शनिवार, 26 सितंबर 2015

भ्रष्टाचार के देवता:एक आईएएस का सेवाकाल संस्मरण

दावात्याग: प्रस्तुत पोस्ट 'गॉड्स आफ करप्शन' पुस्तक की संक्षिप्त  समीक्षा मात्र  है और  इसमें व्यक्त विचार लेखिका के हैं, उनसे मेरी सहमति का कोई प्रत्यक्ष या  परोक्ष आग्रह  नहीं है।  

मैंने जब १९७६ बैच की सीधी भर्ती किन्तु अब सेवानिवृत्त आईएएस आफीसर श्रीमती प्रोमिला शंकर की संस्मरणात्मक पुस्तक गॉड्स आफ करप्शन की चर्चा सुनी तो उसे पढने की तत्काल इच्छा हो आयी  और आनन फानन फ्लिपकार्ट से यह पुस्तक  मंगा भी ली गई। इस तत्परता के पीछे दो महत्वपूर्ण कारण थे -एक तो मैं जब श्रीमती प्रोमिला शंकर जी  झांसी में 1987 में  ज्वाइंट डेवेलपमेंट कमिश्नर थी,और उनके  पति श्री पी उमाशंकर आईएएस वहीं के जिला मजिस्ट्रेट थे ,मैं एक मातहत अधिकारी था। 

मैं पी उमाशंकर जी का सीधा मातहत था और मुझे  कहने में सदैव फ़ख्र रहता है कि वे मेरे अब तक के सेवाकाल के बहुत अच्छे जिलाधिकारियों में से  एक रहे. तमिलनाडु राज्य का  होने  के नाते  हिन्दी के नए नए शब्दों को सीखने की उनकी उत्कंठा ने मुझे उनके करीब होने का सौभाग्य दिया।वे सदैव विनम्र और प्रसन्नचित्त रहते. उन्होंने मुझ पर बहुत भरोसा किया और जनहित में कुछ अत्यंत गोपनीय कार्य भी मुझे सौंपे. आगे चलकर प्रोमिला जी हमारी यानि मत्स्य विभाग की प्रमुख सचिव  भी रहीं  (वर्ष,२०००) इसलिए पुस्तक  को पढने के लिए मैं और भी प्रेरित हुआ।  

 इस पुस्तक को यथाशीघ्र पढने की उत्कंठा का दूसरा कारण यह भी रहा कि एक जनसेवक के रूप में संभवतः मुझे कोई महत्वपूर्ण मार्गदर्शन इसके पढने से मिल सके।  पुस्तक इतनी रोचक है कि एक सांस  में ही खत्म हो गयी मगर मन  तिक्तता से  भर उठा । यह पुस्तक शासकीय व्यवस्था के घिनौने चेहरे को अनावृत करती है -लेखिका ने पूरी प्रामाणिकता  और  वास्तविक नामोल्लेख के साथ अपने ३६ वर्षीय सेवाकाल के दौरान भ्रष्टाचार में लिप्त उच्च पदस्थ कई आईएएस अधिकारियों के कारनामों, उनके  पक्षपातपूर्ण व्यवहार, चाटुकारिता के साथ ही नेताओं और भ्रष्ट आईएएस के दुष्चक्रपूर्ण गंठजोड़, दुरभिसंधियों का उल्लेख किया है। 

इस अपसंस्कृति का साथ न देने के कारण और अपने मुखर  निर्णयों  के कारण श्रीमती शंकर को पग पग पर बाधाएं ,हतोत्साहन और अनेक ट्रांसफर झेलने पड़े।  महत्वहीन पदों पर पोस्टिंग दी जाती रही। सीधी भर्ती की आईएएस होने के बावजूद न तो इन्हे कभी डीएम बनाया गया और न ही कभी  कमिश्नर(मण्डलायुक्त) बन पाईं।  और तो और जब सेवाकाल के मात्र ६ माह शेष रह गए तो अचानक एक महत्वहीन से कारण को दिखाते हुए निलंबित कर दिया गया। 



भारत सरकार के द्वारा सेवानिवृत्ति के मात्र ६ दिन पहले बहाली मिली भी तो इन्हे तत्कालीन पोस्ट से तुरंत हटाकर लखनऊ ट्रांसफर कर दिया गया।  गनीमत रही कि लोकसभा  निर्वाचन आरम्भ हो  गए थे और भारत निर्वाचन आयोग के हस्तक्षेप से श्रीमती शंकर को अपने सेवाकाल के आख़िरी पद ,कमिश्नर (एनसीआर) पर ही रहकर सेवानिवृत्ति मिल गयी,हालांकि इनके विरुद्ध जांच चलते रहने का आदेश भी पकड़ा दिया गया। प्रोमिला जी उस समय उत्तर प्रदेश की सबसे सीनियर आईएएस थीं.  

सूबे में नयी सरकार बन गयी और दुर्भावनापूर्ण लंबित जांच निरर्थक हो गयी। अपनी इस संस्मरणात्मक पुस्तक में लेखिका ने पूरी बेबाकी और निर्भयता से गुनहगारों  के नामों का उल्लेख किया है जिन्होंने अपने न्यस्त स्वार्थों के चलते एक ईमानदार अधिकारी को जनहित में काम न करने देने के लिए पूरे सेवाकाल हठात रोके रखा।  कालांतर में कुछ तो उनमें से जेल गए और एक कथित आततायी  असामयिक कालकवलित भी हो चुके।  पुस्तक का एक एक पन्ना आँखों को खोल देने वाला विवरण लेकर सामने आता है। 

शासकीय व्यवस्था में खुलेआम भ्रष्टाचार ,भाई भतीजावाद, पक्षपात ,जातिवाद और योग्यता के बजाय चापलूसों  की बढ़त का जिक्र है।  खुद लेखिका को उनकी स्पष्टवादिता और मुखरता के चलते अच्छी वार्षिक प्रविष्टियों के न मिलने से केंद्र सरकार में भी जाने का मौका नहीं मिल सका।  लेकिन  इस स्थिति को लेखिका ने  पहले ही भांप लिया था।  मगर उन्होंने भ्रष्ट तंत्र  के आगे घुटने नहीं टेके ,संघर्ष करती रहीं।  उन्हें यह  एक बेहतर ऑप्शन लगता था कि अच्छी वार्षिक प्रविष्टियों के लेने  के लिए अनिच्छा से जीहुजूरी के बजाय मानसिक शांति के साथ कर्तव्यों का निर्वहन करती चलें।

 न्यायपालिका के भी उनके अनुभव  बहुत खराब रहे।  एक  न्यायालय की अवमानना भी झेलनी पडी और उनके अनुसार एक फर्म को गलत भुगतान किये जाने को लेकर अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय न्यायाधीश महोदय द्वारा कहा गया कि वे जेल जाना चाहती हैं या फर्म को भुगतान करेगीं? वे जड़वत हो गयीं।उनकी एक विभागीय देयता के औचित्य को  पहले तो न्यायालय ने स्वीकार कर उनके पक्ष में निर्णय दिया किन्तु तत्कालीन मुख्य सचिव की बिना उन्हें सूचित किये पैरवी किये जाने पर अपने निर्णय को बदल दिया।  

लेखिका प्रोमिला  जी ने भारत की सर्वोच्च सेवा के लिए चुने जाने वाले अभ्यर्थियों  में बुद्धि, अर्जित ज्ञान और अध्ययन के साथ ही उच्च नैतिक आदर्शों ,चारित्रिक विशेषताओं  के साथ ही दबावों के  आगे न झुकने वाले व्यक्तित्व पर बल दिया है। उन्होंने राष्ट्प्रेम को भी अनिवार्य  माना है और क्षद्म धर्मनिरपेक्षता से  आगाह किया है। एक जगह  वे लिखती हैं कि स्वाधीनता दिवस कहने के बजाय इस अवसर को राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए।हमें गुलामी का बोध कराने वाले प्रतीकों से अब दूर हो जाना चाहिए। उन्होंने सारे भारत में शिक्षा का माध्यम अंगरेजी होने  की वकालत की है। जिससे भाषायी विभिन्नताओं को बल न मिलें और हम  वैश्विक स्तर पर तमाम चुनौतियों के लिए बेहतर तौर पर तैयार हो सकें. 

