धर्म के प्रवक्ताओं को वैज्ञानिकों से बहुत कुछ सीखना चाहिए जो कंधे से कंधा मिलाकर दुनियां और मानवता की बढ़ोत्तरी में दिन रात सहयोग की भावना से जुटे रहते हैं -जबकि धर्म कर्म के अनुयायी ज्यादातर समय एक दूसरे के धर्म की निंदा में बिताते हैं और उनके अपमान में ही समय जाया करते रहते हैं!और नतीजा सामने हैं विज्ञान ने जहाँ मानव की सुख सुविधा में एक बड़ा योगदान दिया है वहीं धर्म अपने मार्ग से भटक गया है जबकि मूल उद्येश्य इसका भी बहुजन हिताय और बहुजन सुखाया ही था।
धर्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं मगर बने हुए हैं विरोधी। क्योंकि दोनों की प्रकृति में कुछ मूलभूत अंतर रहा है। विज्ञान में असहमतियों को खुले दिमाग से देखा समझा जाता है और कमियों को निरंतर सुधारने की प्रवृत्ति होती है जबकि धर्म में इसका ठीक उलटा आचरण है .यहाँ विरोधों और असहमतियों को लेकर तुरंत तलवारे खिंच जाती हैं .कट्टर लोग कट्टे तक निकाल लेते हैं . यहाँ तुरंत फतवे जारी हो जाते हैं .मगर विज्ञान की दुनिया में फतवे जारी नहीं होते .अगर किसी ने किसी की त्रुटि की ओर ध्यान दिलाया तो उसका संज्ञान लेकर कार्यवाही की जाती है,संशोधन होते हैं, आवश्यकतानुसार भूल सुधार होते हैं . विज्ञान की अपनी एक पद्धति है जो जिज्ञासा के अन्तःप्रेरण से आरम्भ होकर विभिन्न संभावनाओं /विकल्पों का सत्यापन सतत प्रयोग परीक्षण के जरिये कर सत्य के उदघाटन को प्रतिबद्ध होता है . धर्म के भटके स्वरुप में सत्य की घोषणा पहले ही की हुयी रहती है .यह घोषणा मुल्ला मौलवियों पंडितों ,पादरियों के मुखारविंद से होती है -जिसके विरोध का मतलब आपका बहिष्कार और कभी कभी तो सर तक कलम कर देने के फरमानों तक है . इसके विपरीत वैज्ञानिक कोई ऐसे परम पद पर आसीन नहीं है . अगर कोई वैज्ञानिक अनजाने की गयी त्रुटि के चलते गलत साबित होता है तो अपने समुदाय में उसे बिसरा भले दिया जाय कोई फतवा जारी नहीं होता .
धर्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं मगर बने हुए हैं विरोधी। क्योंकि दोनों की प्रकृति में कुछ मूलभूत अंतर रहा है। विज्ञान में असहमतियों को खुले दिमाग से देखा समझा जाता है और कमियों को निरंतर सुधारने की प्रवृत्ति होती है जबकि धर्म में इसका ठीक उलटा आचरण है .यहाँ विरोधों और असहमतियों को लेकर तुरंत तलवारे खिंच जाती हैं .कट्टर लोग कट्टे तक निकाल लेते हैं . यहाँ तुरंत फतवे जारी हो जाते हैं .मगर विज्ञान की दुनिया में फतवे जारी नहीं होते .अगर किसी ने किसी की त्रुटि की ओर ध्यान दिलाया तो उसका संज्ञान लेकर कार्यवाही की जाती है,संशोधन होते हैं, आवश्यकतानुसार भूल सुधार होते हैं . विज्ञान की अपनी एक पद्धति है जो जिज्ञासा के अन्तःप्रेरण से आरम्भ होकर विभिन्न संभावनाओं /विकल्पों का सत्यापन सतत प्रयोग परीक्षण के जरिये कर सत्य के उदघाटन को प्रतिबद्ध होता है . धर्म के भटके स्वरुप में सत्य की घोषणा पहले ही की हुयी रहती है .यह घोषणा मुल्ला मौलवियों पंडितों ,पादरियों के मुखारविंद से होती है -जिसके विरोध का मतलब आपका बहिष्कार और कभी कभी तो सर तक कलम कर देने के फरमानों तक है . इसके विपरीत वैज्ञानिक कोई ऐसे परम पद पर आसीन नहीं है . अगर कोई वैज्ञानिक अनजाने की गयी त्रुटि के चलते गलत साबित होता है तो अपने समुदाय में उसे बिसरा भले दिया जाय कोई फतवा जारी नहीं होता .
क्या सचमुच हुआ था नरसिंह अवतार?
धर्म या विज्ञान दोनों का उद्येश्य मानवता का कल्याण ही होना चाहिए यद्यपि विज्ञान की पद्धति में ऐसा कोई आवश्यक प्रतिबन्ध नहीं है . धर्म की नींव ही मानव कल्याण के सर्वतोभद्र कामना पर टिकी हैं . लेकिन आज धर्म इस अपने इस साध्य को साधने के बजाय मात्र पूजा पाठ के साधन तक सिमट गया है .मात्र पूजा पाठ ,अजान ,नमाज के साथ ही मानव कल्याण के लिए उठाया गया एक छोटा कदम भी ईश्वर की एक बड़ी इबादत हो सकती है यह सच स्वीकार करने में हम पीछे रह जा रहे हैं . धर्म का अभ्युदय मानव कल्याण की सोच से ही हुआ मगर कालांतर में वह अपने मूल मार्ग से भटक गया है . हमारे कई समाज सुधारक पीर संतों ने समय समय पर हमें चेताया भी मगर धर्म और कट्टरता,धर्म और कूप मंडूकता ,धर्म और अंधविश्वास का ऐसा सम्बन्ध स्थापित हो गया है जो टूटे नहीं टूट रहा है .
आज विद्वानों के बीच मान्य तथ्य है कि मनुष्य का निम्न श्रेणी के जीवों से विकास हुआ है -वह एक विकसित जीव है -न कि स्वर्ग से अधोपतित कोई देव -मगर फिर भी हम अवतारवाद को सच साबित करने में तुले हैं , हम आश्चर्यजनक रूप से इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाते कि चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के पूर्व अवतारवाद का जिक्र केवल हमें अपने पूर्वजों की उस दृष्टि को दर्शाता है जो विकास की एक आरम्भिक सोच को दर्शाती है .यहाँ भी मछली से कछुआ और अदि अवतारों से होते हुए पशु और मनुष्य के संयुक्त रूप की नरसिंह अवतार में बड़ी सुन्दर कल्पना की गयी है -अब हम अपने पूर्वजों के इस सुन्दर वैचारिक योगदान की स्वीकृति और सराहना के बजाय अवतारों को ही सच मानने की मूर्खता पर उतर आते हैं . और जब पढ़े लिखे लोग भी ऐसा करते हैं तो मुझे दुःख होता है . जाहिर है उनके ज्ञान अध्ययन और विवेक में कहीं घोर कमी रह गयी है -ऐसे लोग निरक्षर लोगों से भी ज्यादा अहितकारी है समूचे समाज के लिए . अगर यही लोग यह बात करते कि विकासवाद के सोच का उद्गम हमारे धर्म चिंतन में भी है तो कितनी पते की बात होती . मगर वे तो अवतारों को ही सच मान बैठते हैं . यह अंधश्रद्धा मानवता के लिए खतरनाक है .
