्या  उन्नीस मार्च को चाँद कहर बरपायेगा? 

इसे भी पढ़ लें कृपया!  

और अब यह तरोताजा रिपोर्ट भी 

जापान में परमाणु प्रकोप की बढ़ती आशंका  

गुरुवार, 10 मार्च 2011

कहीं टिप्पणी -दरिद्रता तो कहीं टिप्पणी दरिया दिली!

कल की संजीदगी भरी चर्चा के बाद आज कुछ हल्का फुल्का हो जाय.. जो लोग वहां खुलकर चर्चा नहीं कर पाए यहाँ आमंत्रित हैं.  मेरे एक मित्र ने सुबह सुबह फोन करके बताया कि इग्नू  में कोई शोध गाईड हिन्दी ब्लॉग टिप्पणियों में जेंडर भेद रुझानों पर किसी स्टुडेंट को एक प्रोजेक्ट सौंपे हैं ....उन्होंने कुछ आरम्भिक नतीजों का जिक्र भी किया जो मुझे बहुत रोचक लगे ..सोचता हूँ आपसे साझा करूँ ...इस जोखिम को उठाकर कि इस तरह के लेखन से कुछ मित्र गण नाराज होंगें जैसा कि पहले भी हो चुके हैं ...मगर सच बताऊँ ये बातें केवल कहने के लिए ही होती है मन से नहीं होतीं ..लोग बाग़ अनायास ही बुरा मान जाते हैं ....इस बार तो मैं यह भी दावा त्याग कर देता हूँ कि किसी भी ब्लॉगर से इसका कोई सम्बन्ध है -यह शोध अध्ययन महज मानवीय प्रवृत्ति का एक अध्ययन भर है -किसी के प्रति कोई असम्मान ,कटाक्ष अभिप्रेत नहीं है ...

 हिन्दी ब्लागजगत में टिप्पणियाँ बहुत पक्षपात पूर्ण होती ज़ा रही हैं -पुरुष ब्लागों पर एक दो शब्दों में ही बात निपटा देने वाले सुधी जन नारी ब्लागों पर कई कई पैराग्राफ की टिप्पणियाँ दे आ  रहे हैं....कभी कभी तो ऐसा लगता है कि वे अपने  जीवन ज्ञान का समस्त निचोड़ ही वही दे आये हैं ...कई मामलों में तो यह भी लगने लगता है कि टिप्पणी मूल पोस्ट से भी अधिक जगह घेरने का रुख अख्तियार कर रही है ... टिप्पणीकर्ता को जब अचानक यह महसूस होता है तो वह उसी पोस्ट पर दूसरी तीसरी टिप्पणी भी कर देता है ..एक बार तो एक टिप्पणीकर्ता ने एक  पोस्ट पर ७ टिप्पणियाँ की जिन्हें पढने पर लगा कि वे अभी भी पूरी तरह से व्यक्त /निचुड़ नहीं पाए हैं ...तो फिर उन्होंने उसी ब्लॉग की अगली पोस्ट पर  विषय को देखे बिना ही अपनी अधूरी भड़ांस पूरी की -पुराने विषय की ही टिप्पणी पहले की ..फिर नए पोस्ट की सुध ली ! 

यह प्रवृत्ति अब इतना विस्फोटक रूप लेती जा रही है कि गाढी मित्रता भी छोड़कर लोग बाग़ अपने मित्रों की पोस्ट पर एक लाईन की टिप्पणी दे रहे हैं तो अपने प्रिय  ब्लागरों की पोस्ट पर  पूरी काव्य गाथा  ...क्या सचमुच पुरुष ब्लॉगर इन दिनों बहुत घटिया लिख रहे हैं ? .. वैसे मैंने खुद यह देखा है कि यह अंतर तो है और इन दिनों ....सचमुच कुछ नारी ब्लॉगर बहुत अच्छा लिख रही हैं और उन्हें प्रोत्साहन की उतनी जरुरत भी नहीं है जितना उदात्त  प्रोत्साहन उन्हें मित्र गण दे रहे हैं ...मेरे एक मित्र को तो पिछले दिनों यह भ्रम भी हो गया था कि कहीं कुछ कमनीय ब्लॉगर प्रेत लेखन के शरण में तो नहीं चले गए हैं -मतलब उनके लिए कोई और कुर्बानी दे रहा है -एक शायर की बात याद हो आयी -भौरों से गीत लेकर कलियाँ गुनगुना रही हैं ,दाद देने वाले दाद दे रहे हैं ....

