बुधवार, 17 सितंबर 2014

एक अदद उद्धव की तलाश है!

कभी कभी सोचता हूँ कृष्ण को आखिर उद्धव की जरुरत ही क्यों पडी होगी ? गोपियों से अपने गोपन संबंधों को किसी और से साझा करना? और इसकी इतनी जरुरत भी क्या थी द्वारिकाधीश को? फिर उद्धव की जरुरत इसलिए भी नहीं समझ आती कि वे तो खुद लीला पुरुष थे और इसलिए हर पल हर वक्त सर्वगामी सर्वव्याप्त भी। वे अपनी योगमाया से द्वारिका और मथुरा -वृन्दावन एक साथ ही रह लेते। उनके लिए यह कहाँ असंभव था? अब अध्यात्मवादी यहाँ यही जवाब देगें कि यह तो उनकी 'लीला' भर थी. सचमुच यह लीला ही रही होगी और वे गोपियों और राधा के प्रति थोड़ा नैतिक आग्रह भी रखते रहे होगें -यह कृष्ण का एक उज्ज्वल पक्ष लगता है। और इसलिए अपने एक अति विश्वस्त सखा को उन्होंने संदेशवाहक बना कर भेजा।

अब आज के विरही प्रेमियों जैसी आशंका उन्हें थोड़े ही रही होगी कि उद्धव कहीं अपनी ही दाल न गलाने लग जायं । उद्धव ने प्रयास भी किया हो तो कृष्ण -प्रेमिकाओं ने एकदम से इस संभावना को निर्मूल कर दिया और कहा की हे उधो मन दस या बीस नहीं होते -हताश निराश उधो की इसके बाद की कथा का कोई खास इतिहास नहीं मिलता। पता नहीं वे लौट कर कृष्ण के पास गए भी या नहीं। गोपियों का कृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण का यह एक प्रमाण है। मगर कृष्ण का प्रेम? छलिया कृष्ण?

मगर एक नैतिकता तो थी ही उनमें -कुछ तो खुद को जवाबदेह समझा गोपियों का -सोचा होगा बिचारियां वियोग में तड़प रही होगीं। तो खुद क्या जाना अब, किसी संदेशवाहक को ही भेज दो. बस इतनी नैतिकता से काम चल जायेगा। भोले लोगों को और क्या चाहिए? उन्हें मनाना कित्ता तो आसान होता है। उन्हें यह भी फ़िक्र थोड़े ही थी कहीं उद्धव अपना किस्सा चलाये तो चलायें मेरी बला से। और फिर इतना घणा सखा तो रहा है मेरा आखिर प्रेम रस -रास से यह भी इतना अछूता क्यों रहे बिचारा। इधर बिचारा उधर कितनी ही बिचारियां-कोई चक्कर वक्कर चल भी जाय तो थोड़ा इसका भी कल्याण हो जायेगा। तो कृष्ण की एक नैतिकता अपने सखा के प्रति भी रही होगी।

मुझे लगता है कृष्ण और गोपियाँ हर देश काल में रही हैं। मगर कोई उद्धव नहीं दिखता। लव जिहाद का युग है। सब कुछ खुद करने कराने का ज़माना है नहीं तो बात बिगड़ सकती है। मुझे लगा कि उद्धव की खोज होनी चाहिए। किसी कोने अतरे में हो सकता है सिमटा दुबका मिल ही जाय। मैंने अपने मित्रों में से तलाशा। एक ने तो तत्काल इस उद्धव वालंटियरशिप का ऑफर स्वीकार कर लिया। उसने अतीव उतावलेपन से तुरंत पूछा जाना कहाँ और किसके पास होगा?

मगर उसकी तत्परता ने मुझे उसके सख्यपन को लेकर गंभीर आशंका में डाल दिया -नहीं नहीं यह मेरा उद्धव नहीं हो सकता। मुझे पुरुष मित्रों में से कोई उपयुक्त नहीं लगा उद्धव बनने के लिए। एक मित्राणी ब्लॉगर ने वालंटियर बनने का आग्रह किया। मगर यहाँ भी खतरा है -गोपियाँ और राधा तो जल भुन जायेगीं -क्या क्या न कह डालें मेरी मित्र को -कलमुंही वगैरह वगैरह जैसी अनुचित बातें -अपने कुनबे में तो ठीक मगर किसी बाहरी को तो वे रकाबा ही समझ जाएगीं-नहीं नहीं यह तो जले पर नमक जैसा हो सकता है। फिर वे तो जन्म से ही संशयवादी हैं -ह्रदय हमेशा आशंकाओं से धड़कता रहता है छलिया कृष्ण को लेकर। तो यह महिला मित्र का ऑफर भी जाँच नहीं रहा?