धर्मों की ठीक से न समझी गयी बातों से कट्टरता उपजती,फैलती है - हिन्दू धर्म में कट्टरता कहीं नहीं है -विश्व में भारत ही वह भाव भूमि है जहाँ अनीश्वरवादी चिंतन तक का पुष्पन पल्लवन हुआ -सनातन धर्म चिंतन/दर्शन से जैन, बुद्ध दर्शन और कालांतर में इस्लाम के भी विचार पनपे -कहीं पृथक से नहीं आये -वेदान्त के कर्मकांडों को उपनिषदीय चिंतन ने तिरोहित किया -आज हिन्दू वह भी है जो किसी ईश्वर के वजूद को नहीं मानता और वह भी जो चौबीसों घंटे पूजापाठ में रत रहता है . हिन्दू होना विनम्र होना है किसी की भी पूजा पद्धति की खिल्ली न उड़ाना एक श्रेष्ठ हिन्दू का गुण है -शराब पियें या न पियें आप हिन्दू हैं ,मंदिर जाएँ या न जाएँ आप हिन्दू हैं ,मांस खायें न खायें आप हिन्दू हैं ,भगवान् को गाली दें या स्तुति करें आप हिन्दू हैं -इतना सृजनशील और संभावनाओं से भरा और कोई धर्म विश्व में दूसरा नहीं है -आप सभी से अनुरोध है इसे कट्टरता का जामा न पहनाएं -कोई मेरा सम्मान करे या न करे मैं हिन्दू ही रहूँगा ! मुझे हिन्दू होने का फख्र है क्योंकि इस महान धर्म ने मुझे कई बंधनों से आजाद किया है ...मुझे दुःख होता अगर मैं हिन्दू न हुआ होता और तब मुझे ईश्वर को मानने पर विवश होना पड़ता :-)
धर्म या विज्ञान दोनों का उद्येश्य मानवता का कल्याण ही होना चाहिए यद्यपि विज्ञान की पद्धति में ऐसा कोई आवश्यक प्रतिबन्ध नहीं है . धर्म की नींव ही मानव कल्याण के सर्वतोभद्र कामना पर टिकी हैं . लेकिन आज धर्म इस अपने इस साध्य को साधने के बजाय मात्र पूजा पाठ के साधन तक सिमट गया है .मात्र पूजा पाठ ,अजान ,नमाज के साथ ही मानव कल्याण के लिए उठाया गया एक छोटा कदम भी ईश्वर की एक बड़ी इबादत हो सकती है यह सच स्वीकार करने में हम पीछे रह जा रहे हैं . धर्म का अभ्युदय मानव कल्याण की सोच से ही हुआ मगर कालांतर में वह अपने मूल मार्ग से भटक गया है . हमारे कई समाज सुधारक पीर संतों ने समय समय पर हमें चेताया भी मगर धर्म और कट्टरता,धर्म और कूप मंडूकता ,धर्म और अंधविश्वास का ऐसा सम्बन्ध स्थापित हो गया है जो टूटे नहीं टूट रहा है .
आज विद्वानों के बीच मान्य तथ्य है कि मनुष्य का निम्न श्रेणी के जीवों से विकास हुआ है -वह एक विकसित जीव है -न कि स्वर्ग से अधोपतित कोई देव -मगर फिर भी हम अवतारवाद को सच साबित करने में तुले हैं , हम आश्चर्यजनक रूप से इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाते कि चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के पूर्व अवतारवाद का जिक्र केवल हमें अपने पूर्वजों की उस दृष्टि को दर्शाता है जो विकास की एक आरम्भिक सोच को दर्शाती है .यहाँ भी मछली से कछुआ और अदि अवतारों से होते हुए पशु और मनुष्य के संयुक्त रूप की नरसिंह अवतार में बड़ी सुन्दर कल्पना की गयी है -अब हम अपने पूर्वजों के इस सुन्दर वैचारिक योगदान की स्वीकृति और सराहना के बजाय अवतारों को ही सच मानने की मूर्खता पर उतर आते हैं . और जब पढ़े लिखे लोग भी ऐसा करते हैं तो मुझे दुःख होता है . जाहिर है उनके ज्ञान अध्ययन और विवेक में कहीं घोर कमी रह गयी है -ऐसे लोग निरक्षर लोगों से भी ज्यादा अहितकारी है समूचे समाज के लिए . अगर यही लोग यह बात करते कि विकासवाद के सोच का उद्गम हमारे धर्म चिंतन में भी है तो कितनी पते की बात होती . मगर वे तो अवतारों को ही सच मान बैठते हैं . यह अंधश्रद्धा मानवता के लिए खतरनाक है .
धर्मों की ठीक से न समझी गयी बातों से कट्टरता उपजती,फैलती है - हिन्दू धर्म में कट्टरता कहीं नहीं है -विश्व में भारत ही वह भाव भूमि है जहाँ अनीश्वरवादी चिंतन तक का पुष्पन पल्लवन हुआ -सनातन धर्म चिंतन/दर्शन से जैन, बुद्ध दर्शन और कालांतर में इस्लाम के भी विचार पनपे -कहीं पृथक से नहीं आये -वेदान्त के कर्मकांडों को उपनिषदीय चिंतन ने तिरोहित किया -आज हिन्दू वह भी है जो किसी ईश्वर के वजूद को नहीं मानता और वह भी जो चौबीसों घंटे पूजापाठ में रत रहता है . हिन्दू होना विनम्र होना है किसी की भी पूजा पद्धति की खिल्ली न उड़ाना एक श्रेष्ठ हिन्दू का गुण है -शराब पियें या न पियें आप हिन्दू हैं ,मंदिर जाएँ या न जाएँ आप हिन्दू हैं ,मांस खायें न खायें आप हिन्दू हैं ,भगवान् को गाली दें या स्तुति करें आप हिन्दू हैं -इतना सृजनशील और संभावनाओं से भरा और कोई धर्म विश्व में दूसरा नहीं है -आप सभी से अनुरोध है इसे कट्टरता का जामा न पहनाएं -कोई मेरा सम्मान करे या न करे मैं हिन्दू ही रहूँगा ! मुझे हिन्दू होने का फख्र है क्योंकि इस महान धर्म ने मुझे कई बंधनों से आजाद किया है ...मुझे दुःख होता अगर मैं हिन्दू न हुआ होता और तब मुझे ईश्वर को मानने पर विवश होना पड़ता :-)
सबसे विनम्र निवेदन है धर्मों के रगड़ों झगड़ों को अलविदा कहकर विज्ञान सम्मत चिंतन को अपनाएँ!मानवता पर रहम करें!
मुझे दुःख होता अगर मैं हिन्दू न हुआ होता और तब मुझे ईश्वर को मानने पर विवश होना पड़ता :-)
जवाब देंहटाएंबढ़िया टिप्पणी-
आभार गुरुवर-
Science or religion... whatever satisfies your curiosity in a non-destructive way...
जवाब देंहटाएंविज्ञानं आज भी विज्ञानं है , जबकि धर्म अब अधर्म बन चुका है।
जवाब देंहटाएंसार्थक लेख।
बहुत ही सार्थक आलेख,आभार.