इन्ही प्रवृत्तियों से दुखी होकर कुछ मित्रों ने टेम्पररी सुसाईड भी कर लिया मतलब अपने ब्लॉग की खिड़कियाँ ही बंद कर ली जहाँ से विचारों के नए झोंके आते जाते थे मतलब टिप्पणियों का आदान प्रदान होता था ...भले ही हमारे वेद कहते रहें कि आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु  विश्वतः -लेट नोबल आयिडियाज कम टू  मी फ्राम आल सायिड्स आफ द वर्ल्ड ....दुनियाँ के सभी कोनों से सद्विचार मेरे पास आयें -- भैया मेरे ,अगर टिप्पणी बक्सा परमानेंटली बंद ही कर लिए तो क्या ख़ाक आयेगें विचार - तेरे ब्लॉग की  टेम्पोरेरी सुसाईड की गति हो गयी मेरे भाई! तूने सुना नहीं -घूंघट के पट खोल तुझे राम मिलेगें ....पुरुष ब्लॉगर मित्रों की गति यह हो चली  है और नारी ब्लागों में टिप्पणियों की बहार है -कहीं खुशी तो कहीं गम!अब यह सब देख समझ कर दुःख होता है मित्रों .....यह कौन सी सम्यक दृष्टि है ? कैसी समदर्शिता है ? टिप्पणियों में भी पक्षपात! कहीं टिप्पणी -दरिद्रता  तो कहीं टिप्पणी दरिया दिली! 


 भैया टिप्पणियों की दरियादिली का तो यह आलम है कि अकबर इलाहाबादी का वो शेर याद आ गया -मेहरबानों  की तबीयत का अजब रंग है आज ,बुलबुलों की ये हसरत  कि वे उल्लू न हुए .....कई बिचारे बोहनी को अगोरे बैठे हैं और कहीं टिप्पणियों की बरसात ....बहुत नाइंसाफी है यह ....और ऐसे में यह बड़ी वाजिब बात है कि-कई दौर चल चुके हैं मुझे क्यों न हो शिकायत, मेरे पास मेरे साकी अब तक न जाम आया .....


सोमवार, 7 मार्च 2011

अथातो न्यूड जिज्ञासा ...(A)

 माओ और लादेन के साथ निर्वसना अरुन्धती -कला या विकृति ?
इन दिनों चर्चित लेखिका अरुंधती राय के एक निर्वसन पेंटिंग को लेकर गर्मागर्म बहस छिड़ी है ...दिल्ली के एक उदीयमान चित्रकार प्रणव प्रकाश ने यह काम अंजाम दिया है ....मगर इस पेंटिंग के पीछे एक नकारात्मक विचार है -चित्रकार अरुंधती राय के कश्मीर मुद्दे  और नक्सली मामलों पर दिए गए वक्तव्यों से खिन्न है -लिहाजा अपनी तूलिका से उसने अपने रोष को व्यक्त किया है . यह एक खतरनाक बात है -असहमतियों का इस तरह प्रस्फुटित होना शायद ही उचित माना जाय ....भले ही न्यूड , पेंटिंग की अन्य विधाओं की भांति एक सृजन कर्म है किन्तु प्रतिशोध की भावना से कला के उदात्त स्वरुप और उद्येश्य को ही बाधित कर देना उचित नहीं कहा जा सकता ....न्यूड या इरोटिका का एक पक्ष सौन्दर्यबोध से जुड़ा है और वह स्वीकार्य हो  सकता  है -मगर अरुंधती राय की यह पेंटिंग किसी भी दृष्टि से सहज कलाकर्म नहीं है ,नारी की निजता और गरिमा पर भी चोट है ....एक बलात्कारी की भी सोच नारी की गरिमा और चरित्र के  हनन की ही होती है ..एक ब्लॉग पर इस मुद्दे को उठाया गया तब मैंने इसके विविध पहलुओं की पड़ताल की और अब जाकर इस  निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ की चित्रकार का यह कृत्य भर्त्सना योग्य है ....किन्तु इस मुद्दे पर प्रायोजित संकीर्ण सोच से ऊपर उठ कर वस्तुनिष्ट तरीके से कोई निर्णय लेना होगा ...
 उत्तमा जी की कामायनी श्रृंखला  की एक चर्चित कलाकृति

