ऐसा संयोग ही रहा कि बहुत कम समय के अंतराल पर दो लीक से हटी मगर बाक्स आफिस पर पिटी फिल्मे झेलनी पडीं -एक तो धोबीघाट और अब दूसरी यह सात खून माफ़ जो दरअसल भारत में रच बस गए ब्रितानी लेखक रस्किन बांड की कहानी सुसन्ना'ज सेवेन हस्बैंड्स पर आधारित है -दीगर फ़िल्मी डिटेल्स यहाँ देख सकते हैं. फिल्म घोर आर्टिस्टिक और बारीक मनोभावों की सेल्युलायिड -प्रस्तुति है और एक ख़ास तरह की संवेदना के साहित्यिक और 'अभिजात्य 'अभिरुचि के दर्शकों को ही पसंद आयेगी ...
कहानी एक सच्चे प्रेम की प्यासी औरत की कहानी है जिसने अपने छह पतियों को उनसे मिली बेरुखी और बेवफाई के चलते मौत की नींद सुला दिया ...और अंत में जीसस क्राईस्ट से ही निकाह कर एक रूहानी /सूफियाना प्रेम को समर्पित हो गयी .यह फिल्म साहित्य की डार्क कामेडी विधा की नुमायन्दगी करती है जिसमें जीवन के नग्न सत्यों की कटाक्ष और परिहास पूर्ण प्रस्तुति की जाती है -जहां विद्रूप हास्य और नग्न सत्य का मिला जुला प्रभाव एक पीडा भरी अनुभूति दे जाता है और जीवन की निरुद्येश्यता और निस्सारता का बोध भी करा देता है ....सुजैना की केन्द्रीय भूमिका में प्रियंका चोपड़ा ने एक अभिशप्त नारी के त्रासदपूर्ण लम्बे जीवन को बहुत प्रभावशाली तरीके से अभिनीत किया है ...सच्चे प्रेम की अभिलाषी एक नारी का सपना पहले ही विवाह में चूर चूर हो जाता है जब उसका सेनाधिकारी पति अपनी संतानोत्पत्ति की कमी को पौरुष दंभ के तहत स्वीकार न कर पत्नी पीडक बन जाता है और पत्नी का जीवन नारकीय बना देता है ...उसे एक हिंस्र काले तेंदुएं के आगे झोक कर सुजैना उससे मुक्त हो लेती है ...फिर तो पतियों का आया राम गया राम का एक सिलसिला ही शुरू हो जाता है ,अब एक सिंगर पति को अपनी बेवफाई और नशे के सेवन के चलते जान से हाथ धोना पड़ता है तो एक शायर पति ऊपर से तो बड़ा नाजुक मिजाज मगर निजी जीवन में परपीडक कामुकता ( सैडिस्टिक मैसोकिज्म ) का शिकार है जिसे गहन निजी क्षणों में बिना पत्नी को पीटे यौनिक आनन्द नहीं मिलता -उसे भी जिन्दा कब्र में सुलाने के बाद पारी आती है एक पुलिस आफीसर की जिसे लगातार हो रही पतियों की मौत से कुछ शंका हो जाती है मगर वह भी शादी के जाल में खुद को डाल पाने से रोक नहीं पाता जबकि एक विवश पूर्व पतिहंता नारी उसे बार बार अबाध यौन सुख दे देकर संतृप्त करती रहती है ....मगर मुर्गी के सुनहले अंडे के बजाय पूरी मुर्गी हडपने को कामातुर यह हतभाग्य पति भी अपने वियाग्रा प्रेम की भेंट चढ़ जाता है -मादक पेय में चोरी से एक बड़ी वियाग्रा डोज के चलते मैसिव हार्ट अटैक से उसकी भी इहलीला समाप्त हो जाती है ..अगला पति बेवफाई के चलते कोबरा से कटवाकर मार दिया जाता है ....और उसके भी अगले का भेजा गोली से उड़ा दिया जाता है ..प्रतिशोध सुन्दरी का कहर उसके पतियों पर टूटता रहता है......
प्रतिशोध सुन्दरी!