पुस्तक दो खंडो में है -एक में उनके द्वारा विभिन्न विभागों  में अपने कार्यकाल  के दौरान उठायी गयी समस्याओं/कठिनाइयों  का विवरण दिया गया है और दूसरे खंड में अपने कार्यकाल में जो सीखें मिलीं उनका जिक्र है।  २३२ पृष्ठ की संस्मरण पुस्तक का मूल्य रूपये ५९५ है और इसे दिल्ली के मानस पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित किया गया है।  इसे नेट पर आर्डर देकर मंगाया जा सकता है.   

शनिवार, 12 सितंबर 2015

विकास के आयाम : सपने और यथार्थ! (सोनभद्र संगोष्ठी )

सोनभद्र जिले का हेडक्वार्टर राबर्टसगंज अपनी कस्बाई सांस्कृतिक विरासत  के बावजूद मानवीय सृजनात्मकता और बौद्धिकता से ओत  प्रोत रहा है।  इन दिनों यहाँ एक बौद्धिक विमर्श के नए चलन का सूत्रपात हुआ है जिसके अंतर्गत प्रति माह किसी विषय पर चर्चा और विचार विनिमय होता है। विगत चर्चा उत्तर आधुनिकता और परामानववाद पर केंद्रित थी।  आज (१२ सितम्बर ,२०१५ )  कलमकार संघ द्वारा  आयोजित संगोष्ठी  का विषय था- विकास के आयाम : सपने और यथार्थ. इस विषय पर राबर्ट्सगंज के जाने माने बुद्धिजीवियों, विचारकों -लेखकों  ने अपने विचार व्यक्त किये.

श्री अजय सिंह जो यहाँ जिला आपूर्ति अधिकारी(डी एस ओ ) हैं ने विषय की प्रस्तावना की। उन्होंने जुमले की तरह इस्तेमाल हो रहे शब्द -विकास के कई निहितार्थों को उकेरा। आर्थात कैसा विकास ,किसका विकास, विकास की परिभाषा क्या हो?  उन्होंने विकास के हानि लाभ के पहलुओं को रेखांकित किया और कहा हमें यह देखना होगा कि कहीं ऐसा न हो कि हम विकास से  पाएं कम और गवाएं ज्यादा। मतलब कहीं लाभ हानि से कमतर होकर न रह जाए।  


श्री रामप्रसाद यादव ने संचालन  की जिम्मेदारी उठाई और संविधान के मूल उद्येश्यों के तहत विकास के लक्ष्य को सामने रखा।  उन्होंने कहा कि हमें बहुमंजिली इमारतों , ऊंची चिमनियों, हाईवेज ,मेट्रो , स्मार्ट सिटी और बिना  पानी के सूखते खेतों ,बेरोजगारी , अशिक्षा ,भुखमरी और कुपोषण आदि मानवीय विभीषिकाओं के  विरोधाभास  के मध्य विकास का सही मार्ग तय करना होगा। दीपक केसरवानी  ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए औद्योगीकरण से उपजते सकंटों  और सोनभद्र के रिहंद जलाशय से उत्पन्न विस्थापन और प्रदूषण की त्रासदी की ओर ध्यान दिलाया।  

 प्रखर चिंतक विचारक रामनाथ शिवेंद्र के  बीज वक्तव्य में उनकी कई चिंताएं अभिव्यक्त हुईं। उनके अनुसार पश्चिम का अन्धानुकरण करना हमारी विवशता है. सपनों और यथार्थ में बड़ी दूरी है।  और वाह्य आक्रमणों से अधिक खतरा भीतर से है।  उन्होंने आह्वान किया कि हमें अपने विकास के मानक तय करने होंगें।  हर खेत को पानी हर हाथ को काम। क्म लागत से अधिक उत्पादन।  विकास की धारा में मानवीय संवेदनाएं तिरोहित न हों। 
राजनीतिक चिंतक और विचारक अजय शेखर ने विकास के मानकों के पुनर्निर्धारण की जरुरत बतायी। उन्होंने कहा कि हमने विकास के मॉडल में सांस्कृतिक मानकों को नहीं लिया।  मनुष्य विकास के केंद्र में है तो फिर मनुष्यता के अवयवों को भी विकास के मॉडल में समाहित होने चाहिए।  विकास के मौजूदा स्वरुप में कमियां उभर कर दिख रहीं है -आज विकास भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है।  हेराफेरी ,चोरी, लूट  और व्यभिचार विकास के आनुषंगिक पहलू बन गए हैं -क्या यही विकास हमें चाहिए? उन्होंने तेजी से नष्ट हो रहे पर्यावरण का उल्लेख किया।  वनौषधियों के विलोपन का हवाला दिया।  ऐसा विकलांग विकास भला कैसे स्वीकार्य होगा? 


अमरनाथ अजेय ने अंग्रेजों की कुटिल नीतियों -फूट डालो राज्य करो से आरम्भ हुए अलगाव ,बिखराव की  स्थितियों को विकास का रोड़ा माना और स्पष्ट किया कि जब तक आर्थिक आधार पर सभी को स्वतन्त्रता नहीं मिलती सही अर्थों में विकास संभव नहीं है। शिक्षक ओमप्रकाश त्रिपाठी ने भारत में विकास के पंचवर्षीय अभियानों का जिक्र करते हुए औद्योगिक विकास के एक आपत्तिजनक पहलू को उजागर किया जिसमें हमारे सांस्कृतिक मूल्य तिरोहित होते गए हैं. एक बाहरी भौतिकता का आकर्षक आवरण है जिसके पीछे मनुष्य का निरंतर चारित्रिक ह्रास हो रहा है।  हमारा विकास पश्चिम का अंधानुकरण है।  हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं।  हमें वस्तुतः अपने जीवन मूल्यों और अध्यात्म के साथ कदमताल करता विकास का मॉडल चाहिए। 

कवि जगदीश पंथी जी के सम्बोधन का सारभूत विकास की राह में वैयक्तिक और समूहगत टूटन, विखंडन और विश्वसनीयता के संकट से उपजते त्रासद स्थितियों का जिक्र रहा।  जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो फिर क्या कैसा विकास होगा? 