अपने ब्लॉग जगत में पेंटिंग -कलाकर्म से जुडी है उत्तमा दीक्षित जी जिनसे मुझे मिलने का सौभाग्य मिला हुआ है और कामायनी थीम पर उनके कुछ न्यूड ब्लागजगत में चर्चा के विषय बन चुके हैं- अब इस नए इस मुद्दे पर मैंने उनकी राय जाननी चाही -मैंने फोन किया तो वे बनारस के व्यस्त सिगरा क्षेत्र में थीं और अगर शापिंग में नहीं तो फिर ट्रैफिक जाम में फंसी हुयी लगीं -अब इन मुद्दों पर सड़क चलते क्या बात करना मगर उनकी सदाशयता कि उन्होंने इतने संवेदनशील मुद्दे को भी सहजता से लिया और अपने विचार व्यक्त किये . उन्होंने कहा -" महज  चर्चा में आने के लिए  किसी भी सेलिब्रिटी को  न्यूड का सब्जेक्ट बनाना अनुचित और आपत्तिजनक है ..और शायद यह आपराधिक दंड के प्रावधानों के अधीन भी आ सकता है -महानगरो के कलाकार कई बार खुद के अच्छे कार्यों के लम्बे समय तक अभिस्वीकृत (रिकगनायिज ) न होते देख भी निराशा में भरकर ऐसे हथकंडो को तात्कालिक नेम और फेम पाने के लिए उठाते हैं जो दरसअल लांग रन में उनके लिए ही प्रतिगामी (काउंटर प्रोडक्टिव )  हो उठते हैं ...ऐसी  तात्कालिक शोहरत पाने की प्रवृत्ति से नए कलाकारों को बचना चाहिए -हुसैन की नक़ल एक नए कलाकार के लिए आत्मघाती हो सकती है अगर उसका काम एक विकृत मानसिकता लिए हुए है ......" 
राजा रवि वर्मा की कालजयी कृति :सद्यस्नाता

जाहिर है मैं उत्तमा जी के विचारों से शब्दशः सहमत हूँ....न्यूड या इरोटिका का उद्येश्य अगर नैसर्गिकता को उभारना हो -शुद्ध सौन्दर्यबोध का उत्प्रेरण  हो तो एक कलाकृति के रूप में उसका स्वागत हो सकता है मगर किसी को नीचा दिखाने ,उसे मात्र दैहिकता तक ला  प्रस्तुत करने और केवल दृश्य रति के लिए ही ऐसे कलाकर्म का प्रोत्साहन निंदनीय है ...नारी पुरुष के  नग्न शरीर की विभिन्न स्थितियां ,कोण  और परिवेश मनुष्य में कई मनोभावों  को उकसा /उपजा सकती है -वह रागात्मक हो सकता  है और बुद्ध का वैराग्य भी -यह दृश्य के साथ ही द्रष्टा की मनःस्थति और अभिरुचि पर निर्भर करता है ...अतिशय देहरति मनोरोग का भी संकेत है -जहाँ कामुकता का व्यामोह/प्राबल्य  कई रोगग्रस्त प्रवृत्तियों के रूप में प्रगट हो सकता है!यह एक व्यसन बन सकता है और मनोचिकत्सा की मांग   भी कर सकता है ..पोर्नोग्राफी साहित्य /चित्र में  अतिशय  रति / बहु स्त्री गमन की प्रवृत्ति ऐसी ही मानसिक व्याधियां हैं .....नारी या पुरुष का शरीर महज वस्तु मात्र नहीं है -बड़े जतन मानुष तन पावा! 

गुरुवार, 3 मार्च 2011

इलाहाबाद की एक शाम- लक्ष्मी टाकीज ,विवाह मंडप और किसिम किसिम के पकवान

पिछले बाईस फरवरी की शाम इलाहाबाद के नाम करते हुए मैंने यह नहीं सोचा था कि वह भावनाओं की  एक विविधता भरी  सौगात मुझे सौंप देगी ...अपने पुरनिया मित्र आर एन चतुर्वेदी जी की बिटिया पारुल का व्याह था और हमें कन्या पक्ष की तरफ से बरात की अगवानी करनी थी -परिस्थितियाँ बहुत विपरीत थीं मगर मैं जाने से मुक्त  नहीं हो सकता था ..मित्रता और मौके की पुकार थी, लिहाजा शाम तक पहुंच ही गया इलाहाबाद ...अपने अल्मा मैटर की नगरी में ...रास्ते में मोबाईल से फेसबुक में टिपियाया भी -इन सिटी आफ त्रिवेणी इन सर्च ऑफ़ विजडम -यह एक चुग्गा  था अगर कोई नया पुराना  ब्लागराना प्रेमी आ फंसेगा तो साथ बोल बतिया भी लेगें ...और बाद के  उन  रस्मी उलाहनों से भी बच लेगें कि आप मेरे शहर आये और मुझे बताये भी नहीं -ऐसे रस्मी मनुहारों की काट मैंने अब इस रूप में निकाल ली है कि भैया मैंने तो पहले ही घोषित कर दिया था ..बहरहाल ....कहने वाले तो यह कह गए /कहेगें कि वो मेसेज तो मैंने बहुत बाद में देखा! एक ने कहा भी ...