जवाब देंहटाएंचिंतन धर्म से जुड़ा हो या विज्ञान से यदि उसका ध्येय मानव कल्याण है तो शायद ही कभी कुछ नकारात्मक हो , अगर ऐसा नहीं है तो विज्ञान धर्म से बढ़कर और धर्म विज्ञान से बढ़कर विध्वंसकारी हैं | सार्थक विवेचन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लेख. अपने छोटे से अनुभव से यह कहूँगा कि हिन्दू धर्म अनुसरण करने वालों में में धर्मान्धता ना के बराबर है अगर दूसरे धर्मो से तुलना की जाए. विभिन्न महादेशों के लोगो और धर्मावलम्बियों से संवाद करने मौका मिला है और उससे निष्कर्ष यही निकला है बाहर में धर्मान्धता बहुत ज्यादा है. विज्ञान में रहने के कारण विज्ञानवालों से संवाद हुआ है और यह मत उसी पर आधारित है. हद तो तब हो गयी जब एक दो वर्ष पूर्व जीवविज्ञान के स्नातक स्तर के छात्रों को यहाँ पढ़ाने का मौका मिला उनकी डार्विन के सिद्धांत में अनास्था देखकर हतप्रभ रह गया. ये २०-२१ साल के बच्चे थे जो के ईश्वर द्वारा सृष्टि निर्माण को परम सत्य मानते थे. धर्म में मेरी आस्था है लेकिन विज्ञान के तर्क को मानता हूँ. सारे सवालों के जवाब तो शायद कभी न मिलें पर अधिकतर प्रश्नों का जवाब मिल जाता है. सभी धर्मों का उद्देश्य जीवन को अच्छा बनाने का रहा है. जैसा आपने लिखा है धर्म अपने उद्देश्य से बहुत दूर भटक गया है. अब यह रक्त-पिपासा शांत करने का जरिया बन चुका है विश्व के अधिकतर हिस्से में. लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंनिहार जी,
हटाएंगम्भीर अवलोकन!! हम तो समझते रहे धर्मान्धता का भूत भारत में ही डोलता है,हीन ग्रंथी कुछ कम हुई!!
धर्म हमे जीवन जीने की कला सिखाता है तब भी जब हम विज्ञान के मामले मे ज्ञान शून्य होते हैं। धर्म को समझ कर उसमें व्याप्त कुप्रथाओं और धर्म के नाम पर होने वाले अधर्म को त्यागना तो ठीक है लेकिन बिना समझे-बूझे नास्तिक होना खतरे से खाली नहीं।
जवाब देंहटाएंएक अनपढ़ व्यक्ति जो गंगा की सीढ़ियाँ चढ़ता-उतरता है, गंगा स्नान करता है, थपड़ी बजाकर भजन गाता है, अपना कार्य पाप के भय से ईमानदारी से करता है और दो रोटी खाकर चैन से सो रहता है, वह उन पढ़े लिखों से श्रेष्ठ है जो ईश्वर की खिल्ली उड़ाते हैं और अंधा धुंध कमाई करके विलासिता पूर्ण जीवन यापन करते हैं।
बढ़िया लगा आपका आलेख।
दंड बिना उद्दंड मनु, मकु मनु-मन एहसास |
हटाएंरची गई मनुस्मृति फिर, फिरे धर्म का दास |
फिरे धर्म का दास, चले सीधा अंकुश से |
किन्तु श्रेष्ठ विद्वान, धर्म से होते गुस्से |
टोका-टाकी नीति, नहीं उनके है भाये |
भोगवाद की प्रीत, धर्म को व्यर्थ बताये -
देवेन्द्र जी,
हटाएंस्पष्ट और सटीक विवेचन!!
...चिन्तनपरक आलेख ।
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख ... पर कभी कभी लगता है इस सिद्धांत को मानने वाले ओर प्रचार करने वाले बाकी भी रह पाएंगे इतिहास में ... अभी तक तो हैं पूर्ण या आंशिक रूप में ही सही ... पर उनकी आवाज़ तो कम हो ही रही है ...
जवाब देंहटाएं@ सबसे विनम्र निवेदन है धर्मों के रगड़ों झगड़ों को अलविदा कहकर विज्ञान सम्मत चिंतन को अपनाएँ!मानवता पर रहम करें!
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावनात्मक अपील!!
लेकिन सुना है विज्ञान में भावनाओं को कोई स्थान नहीं होत,इसके निष्कर्ष भावनाओं पर आधारित नहीं होते.
आपकी बात सही है विज्ञान नें हमें अतिशय सुख-सुविधाएं प्रदान की है किंतु मानवता,कल्याण आदि आदि भावनात्मक बातें विज्ञान का विषय नहीं है. वस्तुतः धर्म और विज्ञान में कोई सँघर्ष ही नहीँ है,दोनो अलग अलग क्षेत्र है. मानव जीवन दोनो के साथ साथ सानंद सम्पन्न हो सकता है. सँघर्ष तो तब होता है जब धर्म के अल्पज्ञानी विज्ञान को विपक्ष समझ चुनौती देने लगते है या खोज के अतिउत्साही अल्पविज्ञानी विज्ञान की जानकारियोँ को अंतिम सत्य की तरह प्रस्तुत करने लगते है. विज्ञान निरँतर चलता हुआ मार्ग है,सफर है जिस पर खोजें, सुधार, सँशोधन जारी ही रहते है. धर्म नें शोध के बाद मार्ग और मंजिल निर्धारित कर ली है. यदि धर्म में शोध शेष मानी जाय तो लक्ष्य के बार बार बदलने और भ्रमित होने की अस्थिर अनंत सम्भावनाएँ बन जाती है जो नहीं होना चाहिए और विज्ञान अगर स्वयँ के निष्कर्षोँ को अंतिम निर्धारित कर लेता है तो उसका सफर ब्लॉक हो जाता है यह भी नहीँ होना चाहिए.
अतः दोनो के अपने अपने स्वभाव है अपने अपने क्षेत्र है अपने अपने विषय और अपनी अपनी प्रणाली है. कोई विरोधाभास नहीं है. जो कभी कहीं से भी विरोध आता है वह वास्तव में दोनो ही क्षेत्रों के अल्पज्ञानियो द्वारा एक दूसरे क्षेत्र की कीर्ति को देखकर, ईर्ष्या से अपने क्षेत्र को दूसरे से अधिक काबिल बताने का वाणीविलास होता है. ऐसे ही लोग धर्म में विज्ञान या विज्ञान में भी धर्म दर्शाने के प्रलोभन में पडते है.
सुज्ञ जी आपसे सहमत हूँ आध्यात्मिक और मानसिक तथा चेतानामूलक विकास के लिए धर्म की जरुरत है मगर अकलुषित धर्म की .......विज्ञान भौतिक सुख दे रहा है मगर एक जीवन दर्शन देने की दिशा में अग्रसर हो है और यहाँ धर्म और विज्ञानं के समन्वय की जरुरत होगी -आईंस्टींन ने कहा था था न बिना विज्ञान के धर्म अँधा है और बिना धर्म के विज्ञान लंगड़ा -आभार !
हटाएंकट्टरता धर्म के साथ मानवता के विकास में सहायक हो तो ही अपनाने योग्य है .
जवाब देंहटाएंभौतिक सुख के साथ मानसिक विकास की पूर्ति के लिए धर्म और विज्ञान का संतुलन आवश्यक है ! मनुष्यता के लिए यह आवश्यक भी है !
चिन्तन प्रधान हुये बिना कोई धर्म पनप नहीं सकता, जो अड़े रहे, वे पड़े रहे।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं....लगता है इन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया है :)
हटाएं:)
हटाएंassumptions about others are never fruitful santosh ji :)
:(:(:
हटाएंpranam.
अभी तक जितने कमेन्ट आए हैं वे सभी सनातन धर्म के अनुयायी हैं.
जवाब देंहटाएंदेखें, अन्य 'पंथियों' की राय क्या है?
तब तक मेरे विचार सुरक्षित हैं.
अपने सुरक्षित विचारों को अल्पना जी यहाँ आप जितना जल्दी व्यक्त करेगीं उतना ही मैं अनुगृहीत होऊंगा ...और निश्चिंत रहें वे यहाँ सुरक्षित रहगें !
हटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
@ आज विद्वानों के बीच मान्य तथ्य है कि मनुष्य का निम्न श्रेणी के जीवों से विकास हुआ है -वह एक विकसित जीव है -न कि स्वर्ग से अधोपतित कोई देव -मगर फिर भी हम अवतारवाद को सच साबित करने में तुले हैं , हम आश्चर्यजनक रूप से इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाते कि चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के पूर्व अवतारवाद का जिक्र केवल हमें अपने पूर्वजों की उस दृष्टि को दर्शाता है जो विकास की एक आरम्भिक सोच को दर्शाती है .यहाँ भी मछली से कछुआ और अदि अवतारों से होते हुए पशु और मनुष्य के संयुक्त रूप की नरसिंह अवतार में बड़ी सुन्दर कल्पना की गयी है -अब हम अपने पूर्वजों के इस सुन्दर वैचारिक योगदान की स्वीकृति और सराहना के बजाय अवतारों को ही सच मानने की मूर्खता पर उतर आते हैं . और जब पढ़े लिखे लोग भी ऐसा करते हैं तो मुझे दुःख होता है . जाहिर है उनके ज्ञान अध्ययन और विवेक में कहीं घोर कमी रह गयी है
नहीं सर जी,
पढ़ना-लिखना, यह किताबें, शोध और यह ज्ञान सिर्फ इम्तहान में कॉपी भरने, कंपटीशन निकालने और नौकरी का जुगाड़ करने के लिये है... यह जो भी लिखा है झूठ है... हकीकत तो यह है कि जो कुछ भी आज दिख रहा है वह ऊपर वाले ने सृष्टि की शुरूआत में ऐसा ही बनाया था... और इंसान का निम्न श्रेणी के जीवों से विकास ? क्या मजाक कर रहे हैं आप... उसका शरीर नश्वर है और आत्मा उस परमात्मा का अंश, फिर निम्न श्रेणी के जीवों से उसका क्या संबंध ?... असली विज्ञान तो धर्म और आध्यात्म है...विज्ञान वहाँ तक पहुंच भी नहीं सकता...और आप भी जल्दी से जल्दी एक गुरू तलाशिये नहीं तो भटकते ही रह जायेंगे इसी लोक में... देखा नहीं कि बहुत से वैज्ञानिक धर्म में अटूट आस्था रखते हैं... हम वह समाज हैं जो सेटेलाइट स्थापित करने के लिये रॉकेट छोड़ने से पहले नारियल जरूर फोड़ते हैं और मरीज के ऊपर हमारे चिकित्सकों की दवाइयों से ज्यादा असर उनके शरीर पर धारित रूद्राछ-रत्न-गंडे-ताबीज और पूजा-दुआ-पाठ करते हैं...
स्माइली नहीं लगाउंगा यहाँ, मुझे चक्कर नहीं लगाने बार बार...
...
प्रवीण जी आपके आने से मेरी पोस्ट को समर्थन अनुमोदन मिला है,श्रम सार्थक हुआ -आभार
हटाएंलेख के आखिरी पैराग्राफ से १००० % सहमति.
जवाब देंहटाएंनीचे गाने की कमी खल रही है- देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान/कितना बदल गया इंसान। :)
जवाब देंहटाएंधर्म और विज्ञान के बीच का बुनियादी अंतर विशाल है ...,
जवाब देंहटाएंधर्म एक रेडी मेड ज्ञान होता है। धर्म में कही बातों को, आप साबित नहीं कर सकते हैं, न ही उनका खंडन कर सकते हैं, आप सिर्फ जिद्द पर अड़े रह सकते हैं। धर्म अपने आप में 'सम्पूर्ण' माना जाता है, उसमें विकास, बदलाव संभव ही नहीं होता है। जब कोई चीज़ 'सम्पूर्ण' मानी जाय तो वह 'जड़' अवस्था में पहुँच जाती है, और अवस्था में, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती है। आपने इस पर कोई काम नहीं किया होता है, न ही आप इसपर काम कर सकते हैं। आप सिर्फ इस पर अपने विचार या राय रख सकते हैं, उस विचार को भी सही या गलत साबित नहीं किया जा सकता है, आप चाह कर भी धर्म को बेहतर नहीं बना सकते, क्योंकि बेहतर बनाने के लिए, पहले आपको उसे कमतर साबित करना होगा, जो आप नहीं कर सकते ...यह सिर्फ विश्वास की बात है जिसे आप कभी भी साबित नहीं कर सकते।
जबकि विज्ञान में आप तथ्यों, सिद्धांतों को साबित कर सकते हैं, उनका खंडन कर सकते हैं, आप त्रुटियों को पहचान सकते हैं, आप उन्हें सुधार सकते हैं, और इस तरह विज्ञान का विकास अनवरत होता जाता है ...विज्ञान के अंतर्गत अपने सिद्धांत को साबित करने के लिए आप अपना ज्ञान बढाते हैं, मेहनत करते हैं, आप अपने सिद्धांत को साबित करते हैं, उसके बावजूद भी हो सकता है, कोई दूसरा, आपके किये कराये पर पानी फेर सकता है, आपके सिद्धांत को गलत साबित कर सकता है, आप दुबारा और मेहनत करते हैं, इस तरह विज्ञान समृद्ध होता जाता है ....
वाह, स्वप्न जी आपके इतने परिपक्व विचार ने इस पोस्ट को और भी अर्थपूर्ण व्यापक दृष्टि का बना दिया है,अक्षरशः सहमत -आभार!
हटाएंभाई योगेन्द्र मोदगिल की की दो लाइने ..
जवाब देंहटाएंमस्जिद की मीनारे बोली, मंदिर के कंगूरों से !
मुमकिन हो तो देश बचालो मज़हब के लंगूरों से
कहीं ऐसा तो नहीं है, हिंदु धर्म के आंतरिक सशक्तिकरण को कट्टरता साबित करने के लिए विधर्मी नहीं मिले तो विज्ञान को खडा कर दिया?
जवाब देंहटाएंमुझे किसी किताब में पढ़ी हुई अबुल फजल की पंक्तियाँ याद आती हैं जब तकलीद की हवा चलती है तो दानिशमंदी धुंधली हो जाती है। कोई गंभीर अन्वेषक अगर फर्जी साधुओं को पार करते हिंदू धर्म के सही सोते तक पहुँच जाए तो वाकई उसके लिए सुख का गहरा आध्यात्मिक खजाना मिल जाएगा।
जवाब देंहटाएंधर्म में सृजन की अपार क्षमता है जो कि मानव स्वभाव है . मिथ्या धार्मिकता ही विध्वंस का मूल कारण है . झूठे आस्तिक और नास्तिक की जमात कट्टरता को बढ़ावा देते हैं. रही बात हिन्दू धर्म की तो इसमें बड़ी ऊँची अभिव्यक्ति है जहां तक पहुंचना यदि विरल है तो सरल भी है. अनेक मार्गी उसकी पहचान बता चुके हैं. लेकिन अपना मार्ग स्वयं खोजना ही सही है . जो कि पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा ही है . वैसे विज्ञान , काव्य और धर्म के संतुलित समायोजन से ही पूर्ण मनुष्य का निर्माण होता है .
जवाब देंहटाएं@मुझे हिन्दू होने का फख्र है क्योंकि इस महान धर्म ने मुझे कई बंधनों से आजाद किया है ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया लगा पर दुःख होता है की ऐसा महान धर्म सिमटता जा रहा है. भारतवंश की इस महान धरा पर कहीं पैसे से और कहीं तलवार की धार पर तो कहीं सेवा के नाम से सनातन धर्म पर प्रहार किये जा रहे हैं.
कहाँ अफगानिस्तान तक हिंदू धर्म की फैलावट थी..
