मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

आओ भामाशाहों आओ -हिन्दी ब्लागिंग को उबारो!

जब हिन्दी ब्लॉगों का एक दशक पहले आगाज  हुआ था तो कहा गया था कि अभिव्यक्ति  के  एक युगांतरकारी माध्यम का आगमन हो गया है। अब न तो संपादकों की  कैंची  का डर था और न कही कोई रोक टोक।बेख़ौफ़ बयानी का एक चुंबकीय आमंत्रण था। यह वह दौर था जब कंप्यूटर की शिक्षा लेकर युवाओं की एक फ़ौज अंतर्जाल की नयी संभावनाओं को तलाश रही थी। जाहिर है उनमें से  अधिकांश का सृजनात्मक लेखन से कोई  लेना देना नहीं था और न  कोई अनुभव ।  फिर भी उन्होंने अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन की अलख जगाई और उसमें से कुछ तो रातो रात अच्छे लेखक के रूप में सन्नाम भी हो गए। यह समय (2003 -२००७ ) हिन्दी ब्लॉग लेखन का प्रस्फुटन  काल था।

हिन्दी  ब्लॉग जगत में इसके बाद साहित्यिक और सृजनात्मक प्रतिभाओं की पैठ हुई और लगने लगा कि हिन्दी ब्लागिंग के रूप में अभिव्यक्ति का एक नया युग आ गया है जो पारम्परिक मीडिया को धता बताकर रहेगा। और हिन्दी ब्लागिंग की यह धमक और ठसक आगे के कई सालों तक बनी रही। और इस माध्यम/विधा की खिलाफत भी हिन्दी के पारम्परिक खुर्राट और खेमेबाज साहित्यकारों  /संपादको की ओर से शुरू हो गयी गई -उन्हें अचानक अपने विस्थापन  का खतरा भी दिखाई देने  लग  गया था।  मजे की बात यह कि वे ब्लॉग बैठकियों में मुख्य अतिथि की हैसियत से  बुलाये जाते और मंच पर ही इस माध्यम की खिल्ली उड़ा आते। आत्ममुग्ध ब्लागर  ऐठ में उनकी बातों को तवज्जो नहीं देते। यह  हिन्दी  ब्लॉग जगत का पुष्पन -पल्लवन काल(2007 - 2010 था। 

ठीक इसके बाद ब्लॉग जगत का वह हाहाकारी स्वर्णकाल आया जिससे प्रतिभाओं का अजस्र  बहाव यहाँ देखा गया ।  एक से एक सच्चे प्रतिभाशाली , आत्ममुग्ध और स्वनामधन्य महानुभाव अवतरित हुए जिन्हे  ब्लागजगत  के अब तक पुरायट कहे जा रहे ब्लागरों ने सीख दी , संरक्षण दिया और दुर्भाग्य से हिन्दी ब्लागजगत में भी पारम्परिक साहित्य की अनेक दुष्प्रवृत्तियों का यहीं से आरम्भ शुरू हुआ। खेमे बने ,'मठ' बने और मठाधीश बने।  जाति  बिरादरी के नाम पर गोलबंदी शुरू  हुयी। कई  मगरूर ब्लॉगर आये। कई बेशऊर भी आये।  किसी ने मखमली माहौल बनाया तो किसी ने इस्पाती ताकत दिखाई। व्यर्थ के लड़ाई झगड़े बहस मुहाबिसे और रोज की चख चख ।  सृजन गायब होने लगा -रगड़ घषड़ की ऊष्मा ही ज्यादा फ़ैली।  लोगों ने देख सुन लेने की धमकियां  भी दी लीं. 

भारत का अब तक न जाने कहाँ  सोया नारीत्व भी  अचानक जाग दहाड़ें मारने लग गया  .ब्लागरों की पुरुष महिला कैटेगरी  का क्लीवेज भी साफ ज़ाहिर हो चला।  स्वाभाविक था रचनाशील सौम्यता अब परदे के पीछे जा पहुँची थी।  हिन्दी ब्लागजगत का मोहभंग काल अब शुरू हो चला था।  कुछ का ऐसा मोहभंग हुआ कि उन्होंने मुद्रण माध्यम का दामन थाम लिया -जिसे वे कभी  पानी पी पीकर कोसते थे।  कुछ ने तो यहाँ तम्बू उखड़ने के अंदेशे से  झटपट इस माध्यम  का लांचिंग पैड की तरह इस्तेमाल कर प्रकाशकों से  मिल मिला पैसे वैसे दे दिलाकर किताबें छपवाईं  और बिकवानी शुरू कर दीं।  