निमंत्रण कार्ड में उपस्थिति का समय ७ बजे लिखा था और मैं  घड़ी की सुई के सात पर पहुँचते ही विवाह स्थल पर पहुँच गया -भव्य पंडाल की इन्द्रधनुषी तैयारियां जोरो पर थीं जिसे देखते ही लगा कि अभी काफी समय लगने वाला है और मित्र भी बरात के आवाभगत की जरुरी तैयारियों में अन्यत्र व्यस्त थे तो मैंने सोचा कि चलो उन गलियों को ही तनिक निहार लिया जाय जहां जीवन के कितने ही बसंत रीत गए थे ....विवाह मंडप रायल गार्डेन के निकट ही एक स्मारक अपनी और ललचा रहा था -लक्ष्मी टाकीज ...कितनी ही  निरुदेश्य शामें यहाँ बीतीं थीं हमारी -मैं यादों के वातायन में खो गया ....

अपने पोस्ट ग्रेजुएट के दिनों की कितनी ही बातें -बगल के काफी हॉउस में जीवन के सपने और हसरतों को लिए काफी की चुस्कियां ,दोस्तों ( मेरे क्लास में ७ छात्र और २३ लडकियां थीं ) के साथ लक्ष्मी टाकीज में देखी रूमानी फिल्मे, पहला क्रश .... सब बेसाख्ता  याद आये ....मगर लक्ष्मी टाकीज बंद था -पता लगा कि यह कुछ  वर्षों से  विवादों के कारण बंद हो गया है ..बगल की  मैगजीन की दुकान बंद थी ..पूछा यह क्यों बंद है तो बताया गया कि यह तो मंगल को बंद ही रहती है ....और मुझे भी यह याद हो आया..बुजुर्ग सेल्स मैंन गुजर चुके थे यह भी पता लगा -पान की दुकान अलबता  खुली मिली और वही  पान वाला भी.... मैं पहचान गया -उम्र उसके सर चढ़ बोल रही थी ....मैंने जब उसके समय की बातें छेड़ी तो वह भावुक सा हो उठा -आश्चर्य है कोई तीस वर्षों बाद भी उसकी आर्थिकी स्टैटिक थी .....यह सब देख मन बहुत विरही विरही सा  उठा .....एक पान लेकर मुंह में घुलाया और वो  जुमला कुछ उल्टा सा लगने लगा कि वे गलियाँ आज  भी जवान हैं जहाँ मैंने अपनी जवानी लुटा दी :)..यहाँ तो मामला ही बिलकुल उलट था वे गलियाँ उजाड़ सी हो गयीं थीं और मैं मेरी ख्वाहिशें आज भी बलन्द थीं ...

यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ तो फिर रायल गार्डेन आया ..बारात का आना तो अभी भी विलम्बित था ..मगर मित्र अंकवार भर मिले और विगत दो दशकों के कई और भी यार दोस्त मिल गए -गप बाजी  का  दौर शुरू हुआ और उधर विविध व्यंजनों का डिस्प्ले भी शुरू हो गया ....अभी कुछ ही वर्ष पहले तक मैं बेटी  की शादी यानि लडकी की और से निमंत्रित होने पर  कुछ नहीं खाता था ....यह एक परम्परा रही है मगर अब सब गडड मड्ड हो गया है..मित्रों ने जबरदस्ती खींच कर पकवानों के सामने ला खड़ा किया ..शादी व्याह के अवसर पर व्यंजनों की श्रृखला निरंतर कल्पनापूर्ण ,सुरुचिपूर्ण और वैविध्यपूर्ण होती जा रही है ...इस क्षेत्र में तो पांच सितारा होटलों के मीनू भी फेल समझिये -जबरदस्त इम्प्रोवायिज़ेशन .....क्या कहने!
नहीं नहीं  यह डोसा नहीं चिल्ला है ......
अभी तो स्टार्टर आईटमों का ही दौर था ..एक से एक नए व्यंजन.कुछ तो मुझे याद भी हैं -पनीर सौटे (saute ) ,मशरूम आलू और अरवी भाजी ,पाव भाजी ,फ्राईड राईस और मंचूरियन ,चिल्ला -चटनी ,आलू टिकिया ,गोलगप्पा, एक ख़ास बेसन की पपड़ी जिसे इलाहाबाद में करेला कहते हैं ,मठरी और सबसे बढ़कर लाजवाब इटालियन पास्टा -इधर की व्याह शादियों का नया रंगरूट ....
 और  यह रहा इटालियन पास्टा बनाने की सामग्री -क्या क्या नहीं, आलिव फ्रूट ,ब्रोकली और आप खुद पहचानिए