एक विश्वसनीय और उपयुक्त उद्धव की तलाश है जो गोपियों को असहज न करे -मेरी कोई मदद कर सकते हैं आप ?

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

पारम्परिक मीडिया बनाम सोशल मीडिया: नए आयाम, नई चुनौतियां! ( परिप्रेक्ष्य: हिन्दी दिवस)


मानव के विकास में उसके शिकारी जीवन के आदि हुंकरणों से शुरू हुई अभिव्यक्ति की महायात्रा के भाषाई पड़ावों का अध्ययन बहुत रोचक है। मनुष्य ने संवाद की दिशा में संकेतों/शिकारों ,हाव भाव(gestures ) का सहारा लेते हुए भाषिक संवाद की भी जो क्षमता विकसित की वह समूचे जीव जगत की अनूठी घटना है। एक सामजिक प्राणी के रूप में भाषाई ईजाद ने बोलियों वाक्यों की संरचना मार्ग प्रशस्त किया और मनुष्य आपसी संवाद समन्वय से विकास की एक अनन्य मिसाल कायम कायम की। अब उसके पास भावों के आदिम प्रगटन की भाव भंगिमाओं और अभिव्यक्ति के शैल चित्रीय या भोजपत्रीय माध्यमों के अलावा एक तेजी से विकसित हो रही भाषा का भी सहारा था जिसमें विश्व के प्राचीनतम वैदिक साहित्य की वाचिक और श्रुति परम्परा से आरम्भ होकर आज के डिजिटल मीडिया तक का इतिहास समाहित है। वाचिक / श्रुति परम्पराओं से आगे लेखन और मुद्रण तक का इतिहास सहज ही ज्ञेय है। मुद्रण माध्यमों ने जहां समाचार पत्र पत्रिकाओं,पुस्तको के जरिये जन संवाद का नया अध्याय शुरू किया वहां प्रसारण माध्यमों में दृश्य और श्रव्य दोनों तरीकों का खूब विकास हुआ -सिनेमा और आकाशवाणी ने जन संवाद की नई मिसालें कायम की। मीडिया के इन विविध रूपों से आम समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर तरह तरह आशंकाएं भी उठती रही हैं।
मीडिया और जन मानस

मीडिया के बारे में अक्सर यह बात कही जाती रही है कि वह जन विचारों को प्रभावित कर सकती है और समूह 'ब्रेन वाश' करने में भी सक्षम है। यहाँ तक कि विचारों को भी एक केंद्रीय कंट्रोल /कमांड के जरिये संचालित और नियमित भी किया सकता है. इन कथानकों पर कई कई साइंस फिक्शन फ़िल्में और उपन्यास आधारित हैं जो जनमानस और मीडिया के पारस्परिक अंतर्सबंधों की विविध संभावनाएं प्रगट करते हैं। जार्ज आर्वेल ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास 1 9 8 4 में 'बिग बास इज वाचिंग यू' जैसे दहशत भरे तकनीकी दुरूपयोग की ओर इशारा किया था। विगत डेढ़ दशक से नई मीडिया -डिजिटल मीडिया का वर्चस्व दिन दूनी रात चौगुनी दर बढ़ा है जिसकी ऑफशूट है -सोशल मीडिया। सोशल मीडिया कम्प्यूटर क्रान्ति की देन है। डिजटल दुनिया का एक नया जिन! अब सोशल मीडिया की लोक गम्यता क्या क्या गुल खिला रही है यह छुपा नहीं है. खाड़ी देशों की सद्य संपन्न जन क्रांतियाँ गवाह हैं। अभी संपन्न सामान्य निर्वाचन में भी सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल हुआ है। जिसके जन प्रभावोत्पादकता के मुद्दे पर बहस अभी भी जारी है।

