शनिवार, 17 जनवरी 2015

ब्लॉग पर मानस प्रभाती! वन्दे वाणी विनायकौ!



फेसबुक पर मानस प्रभाती ने सुधी मित्रों, मानस प्रेमी पाठकों को मुझसे  ब्लॉग पर भी इसे अभिलेखार्थ डालते रहने के लिए प्रेरित किया और उनके निरंतर अनुरोध पर अब मानस प्रभाती यहाँ आवधिक तौर पर उपलब्ध होगी। शुरुआत मानस के आरम्भ से ही करते हैं। 
वन्दे वाणी विनायकौ!
जी, इस वन्दना से ही तुलसी ने मानस का प्रारम्भ किया है। दरअसल लोक परम्परा में प्रथम पूजा के अधिकारी गणेश जी हैं। आप सभी ने भी कितने ही कार्य 'श्री गणेशाय नमः' के साथ शुरू किया होगा। और आज भी कोई भी मांगलिक कार्य गणेश की आराधना से ही शुरू होता है। वे विघ्न विनाशक माने गए हैं। मानस आरम्भ में भी संत तुलसी के मन में यह बात कौंधी होगी। मगर तुलसी तो तुलसी। इस सरस्वती पुत्र को माँ सरस्वती का भी प्रथम आराध्य के रूप में अपने महान ग्रन्थ के प्रणयन के आरम्भ में आह्वान करना था। सो एक युक्ति निकाली उन्होंने -वन्दे वाणी विनायकौ! मतलब दोनों का समान रूप से आह्वान कर लिया। मगर इसमें भी विद्या और बुद्धि की अधिष्टात्री को उन्होंने प्राथमिकता दी। बड़ी ख़ूबसूरती और विद्वता के साथ। अस्तु , वन्दे वाणी विनायकौ!
* वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ
अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ!
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आज शोध/काव्य प्रबंधों में जहाँ संदर्भिका(Bibliography) अंत में देने का प्रचलन है ,तुलसी ने पहले ही अपने अध्ययन स्रोतों का उल्लेख कर दिया है-
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति
अनेक पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है'तुलसी ने एक बड़ी अच्छी बात कही कि मानस की रचना उन्होंने खुद अपनी संतुष्टि के लिए की है -"स्वान्तः सुखाय" -संभवतः रचना की सोद्देशता को लेकर उठने वाले विवादों से वे अपनी इस मानस -कृति को दूर रखना चाहते थे। मगर मानस को लेकर हुआ वाद वितंडा भला कौन नहीं जानता। उन्हें बनारस के संस्कृत के पंडितों, शैवों से जूझना पड़ा कालांतर में समाज के अनेक वर्गों की भी प्रखर आलोचना सहनी पड़ी -मगर मानस का महत्व कम न होकर बढ़ता ही गया है तो इसका कारण इसकी काव्यश्रेष्ठता और उद्येश्यपूर्णता ही है। जिसका उत्तरोत्तर परिचय हमें मिलेगा।

8 टिप्‍पणियां:

  1. आजकल हम अक्षरों को कुछ समर्पित नहीं करते हैं जबकि पहले के ग्रंथों में सबसे पहले भाषा व्याकरण को ही सब कुछ समर्पित होता था

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  2. थैंक्स। यहाँ संजोने की लिए मेरा निजी आभार भी स्वीकार करें :)

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  3. नए साल में इस शुभ कार्य की शुरुआत के लिए बधाई और शुभकामनायें. ऐसे कई लोग जो फेसबुक पर नहीं हैं: वो भी इसका लाभ उठा पायेंगे. जाहिर है सबसे सबसे अधिक फायदा हम जैसे लोगों के लिए होगा जो अभी तक मानस-मधु के आस्वादन से वंचित रहे हैं. एक बार फिर से बधाई.

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  4. अक्षर और शब्द अ - क्षर हैं अर्थात् शाश्वत हैं इसी तरह वाणी भी शाश्वत है । वाणी चार - प्रकार की होती है - परा , पश्यन्ती , मध्यमा और वैखरी । हम मात्र वैखरी को जानते हैं । अन्य वाणियों को जानना अन्तः अन्वेषण की प्रक्रिया है ।

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