वस्तुतः सबसे प्राचीन धर्म सनातन या वैदिक धर्म है और उसके अनुसार ईश्वर एक है । धर्म कोई भी हो वो हमेशा, सेट रुल में बंधे होते हैं। लेकिन जीवन जीने की पद्धतियाँ किसी रूल में नहीं बंधतीं।
जवाब देंहटाएंहिंदुत्व धर्म नहीं है, यह कर्म, सामजिक मान्यताओं, नैतिकता और कानून को लेकर दैनिक जीवन जीने की एक पद्धति है। यही कारण है कि यह रिजिड नहीं है, आप इस पद्धति को अपनी सुविधानुसार ढाल सकते हैं, इसके इसी लचीलेपन ने इसको इतना विस्तार दिया कि आज न जाने कितने, सम्प्रदाय, पंथ, कितने देवी देवता और कितने ही अवतार हो गए हैं। वैष्णव, शैव और शाक्त जैसे संप्रदाय इसी लिए हुए क्योंकि, परमेश्वर के अलग अलग रूपों में जिसे जो ज्यादा पसंद आया, उसे ही लोग पूजने लगे। पूजने को तो हम अपने माता-पिता को भी पूजते हैं, क्योंकि हम उन्हें स्वयम से बेहतर मानते हैं। हिन्दू जीवन पद्धति में पूजने की परंपरा बहुत पुरानी है, सीता ने गंगा की पूजा की क्योंकि गंगा उन्हें स्वयं से और राम से ज्यादा श्रेष्ठ लगी, वर्ना वो राम की पूजा कर सकतीं थीं । और इसी तरह पर्वत, वृक्ष, नदी सूर्य इत्यादि की पूजा शुरू हो गयी, क्योंकि ये सभी हमें स्वयं से श्रेष्ठ लगे। यह एक बहुत बड़ा कारण है की नित नए अवतारों का जन्म होता चला गया और उनकी पूजा भी। समस्या यह है कि हम उन्हें ईश्वर मानते हैं, वो श्रेष्ट हैं लेकिन ईश्वर नहीं, जैसे साई बाबा।
सनातन धर्म के अनुसार जब पृथ्वी पर परमेश्वर के तीन रूपों, ब्रह्मा, विष्णु और महेश, में से कोई एक रूप, किसी शरीर के रूप में जनम लेता है, तो उसे अवतार कहते हैं, लेकिन वो उस शरीर की सीमाओं के साथ जन्म लेते हैं। ये अवतार हैं, ईश्वर नहीं। आपने सही कहा है हम अवतारों को ही सबकुछ मान लेते हैं।
ईश्वर सिर्फ एक है। ब्रह्मा, विष्णु महेश अपने आप में सम्पूर्ण नहीं हैं, विष्णु का काम ब्रह्मा नहीं कर सकते और महेश का काम विष्णु नहीं। शायद यही कारण है अक्सर हमने इन्हें एक दुसरे का सम्मान करते हुए देखा है, राम जो विष्णु के अवतार माने जाते हैं, लंका पर चढ़ाई से पहले समुद्र के किनारे शिव की पूजा करते हैं।
हर धर्म में हमने अवतारों को ईश्वर मान लिया है, जीजस ने कभी नहीं कहा कि मैं ईश्वर हूँ, उन्होंने हमेशा कहा है मैं ईश्वर का पुत्र हूँ, तभी तो पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की बात कही जाती है, मोहम्मद ने हमेशा ही 'अल्लाह' की बात कही है, उसी तरह राम ने भी किसी सर्शक्तिमान की पूजा की है, जिसे उन्होंने स्वयं से श्रेष्ठ माना।
स्वप्न जी आपने इस आलेख को और आयाम प्रदान किये हैं -आभार!
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हटाएंस्वप्न मञ्जूषा जी,
हटाएंयह तो पूरा इस्लामिक प्रचार मॉडल है,यही अवधारणा प्रचारित की जाती है. ईश्वर एक है और वह अल्लाह ही है. सनातन या वैदिक दर्शन, धर्म नहीं मात्र पद्धतियाँ है धर्म इस्लाम है.अवतार सम्पूर्ण नहीं है,वे अवतार नहीँ महापुरूष है. अंतिम अवतार मुहम्मद है.हिंदुओं के पास एक भी ऐसी किताब नहीं है जो सीधे अल्लाह ने भेजी हो :)
फिर तत्काल एलान होता है- "आओ 'उस' तरफ जो आप में और हम में यकसाँ है"
ईश्वर एक है और वे अल्लाह है,मोहम्मद उसके पैगम्बर है वह अंतिम अवतार है उनके संदेश अंतिम सत्य है, दूसरे सारे उपदेश नष्ट हो चुके,कुरआन ही समग्र जगत के लिए उनका अंतिम उपदेश है,वह शुद्ध और मिलावट परिवर्तन रहित है इसलिए उसी को मानो!!!!
सब कुछ कलियर.....
अच्छा है.....अरविंद जी, धर्मों के रगड़ों झगड़ों को अलविदा क्या, झगडे का मूल माना जाता धर्म ही अलविदा का संदेश दिया जाय?!!!!! :) :) :)
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%A8_%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE
हटाएंवैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिये 'सनातन धर्म' नाम मिलता है। 'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'हमेशा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है। सिन्धु नद पार के वासियो को ईरानवासी हिन्दू कहते, जो 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। उनकी देखा-देखी अरब हमलावर भी तत्कालीन भारतवासियों को हिन्दू, और उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहने लगे। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई १००० वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं।
प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म मेंगाणपतय, शैव वैष्णव,शाक्त और सौर नाम के पाँच सम्प्रदाय होते थे।गाणपतय गणेश की, वैष्णव विष्णु की, शैव शिव की और शाक्त शक्ति और सौर सूर्य की पूजा आराधना किया करते थे। पर यह मान्यता थी कि सब एक ही सत्य की व्याख्या हैं। यह न केवल ऋग्वेद परन्तु रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय ग्रन्थों में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है। प्रत्येक सम्प्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे सम्प्रदायों के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उनमें वैमनस्य बना रहता था। एकता बनाए रखने के उद्देश्य से धर्मगुरूओं ने लोगों को यह शिक्षा देना आरम्भ किया कि सभी देवता समान हैं, विष्णु, शिव और शक्ति आदि देवी-देवता परस्पर एक दूसरे के भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाओं से तीनों सम्प्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उत्पत्ति हुई। सनातन धर्म में विष्णु, शिव और शक्ति को समान माना गया और तीनों ही सम्प्रदाय के समर्थक इस धर्म को मानने लगे। सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ,उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है। कालान्तर में भारतवर्ष में मुसलमान शासन हो जाने के कारण देवभाषा संस्कृत का ह्रास हो गया तथा सनातन धर्म की अवनति होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिये विद्वान संत तुलसीदास ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना करके सनातन धर्म की रक्षा की। जब औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन को ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मों के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन शब्द से अपरिचित होने के कारण उन्होंने यहाँ के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म रख दिया।
सनातन धर्म हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम है।
एक और बहुत बड़ा फर्क है धर्म और विज्ञान में :
हटाएंधर्म इंसानों को बाँटता है और विज्ञान उन्हें जोड़ता है
आज जो इतनी बाँटने वाली बातें कही जा रही है वो सिर्फ इस लिए संभव हुआ है क्योंकि विज्ञान ने हमें जोड़ रखा है :)
स्वप्न जी,
हटाएंआपने एक महत्वपूर्ण लिंक दिया है -उसी से यह अंश नीचे दे रहा हूँ जो बहुत ही उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण है -इस बहस में हिस्सा लेने वाले मित्रगण और खासकर शिल्पा मेहता जी ,सुज्ञ जी इस पर गौर फरमाएं कृपया -ध्यान से पढ़ें एक एक शब्द धीरे धीरे और अंत तक !