चिट्ठे और सोशल मीडिया

अंतर्जाल पर जब हिन्दी ब्लॉगों का प्रादुर्भाव कोई एक दशक पहले नियमित तौर पर शुरू हुआ तो लगा अभिव्यक्ति के नए पर उग गए हैं। सृजनशीलता और अभिव्यक्ति जो अभी तक 'क्रूर' संपादकों के रहमोकरम पर थी सहसा एक नयी आजादी पा गयी थी। कोई क़तर ब्योंत नहीं -अपना लिखा खुद छापो। अंतर्जाल ने लेखनी को बिना लगाम के घोड़े सा सरपट दौड़ा दिया। खुद लेखक खुद संपादक और खुद प्रकाशक। लगा कि अभिव्यक्ति की यह 'न भूतो न भविष्यति' किस्म की आजादी है। अब संपादकों के कठोर अनुशासन से रचनाधर्मिता मुक्त हो चली थी ,लगने लगा। किन्तु आरंभिक सुखानुभूति के बाद जल्दी ही कंटेंट की क्वालिटी का सवाल उठने लगा. हर वह व्यक्ति जो कम्प्यूटर का ऐ बी सी भी जान गया पिंगल शास्त्री वैयाकरण बन बैठने का मुगालता पाल बैठा। नतीजतन 'सिर धुन गिरा लॉग पछताना' जैसी स्थिति बन आई. ब्लॉग को साहित्य मान बैठने का भ्रम टूटने लगा है -यह एक माध्यम भर है या फिर साहित्य की एक विधा इस विषय पर भी काफी बहस मुबाहिसे हो चुके।

क्या हिन्दी ब्लॉगों के अवसान की बेला आ गई ?

लगता है हिन्दी ब्लॉगों का अवसान आ पहुंचा है? -उनकी पठनीयता गिरी है -कई पुराने मशहूर ब्लॉगों के डेरे तम्बू उखड चुके हैं -वहां अब कोई झाँकने तक नहीं जाता। हाँ यह जरूर हुआ कि कई रचनाकारों को ब्लॉग और फेसबुक के चलते पारम्परिक मुद्रण मीडिया में पहचान मिली और उन्होंने इस नए मीडिया को लांचिंग पैड की तरह इस्तेमाल किया। किन्तु अंतर्जाल पर अपने चुटीले कार्टूनों से ब्लॉग जगत में विशिष्ट पहचान बनाने वाले काजल कुमार का कहना है कि "ब्‍लॉग और सोशल मीडि‍या आज भी अत्‍यंत सशक्‍त माध्‍यम हें. आज भी तथाकथि‍त ग्‍लैमर वाला मीडि‍या, ब्‍लॉगों और सोशल मीडि‍या की ख़बरों के बि‍ना जी नहीं पा रहा है. जब कुछ घटता है तो लोग उसी समय नवीनतम जानकारी के लि‍ए सोशल मीडि‍या पर लॉगइन करते हैं क्‍योंकि‍ यह त्‍वरि‍त है.बात बस इतनी सी है कि‍ जो लोग अख़बारों/पत्रि‍काओं में छप नहीं पा रहे थे उनके लि‍ए ब्‍लॉग एक नई हवा का झोंका लाया, ब्‍लॉगिंग को उन्‍होंने स्‍प्रिंगबोर्ड की तरह प्रयोग कि‍या और फि‍र वे यहां-वहां छपने लगे. उनकी मनोकामना पूर्ण हुई. दूसरे, आत्‍मश्‍लाघापीड़ि‍तों ने परस्‍पर-प्रशंसा के लि‍ए अपने-अपने गुट बना लि‍ए और मि‍ल-बांट कर आपस में छप और पढ़ रहे हैं. यह स्‍टॉक एक्‍सचेंज की ऑटोकरेक्‍शन जैसा है. इन सबसे, बहुत ज्‍यादा कुछ अंतर नहीं आने वाला... ब्‍लॉगिंग की अपनी जगह है बरसाती मेढक आते-जाते ही रहते हैं." अखबार भी जन मानस में पैठ बनाये हुए हैं। हाँ व्यापक रीडरशिप पाने के लिए कई मीडिया समूह अब अंतर्जाल पर भी जाकर अपना वर्चस्व बना लिए हैं।