यह कहानी एक युवा डी एन ये वैज्ञानिक और चिकित्सक अपनी पत्नी को सुनाता चलता है जिसे सुजैना ने ही आर्थिक मदद देकर उसकी शिक्षा दीक्षा पूरी कराई है ...और एक दिन जीवन से पूरी तरह निराश और हताश और मोहभंग हो उठने की मनःस्थिति में सुजैना उसे ही अपना शरीर सौंपने को तत्पर हो उठती है जबकि उम्र में काफी कम और उसका ही पाल्य युवा डाक्टर यह पेशकश तीव्र आक्रोश से ठुकरा देता है यद्यपि वह भी सुजैना के प्रति आकर्षित है मगर उसका प्यार रूहानी है और उसके मन में सुजैना के प्रति अपार सम्मान भी है -इस युवा डाक्टर के ठुकरा दिये जाने के बाद सुजैना जीवन से पूरी तरह विमुख अपनी अंतिम शादी एक चर्च में जीसस से एक पादरी की उपस्थिति में करती है जो स्वयं रस्किन बांड द्वारा ही अभिनीत पात्र है. मतलब लेखक महाशय खुद अपनी कहानी में ही एक किरदार बनकर नमूदार हो जाते हैं ...
फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है उसका लचर निर्देशन जो पात्रों के जबरदस्त अभिनय के बाद भी दर्शकों को बांध पाने में असफल रहती है ...एक तो कहानी में कोई उत्सुकता का भाव नहीं है ..सभी यह जानते रहते हैं कि अगले पति को भी हलाल होना ही है ...मगर हाँ ,फिल्म इसाई ,इस्लामी और हिन्दू रीति रिवाजों,प्रतीकों,संस्कृति के विविध आयामों के आमेलन की प्रभावशाली प्रस्तुति से एक अलग ही छाप छोडती है ..रस्किन बांड एक वृत्तांत और मजमा प्रेमी लेखक हैं जिन्हें भारतीय कोबरा ,जंगल में शिकार ,मशरूम की एक मादक प्रजाति से एक लगाव सा रहा है ....और जीवन के कुछ नग्न यथार्थों और छलावों /मुगालतों की ओर इशारा करना वे अपना लेखकीय दायित्व मानते हैं -मूल कृति निश्चित ही एक क्लासिक है मगर उसका फिल्मांकन ठीक से नहीं हो पाया है ....लचर निर्देशन ने कहानी की रेड़ मारकर रख दी है ...जबकि दृश्यांकन खूबसूरत हैं ...सुजैना का एक डायलाग कि दुनिया की हर औरत कभी न कभी अपने पति का कत्ल करने की सोचती है होठों पर बरबस ही एक विद्रूप मुस्कान ला देती है ....
कहानी के बजाय अगर आपकी रूचि दृश्य -विभोरता में हो तो जाईये देख आईये यह फिल्म ...तीन स्टार तो मुझे देना ही होगा इसे ...
फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है उसका लचर निर्देशन.
जवाब देंहटाएंबस यही बात.. अच्छे भले यूनीक कथानक की रेड मार दी है.
अरविन्द जी , अभी देखी नहीं है । लेकिन देखने की बड़ी तमन्ना है । अब तो और भी बढ़ गई है । तीन स्टार की फिल्म बेकार तो नहीं हो सकती ।
जवाब देंहटाएंआभार इस शानदार समीक्षा के लिए ।
विद्रूप पाश्चात्य संस्कृति। भाड़ में जाय ऐसी फिल्म।
जवाब देंहटाएं@ओह हो कवि ह्रदय विद्रोही हो उठा -मैं समझ सकता हूँ ..
जवाब देंहटाएंमगर हमें विश्व साहित्य के प्रति इतना भी अनुदार नहीं होना चाहिए ...
समझिये उनकी भी मगर करिए अपनी ..
अपने उस दृश्य विभोरी मित्र से बोलिए देख आयेगें हा हा हा ....
मैं देख आई हूँ मिश्रा जी ... मुझे बेहद पसंद आई है फिल्म ... सब कलाकारों का अभिनय कमाल का है .... :):)
जवाब देंहटाएंमै तो अपने विडियो केमरे से ही बनाई फ़िल्म देख लेता हुं, मुफ़त भी, ओर बकवास से भी बचे, वेसे भी इतना समय नही कि हर घटिया फ़िल्म देखी जाये
जवाब देंहटाएंप्रतिशोध सुंदरी के 'दृश्य-विभोर' चित्र का चुनाव बढि़या है.