गीता के अनन्य प्रेमी प्रेमनाथ चौबे ने विकास मार्ग के कतिपय प्रतिरोधों की चर्चा की।  जहाँ अन्धविश्वास हो , छुआछूत और भूत प्रेत टोना का बोलबाला हो वहां विकास का भला कैसा स्वरुप फलित होगा? उनका मानना था कि विकास के लिए एक राष्ट्रीय सोच जरूरी है। जापान का उदाहरण देकर उन्होंने स्पष्ट किया कि विकास के लिए राष्ट्रीय सोच होना जरूरी है. यह भी दुहराया कि बिना समानता ,स्वतंत्रता और बंधुत्व के विकास का सही स्वरुप सामने नहीं आ पायेगा।बिखराव में कैसा विकास? उन्होंने विकास को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुकूल और अनुरूप होने की शर्त रखी. उनके शब्दों में विकास अभी भी एक सपना है। 

भौतिकी के प्रोफ़ेसर रहे पारसनाथ मिश्र ने कहा कि दरअसल मनुष्य के जीवन के जो आयाम हैं वही विकास के भी आयाम हैं. कपडा रोटी और मकान की आधारभूत जरूरतें विकास के स्वरुप को नियत करती हैं।  भूख है तो अन्न चाहिए , अन्न उत्पादन होगा तो उसके संरक्षण और वितरण की श्रृंखला विकास के सोपानों को तय करेगी. वैसे ही हमारे लिए अनेक जरूरी उत्पाद वस्त्र ,आवास, शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य विकास के पैमानों को तय करते हैं।  किन्तु आज जो विकास हो रहा है उसने जितना दिया उससे ज्यादा हमसे छीन  लिया है।  उन्होंने हल बैल से मंगल यात्रा तक के विकास में वैज्ञानिक दृष्टि की अपरिहार्यता पर विशेष बल दिया।  नित नए अनुसंधान की जरुरत बतायी।  उनकी चिंता यह भी रही कि आज हमारी निष्ठायें विभाजित हैं , आस्थाओं और आचरण  के अलग अलग पड़ाव हैं।  किन्तु हमें अपनी पहचान नहीं खोनी  है। विकास के किसी भी मॉडल में भारतीयता अक्षुण रहे.हम अनुकरणीय बने  न कि अनुकरणकर्ता। 

अपने तक़रीर में चन्द्रभान शर्मा बहुत आशावादी दिखे।  उनका कहना था कि हमारे मनीषियों ने विकास का जो प्लान तैयार किया  वह उचित है और आलोचना किया जाना उचित नहीं है।  हमारी अनेकता और विभिन्नताओं के बावजूद विकास होना दिख रहा है।  आज फटेहाल लोग कमतर हुए हैं।  सपने धरातल पर धीरे धीरे उत्तर तो रहे हैं। धैर्य रखना होगा।  

संगोष्ठी के अध्यक्ष शिवधारी शरण राय ने समस्त विचारों के निचोड़ के रूप में अपना अभिमत दिया कि विकास हो किन्तु विनाश की कीमत पर नहीं।  भारत सदैव मौलिक चिंतन का उद्गम रहा है ,वैज्ञानिक बर्नियर यहाँ  ज्ञान और परमार्थ की खोज में आया था।  हमारे कई शाश्वत मूल्य विकास के विभिन्न स्वरूपों में समाहित हों यही अभीष्ट है।  

संगोष्ठी आत्मीय माहौल में संपन्न हुई और प्रतिभागियों में  एक नए उत्तरदायित्व बोध का सबब बनी. यह पुरजोर मांग रही कि ऐसे समूह चिंतन और अभिव्यक्ति का सिलसिला चलता रहे।  आगामी संगोष्ठी की प्रतीक्षा सभी को है। 

 

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

देवगढ़ के शैल चित्र पुकारते हैं!

सोनभद्र जनपद में ट्रांसफर के पश्चात इस जनपद की प्राकृतिक सम्पदा -समृद्धि और रहस्यात्मक परिवेश ने मुझे अचानक ही आकर्षित किया। मत्स्य व्यवसाय की मेरी विभागीय जिम्मेदारी से दीगर मैंने इस आदिवासी बाहुल्य, कैमूर पर्वत श्रृंखला युक्त और विशाल भूभाग वाले नक्सल गतिविधि सहिष्णु इस जनपद का एक पुनरान्वेषण शुरू किया।  यह श्रृंखला इस ब्लॉग पर चल रही है।  मुझे लगा कि शीघ्र ही इस जनपद के सभी मुख्य आकर्षणों को मैं अपने नज़रिये से देख पाउँगा और आप तक पहुंचा दूंगा।   जानकारी बांटने  की मेरी प्रवृत्ति जो ठहरी . मगर शीघ्र ही इस जनपद ने  मुझे अपनी लघुता का बोध करा दिया -ज्ञान की ऐसी विविधता यह जनपद समेटे हुए है कि यहाँ तो पूरा जीवन ही बीत जाए  -करोड़ो वर्ष पहले यहां सागर लहराता था -सलखन के जीवाश्म जिसका अकाट्य प्रमाण देते हैं ,बेलन घाटी की आदि सभ्यता यही पाली बढ़ी  , पग पग पर पहाड़ और झरनों की बिखरी सुषमा,वन्य जीवन, प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के बिखरे स्मृति शेष -क्या नहीं है यहाँ? चन्द्रकान्ता संतति के तिलिस्म की अनुभूति  यहाँ विजयगढ़ दुर्ग में साक्षात होती है जहाँ का भ्रमण रहस्य और रोमांच से भरा है जहाँ से नायिका चंद्रकांता  के प्रवास की अमर कथा ने जन्म लिया। 
कौन जंतु? बूझिये तो जाने! 

                                                                 डॉ नौटियाल  और मैं

एक बार जब मैं मुख्यालय के निकट ही शाहगंज कस्बे के करीब महुअरिया नाम स्थान पर गया और वहां शैल भित्ति चित्रों को देखा तो इसके जिक्र पर शासकीय सहधर्मी जिला आपूर्ति अधिकारी श्री अजय सिंह ने मेरी भेंट श्री जितेन्द्र कुमार सिंह 'संजय' से कराई जो यहाँ घोरावल तहसील के देवगढ़  ग्राम के निवासी है।जितेन्द्र  जी ने  सोनभद्र  पर  मुझे स्वलिखित पुस्तक भेंट की तो  यहां के पुराणेतिहास की मेरी दृष्टि व्यापक हुयी।  इसी  के साथ मुझे जितेन्द्र जी की सृजनात्मक मेधा और उनके  एक अन्य शौक   से भी रूबरू हुआ। मुझे जानकारी हुयी कि इन्हे शैल चित्रों में बड़ी दिलचस्पी है। दरअसल इन्होने अपनी आँखें ही देवगढ़ की सुरम्य उपत्यका में खोलीं और बचपन से ही इनके घर के चारो ओर बिखरी पहाड़ी गुफाओं ने इनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। जितेंद्र जी बताते हैं कि हाईस्कूल की पढ़ाई  के दौरान अक्सर वे इन गुफाओं में  आ जाते और यहाँ की नीरवता में इम्तहान की तैयारी होती।  यहीं उन्होंने शैल चित्रों को भी बारीकी से देखा समझा और आह्लादित हुए।  शैल चित्रों पर इनसे चर्चा  होती रही। 
देवगढ़ का एक शैलाश्रय और अध्ययनरत टीम  


तभी मुझे विज्ञान संचार में  समान रूचि वाले मित्र और बीरबल साहनी पुरावनस्पति  विज्ञान संस्थान लखनऊ में वैज्ञानिक  मित्र  डॉ चंद्रमोहन नौटियाल  से पता चला कि उन्हें सोनभद्र के शैल चित्रों पर अध्ययन की अगुवाई का जिम्मा भारत सरकार के संस्कृति विभाग के अंतर्गत इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स ((IGNCA)) ने दिया है. उन्होंने  मुझे  शैल चित्रों के स्थानीय किसी अच्छे अध्येता का नाम संदर्भित करने को कहा । बस मैंने उन्हें जितेंद्र जी का नाम सुझा दिया। जल्दी ही दिसम्बर 2014 में शैल चित्रों पर लखनऊ में आयोजित राष्ट्रीय कार्यशिविर में जितेंद्र  ने प्रतिभाग किया।  आज उसी की फलश्रुति है की कि सोनभद्र में विगत 13 अप्रैल 2015 से एक अंतर्विभागीय बहु सदस्यीय टीम डॉ नौटियाल की अगुवाई में यहाँ अवस्थान  कर रही है जिसमें प्रमुख सदस्य हैं -प्रोफ़ेसर ऐस बाजपेयी (निदेशक, बीरबल साहनी पुरावानस्पतिक  संस्थान ),  डॉ बी एल मल्ला (निदेशक IGNCA) प्रोफ़ेसर डी पी तिवारी (इतिहास विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय) ,डॉ  पी उपाध्याय ( बी एच यू ) ,प्रोफ़ेसर के के अग्रवाल (लखनऊ विश्वविद्यालय) और  प्राणिविज्ञानी तथा एक  शैलचित्र  प्रेमी के तौर पर मैं भी। . मुझे तो डॉ नौटियाल जी  ने मित्र धर्म के चलते टीम  में शामिल किया है। 