सनातन धर्म की गुत्थियों को देखते हुए इसे प्रायः कठिन और समझने में मुश्किल धर्म समझा जाता है। हालांकि, सच्चाई ऐसी नहीं है, फिर भी इसके इतने आयाम, इतने पहलू हैं कि लोगबाग इसे लेकर भ्रमित हो जाते हैं। सबसे बड़ा कारण इसका यह कि सनातन धर्म किसी एक दार्शनिक, मनीषा या ऋषि के विचारों की उपज नहीं है। न ही यह किसी ख़ास समय पैदा हुआ। यह तो अनादि काल से प्रवाहमान और विकासमान रहा। साथ ही यह केवल एक द्रष्टा, सिद्धांत या तर्क को भी वरीयता नहीं देता। कोई एक विचार ही सर्वश्रेष्ठ है, यह सनातन धर्म नहीं मानता। इसी वजह से इसमे कई सारे दार्शनिक सिद्धांत मिलते हैं। इसके खुलेपन की वजह से ही कई अलग-अलग नियम इस धर्म में हैं। इसकी यह नरमाई ही इस के पतन का कारण रही है, औ यही विशेषता इसे अधिक ग्राह्य और सूक्ष्म बनाती है। इसका मतलब यह है कि अधिक सरल दिमाग वाले इसे समझने में भूल कर सकते हैं। अधिक सूक्ष्म होने के साथ ही सनातन धर्म को समझने के कई चरण और प्रक्रियाएं हैं, जो इस सूक्ष्म सिद्धांत से पैदा होती हैं। हालांकि इसका मतलब यह नहीं कि सरल-सहज मस्तिष्क वाले इसे समझ ही नहीं सकते। पूरी गहराई में जानने के लिए भले ही हमें गहन और गतिशील समझदारी विकसित पड़े, लेकिन सामान्य लोगों के लिए भी इसके सरल और सहज सिद्धांत हैं। सनातन धर्म कई बार भ्रमित करनेवाला लगता है और इसके कई कारण हैं। अगर बिना इसके गहन अध्ययन के आप इसका विश्लेषण करना चाहेंगे, तो कभी समझ नहीं पाएंगे। इसका कारण यह कि सनातन धर्म सीमित आयामों या पहलुओं वाला धर्म नहीं है। यह सचमुच ज्ञान का समुद्र है। इसे समझने के लिए इसमें गहरे उतरना ही होगा। सनातन धर्म के विविध आयामों को नहीं जान पाने की वजह से ही कई लोगों को लगता है कि सनातन धर्म के विविध मार्गदर्शक ग्रंथों में विरोधाभास हैं। इस विरोधाभास का जवाब इसीसे दिया जा सकता है कि ऐसा केवल सनातन धर्म में नहीं। कई बार तो विज्ञान में भी ऐसी बात आती है। जैसे, विज्ञान हमें बताता है कि शून्य तापमान पर पानी बर्फ बन जाता है। वही विज्ञान हमें यह भी बताता है कि पानी शून्य डिग्री से भी कम तापमान पर भी कुछ खास स्थितियों में अपने मूल स्वरूप में रह सकता है। इसका जो जवाब है, वही सनातन धर्म के संदर्भ में भी है। जैसे, विज्ञान के लिए दोनों ही तथ्य सही है, भले ही वह आपस में विरोधाभासी हों, और विज्ञान के नियमोंको झुठलाते हों। उसी तरह सनातन धर्म भी अपने खुलेपन की वजह से कई सारे विरोधी विचारों को ख़ुद में समेटे रहता है। परन्तु सनातनधर्म में जो तत्व है, उसे नकारा भी तो नही जा सकता। हम पहले भी कह चुके हैं-एकं सत्यं, बहुधा विप्रा वदंति-उसी तरह किसी एक सत्य के भी कई सारे पहलू हो सकते हैं। कुछ ग्रंथ यह कह सकते हैं कि ज्ञान ही परम तत्व तक पहुंचने का रास्ता है, कुछ ग्रंथ कह सकते हैं कि भक्ति ही उस परमात्मा तक पहुंचने का रास्ता है। सनातन धर्म में हर उस सत्य या तथ्य को जगह मिली है, जिनमें तनिक भी मूल्य और महत्व हो। इससे भ्रमित होने की ज़रूरत नहीं है। आप उसी रास्ते को अपनाएं जो आपके लिए सही और सहज हो। याद रखें कि एक रास्ता अगर आपके लिए सही है, तो दूसरे सब रास्ते या तथ्य ग़लत हैं, सनातन धर्म यह नहीं मानता। साथ ही, सनातन धर्म खुद को किसी दायरा या बंधन में नहीं बांधता है। ज़रूरी नहीं कि आप जन्म से ही सनातनी हैं। सनातन धर्म का ज्ञान जिस तरह किसी बंधन में नहीं बंधा है, उसी तरह सनातन धर्म खुद को किसी देश, भाषा या नस्ल के बंधन में नहीं बांधता। सच पूछिए तो युगों से लोग सनातन धर्म को अपना रहे हैं। सनातनधर्म के नियमों का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो मन स्वयँ ही इसकी सचाई को मानने को तैयार हो जाता है। विज्ञान जिस तरह बिना ज्ञान के अधूरा है। सनातन धर्म भी बिना ज्ञान हानि कारक है।
आपका हृदय से धन्यवाद अरविन्द जी,
हटाएंमैं इस आलेख को पूरा ही यहाँ देना चाहती थी, ताकि लोग थोड़ा खुले मन से इसे पढ़े और विचार करें। लेकिन महसूस यही किया कि आप किसी के घर तक जा सकते हैं, आप दरवाज़ा खटखटा सकते हैं, आप आग्रह कर सकते हैं, लेकिन उसके घर आप ज़बरदस्ती नहीं घुस सकते। अच्छी बात यह है, और इस बात का मन में संतोष है, आँख बंद करके भेड़ चाल में हम शामिल नहीं हैं।
@@ mishra sir, @@ swapna ji
हटाएं@ इस बहस में हिस्सा लेने वाले मित्रगण और खासकर शिल्पा मेहता जी
@ आप दरवाज़ा खटखटा सकते हैं, आप आग्रह कर सकते हैं, लेकिन उसके घर आप ज़बरदस्ती नहीं घुस सकते
i am NOT a part of this bahas - reading every word written by you learned people though - but not a part of it at all :) -
i disagree with you all on this - but i don't think there is much point discussing it :)
@शिल्पा जी ,
हटाएंमगर आपकी असहमतियां कौन कौन हैं ?
बिन्दुवार कृपया लिखे- ताकि उन असहमतियों हमें भी असहमत होने का अवसर मिल सके :-)
thanks sir - but - no - thanks. i already wrote my point of view on my post, you said you disagree, and you wrote this post . i am not discussing - but i have subscribed comments....
हटाएंthe learned people (both ladies and gentlemen) who chose to keep silent on mine have reiterated your point of view HERE about me being kattar, anudaar and sankeern , etc etc - well - i accept the criticism - and refuse to change....
i already said - this is MY point of view - and if it labels me as "kattar" etc in the whole wide world's eye - well - so be it . i will say what i feel right and wrong - and i will keep saying it repeatedly as and when i feel it necessary..... ON MY BLOG IN FULL DETAIL AS I DID IN THIS POST......
but i wont get into religion versus science wars, bcoz to me science is a negligible subset, logic is a speck of dust compared to religion..... i am not changing myself to be accepted as chhadm modern .... i am fine being kattar.....
It is not surprising at all -there are many many people in the world who practice both Darwinism and Hindu Avatarvaad -and stick to their views -but it is painful when a person trained and taught in scientific discipline does so- I am not pressurizing you to change your views -but at the same time your rigidity wound not also change the facts derived by scientific scrutiny! Thanks a lot that you have subscribed to the comments!