हिन्दी ब्लागजगत का अवसान काल  अब आसन्न था। दशेक काल में सब कुछ हो हवा गया।  उत्थान पतन सब।  अभी भी लोग कहते  हैं, नहीं नहीं ब्लॉग अब भी खूब लिखे पढ़े जा रहे हैं -मगर पाठक हैं कहाँ  भाई? हिन्दी के अन्तरजालीय पाठकों को हमने संस्कारित ही तो नहीं  किया -यहाँ तो सब  ब्लॉगर लेखक ही हैं -ब्लॉग पाठकों का टोटा है -उनकी कोई जमात नहीं, जत्था नहीं। यहाँ ब्लॉगर ही लेखक है और खुद  वही पाठक भी । अलग से पाठक वर्ग गायब है।  पाठकों को ललचाये  जाए बिना हिन्दी जगत के दिन बहुरने से रहे। तब तक शायद हम ब्लॉगर अल्पसंख्यकों को हाथ पर हाथ बैठे रहना होगा।  इस माध्यम को भी अब प्रायोजकों  प्रश्रयदाताओं की ही  तलाश है -आओ भामाशाहों आओ -हिन्दी ब्लागिंग को उबारो ! 

 

37 टिप्‍पणियां:

  1. पंडित जी! बड़ी सामायिक पोस्ट! वास्तव में समय के झंझावात में वे ही टिके रहे जो इस विधा से संजीदगी से जुड़े थे! जिन्होंने घोड़े को नाल ठुकवाते देख मेढक की तरह नाल ठुकवाने को पैर पसरे थे वे वीरगति को प्राप्त हुए।
    वो शाबाशी और वाहवाही का दौर था। उस दौर में संजीदगी से पढ़ने वाले कम थे वाह वाही करने वाले ज्यादा। जो सच्चे पाठक थे वे आज भी हैं। हाँ ताली पिपासु लेखकों ने ताली के अभाव में लेखन का रुख फेसबुक की और मोड़ दिया और वहाँ तालियाँ बटोर रहे हैं।
    लिखने वालों की हार नहीं होती, मात्र शाबाशी से ब्लॉग सरिता पार नहीं होती!
    इस पोस्ट के लिए आभार आपका!!

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    1. 'लिखने वालों की हार नहीं होती, मात्र शाबाशी से ब्लॉग सरिता पार नहीं होती!'यहाँ वाहवाही बनती है...स्वीकार कीजिये .

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    2. पढ़ने के लिए तब भी थी अब भी हूँ.... समय की गिरफ्त से बाहर आते ही ब्लॉगों को तेजी से मिलवाने की कोशिश भी रहेगी ..

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  2. बहुत बढ़िया विश्लेष्ण खासकर ...'हाहाकारी स्वर्णकाल !!!! 'छद्म ब्लोगरों का ज़िक्र भूल गए आप? सबसे अधिक आप को ही सताया करते थे.!! आपका आह्वान रंग लाएगा या नहीं ... वक़्त ही बतायेगा ...आपने सुध ली..अच्छा लगा ....सामयिक लेख.

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  3. फिर वही राग.....ब्लॉगिंग बदस्तूर जारी है बस थके हुए घोड़े अस्तबल में आरामफरमा हैं।

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. क्या इतनी विकट स्थिति है,
    अगर आप कहें तो नये साल से हम फिर से लिखना शुरू कर दें ;)

    नववर्ष की शुभकामनाओं सहित.

    नीरज

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  6. जब हम खूब ब्लॉग-ब्लॉग खेलते थे तब भी उन ब्लॉगों में कमेंट का टोटा होता था जहां के ब्लॉगर किसी ब्लॉग में कमेंट नहीं करते थे।

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  7. पता नहीं सन्तोष जी के इस 'बदस्तूर जारी है' को किस तरह लेना चाहिए? आराम से बैठ जाना थकान की निशानी है, आज पता चला। मैं भी कल इस आराम के 'मोड' में चला गया हूँ। चार साल बाद अपना ब्लॉग बंद कर दिया है। उनकी व्याख्या में मैं कहाँ आता हूँ? ख़ुद को कहाँ स्थित करूँ? समझ नहीं पाता।

    ख़ैर,

    खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आज भी गंभीर पाठक मौजूद हैं, पर मेरी मुलाक़ात उनसे अभी तक नहीं हुई है। फ़िर यह स्थापना कि ब्लॉगर एक साथ लेखक और पाठक दोनों हैं। यदि ऐसा था तो इन चार सालों में किन्ही मुलाक़ातों का ज़िक्र अपनी जगह भी कुछ करता। लेकिन नहीं कर पाया।

    फ़िर यह सूक्तियाँ मेरी समझ में कम आती हैं कि 'लिखने वालों की हार नहीं होती, मात्र शाबाशी से ब्लॉग सरिता पार नहीं होती।' मेरी समझ में तो लिखना न किसी को हराने के लिए है, न किसी को जीतने के लिए। वह सबसे पहले ख़ुद के लिए है। ..