जवाब देंहटाएंये दोनों फ़िल्मे मिलाकर अगर "धबीघाट पर सात खून माफ़" टाईटल से एक फ़िल्म बना ली जाये तो कैसा रहे? आप फ़ायनेंस कर सकते हैं क्या?:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
@राहुल जी ,मित्रों की मनोकामी अभिरुचि जानकर ही वह दिव्य चित्र चेपा गया है ..आपने सराहा -हमारी सोच श्रम सब फलीभूत
जवाब देंहटाएं@ ताऊ आईडिया तो ग्रेट है मुला हाथ तंग है इन दिनों -कहीं से और जुगाड़ पानी हो सकती है क्या? तबतक आप स्टार कास्ट वगैरह फाईनल कर लें -एक भूमिका की इधर भी सरकार है ताऊ!नायिका के मामले में सलाह मुझसे जरुर कर लीजियेगा .
एक गाना ही ठीक लगा बस।
जवाब देंहटाएंमैंने इसे पहले ही देख ली है | इस सिनेमा में मंजे हुए कलाकार हैं और उन्होंने सधी हुई अदाकारी भी की है मगर उन महान अदाकारों को एक नादान निर्देशक के साथ काम करना पड़ा, पैसे के लिए महज | हांलाकि इस कथात्मक सिनेमा को कोई बड़ा निर्देशक भी ट्रैप कर सकता था | ऐसा क्यों नहीं हुआ इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं | मुख्य कलाकार प्रियंका की बेहतरीन अदाकारी काबिले गौर है | नई पीढ़ी बेशक प्रतिभा से लबरेज है |
जवाब देंहटाएंमनीष मोहन गोरे
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जवाब देंहटाएं.
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बेकार फिल्म है देव, प्रियंका की एक्टिंग में अभी इतना दम नहीं कि इस तरह की कहानी पर बनी फिल्म खींच ले अकेले...
सुजैना का एक डायलाग कि दुनिया की हर औरत कभी न कभी अपने पति का कत्ल करने की सोचती है होठों पर बरबस ही एक विद्रूप मुस्कान ला देता है
पर मुझे लगता है कि दुनिया के ज्यादातर पति अपनी पत्नी के बारे में ऐसा अक्सर सोचते रहते हैं, बस हिम्मत नहीं जुटा पाते... ;)
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heroin me akeli priyanka hai.....jo pasand hi nahi hai.....
जवाब देंहटाएंbakiya aapki samiksha bhali hai...
pranam.
अगर विशाल भारद्वाज का निर्देशन लचर है, तो हमारी फिल्म इंडस्ट्री को भगवान बचाए ...
जवाब देंहटाएंएक बात और ...व्यावसायिक सफलता ही सब कुछ नहीं होती
हमको तो फ़िल्में देखे अरसे गुजर जाते है , पूरी की पूरी पोस्ट ही दृश्य विभोर करने वाली है .
जवाब देंहटाएंप्रवीण जी से सहमत !
जवाब देंहटाएंमहाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंसुंदर समीक्षा,आभार.
जवाब देंहटाएंटुकड़ों-टुकड़ों में ठीक है यह फ़िलिम ..
जवाब देंहटाएंफिल्म तो नहीं देखा लेकिन सुना है कि लीक से हटकर है और आपने यहां डिटेल में बताकर और उस जानकारी को पुख्ता ही कर दिया।
जवाब देंहटाएंबहरहाल मुझे गुलजार का लिखा वो बेकरां वाला गाना अच्छा लगा सुनने में..मादक है वह गीत। जहां तक 'प्रियंका भउजी' की बात है तो वह भी ठीकई लग रही हैं :-)
"जबर्दस्त फिल्म लगती है यह तो -देखते हैं भाई -इस प्रतिशोध सुन्दरी को!"
जवाब देंहटाएंऐसा ही होता है, पंडित जी, प्रतिशोध सुंदरी का प्रतिशोध!!
@वाणी जी ,
जवाब देंहटाएंकिस प्रवीण से सहमत हैं आप -यहाँ दो दो कुशल कला प्रवीण हैं और दोनों से ही असहमत नहीं हो जा सकता ?
@प्रवीण शाह जी ,
दरअसल सच तो यही है जो श्रीमुख से अवतरित हुआ है -इतना और जोड़ दूं कि यह भावना कभी कभी दाई नेभर'स वाईफ के लए भी होती है विभिन्न कारणों से ....
@नीरज जी ,
व्यावसायिक सफलता की बात नहीं है ,विशाल भारद्वाज कहानी को उसकी पूरी समग्रता में प्रस्तुत करने में विफल रहे हैं और जैसा अमरेन्द्र कह रहे है यह टुकड़ों टुकड़ों में बंटी दिखती है -कहानी का नैरेटर अगर खुद मुख्य पात्र के जिम्मे होता ? खैर मैं कौन सा तीसमार खां हूँ ?