 कुछ पल का विश्राम -जितेंद्र और स्थानीय पथ प्रदर्शक परदेशिया 
 शैल चित्रों में सबसे अधिक चित्र पशु पक्षियों के ही होते हैं ,फिर मनुष्य और तब जाकर अन्य प्रकार की संरचनाएँ और डिजाइन।  मैं शैल चित्रों में पशु आकृतियों पर घ्यान केंद्रित कर रहा हूँ -हिरन और मृग ,सूअर और भालू और उनके  एकल और सामूहिक शिकार इनमें चित्रित हुए हैं -भैंस और बैल  के भी चित्र दिखे हैं। कई चित्रों पर विवाद है -एक साही  या गिरगिटान का चित्र है स्पष्ट नहीं हो पा रहा।यहाँ आज भी कृष्ण मृग पाये जाते हैं और ये शैल चित्रों में भी दिखते हैं. बहुत से चित्र चित्रकार की कल्पना की उपज  लगते हैं जैसे जिराफ की गर्दन जैसी बहुत लम्बी गर्दन लिए पशु -अब हम सभी जानते हैं जिराफ तो इस  भू भाग पर थे ही नहीं  -हाँ जब भू स्थल जुड़े(पंजिया ) हुए  थे तब? मगर तब तो होमो सैपिएंस ही नहीं थे।  यह भी  सकता है कि चित्रों में दिख रहा कोई पशु अब इस क्षेत्र  लुप्त हो चला हो? ये सारी अटकलबाजियां अंतिम निष्कर्ष तक चलती रहेगीं। 

 इन्हे भी पहचानिये 
शैल चित्र आदिमानवों द्वारा  हमें दी गयी अद्भुत और अमूल्य विरासत है। इन  चित्रों में एक ख़ास सौंदर्यबोध तो है ही, साथ ही ये मनुष्य के विकास और प्रवास, उनके आदि रहवासों तथा संस्कृति के अब तक के अनेक अनछुए पहलुओं को उजागर कर सकते हैं।  इसलिए ही विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के सम्मिलित प्रयास से इनके अध्ययन की यह पहल की गयी है। अभी आरम्भिक तौर पर केवल चित्रों  का अभिलेखन और संग्रह हो रहा है और आगे इनकी व्याख्या पर ध्यान केंद्रित होगा।  सोनभद्र के घोरावल तहसील  के अंतर्गत देवगढ़ इस  लिहाज से बहुत समृद्ध है और यहाँ निरंतर ध्यान केंद्रित करने की जरुरत है।  ऐसे शैलाश्रयों जहाँ के चित्र अभिलिखित हो चुके हैं उन्हें तत्काल  संरक्षित रखने का भी प्रयास होना चाहिए! अकादमीय दृष्टि से इनका महत्त्व तो है ही इन्हे आज के परिप्रेक्ष्य में व्यावसायिक नजरिये से शैल चित्र पर्यटन के रूप में विकसित किया जा सकता है।    


सोमवार, 6 अप्रैल 2015

रचाती कामनाएं नित स्वयम्बर!

हिन्दी कवि और कविता प्रेमी क्या इसे झेल पायेगें ? :-)

रचाती कामनाएं नित स्वयम्बर
प्रेम की चिरंतन चाह लिए होती है प्रेमियों की आतुरता
वैसे ही जैसे स्वाति बूँद की चाह लिए चातक रहता रटता

सीप की भी होती है साध पले उसके गर्भ में इक मोती दुर्लभ
वैसे ही जैसे चाहे स्वाति की बूँद  कोई निरापद आश्रय सुलभ

मुक्ता संभरण का संयोग है तभी प्रतीक्षा हो सीप की जब चिर
स्वाति बूँद सहजने को रहे वह हर क्षण हर पल आकंठ तत्पर

उभय प्रेमियों में हो मिलन की चाहना और प्रीति जब परस्पर
प्रेम तब परिपूर्ण होता और रचाती कामनाएं नित स्वयम्बर

बुधवार, 11 मार्च 2015

पत्नी नहीं हैं तो खाना पीना कैसे चल रहा है?

इन दिनों होम मिनिस्ट्री साथ नहीं है , पैतृक आवास पर सास की भूमिका का निर्वहन हो रहा है जबकि मैं यहाँ सरकारी सेवा के तैनाती स्थल पर एकांतवास कर रहा हूँ।  किन्तु यह ब्लॉग पोस्ट इस विषय को लेकर नहीं है। यह उस असहज सवाल को लेकर है जिससे मुझे ऐसे  एकांतवास के दिनों में अक्सर दो चार होना  पड़ता है। यह जानकारी होने पर की पत्नी साथ  नहीं हैं पता नहीं  घनिष्ठतावश या फिर महज औपचारिकता के चलते  मुझसे यह सवाल इष्ट मित्र  और सगे संबंधी अक्सर पूछ बैठते हैं कि अरे पत्नी नहीं हैं तो खाना पीना कैसे चल रहा है ? 

 यह सवाल इतनी बार सुनने के बाद भी मैं हर बार असहज हो जाता हूँ और सवाल का ठीक ठीक जवाब नहीं दे पाता। आखिर क्या केवल खाना बनाने के लिए ही पत्नी का  साथ रहना आवश्यक है ? नारीवादी और / या महिलायें तक जब ये सवाल पूछती हैं तब मुझे और भी क्षोभ होता है।  क्या घर में नारी की भूमिका केवल खाना बनाने तक ही सीमित है?

आज भी यह आदि ग्राम्य मानसिकता बनी हुयी है कि शादी व्याह इसलिए जरूरी है की कोई  दो जून की रोटी तो बनाने वाला हो! मतलब इसके सिवा आज  भी व्यापक स्तर पर महिलाओं  की अन्य विशेषताओं /आवश्यकताओं को रेखांकित नहीं किया जा पा रहा है. यह एक सोचनीय स्थति है। भई पत्नी है तो उनकी भूमिका को केवल खाना बनाने और परोसने तक ही क्यों अवनत कर दिया गया है? क्या उनकी उपस्थिति उनका साहचर्य अन्य अर्थों में उल्लेखनीय  नहीं है? क्या घर में उनकी भूमिका मात्र इतनी भर रह गयी है और  प्रकारांतर से यह भी कि  पुरुष  क्या मुख्यतः   एक अदद  खाना बनाने वाली के लिए ही व्याह करता है? यह बात हास्यास्पद भले ही लग रही हो मगर आज की इस इक्कीसवी सदी  में भी अधिकाँश पुरुष खुद खाना नहीं बनाते या फिर बना ही नहीं सकते/पाते।  क्योंकि संस्कार ही ऐसा मिलता है।  गाँव घरों में आज भी पुरुष रसोईं में घुसना अपनी शान के खिलाफ समझता है। 

पुरानी सोच की महिलायें भी पुरुष को खाना खुद अपने हाथों से बनाने को हतोत्साहित करती  रहती हैं।  वे खुद नहीं चाहती कि पुरुष रसोईं  संभाले -यह उनका कार्यक्षेत्र है।  यह सही है कि महिलायें अपने जैवीय रोल  में एक चारदीवारी की भूमिका में रहती रही हैं किन्तु अब समय और सोच में बहुत परिवर्तन हुआ है और नर नारी की पारम्परिक भूमिकाएं बदल रही हैं।  आज भी एक महिला को मात्र रोटी बनाने की मशीन के रूप में लेना उसकी महत्ता और उसके पोटेंशियल को बहुत कम कर के आंकना है।  इसलिए मुझसे जब यह प्रश्न  भले ही मेरे प्रति अपनत्व  की  भावना से  पूछा जाता है मुझे नागवार लगता है।  और यह पुरुष के अहम भाव को भी तो चोटिल करता है -अब क्या  हम इतने नकारे हो गए कि अपने खाने पीने का इंतज़ाम तक नहीं कर सकते?  