    फ़िलहाल सागर की बात मेरे मन में लगातार घूम रही है, ब्लॉगिंग का जादू थम गया है। (http://karnichaparkaran.blogspot.in/2014/01/blog-post_7.html)

    और इस 'न्यू मीडिया' के 'पावर स्ट्रक्चर' में हम कहीं नहीं ठहरते..

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    1. निराशा की इस अमावस के बाद निश्चित ही सूर्योदय होगा , शचीन्द्र जी ! आप की तरह ही हर ब्लॉगर डरा हुआ है पर आशा से आकाश थमा है ।

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    2. शचीन्द्र! धन्यवाद। आपका आलेख पा गया मैं इस आलेख से। पर कब? जब आपने अलविदा कह दिया-उसके दो दिन बाद। कुछ अजीब लग रहा है।

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    3. पता नहीं यह कैसा अजीब है। पर इसे ऐसे ही अजीब होना था।

      मैंने भी सोचा था इसके हुलिये को एकबार फ़िर से बदल देता हूँ, पर 'ब्लॉगस्पॉट' के टेम्पलेट मन मुताबिक नहीं लगे। लगा सिर्फ़ सजाने से इसका मूल चरित्र नहीं बदल सकता। मेरे लिए यह ऐसा बक्सा बनता गया, जिसमें कुछ भी डालता उसे वह अपनी टक्साल में अपनी तरह ले सिक्के बना देता.. उसे एक दिन ऐसे ही रुक जाना था। रुक गया।

      फ़िर वैबसाइट बनाने के लिए थोड़े बहुत पैसों की ज़रूरत तो पड़ती होगी, कभी होंगे तो इस सारे माल को वहाँ ठेल देंगे। अगर मन करेगा तो कोई दूसरा प्लैटफ़ॉर्म बनाकर वहाँ जाऊंगा। इधर घुटन में वापस आने का मन नहीं है। बाक़ी तो बहुत हैं..

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    4. भाई जो लोग लिखना बंद कर दिए हैं उन्हें लगता है कि सब कुछ बंद हो गया है पर नये लोग लगातार लिख रहे हैं और बढ़ रहे हैं।
      बकिया फेसबुक ने भी इसकी बखिया उधेड़ी है। इसलिए यहाँ मुर्दनी छाई दिखती है।

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    5. भाई जो लोग लिखना बंद कर दिए हैं उन्हें लगता है कि सब कुछ बंद हो गया है पर नये लोग लगातार लिख रहे हैं और बढ़ रहे हैं।
      बकिया फेसबुक ने भी इसकी बखिया उधेड़ी है। इसलिए यहाँ मुर्दनी छाई दिखती है।

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    6. @ संतोष जी, मेरे ब्लॉग बंद करने का निर्णय नितांत निजी था, उसकी कोई सार्वजनिक या पब्लिक डोमेनीय कारण नहीं था। न मैंने ब्लॉगिंग से बहुत हताश-निराश होकर वह निर्णय लिया था। वह एक रचनात्मकता के बार-बार एक ही साँचे में तब्दील हो जाने से उत्पन्न लेखकीय पीड़ा जैसा था। न कि राइटर्स ब्लॉक।

      फ़िर जहाँ तक फ़ेसबुक की बात है उस पर मेरी उपस्थिति रचनाकर के रूप में 2012 में ही सीमित कर ख़त्म कर चुका था। उसपर कुछ भी हो, या कहीं भी किसी भी तरह की बातें हों, उससे मैंने ख़ुद को हमेशा अप्रभावित ही रखा। जिसे हिमांशु जी जिस 'चुपचाप पढ़ना' को (बिना ब्लॉग लिखे या नियमित टिप्पणी किए) निष्क्रियता की श्रेणी में डाल देने की बात कर रहे हैं, बिलकुल उसी ढर्रे का लेखक मैं ख़ुद को मानता हूँ। और इससे मुझे कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता।