हटाएंI am so sorry Shilpa, you have taken my comments upon you. I have not seen any of your comment on this post. So there was absolutely no reason to drag you into this.
हटाएंpata nahi kyun tum khud ko ismein lapet rahi ho ?? jahan tak tumhaari post ka sawaal hai, naa to maine wahan comment kiya hai, na hi main tumhaare vichaaron se sahmat hun.
We live in a free world, you are free to refuse any change. Likewise I am free not to accept anybody or in this matter everybody's thought.
So what is the problem ??
We can always agree to disagree. :)
aur agar fir bhi pasand na aaye to ...Chill yaar, tu apne ghar khush ham apne ghar khush.:):)
upon you=upon yourself
हटाएंHEY - come-on Sapna - u know me better than that :)
हटाएंi know that disagreement (or agreement for that matter) is ALWAYS mutual - it can't BE ONE SIDED :)
there are no hard feelings on this issue - i m cool :) i answered above b'coz sir named me - i wanted to clarify that i m NOT a part of this BAHAS at all ...
u say u did not see my comments here - that is because there was nothing to see :)
don't ever say sorry to me - maine pyar kiya ka dialog yaad nahi - ??
"dosti ka ek usool hai madam - no sorry - no thankyou" :)
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हटाएं@ इस बहस में हिस्सा लेने वाले मित्रगण और खासकर शिल्पा मेहता जी ,सुज्ञ जी इस पर गौर फरमाएं कृपया -ध्यान से पढ़ें एक एक शब्द धीरे धीरे और अंत तक !
हटाएंआदरणीय अरविन्द जी,
मैंने तो पहले ही पूछ लिया था कि यह सनातन धर्म विरूद्ध विज्ञान विषय आया कहाँ से?, क्योंकि आजकल की किसी भी चर्चा में ऐसी कोई बात नहीँ आई कि सनातन धर्म नें अपने विरूद्ध विज्ञान की आलोचना की हो....
मैंने पहले ही कहा है कि धर्म और विज्ञान में कोई विरोध नहीं है. और वे अल्पज्ञानी या अल्पविज्ञानी है जो 'धर्म में विज्ञान या विज्ञान में भी धर्म' दिखाने का बचकाना प्रयास करते है.
अब आते है 'विकिपीडिया' के लिंक पर, मिश्रा जी पहले तो यह बताएँ कि क्या 'विकिपीडिया' की सामग्री को आप पूर्णतया सत्य और प्रमाणिक मानते है?. नहीं महाराज उन पोस्टों को भी हमारे जैसे साधारण लोग ही लिखते है और वह भी अपने अपने विचारों से. और इस तरह सम्पादन संशोधन कर लेखों से विकिपीडिया को समृद्ध करते है.
इसका अर्थ यह नहीं है कि इस सामग्री से मैं असहमत हूँ.मैं पूरी तरह सहमत हूँ. उस संक्षिप्त को भी विस्तार से समझा जा सकता है. पर मुझे यह समझ नहीं आया कि उसमें वो क्या बात है जो आपके विचारों के पक्ष में जोरदार साक्ष्य प्रस्तुत कर रही है?
यहाँ तो उलट विज्ञान को लताडा गया है कि विज्ञान किसको बहतर छेद दिखा रहा है, विरोधाभास तो तुझ में भी कम नहीँ. और कहा गया है कि मान के चलो विरोधाभास विज्ञान में भी है और सनातन धर्म में भी उन्हें सार्थक संदर्भों और अर्थों में ज्यों का त्यों स्वीकार करो.(इस यथार्थ को आप अपनी उपरोक्त टिप्पणी में देख सकते है, और आप स्वयँ विज्ञानविद है तो ऐसे तो बहुतेरे विरोधाभास जानते होंगे)
कईं अज्ञानी लोग उत्साह में यह प्रतिपादित कर देते है कि विज्ञान नें ईश्वर के होने से इंकार कर दिया, या कर्मफल होने का इंकार कर दिया,या पुनर्जन्म आदि को सर्वथा खारिज कर दिया.पर यह सच्चाई से परे है. विज्ञान आज भी इंकार नहीं करता, बस कहता है अभीतक हमने नहीं खोजा या पाया. विकासवाद भी अवधारणा है,स्थापित निदान नहीं. विज्ञान अज्ञानियों की छद्म नहीं है, वह ईमानदार है.
लेकिन मुख्य मुद्दा यह था 'खुल्लेपन और उदारता का कारण लेकर हमें अपने आराध्यों की आलोचना करनी चाहिए या नही?' तो उसका एक ही जवाब हो सकता है कि क्यों अकारण खुल्लापन या उदारता दिखाने के लिए आलोचना करना. हम अपने मित्र के साथ सर्वथा खुल्ले होने के उपराँत भी अकारण उसकी आलोचना नहीं करते, फिर ऐसी भी क्या उदारता की उमँग कि हमें अपने आराध्यों की आलोचना करनी ही पडे? और इस अनावश्यक निंदा न करने की सदाचार भरी सीख को क्यों कोई कट्टरता मान लेगा? अपने विचार निंदा रहित रखने में किन धर्मों के आपसी रगडे झगडे हो जाएँगे? किस बात का भय है हमें?
यह लेख यह भी निर्देश करता है कि सनातन धर्म में कितने ही पंथ, सम्प्रदाय, मान्यताएँ,उपासना पद्धतियाँ हो, मूलभूत तात्विक सिद्धाँत एक ही है. और वो ही सत्य है, इसे सभी स्वीकार करते है. इस तरह अलग अलग विचार दर्शन होते हुए भी सनातन धर्म एक है और सभी विरोधाभासी पंथ समुदाय इस पर सहमत है. अनेकता में एकता इसे कहते है.
इन पँक्तियों पर गौर फरमाएँ......
"परन्तु सनातनधर्म में जो तत्व है, उसे नकारा भी तो नही जा सकता। हम पहले भी कह चुके हैं-एकं सत्यं, बहुधा विप्रा वदंति-उसी तरह किसी एक सत्य के भी कई सारे पहलू हो सकते हैं।"
"सनातनधर्म के नियमों का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो मन स्वयँ ही इसकी सचाई को मानने को तैयार हो जाता है।"
इस लिए पहले गहन अध्यन फिर हम काबिल बनते है सवाल उठाने के. जानने जिज्ञासा के सवाल हो सकते है पर निंदा आलोचना तो तब भी नहीं.
सुज्ञ जी ,
हटाएं1-विकीपीडिया का उद्धृत अंश इसलिए ही लगाया कि मैं उससे पूर्णतया सहमत हूँ -लिखा किसी ने भी हो -मगर हमसे विद्वान् ही है ,उसका अध्ययन हमसे व्यापक है .
2-हमारी मूल चेतना किसी एक बात पर आगे रहने की नहीं है -नेति नेति की है -यह भी नहीं यह भी नहीं .आगे बढ़ो ,जड़ मत बने रहो ,नए ज्ञान के अनुसार अपनी विचारधारा बदलो -यह एक वैज्ञानिक चिंतन है .
3-हिन्दू धर्म चिंतन /दर्शन की इसी विचारधारा का मैं कायल हूँ ,मगर हम धर्म के इस दृष्टिकोण को कहाँ मानते हैं -कोई आलोचना करे तो बुरा मान जा रहे -यह यही दर्शाता है की हमारे अध्ययन में कही बड़ा गैप है .