डिजिटल डिवाईड

अंतर्जाल की सुविधा सहूलियत कितनो के पास है ? यह सवाल मौजू है। कितने लोगों के पास कम्प्यूटर और कनेक्टिविटी है ? बिजली की क्या उपलब्धता है -यही वे कारण हैं जिनसे यह आशंका बलवती हुयी की तकनीकी संचार से दो तरह की दुनिया वजूद में आ रही है -एक जिसके पास अंतर्जाल तक की पहुँच है और एक जिसके लिए अभी भी अंतर्जाल एक स्वप्न है -समाज में विषमता की एक नयी खाईं गहराती नज़र आ रही है -और जन सुविधाओं का आबंटन भी कहीं इस डिजिटल डिवाईड पर आधारित न हो जाय ? वह प्रौद्योगिकी ही क्या जो जन सुलभ और बहुजन सुखाय बहुजन हिताय न हो ? ये सारे सवाल आज विचार मंथन के मुद्दे बने हुए हैं। यह सही है कि पारम्परिक मीडिया भी ऐसी सम्भावनाओं की आहट पाकर अब अपने को अंतर्जालीय संस्कृति की ओर मोड़ रहा है मगर यह भी सच है कि अंतर्जाल तक अभी भी जान सामान्य की पहुँच नहीं हो पायी है। मगर सोशल मीडिया ने एक संचार क्रान्ति का बिगुल जरूर फूँक दिया है!

फेसबुक का बढ़ता वर्चस्व

फेसबुक पर आबाद होने वाले ब्लागरों की संख्या काफी ज्यादा हो चुकी है .वे भी जो कभी पानी पी पी कर फेसबुक को कोसते और उसकी सीमाओं को रेखांकित करते रहते थे अब फेसबुक पर विराजमान ही नहीं काफी सक्रिय हो चले हैं और ब्लागिंग को खुद हाशिये पर डाल चुके हैं .तथापि उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता क्योकि यह 'मानवीय भूल ' बहुत स्वाभाविक थी और वे इस डिजिटल मीडिया की अन्तर्निहित संभावनाओं को आंक नहीं पाए थे जबकि इस विषय पर कई बार मित्र ब्लागरों का ध्यान आकर्षित किया गया था। आज भी यह बल देकर कहा जा सकता कि कि फेसबुक में ब्लागिंग से ज्यादा फीचर्स हैं और यह ब्लागिंग की तुलना में काफी बेहतर है .बहुत ही यूजर फ्रेंडली है . अदने से मोबाईल से एक्सेस किया जा सकता है .भीड़ भाड़ ,पैदल रास्ते ,बस ट्राम ट्रेन ,डायनिंग -लिविंग रूम से टायलेट तक आप फेसबुक पर संवाद कर सकते हैं . ज़ाहिर है यह सबसे तेज संवाद माध्यम बन चुका है . महज तुरंता विचार ही नहीं आप बाकायदा पूरा विचारशील आलेख लिख सकते हैं और गंभीर विचार विमर्श भी यहाँ कर सकते हैं। आसानी से कोई भी फोटो अपडेट कर सकते हैं . वीडियो और पोडकास्ट कर सकते हैं . ब्लॉगर मित्र तो इसे अपने ब्लॉग पोस्ट को भी हाईलायिट करने के लिए काफी पहले से यूज कर रहे हैं . वे पिछड़े हैं जो ब्लागिंग तक ही सिमटे हैं!

नाम अनेक काम एक 
दरअसल ब्लागिंग या सोशल नेटवर्क साईट्स -फेसबुक ,ट्विटर आदि सभी वैकल्पिक मीडिया/सोशल मीडिया /नई मीडिया /डिजिटल मीडिया (नाम अनेक काम एक ) की छतरी में आते हैं और मुद्रण माध्यम की तुलना में आधुनिक और बहुआयामी हो चले हैं .मुझे हैरत है कि लोग यहाँ आकर फिर उसी 'मुग़ल कालीन' युग में क्यूंकर लौट रहे हैं . मुद्रण माध्यमों की पहुँच इतनी सीमित हो चली है कि एक शहर के अखबार /रिसाले में क्या छपता है दूसरे शहर वाला तक नहीं जानता . मतलब मुद्रण माध्यम हद दर्जे तक सीमित भौगोलिक क्षेत्रों तक ही सिमट कर रह गए हैं . मजे की बात देखिये जो मुद्रण माध्यम में अपनी समझ के अनुसार कोई बड़ा तीर मार ले रहे हैं वे उसे भी फेसबुक पर डालने से नहीं चूकते!