      अगर भाषा में कहीं कहीं आवेग, आक्रोश, गुस्सा, खीज का मिला जुला असर दिखाई दे तो आशा करता हूँ, आप अन्यथा न लेंगे। बस वो आपके ब्लॉग की टैगलाइन जैसा हो गया लगता है, 'अपनों से, अपनी जैसी,..' :)

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  8. हिन्दी ब्लॉगरों में बड़पन की कमी भी इसकी एक प्रमुख वजह रही है। अगर हिन्दी ब्लॉगर नये ब्लॉगरों को उचित प्रोत्साहन देंगे, तो हम सब पाठकों की कमी को दूर कर सकते है। सादर।।

    इस विषय पर मैंने भी एक चिट्ठी लिखी थी, जरा आप सब उसपर भी नज़र दौड़ायें - क्या हिन्दी ब्लॉगजगत में पाठकों की कमी है ?

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    1. ब्लॉग के पाठक नहीं के बराबर हैं । हम जिन्हें पाठक समझ रहे हैं वे वस्तुतः पाठक हैं ही नहीं , वे केवल खाना - पूरी कर रहे हैं । ब्लॉग में टिप्पणी लिखने वालों को , यह भी सोचना है कि टिप्पणी के माध्यम से वे पाठकों को क्या परोस रहे हैं । यह हम सबका दायित्व है ।

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  9. हिंदी साहित्य के पाठकों की रुचियाँ कुछ अलग ही रही हैं । कभी ग़ुलशन कुमार और राकेश मोहन जैसे लेखकों की चाँदी हुआ करती थी । आज वे सब नेपथ्य में चले गये हैं । वह पीढ़ी ही अब दिखायी नहीं देती । जहाँ तक ब्लॉगिंग का क्षेत्र है । मैं सलिल भाई की टिप्पणी से सहमत हूँ । किंतु मैं ब्लॉग लेखन के प्रति निराश नहीं हुआ हूँ । कूड़ा-कचड़ा छट रहा है ......अच्छी बात है । अब यहाँ वही टिकेगा जो लेखन के प्रति गम्भीर है और सार्थक लेखन के प्रति निष्ठावान । भीड़ में दम घुटने की आशंका कम हुयी ...हमें निराश होने की अपेक्षा चैन की साँस लेनी चाहिये । हाँ यह अवश्य है कि ब्लॉगर्स को और निकट आने एवं और सहिष्णु होने की आवश्यकता है ।

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  10. विश्लेषण ... अपना अपना नजरिया है ... जिसको जो करने है वो करेगा ...
    आपको और परिवार में सभी को नव वर्ष की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ...

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  11. फेसबुक पर धमाचौकड़ी है-धूल खूब उड़ती है वहाँ। ब्लॉग की क्लासिक मस्ती वहाँ नहीं, न अवकाश और न उस माध्यम की सहूलियत है कुछ लम्बा, टिकाऊ और वजनी कहने की। सोमपान के बाद की बहतकी-सा है सबकुछ, मतवाला कितना भी गुरुतर अभिव्यक्त करे- सब उड़ जायेगा हँसी ठट्ठे में या क्षणिक आनन्द में।
    ब्लॉग ललित अभिव्यक्ति का माध्यम बनते बनते रह गया- छपास के ऐतिहासिक संक्रमण ने जकड़ लिया उसके तारणहारों को।
    हाँ, शुरुआती पाठकीय उदासीनता ने प्रभावित किया पर कई लोग (मैं भी) इसे थामे रहे। मैं तो और कुछ लिख न भी पाऊँ (किसके लिए लिखूँ? वाली बात नहीं थी- अपनी करनी ही ऐसी हो गयी थी कि चुप बैठ गया था) तो भी समयानुसार टेम्पलेट बदलता रहा, साज-सज्जा करना सीखता रहा- ठौर सजाता रहा कि कभी मौका मिला तो इस सजे ठौर पर सहज अभिव्यक्ति फिर से अँगड़ाई लेगी- किसी भी (अप्रत्याशित, अनापेक्षित) बन्ध और ’एडिटिंग’ से परे।
    चुपचाप पढ़ना (बिना ब्लॉग लिखे या नियमित टिप्पणी किए) निष्क्रियता की श्रेणी में डाल दिया जाता है यहाँ। यद्यपि फेसबुक पर केवल लाइक कर भी प्रिय रहा जा सकता है। तो क्या करें। अजीब परेशानी है।
    ज़्यादा तो एक अलग से प्रविष्टि में कहा जा सकने योग्य है।
    आपकी चिंता के साथ। आपकी ललकार में साथ। ब्लॉग लिखने में भी थोड़े धीमे ही सही-पर साथ।
    आभार तो इस प्रविष्टि के लिए है ही।