अरे हम जब 'राज काज नाना जंजाला' झेल सकते हैं तो उदरपूर्ति में परमुखापेक्षी क्यों बने रह सकते हैं? यह सवाल सिरे से खारिज है मित्रों -सवाल यह होना चाहिए कि अरे पत्नी नहीं हैं तो आपको कोई असुविधा तो नहीं हो रही है? अकेलेपन की तो अनुभूति नहीं हो रही है? कोई  यह भी पूछे कि पत्नी नहीं हैं तो घर कैसे व्यवस्थित है ? समय कैसे कटता है? आदि आदि सवाल भी तो पूछे  सकते हैं? कब तक यह चलेगा आप उन्हें लाते क्यों नहीं? 

पत्नी का आपके साथ होना आपके पारिवारिक जीवन की समृद्धता का द्योतक है। घर की जीवंतता का परिचायक है।  सम्पूर्णता का अहसास है।  एकाग्रता और आत्मविश्वास का सम्बल है।  भगवान राम तक कह गए प्रिया हींन  डरपत मन मोरा।  पत्नी साथ नहीं तो आप अधूरे हैं जनाब -एकांगी जीवन जी रहे है -समग्रता  का अभाव है यह ! आप मनसा वाचा कर्मणा सहज नहीं है। और यह कमी आपके व्यवहार में प्रदर्शित हो रही होगी। आपने नहीं तो आपके सहकर्मियों और अधीनस्थों ने यह नोटिस किया होगा और कदाचित झेला भी होगा -कभी उन्हें कांफिडेंस में लेकर पूछिए!
 किसी प्रियजन ने इस पुरानी पोस्ट को भी इसी संदर्भ में प्रासंगिक बताया

मंगलवार, 10 मार्च 2015

तुलसी की दिव्य दृष्टि, विनम्रता और उक्ति वैचित्र्य


जैव विविधता की एक सोच तुलसी की भी है -उन्होंने जैव समुदाय को चौरासी लाख योनियों (प्रजाति ) में वर्गीकृत किया है जो कि रोचक है। मौजूदा वैज्ञानिक वर्गीकरण साठ लाख के ऊपर है और नित नयी प्रजातियां खोजी जा रही हैं। यह दिव्य दृष्टि ही तो है!
* आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी
-चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ!
मानस की प्रस्तावना में तुलसी की विनम्रता उल्लेखनीय है.
एक महान कवि किस तरह से अपने अल्पज्ञान की आत्मस्वीकृति करता है,
उल्लेखनीय है और कवियों ही नहीं किसी भी 'ज्ञानवान' के लिए ध्यान देने योग्य
और अनुकरणीय है। उनमें किंचित भी आत्मप्रचार का भाव नहीं दिखता। आज
के कवियों के बेशर्म आत्म प्रचार के परिप्रेक्ष्य में तुलसी की यह विनम्रता ध्यान देने योग्य
है।
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ

मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और
श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात्‌ कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है

* मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई

मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है,
पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे

* जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी

-जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किए रहते हैं (अर्थात्‌ जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे

* निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं

रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं

* जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई

-हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात्‌ अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है.

कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें
(.... काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ. )

तुलसी की यह कोई दिखावटी विनम्रता नहीं लगती।यह एक सच्चे अर्थों में विद्वान की विनम्रता है। विद्या ददाति विनयम। किन्तु यहीं कबीर की उद्धत विद्वता थोड़ा आश्चर्य में डालती है। कबीर अक्खड़ हैं और तुलसी उतने ही विनम्र। क्या यह कबीर की दम्भोक्ति नहीं लगती? -"मसि कागद छुयो नही कलम गह्यो नही हाथ" मानो तुलसी ने इसी अक्खड़ विद्वता का जवाब दिया -
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें। अस्तु!


तुलसी आगे लिखते हैं-
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक

मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे

* एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी

-इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं.

* भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी

:-जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती।

तुलसी कहते हैं कि कविता अपने उपयुक्त श्रोतागण को पाकर ही शोभा पाती है। अनेक वस्तुएं हैं जो जहाँ से उत्पन्न होती हैं वहां के बजाय कहीं और शोभित होती हैं।
*मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई
मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं
*तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई
-इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी राम चरित मानस की प्रस्तावना में तुलसी ने सृजन कर्म / रचनाशीलता को लेकर प्रायः उठाये जाने वाले कई प्रश्नों का सहज ही उत्तर दिया है। आखिर राम ही क्यों मानस के नायक हैं ? तुलसी के उपास्य हैं?
संतकवि कहते हैं -लौकिक लोगों पर समय क्यों बर्बाद करना?
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
(अर्थात संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई)।

यह ध्यान देने की बात है कि तुलसी ने यहाँ कवि कर्म में चारण/भाँट प्रवृत्ति पर बड़ी सूक्ष्मता से प्रहार किया है। राजा महराजाओं की विरुदावली रचने वालों की अच्छी खबर ली है उन्होने। किन्तु यह भी कहा कि जिस कृति की प्रशंसा बुद्धिमान लोग न करें उसे रचना व्यर्थ ही है -
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥
( बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं)
फिर रचना का हेतु/ उद्देश्य क्या होना चाहिए? इस पर तुलसी कहते हैं -
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
(कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो।) और जब सबके हित की बात हो ,व्यापक जनहित की बात हो तो भाषा भी वही हो जो सबके समझ में आये। तब संस्कृत ही विद्वता की परिचायक भाषा थी। तुलसी ने रचनाशीलता का एक क्रांतिकारी कदम उठाकर जनभाषा में मानस की रचना की। … मानस प्रणयन के प्रयोजन को सफल बनाने के लिए तुलसी द्वारा की गयी वंदना खुद में जैसे एक महाकाव्य बन गयी है -वे शायद ही किसी का आह्वान करने से भूले हों -देव मनुज ,संत असंत ,आदि, समकालीन और भविष्यकालीन कविजन की भी वंदना की है -सबसे याचना की है कि वे सब उनके मनोरथ को पूरा करें। लगता है जैसे वंदना में ही उन्होंने धन्यवाद ज्ञापन भी समेट लिया हो.
आज बस इतना ही। । जय श्रीराम !