पैसा कमाना एक आनुषंगिक उपलब्धि हो सकती है मगर वह हमारे सामाजिक सरोकार को भला कैसे धता बता सकता है? हम ब्लागिंग या डिजिटल मीडिया में क्या केवल चंद रुपयों की मोह में आये थे? जो अब यहाँ नहीं पूरा हुआ तो मुद्रण माध्यम की ओर वापस लौट लिए?या फिर डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल खुद को प्रोजेक्ट करने के लिए किया और फिर इसे भुनाने मुद्रण माध्यम की ओर लौट चले जैसा कि दिनेश जी ने कहा ? मुफ्तखोर मुद्रण मीडिया तो अब खुद डिजिटल मीडिया के भरोसे पल रहा है -यहाँ से हमारी सामग्री बिना पूछे पाछे उठाकर छाप रहा है। आह्वान है कि इस डिजिटल मीडिया को छोड़कर कहीं न जाएँ . आज का और आने वाले कल का मीडिया यही है, यही है!

सोशल मीडिया की अनेक नेटवर्किंग साईट या फिर ब्लॉग अपने कंटेंट/ फीड की नेट वर्किंग के चलते एक प्रमुख सोशल मीडियम बन कर उभरा है . यहाँ कोई ख़ास प्रतिबन्ध नहीं है या बिल्कुल भी प्रतिबन्ध नहीं है .किन्तु यही खतरे की सुगबुगाहट है .....इसके दुरूपयोग की संभावनाएं हैं -साईबर आतंकवाद की भयावनी संभावनाएं हैं .जिसकी एक बानगी अभी हम बड़ी संख्या में शहरों से लोगों के असम पलायन के रूप में देख चुके हैं -एक दहशतनाक मंजर! ...ऐसी अफवाहें और भी संगठित रूप से किसी भी मसले को लेकर फिर फैलाई जा सकती है -सारे देश में अफरा तफरी का माहौल बन सकता है -यह साईबर आतंकवाद की एक छोटी सी मिसाल है ,झलक है .हमें सावधान रहना है .

इंटेलिजेंट मशीनें
तकनीक के दुरूपयोग को भयावह दानव का मिथकीय रूप दिया जा सकता है ...इस अर्थ में तकनीक को हमेशा चेरी की ही भूमिका में रहने को नियमित करना होगा ,कभी भी स्वामिनी न बने वह ..(जेंडर सहिष्णु लोग इसे स्वामी या दास शब्द के रूप में कृपया गृहीत कर लें) ..और अब तो स्मार्ट प्रौद्योगिकी वाली इंटेलिजेंट मशीनें भी आ धमकने वाली हैं जिसके पास खुद अपने सोचने समझने की क्षमता होगी -आगे चल कर इनमें संवेदना भी आ टपकेगी ...तब तो इन पर नियंत्रण और भी मुश्किल होगा -दूरदर्शी विज्ञान कथाकारों ने ऐसी भयावहता को पहले ही भांप लिया था ...इसाक आजिमोव ने इसलिए ही बुद्धिमान मशीनों पर लगाम कसने का जुगत लगाया था अपने थ्री ला आफ रोबोटिक्स के जरिये -जिसका लुब्बे लुआब यह कि कोई मशीन मानवता को नुकसान नहीं पहुंचा सकती ..मनुष्य के आदेश का उल्लंघन भी कर सकती है अगर मानवता का नुकसान होता है तो ....वैज्ञानिक ऐसी युक्तियों पर काम कर रहे हैं जिससे मशीनें बुद्धिमान तो बनें मगर मनुष्यता की दुश्मन न बने ....ऐसे नियंत्रण जरुरी हैं खासकर आनेवाली बुद्धिमान मशीनों के लिए .मगर आज भी जो मशीनें हैं ,अंतर्जाल प्रौद्योगिकी की कई प्राविधि -सुविधाएं हैं उन पर भी एक विवेकपूर्ण नियंत्रण तो होना ही चाहिए -मगर यह हम पर ही निर्भर हैं -हम इसका सदुपयोग करते हैं या दुरूपयोग!