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  12. हो सकता है कई लोग उब गए हों या अन्य कारणों से विमुख हो गए हों. लेकिन फिर भी कुछ लोग हैं जो नियमित रूप से ब्लॉग पढ़ते हैं और इस काल (आपके मुताबिक 'अवसान काल ') में भी डटे हुए हैं. क्यों न उन्हीं समर्पित पाठकों के लिए नए साल में नियमित रूप से लिखने का संकल्प लिया जाय.

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  13. वाह वाही का चाह रखने वाले निश्चय ही इधर उधर भटक रहे हैं परन्तु धैर्यवान और साहित्यिक रूचि वाले पाठक और लेखक ब्लॉग में हमेशा रहेंगे| हर काल में उतार चढ़ाव तो होता ही है |
    नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं |
    : नव वर्ष २०१५

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  14. नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं |

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  15. कारवां चल पड़ा है तो रास्ते में कई पड़ाव भी आते हैं जहाँ रुकने पर लगता है यहीं होकर सब ठहर जाएगा लेकिन समय के साथ फिर से सभी चल पड़ते हैं ... मंजिल-दर-मंजिल कारवां चलता रहता है ...चलता रहेगा ...
    ..बहुत सार्थक मंथन प्रस्तुति के लिए और नए साल पर आपको सपरिवार हार्दिक मंगलकामनाएं!

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  16. हर काम का समय होता है और उसके ट्रिगर्स भी होते हैं । कब कहाँ क्या काम कर जाये कौन जानता है। हम भारतीय वैसे भी चौपाल पंचायत वाले लोग हैं सो ब्लोगिंग से शुरुआत हुई, फिर कुछ लोग फेसबुक को अड्डेबाजी के लिए बेहतर मानकर ब्लॉग वीरान कर वहाँ पहुंच गए। समय के साथ लोगों की सायास छिपाई गई राजनीतिक , सांप्रदायिक प्रतिबद्धतायें भी खुलकर सामने आ गईं। कागज के फूलों की खुशबू भी समय के साथ उड़ गई। स्वार्थ के सम्बन्धों में भी खटास आनी थी। आयोजन, सामाजिकता, सम्मेलनों के साथ-साथ मनोरंजक तमाशे भी हुए ही। चारा दिखाकर भीड़ जुटाने वालों को अब भी बहुत लोग मिल जाएँगे। हाँ, अब ऐडसेंस के फिर एक्टिव होने के कारण कट-पेस्ट, लगाई-बुझाई ब्लोगिंग में ज़रूर फिर से कुछ जोश आने की संभावना है। सच यह है कि इस कवि सम्मेलन में मंच बड़ा है और दर्शक दीर्घा छोटी। लेकिन इस सब से निर्लिप्त होकर अच्छा और प्रामाणिक लिखने वाले तब भी थे अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। वैसे हिन्दी ब्लोगिंग में एक काल इनामी ब्लोगिंग का भी रहा है जिसे इस आलेख में अपना यथोचित स्थान मिलना चाहिए था।

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    1. अनुराग जी ,
      धन्यवाद! छूटा तो बहुत कुछ है -मगर वो कहा गया है न-
      जो सारभूत हो उपास्य वही है।
      नहीं तो टंकी चढ़ाई काल ,ओढ़नियाँ ब्लागिंग काल ! मुंह दिखाई काल !
      लौह ललना काल -मगर अब सब गुदगुदाता अतीत है !

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  17. इस पोस्ट अपने विचारों समृद्ध करने के लिए आप सभी का बहुत आभार!
    शचीन्द्र जी आप शुरू करें!

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    1. @अरविंद जी, थोड़ा कोशिश करने के बाद मैं धीरे-धीरे वापस आ रहा हूँ..और शायद यह पोस्ट न होती और मेरे वो दो-चार दोस्त न होते, तो कभी ऐसा सोच भी नहीं पाता। आपका अशेष आभार।

      http://karnichaparkaran.blogspot.in/2015/01/come-back-post.html

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  18. कुछ ब्लॉग तो अपनी सामयिकता बनाए रखे हैं ही कि उनपर बार-बार जाया जाता है। वैसे ब्लौगिंग फिर समृद्ध हो तो अच्छा ही है...

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