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

डेजी का सोलहवां साल

हैपी बर्थडे टू यू डेजी! आज (२ फरवरी,2015) तुम्हारा पन्द्रहवां साल पूरा हुआ। पंद्रह मोमबत्तियों की सलामी स्वीकार करो।बच्चों ने आफत की इस गुड़िया को सन 2000 में माह अप्रैल में वाराणसी के मैदागिन स्थित डाक्टर यादव के डॉग क्लीनिक से लिया था तो हेल्थ कार्ड पर नाम डेजी और जन्म 2 फरवरी 2000 अंकित था। मतलब आज पन्द्रहवां साल पूरा हुआ और चिर यौवना डेजी का सोलहवां साल शुरू हो रहा है। बेटे बेटी कौस्तुभ और प्रियेषा समय के साथ दूरस्थ हो गए मगर डेजी हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गयी। तीन तीन ट्रांसफर इसने भी झेला। दो बार मरणासन्न हुईं फिर आश्चर्यजनक तरीके से संभल गयीं जैसे पुनर्जन्म हो गया हो। कहते हैं मनुष्य का दस वर्ष और श्वानवर्ग का एक वर्ष बराबर होता है। इस तरह से आज तो डेजी जीवन के एक सौ इकसठवें वर्ष में प्रवेश कर रही हैं -स्टैंडिंग ओवेशन!

मैंने डेजी को चिर यौवना इसलिए कहा कि आज भी इनकी ऊर्जा में कोई बदलाव नहीं है। अपने नर समवयियों पर ये आज भी तेजी से झपटती हैं। कानों से सुनना भले कम  हो गया हो मगर आँखें तेज हो चली हैं। कौस्तुभ कहते हैं कि पापा इसे मोतियाबिंद हो गया है पर मुझे तो नहीं लगता , ऑफिस से मेरे घर आने पर आज भी इनका तेजी से गोल गोल घूमना और छलांग लगा लगा कर मुंह चूमने का उपक्रम बदस्तूर कायम है. मगर हैं ये दुलारी अपनी मालकिन की ही -मतलब मालिक मालकिन सब कुछ श्रीमती जी को ही मानती हैं -कहें तो फिक्जेटेड हैं पूरी तरह उन्ही पर। उनके बिना एक पल भी रहना इन्हे गंवारा नहीं। इसलिए अब ये एक बड़ी लायबिलिटी बन गयी हैं -हम दोनों को बस से भी यात्रा मंजूर है मगर इन्हे गाड़ी चाहिए। सही है मनुष्य अपनी किस्मत लेकर भले न पैदा होते हों यह प्रजाति तो निश्चित ही किस्मत लेकर अवतरित होती है। जीना मुहाल है अब हम दोनों का -पिछले 15 वर्षों से हम साथ साथ दूर कहीं घूमने नहीं जा पाये तो इन्ही की बदौलत।

पाम -स्पिट्ज (Pomeranian -Spitz) प्रजाति का औसत जीवनकाल अन्य श्वान नस्लों की तरह यही 12 -14 वर्ष ही होता है। विश्व रिकार्ड 19 वर्ष है। कहीं डेजी के इरादे तबतक तो हमारी छाती पर मूंग दलते रहने की तो नहीं? मौजूदा फिटनेस देखकर तो यही लगता है. आज तो इनका जन्मदिन है शुभ शुभ ही बोलना है। कभी कभी लगता है डेजी को यह लगता है जैसे इन्होने हम सभी को पाला है। और चाहती हैं कि सबकी दादी बनी रहें -हमारी भी और आने नाती पोतों की भी।
 पहले यह भी लगता था कि घर आने वाले हर आगंतुक को ये समझती थीं कि इनसे ही मिलने आया है। हाथ जोड़ सलाम करती थीं। मगर कुछ समय से स्वभाव बदल गया है-अब आगंतुक का आना पसंद नहीं - किसी की मेहमान नवाजी तो बिल्कुल नहीं -शिष्टाचारवश सामने तो कुछ नहीं बोलतीं मगर मेहमान के रुके रहने तक एक परदे के पीछे जाकर मद्धिम स्वर में गुरगुराती रहती हैं।

इनकी प्रजाति अंतःवासी अर्थात घर के भीतर निवास वाली है। और लाइव अलार्म का काम करती है। घर के अहाते में किसी के भी घुसते ही यह अलार्म चालू हो जाता है। अलर्ट काल! बच्चों से इन्हे चिढ है -उनका सामीप्य बिल्कुल पसंद नहीं। आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करने वाली डेजी को कुत्तों से सख्त नफरत है। साहचर्य की पक्की विरोधी। और परिवार के जाने पहचाने सदस्यों के अलावा इन्हे किसी के भी द्वारा ज्यादा स्नेह प्रदर्शन और घनिष्टता पसंद नहीं है। सर पर तो किसी और का हाथ बिल्कुल ही कबूल नहीं! लोगों को सावधान करना पड़ता है -क्योंकि इनकी क्यूटनेस से लोग बाग़ खुद को रोक नहीं पाते और हाथ बढ़ा देते हैं।  अब चूँकि इनका हर वर्ष माह अप्रैल में इम्यूनाइजेशन हो जाता है इसलिए कोई डर नहीं।

विश्वास तो बस अपनी मालकिन पर ही है, शायद मुझ पर भी नहीं। और डरती हैं तो केवल बेटे कौस्तुभ से -उसके एक इशारे पर बोलती बंद -पता नहीं उसने क्या जादू किया था। बच्चों से छठे छमासे ही मुलाकात है मगर एकदम से पहचान कर उछल कूद शुरू हो जाती है।प्रियेषा के साथ इनकी खूब धमाचौकड़ी मचती है।  आज तो वे अपने ननिहाल गयीं है मालकिन के मायके -हम सभी दूर से ही नमस्कार और बधाईयाँ दे रहे हैं।
हम सब के साथ आप भी डेजी को लम्बी आयु का आशीष दें!

संत कौन और असंत कौन? (मानस प्रभाती )


खल (दुष्ट) वंदना के पश्चात तुलसी संत और असंत पर एक तुलनात्मक दृष्टि डालते हैं। वैसे समूचे मानस में वे यत्र तत्र संत और असंत का भेद करते दिखते हैं जिससे एक निष्कर्ष सहज ही निकलता है उन्हें जीवन में दोनों तरह के जनों का घनिष्ठ सामीप्य - सानिध्य मिला होगा। उन्होंने दोनों तरह के व्यक्तियों के व्यवहार को शिद्दत के साथ महसूस किया है ऐसा लगता है।
यह देखिये -
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं

अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात्‌ संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)

* उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू

दोनों (संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)

*भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई

-भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है -

* भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु
भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में-
मानस की प्रस्तावना बहुत प्रभावशाली है. राम कथा आरम्भ करने के पहले तुलसी ने उसकी भावभूमि तैयार करने में अथक परिश्रम किया है जहाँ उनका विशद अध्ययन और विषय के प्रस्तुतीकरण की अद्भुत प्रतिभा दिखती है -
उदाहरणार्थ: वे कहते हैं कि सारा जगत अनेक परस्पर विरोधाभासों से भरा पड़ा है।
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना
वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है!

* दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा

-दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी(पवित्र) -मगध(अपवित्र ), गंगा(जीवनदायिनी) -कर्मनाशा(पुण्यनाशिनी ), मारवाड़(राजस्थान का मरुथल) -मालवा(राजस्थान का हराभरा क्षेत्र ) , ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है.

* जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार
-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं.

तुलसी की व्यापक, समग्र और समता की दृष्टि, समूचे संसार को राममय देखना
उनकी .विशेषता है। मानस की प्रस्तावना में वे सबसे कृपा की आकांक्षा करते हैं-

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि
जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ.
* देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब
-देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए'. 
क्रमशः

शनिवार, 31 जनवरी 2015

युवावस्था कब तक?