आज सोशल मीडिया अपने शुरुआती स्वरुप यानी निजी संपर्क /अभिव्यक्ति से ऊपर आ सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ चुका है .आज कितने ही सामुदायिक ब्लॉग हैं और विषयाधारित ब्लॉग हैं -साहित्य ,संगीत ,निबंध, कविता ,इतिहास ,विज्ञान, तकनीक आदि आदि के रूप में ब्लागों/फेसबुक आदि का इन्द्रधनुषी सौन्दर्य निखार पा रहा है .....मानवीय अभिव्यक्ति उद्दाम उदात्त हो उठी है ....मानव सर्जना विविधता में मुखरित हो उठी है ... मगर एक बात मैं ख़ास तौर जोर देकर कहना चाहता हूँ -ब्लॉग मात्र अभिव्यक्ति के माध्यम भर नहीं रह गए हैं अब यह अभिव्यक्ति के एक खूबसूरत और सशक्त विधा के रूप में भी पहचाने जाने की दरख्वास्त भी करते हैं.

माध्यम या विधा
विधाओं के अपने पहचान के लक्षण होते हैं -जैसे कहानी का अंत अप्रत्याशित हो ,ख़बरों का शीर्षक अपनी और खींचता हो ,प्रेम कथाओं में प्रेम पसरा पड़ा हो ....सस्पेंस कथाओं में द्वैध भाव हो ,कहानी(शार्ट स्टोरी ) एक बैठक में खत्म होने जैसी हो ....आदि आदि ..तो ऐसे ही सोशल मीडिया में लेखन की विशेषताओं की भी पहचान और इन्गिति होनी चाहिए --क्या हो ब्लॉग विधा के पहचान के लक्षण ? ? -हम इस पर चर्चा कर सकते हैं -जैसे ब्लॉग पोस्ट ज्यादा लम्बी न हों ,ब्रेविटी इज द सोल आफ विट ....गागर में सागर भरने की विधा हो ब्लॉग ...कुछ लोग लम्बी लम्बी कवितायें ,निबंध ब्लागों पर डाल रहे हैं -कितने लोग पढ़ते हैं? -इसलिए कितने ही नामधारी साहित्यकार यहाँ असफल हो रहे हैं क्योकि उनकी पुरानी हथौटी लम्बे लेखों विमर्शों की है ....एक बार शुरू करेगें तो कथ्य का समापन और क़यामत एक ही समय आये ऐसा जज्बा होता है उनका :-) माईक पकड़ेगें तो छोड़ेगें नहीं..
निष्पत्ति
सोशल मीडिया का लेखन ऐसी ही कुशलता की मांग करता है कि कम शब्दों में अपनी बात सामने रखें ....और यह अभ्यास से सम्भव है ..अनावश्यक विस्तार की गुंजाईश इस विधा में नहीं है .... लेखक की लेखकीय कुशलता का लिटमस टेस्ट है सोशल मीडिया में लेखन ...ट्विटर तो १४० कैरेक्टर सीमा में ही अपनी बात कहने की इजाजत देता है ......किसी ने कहा था यहाँ तो मीडिया और मेसेज का भेद ही मिट गया है ..यहाँ मीडिया ही मेसेज है ...

ब्लॉग भी एक ही पोस्ट में लम्बे चौड़े अफ़साने सुनाने का माध्यम /विधा नहीं है ....हाँ जरुरी लगे तो श्रृंखलाबद्ध कर दीजिये पोस्ट को ...मुश्किल यही है ब्लागिंग के तकनीक के सिद्धहस्त जिनकी संख्या बहुत अधिक है यहाँ ,इसे बस माध्यम समझ बैठने की भूल कर बैठे हैं ....जबकि यह एक विधा के रूप में अपार पोटेंशियल लिए है हम इसकी अनदेखी कर रहे हैं .....आज ब्लागों के विधागत स्वरुप को निखारने का वक्त आ गया है ......हाऊ टू मेक अ ब्लॉग से कम जरुरी नहीं है यह जानना कि हाऊ टू राईट अ ब्लॉग? ....

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