मैने इन सभी आईटमों को चखा और कुछ के फोटो भी लिए ...इन सब के अलावा कई तरह के पेय -सुगन्धित दूध ,माकटेल ,आईसक्रीम, सूप आदि तो बैरे लेकर टहल ही रहे थे ..बैरे कुछ और भी पनीर आदि के प्रेपरेशन ट्रे में लिये सर्व कर रहे थे ....

 और तुम क्या लिए हो भाई ?
मुझे वापस बनारस पहुचना था ...इसलिए मुख्य खाने का मीनू नहीं देख सका ....बिटिया पारुल को अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देकर ११ बजे लौट पड़ा .. पूरी सज धज और नाच गाने के साथ बारात अब  मंडप में प्रवेश कर रही थी ....

मंगलवार, 1 मार्च 2011

सात खून माफ़ उर्फ़ सुसन्ना'ज सेवेन हस्बैंड्स:एक लीक से हटी मगर बाक्स आफिस पर पिटी फिल्म

ऐसा संयोग ही रहा कि बहुत कम समय के अंतराल पर दो लीक से हटी मगर बाक्स आफिस पर पिटी फिल्मे झेलनी पडीं -एक तो धोबीघाट और अब दूसरी यह सात खून माफ़ जो दरअसल भारत में रच बस गए ब्रितानी लेखक रस्किन बांड की कहानी सुसन्ना'ज सेवेन हस्बैंड्स पर आधारित है -दीगर फ़िल्मी डिटेल्स यहाँ देख सकते हैं. फिल्म घोर आर्टिस्टिक  और बारीक मनोभावों की सेल्युलायिड -प्रस्तुति है और एक ख़ास तरह की संवेदना के  साहित्यिक और 'अभिजात्य 'अभिरुचि के दर्शकों को ही पसंद आयेगी ...

 कहानी एक सच्चे प्रेम की प्यासी औरत की कहानी है जिसने अपने छह  पतियों को उनसे मिली बेरुखी और बेवफाई के चलते मौत की नींद सुला दिया ...और अंत में जीसस क्राईस्ट से ही निकाह कर एक रूहानी /सूफियाना प्रेम को समर्पित हो गयी .यह फिल्म साहित्य की डार्क कामेडी विधा की नुमायन्दगी करती है जिसमें जीवन के नग्न सत्यों की कटाक्ष और परिहास पूर्ण प्रस्तुति की जाती है -जहां विद्रूप  हास्य और  नग्न सत्य का  मिला जुला प्रभाव   एक पीडा भरी अनुभूति  दे  जाता है और जीवन की निरुद्येश्यता और निस्सारता  का बोध भी करा देता  है ....सुजैना की केन्द्रीय भूमिका में  प्रियंका  चोपड़ा ने एक अभिशप्त नारी के त्रासदपूर्ण लम्बे जीवन  को बहुत प्रभावशाली तरीके से अभिनीत किया है ...सच्चे प्रेम की अभिलाषी एक नारी का सपना पहले ही विवाह में चूर चूर हो जाता है जब उसका सेनाधिकारी पति अपनी संतानोत्पत्ति की कमी को पौरुष दंभ के तहत स्वीकार न कर पत्नी पीडक बन जाता है और पत्नी का जीवन नारकीय बना देता है ...उसे एक हिंस्र काले तेंदुएं के आगे झोक कर सुजैना उससे मुक्त हो लेती है ...फिर तो पतियों का आया राम गया राम का एक सिलसिला ही शुरू हो जाता है ,अब एक सिंगर पति को अपनी बेवफाई और नशे के सेवन के चलते जान से हाथ  धोना पड़ता है  तो  एक शायर पति ऊपर से तो बड़ा नाजुक मिजाज मगर निजी जीवन में  परपीडक कामुकता ( सैडिस्टिक मैसोकिज्म ) का शिकार है जिसे गहन निजी क्षणों में बिना पत्नी को पीटे यौनिक आनन्द नहीं मिलता -उसे भी जिन्दा कब्र में सुलाने के बाद पारी आती है एक पुलिस आफीसर की जिसे लगातार हो रही पतियों की मौत से कुछ शंका हो जाती है मगर  वह भी शादी के जाल में खुद को डाल पाने से रोक नहीं पाता जबकि एक विवश पूर्व पतिहंता नारी उसे बार बार अबाध यौन सुख दे देकर संतृप्त करती रहती है ....मगर मुर्गी के सुनहले  अंडे के बजाय पूरी मुर्गी हडपने को कामातुर यह हतभाग्य पति भी अपने वियाग्रा प्रेम की भेंट चढ़ जाता है -मादक पेय में चोरी से एक बड़ी वियाग्रा डोज के चलते मैसिव हार्ट अटैक से उसकी भी इहलीला समाप्त हो जाती है ..अगला  पति बेवफाई के चलते कोबरा से कटवाकर मार दिया जाता है ....और उसके भी अगले का भेजा गोली से उड़ा दिया जाता है ..प्रतिशोध सुन्दरी का कहर उसके पतियों पर टूटता रहता है...... 
प्रतिशोध सुन्दरी!