प्रायः लोगों की उत्कंठा होती है युवावस्था कब तक होती है?
बुजुर्ग लोग प्रायः सीधा उत्तर न देकर यह कह देते हैं कि जब तक उत्साह उमंग कायम है युवावस्था है? वैसे शारीरिक क्षमता और काम क्रिया की सक्रियता (उर्वरता नहीं) युवावस्था का प्रमुख मानदंड है।पुरुष के शुक्राणु तो जीवन के अंत तक सक्रिय रहते हैं। तो क्या वह मृत्युपर्यन्त युवा है? निश्चित ही नहीं? लेकिन पुरुषार्थ के सनातनी उद्देश्यों में 'काम' भी है।कहा गया है कि मनुष्य के सार्थक जीवन के चार उद्देश्यों में धर्म,अर्थ और मोक्ष के साथ काम भी है।
क्या है यहाँ 'काम' का अर्थ?
'काम' के अधीन -इच्छा ,दीवानगी ,भावविह्वलता, ऐन्द्रिय सुख ,सौंदर्यबोधयुक्त जीवन का निर्वाह ,लगाव ,सेक्स सहित या रहित प्रेम का भाव है.जीवन के चार प्रमुख उद्देश्य यानि पुरुषार्थ माने गये हैं।पहले नंबर पर धर्म, फ़िर अर्थ , काम और मोक्ष। वैसे सर्वोच्च उद्देश्य तो मोक्ष ही है और उसके बाद धर्म है। नैतिक आग्रहों के साथ जीवन जीना धर्म है।धनार्जन दूसरा किन्तु गौण लक्ष्य है. हिन्दू धर्म में जीवन की चार अवस्थाएं भी निर्धारित हैं -ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास!
अब तनिक इन चार अवस्थाओं (आश्रम ) को पुरुषार्थ की अवधारणा के साथ जोड़िये। एक सामंजस्य दीखता है। छात्र के लिए धर्म या नैतिक आचरण प्रमुख है ,गृहस्थ के लिए धर्म के साथ ही अर्थ और काम तथा वानप्रस्थ/ सन्यास के लिए धर्म और मोक्ष।
अब आईये इस प्राचीन व्यवस्था के अनुसार मनुष्य के उम्र का कालक्रम देखें -
यह है -शैशव-0 -2 वर्ष,बाल्य -3 -12 वर्ष,फिर कौमार्य -(यहां दो वर्ग हैं )-अ -किशोर -13–15 वर्ष,ब -तरुण -16–19 वर्ष,अब इसके बाद आता है -यौवन, और रोचक बात यह कि इसके भी दो काल वर्ग हैं-यौबन -1 (तारुण्य यौवन )- 20–29 वर्ष,यौवन -2 (प्रौढ़ यौवन ) 30–59 वर्ष,अर्थात यौवन का विस्तार 20 से 59 वर्ष का हैऔर फिर ६० से वार्धक्य।यह वर्गीकरण कितना विज्ञान सम्मत है! अर्थात गृहस्थ(५९ वर्ष तक) युवा है -और धर्म अर्थ के साथ काम उसका प्राप्य अभीष्ट है!
बाटम लाईन: मनुष्य की युवावस्था 59 वर्ष तक है ! ६०+ वार्धक्य -वृद्धावस्था का आरम्भ।जिसमें वानप्रस्थ फिर सन्यास है। वानप्रस्थ दरअसल यौवन और सन्यास का संक्रमण काल है। किन्तु यह भी सोचिये यह वर्गीकरण हजारो वर्ष पुराना है। तब मेडिकल साइंस इतना उन्नत नहीं था। इसलिए अमिताभ का बहु प्रचारित डायलॉग "बुड्ढा होगा तेरा बाप " कोई अतिशयोक्ति तो नहीं!
पुनश्च: चूँकि नारी की उम्र चर्चा पर सभ्य जगत में निषेध है अतः मुखर रूप में नारी का उल्लेख यहाँ नहीं है मगर विद्वानों का कहना है कि यह प्राचीन वर्गीकरण नर नारी दोनों के लिए था।

सोमवार, 26 जनवरी 2015

तुलसी के लिए गुरु ,ब्राह्मण और दुष्ट भी वंदनीय हैं!


तुलसी मानस का आरम्भ गुरु वंदना से करते हैं। गुरु के प्रति उनके मन में अनन्य श्रद्धा और समर्पण है -वे गुरु के चरणधूल की वंदना करते हैं जो उनके लिए मकरंद के समान है -
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा 
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू
मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है!
गुरु वंदना के उपरान्त तुलसी धरती के देवताओं का वंदन करते हैं। अर्थात ब्राह्मणों का। मगर तुलसी के ब्राह्मण कौन हैं ? उन्होंने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है -
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं।
अर्थात ब्राह्मण वही जो मोह से उत्पन्न सारे भ्रमों को दूर करने की क्षमता रखता हो ,न कि स्वयं मोह ग्रस्त हो. आज के अधिकाँश ब्राह्मणों की तो कुछ मत पूछिए।अपनी दुर्दशा के कारण वे स्वयं हैं। कभी समाज को दृष्टि देने वाले आज स्वयं दिग्भ्रमित हैं. और आज के तमाम अंधविश्वासों, कुप्रथाओं और अज्ञान के प्रसार के लिए मुख्यतः ब्राह्मण ही जिम्मेदार हैं। इसलिए तुलसी ने ब्राह्मणों को लेकर अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया है। 

तुलसी फिर संतों की वंदना करते हैं। कहते हैं सत्संगत से बढ़कर और कुछ नहीं। और संतो की संगत अर्थात सत्संगत सारे संसारी कष्टों को दूर करने वाली है -
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला
:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है.
 दुष्टों की वंदना
मानस के बालकाण्ड में दुष्टों की वंदना का भी रोचक वर्णन है. दुष्टों के प्रति क्लेश रखने के बजाय उनका भी पूजन वंदन कर लेने से शुभ कार्य निर्विघ्न पूरे होगें -कदाचित तुलसी का यह भाव रहा हो या फिर यह प्रसंग मात्र एक शुद्ध परिहास भी हो सकता है। किन्तु ग्रन्थ के आरम्भ में रचनाकार का निश्चय ही निश्छल और गंभीर रहना ही अधिक संभव लगता है और उन्होंने खल वंदना भी सच्चे मन से ही किया होगा।
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें
अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है .
*तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके
-जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है.
* पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा
 जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं .
* बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा
-जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं'
* उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति -दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है .
* मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा
-मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे।
कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?
 क्रमशः

रविवार, 18 जनवरी 2015

पी के-अपने पूर्वाग्रहों को हाल के बाहर ही छोड़ आएं!