आभार इस शानदार समीक्षा के लिए|
जवाब देंहटाएंआप को महाशिवरात्री की हार्दिक शुभकामनाएँ|
तो आप भी समीक्षा की राह पर चले :) अच्छी फिल्मी समीक्षा के लिए बधाई डॊ. मिश्र जी॥
जवाब देंहटाएं"दुनिया की हर औरत कभी न कभी अपने पति का
जवाब देंहटाएंकत्ल करने की सोचती है" -
समीक्षा के साथ इस सत्य से साक्षात्कार कराने का धन्यवाद जो हम कुवारों के लिए और भी थोड़े समय तक प्रेरणा का काम करती रहेगी. :-)
नहीं ही देखते अगर पहले अढ़ लेते मगर अब तो देख कर सर पीट चुके, ऑलरेडी.....
जवाब देंहटाएंmain na ke brabar hi filme dekhti hoon ,isliye is cinema ke baare me kuchh jaankaari nahin hai ,magar aapke lekh ne kai tasvir khinch di .aapki kalam hai hi shaandar .aabhari hoon .
जवाब देंहटाएंye katl wali baat mujhe achchhi nahi lagi aesa bhala koi sochta hai ,had paar hone par bhi ye khyaal nahi ubharte .pravin ji purush bhi is had tak nahi jaate kyo unhe badnaam kar rahe hai ,aapas me hum sirf sudhar chahte hai ,kami ke liye shikayat avashya hoti hai magar aesa khyaal tauba tauba ,is soch ko lekar jeena .....
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंकुछ फ़िल्में फ्लॉप हों तो ही अच्छी होती हैं | मसलन गुलाल, फ्लॉप हुई थी , आज मेरे संग्रह में है , और हम उसे इतनी बार देख चुके हैं | डेविड फिन्चर की 'फाईट क्लब', एंग ली की 'हल्क' | हिट होने पर कुछ फिल्मों का जो कल्ट होता है वो चला जाता है | मैं निश्चिन्त होता हूँ अगर अच्छे निर्देशकों की कोई फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल नहीं होती है तो | वही फ़िल्में असल में बिना पब्लिक का मुंह ताके, बिना बाज़ार से समझौता किये, उनकी अपनी अलहदा सोच होती है |
@ज्योति जी,
जवाब देंहटाएंआखिर हंसी मजाक भी कोई चीज होती है -यह पूरी फिल्म ही एक कामेडी है !हाँ एक क्रूर कामेडी !
@नीरज जी,
इसलिए ही कहते हैं न कि सोच अपनी अपनी ख़याल अपना अपना :)
मगर यह भी मतलब नहीं कि मैं आपसे असहमत हूँ !
आप लीक से हटकर सोचते हैं!
@चंद्रमौलेश्वर जी ,
जवाब देंहटाएंयह देखा देखी पाप और पुण्य का मामला नहीं -मेरे ब्लॉग पर स्क्राल कर सबसे नीचे के लेबल्स में जायं -वहां आपको फिल्म समीक्षा मिल जायेगी -डेढ़ दर्जन तो हो ही चुकी होंगी अब तक
हमे तो आपका लिखा पढ कर ही सन्तोष करना पडेगा। हमारे शहर का एक मात्र सिनेमा घर बन्द है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
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जवाब देंहटाएं@ अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंउसने खुद के सात खालिस शौहर क़त्ल किये ! अगर ब्लागजगत में इसी रफ़्तार से उसपर रिव्यू आते रहे तो एक दो गैरशौहर बंदे यूंहीं टपक लेंगे :)
arvindra ji main bhi chahti hoon majak hi rahe log ise vyavhaar me na laye ,kyonki filmi baate jyada asar karti hai .maafi chahti hoon ,main film dekhi nahi is karan uski kahani bhi nahi jaanti .main chahti hoon sab milkar rahe bina kisi bair bhav ke .
जवाब देंहटाएंयह फ़िल्म हमें भी देखनी है, अब इस सप्ताहांत पर देखते हैं, आज ही नेट देवता से उतारते हैं। फ़्लॉप फ़िल्में देखने का मजा ही अलग होता है, दरअसल फ़्लॉप फ़िल्में केवल वही होती हैं, जो दर्शकॊं को समझ में नहीं आती हैं। और हम ठहरे खास दर्शक नहीं ...
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