यह कहानी एक युवा डी एन ये  वैज्ञानिक और चिकित्सक  अपनी पत्नी को सुनाता चलता है जिसे सुजैना ने ही आर्थिक मदद देकर उसकी शिक्षा दीक्षा पूरी कराई है ...और एक दिन जीवन से पूरी तरह  निराश और हताश और मोहभंग हो उठने की मनःस्थिति में  सुजैना उसे ही अपना शरीर सौंपने को तत्पर हो उठती है जबकि उम्र में काफी कम और  उसका ही पाल्य युवा डाक्टर  यह पेशकश तीव्र आक्रोश से ठुकरा देता है यद्यपि वह भी सुजैना के प्रति आकर्षित है मगर उसका प्यार रूहानी है और उसके मन में सुजैना के प्रति अपार सम्मान भी है -इस युवा डाक्टर के ठुकरा दिये जाने के बाद सुजैना जीवन से पूरी तरह विमुख अपनी अंतिम शादी एक चर्च में जीसस से एक पादरी की उपस्थिति में करती है जो स्वयं रस्किन बांड द्वारा ही अभिनीत पात्र है. मतलब लेखक महाशय खुद अपनी कहानी में ही एक किरदार बनकर नमूदार हो जाते हैं ...

फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है उसका लचर निर्देशन जो पात्रों के जबरदस्त अभिनय के बाद भी दर्शकों को बांध पाने में असफल रहती है  ...एक तो कहानी में कोई उत्सुकता का भाव नहीं है ..सभी यह जानते रहते हैं कि अगले पति को भी हलाल होना ही है ...मगर हाँ ,फिल्म इसाई ,इस्लामी और हिन्दू रीति रिवाजों,प्रतीकों,संस्कृति के विविध आयामों के आमेलन की प्रभावशाली प्रस्तुति से एक अलग ही छाप छोडती है ..रस्किन बांड एक वृत्तांत और मजमा प्रेमी लेखक हैं जिन्हें भारतीय कोबरा ,जंगल में शिकार ,मशरूम की एक मादक प्रजाति से एक लगाव सा रहा है ....और जीवन के कुछ नग्न यथार्थों और छलावों /मुगालतों की ओर इशारा करना वे अपना लेखकीय दायित्व मानते हैं -मूल कृति निश्चित ही एक क्लासिक है मगर उसका फिल्मांकन ठीक से नहीं हो पाया है ....लचर निर्देशन ने कहानी की रेड़ मारकर रख दी है ...जबकि दृश्यांकन खूबसूरत हैं ...सुजैना का  एक डायलाग कि दुनिया की हर औरत कभी न कभी अपने पति का कत्ल करने की सोचती है होठों पर बरबस ही एक विद्रूप मुस्कान ला देती है ....

कहानी के बजाय अगर आपकी रूचि दृश्य -विभोरता में हो   तो जाईये देख आईये यह फिल्म ...तीन स्टार तो मुझे देना ही होगा इसे ...

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