1  सितम्बर 2012 को बनारस से ट्रांसफर होकर जब से सोनभद्र आया नए स्थान की कटु कुटिल चुनौतियों से जूझते हुए और नयी परिस्थितियों में खुद को ढालते हुए समय कुछ ऐसा बीता कि मनपसंद कई बातें, कई शौक बिसरा बैठे। यहाँ तक कि कोई फिल्म भी नहीं देख पाये। अब कहाँ बनारस के माल में फिल्म देखने का एम्बिएंस और कहाँ यहाँ सोनभद्र के कस्बाई मुख्यालय  रॉबर्ट्सगंज के जजर्र सिनेमाघर! जाने की हिम्मत भी नहीं जुटी। और मुझे यह भी नहीं लगा कि वहां "इज़्ज़तदार आदमी"(!)  को देखने वाली वाली फिल्मे भी लगती होंगी। इस  बीच कितनी अच्छी अच्छी फ़िल्में आईं और चली गयीं।  मन मसोसता रहा और फिल्मों के  दीवाने अपने एक प्रिय सर को कनविंस करने का असफल प्रयास भी कि सर मैं इन कारणों से फिल्म नहीं देख पा रहा।  
मगर जब पी के की चर्चा और उस पर मचे हो हल्ले की खबर सुनायी पड़ने लगी तो संकल्प किया कि इसे देखनी है और वह भी बनारस चल के।  इसमें एक अंतरिक्ष वासी के धरती पर आने और यहाँ के हालात से जूझने के कथानक ने भी आकर्षित किया। मैं इस फिल्म को इस नज़रिये से भी देखना चाहता था कि क्या   यह साइंस फिक्शन के फ्रेम में आ सकती है?बहरहाल कल वह सुदिन आ गया और हम मियाँ बीबी फिल्म बनारस के आई पी माल में देख ही आये. 
ठीक ठाक फिल्म है। थीम धार्मिक पाखंड है।  मगर कई और भी संकेत हैं।  कहानी को बंम्बईया चाशनी में लपेटा गया है -प्रेम सीन है ,धमाका है ,विछोह है ,फैमिली ड्रामा है।  यह सब कोई नया नहीं है।  और धर्म के पाखण्ड पर कटाक्ष करने के मामले में भी यह फिल्म कोई नयी नहीं है।  बस नया है तो एक एलियन का नज़रिया।  सुदूर अंतरिक्ष से धरती पर शोध करने आया शोधार्थी असहज स्थितियों में एक सर्वथा अजनबी संस्कृति से साक्षात्कार करता है। मैं जैसे सोनभद्र आकर अपने शौक भूल गया वैसे ही बिचारे के साथ आते ही  एक ऐसी त्रासदी हुयी कि उसे अपना मकसद ही भूलना पड़ा।  उसका वह यंत्र  उससे छीन लिया गया जिससे उसे यान को वापस बुलाना था।  अब घबराहट और घर जाने की फ़िक्र में कोई शोध ठीक से भला कैसे हो पाता।  अगर एक एलियन की निगाहों से आप इस फिल्म को देखे तो आनंद आएगा -अपने पूर्वाग्रहों को हाल के बाहर के स्ट्रांग रूम  में जमा कर दें! 
ईश्वर सार्वभौम नहीं है।  केवल धरती पर है। धर्म केवल धरती पर है। संस्कृति  धरती पर है।कम से कम ये सब एलियन की धरती पर तो जैसे यहाँ हैं वैसा नहीं है।  और फिर धर्म को लेकर फैले पाखंड का जो अतार्किक  स्वरुप एक एलियन की नज़र देखती है उससे वह स्तब्ध और भ्रमित हो रहता है. मजे की बात तो यह है कि धर्म के जिस पाखंड पर फिल्म चोट करती है बिल्कुल उसी की पुनरावृत्ति इस फिल्म को लेकर मूर्खजन करते हैं और हास्य का पात्र बनते हैं। और तो और स्वामी रामदेव जी भी इस फिल्म को लेकर आक्रामक हो गए थे संभवतः बिना देखे ही।  फिल्म ने विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के पाखंड पर चोट की है और उनके अतार्किक अंतर्विरोधों को दिखाया है।  एक एलियन के साथ धरतीवासियों का इनट्रैक्शन रोचक है -उसे पियक्कड़ समझ लिया जाता है -नाम पी के पड जाता है। 
आपमे जायदातर लोगों  फिल्म अब तक देख ली होगी सो कहानी बताने की जरुरत नहीं।  धर्म की प्रासंगिकता को लेकर चुटीले और सार्थक संवाद हैं।  धर्म और पाखंड के अंतर को बताने का प्रयास है -मगर थीम कोई नयी नहीं।  ओह माई गाड़ इसी अधिक प्रभावशाली तरीके से विषय को रखती है।  इसमें कई फूहड़ कॉमेडी है जो कुछ ख़ास तरह के दर्शकों को ज्यादा भाएगी।  जैसे बच्चों और महिलाओं को और कुछ दृश्य उन्हें असहज भी करेगें। हाल की खिलखिलाहट और स्तब्धता से भी  मैंने यही समझा।  

अब यह फिल्म विज्ञान  कथा की श्रेणी में रखी जा सकती है या नहीं ? विचार विमर्श फेसबुक पर चल रहा है।  हाँ थोड़े से दृश्य और कोण  फिल्म में जरा हट के और डाल दिए गए होते तो यह शर्तिया मुख्यधारा की साइंस फिक्शन कही जा सकती थी -अभी तो थोड़ा हिचकिचाहट सी है। काश निदेशक ने मुझसे संपर्क किया होता? :-) मुझे अपनी लिखी पहली विज्ञान कथा गुरुदक्षिणा की याद ज़ीशान ने दिलाई और कहा कि फिल्म तो शुरू में आपकी कहानी सी लगती है।ना ना मैं निदेशक या फिल्म राईटर पर कोई आक्षेप नहीं लगा रहा हूँ :-) 

शनिवार, 17 जनवरी 2015

ब्लॉग पर मानस प्रभाती! वन्दे वाणी विनायकौ!



फेसबुक पर मानस प्रभाती ने सुधी मित्रों, मानस प्रेमी पाठकों को मुझसे  ब्लॉग पर भी इसे अभिलेखार्थ डालते रहने के लिए प्रेरित किया और उनके निरंतर अनुरोध पर अब मानस प्रभाती यहाँ आवधिक तौर पर उपलब्ध होगी। शुरुआत मानस के आरम्भ से ही करते हैं। 
वन्दे वाणी विनायकौ!
जी, इस वन्दना से ही तुलसी ने मानस का प्रारम्भ किया है। दरअसल लोक परम्परा में प्रथम पूजा के अधिकारी गणेश जी हैं। आप सभी ने भी कितने ही कार्य 'श्री गणेशाय नमः' के साथ शुरू किया होगा। और आज भी कोई भी मांगलिक कार्य गणेश की आराधना से ही शुरू होता है। वे विघ्न विनाशक माने गए हैं। मानस आरम्भ में भी संत तुलसी के मन में यह बात कौंधी होगी। मगर तुलसी तो तुलसी। इस सरस्वती पुत्र को माँ सरस्वती का भी प्रथम आराध्य के रूप में अपने महान ग्रन्थ के प्रणयन के आरम्भ में आह्वान करना था। सो एक युक्ति निकाली उन्होंने -वन्दे वाणी विनायकौ! मतलब दोनों का समान रूप से आह्वान कर लिया। मगर इसमें भी विद्या और बुद्धि की अधिष्टात्री को उन्होंने प्राथमिकता दी। बड़ी ख़ूबसूरती और विद्वता के साथ। अस्तु , वन्दे वाणी विनायकौ!
* वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ
अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ!
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आज शोध/काव्य प्रबंधों में जहाँ संदर्भिका(Bibliography) अंत में देने का प्रचलन है ,तुलसी ने पहले ही अपने अध्ययन स्रोतों का उल्लेख कर दिया है-
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति
अनेक पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है'तुलसी ने एक बड़ी अच्छी बात कही कि मानस की रचना उन्होंने खुद अपनी संतुष्टि के लिए की है -"स्वान्तः सुखाय" -संभवतः रचना की सोद्देशता को लेकर उठने वाले विवादों से वे अपनी इस मानस -कृति को दूर रखना चाहते थे। मगर मानस को लेकर हुआ वाद वितंडा भला कौन नहीं जानता। उन्हें बनारस के संस्कृत के पंडितों, शैवों से जूझना पड़ा कालांतर में समाज के अनेक वर्गों की भी प्रखर आलोचना सहनी पड़ी -मगर मानस का महत्व कम न होकर बढ़ता ही गया है तो इसका कारण इसकी काव्यश्रेष्ठता और उद्येश्यपूर्णता ही है। जिसका उत्तरोत्तर परिचय हमें मिलेगा।

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