4-क्या आप डार्विन के अनुसार मनुष्य के जैवीय विकास के पक्षधर हैं ? अगर हैं तो आप सनातन हिन्दू विचारधारा के साथ हैं
आदरणीय अरविन्द जी,
हटाएं1-.....उसका अध्ययन हमसे व्यापक है . हाँ, इसीलिए उनके कहे और अनकहे को समझना जरूरी है-"इसकी यह नरमाई ही इस के पतन का कारण रही है, और यही विशेषता इसे अधिक ग्राह्य और सूक्ष्म बनाती है।"
2- सही कहा नेति नेति भी विचारधारा है.वह इसलिए कि हर परिवर्तन को विकास समझ अँध प्रवाह के साथ मत बहो. सीधा सा नियम है विचारधारा बदली जा सकती है किंतु आधारभूत तत्वों(सिद्धांतो) को अक्षुण्ण रखते हुए. किसी विशाल प्राचीन विख्यात भवन को सजाना है तो भूमि से उपर दिखते भाग में परिवर्तन किया जाता है,कंगूरे नए लगाए जा सकते है किंतु कोई अगर उसकी नींव खोद कर, नींव के मलबे से कंगूरे सजाना चाहे तो हस्र क्या होगा? क्या इस दृष्टि में वैज्ञानिक चिंतन नहीं है?
3-आलोचना पर बुरा मानना अध्ययन में बड़ा गैप नहीँ है. यह शाश्वत मानवीय स्वभाव है,यह उनमें भी है जो विषय के विद्वान विशेषज्ञ है. यदि कोई महान अध्येता,विद्वान और ज्ञानी बन जाता है तो सबसे पहले अपने विचारो को अनुशासित करता है, अपने विचारों की स्वतंत्रता का भी सीमांकन करता है,अपने विचारों को कहाँ तक स्वछँद विचरण करने देना है ज्ञानी स्व-निर्धारित मर्यादा करता है,क्योंकि सम्यक ज्ञान को उपार्जित कर चुका होता है अतः विवेचना, व्याख्या, समीक्षा करते हुए भी सीमोलंघन नहीं करता.और अनावश्यक आलोचना के वाणीविलास मायाजाल में नहीं पडता.
@4-क्या आप डार्विन के अनुसार मनुष्य के जैवीय विकास के पक्षधर हैं ? अगर हैं तो आप सनातन हिन्दू विचारधारा के साथ हैं.
4- क्या डार्विन के जैवीय विकासवाद को मानना ही सनातन हिन्दू विचारधारा के साथ होने की अनिवार्य शर्त है? तब तो विज्ञान इन कथित धर्मो से भी अधिक जड़ व कुंद है. विज्ञान कभी भी अपने अनिर्धारित निष्कर्ष नहीं थोपता. मैं आपकी उस 'अवतार' और 'डार्विन के जैवीय विकास' की तुक मिलाने को, अभी तो प्रिमेच्योर मानता हूँ. इसलिए अभी यह स्वीकार करना जल्दबाजी होगी. इसलिए डार्विन के विषय में बिना अगर मगर की चिंता किए मैं सनातन हिन्दू विचारधारा के साथ ही हूँ. :)
आलोचनाएं अनादि काल से होतीं रहीं हैं और आगे भी होतीं रहेंगी। किसी के रोकने से ये नहीं रुकने वाली। राम के ही प्रकरण में, सबसे बड़ा आलोचक, वो धोबी ही कहा जाएगा, जिसकी आलोचना को राम ने सबसे ज्यादा महत्व दिया था। उस धोबी से भी राम कह सकते थे, तुम्हें ये सब पूछने का, या कहने का कोई हक नहीं रखते। लेकिन राम ने ऐसा नहीं किया।
हटाएंजिन आराध्य राम की आलोचना नहीं करने के लिए, इतनी मशक्कत की जा रही है, उन्हीं राम ने अपने जीवन में, पत्नी, पुत्रों, यहाँ तक कि अपने आप से भी ऊपर एक आलोचक को स्थान दिया था, इसलिए यह कहना ही गलत है कि हिन्दू विचारधारा में आलोचना नहीं की जा सकती ...आप कर सकते हैं और करना भी चहिये.. तभी धर्म को समझा जा सकता है, आलोचनाएं, प्रश्न नहीं उठेंगे तो समझेंगा कौन ??
ऐसे ही नहीं कहा गया है:
निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय,
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय
आलोचना करना, आपत्ति करना, हरेक इंसान का जन्मसिद्ध अधिकार है। जब हम दूसरे धर्म, दूसरों के खान-पान, रहन-सहन की आलोचना कर सकते हैं, तो अपने धर्म की आलोचना से परहेज क्यूँ ?
आलोचना को 'निंदा' का जामा पहनाने में कितना वक्त लगता है भला ?? जब भी कोई 'आलोचना' आपको पसंद नहीं आये, तो आप उसे 'निंदा' कह कर उसे फटाफट पदच्युत कर दीजिये। हो गयी 'आलोचना' 'निंदा' में तब्दील। अपनी-अपनी समझ की बात है, एक ही बात किसी को आलोचना लग सकती है और किसी को वही बात निंदा।
@ तभी धर्म को समझा जा सकता है,
हटाएंआलोचना अगर धर्म को समझने के ईमानदार प्रायास के लिए हो तब तो वह उचित है लेकिन समझने के लिए कम और किसी कृत्य को निंदनीय साबित करने के लिए जब आलोचना की जाती तो निश्चित ही तत्काल वह 'आलोचना' 'निंदा' में तब्दील हो जाती है। और यह अपनी अपनी समझ मात्र की बात नहीं, यह जानते अजानते हमारी सुसुप्त धारणाओ और मंशाओं के कारण भी प्रकट होती है।
मैं आपकी उस 'अवतार' और 'डार्विन के जैवीय विकास' की तुक मिलाने को, अभी तो प्रिमेच्योर मानता हूँ. इसलिए अभी यह स्वीकार करना जल्दबाजी होगी. इसलिए डार्विन के विषय में बिना अगर मगर की चिंता किए मैं सनातन हिन्दू विचारधारा के साथ ही हूँ. :)
हटाएंकहाँ हैं आपके चरण प्रभु! :-) ब्लागपीठ के शंकराचार्य हैं प्रभु आप :-)
वैज्ञानिक होकर यह क्या चरण वरण खोजने लगे? प्रभु, कुछ विज्ञान की इज्जत का खयाल करिए… :) बाकि ब्लॉग जगत में यह 'ब्लागपीठ के शंकराचार्य' पदवी मिलती हो तो जो भी वैज्ञानिक प्रोसिजर हो, सूचित कीजिएगा बंदा तैयार है। वैसे भी दशक के और वर्षक के पुरस्कार हींच नहीं पाएंगे :-) :)
हटाएंपदवी मैंने दे दी और यह ब्लॉग जगत में आपको मेरे द्वारा समर्पित पदवी के रूप में याद किया जाएगा -जैसे महामना,पंडित जी, कविगुरु , महात्मा आदि आदि -स्वीकार करिए प्रभु! :-) दशकादि सम्मान इसके आगे धूल के सामान है!
हटाएंसुज्ञ जी,
हटाएंराम के मामले में मेरा एतराज़ अपनी जगह है और उस पर मैं कायम हूँ। अपनी पत्नी के साथ उन्होंने गलत किया इस बात पर मुझे रंचमात्र भी संदेह नहीं है, जिसका परिणाम यह हुआ कि सीता ने आत्महत्या कर ली। सीता का उनका त्याग स्वयं, उन्हें भी उचित नहीं लगा था, तभी तो छल से लक्ष्मण के द्वारा ये काम करवाया गया। फिर वर्षों बाद में ऐसा क्या बदला था, समाज में उनकी परिस्थिति में कि राम सीता को वापिस लाना चाहते थे ?? शायद वो अपनी गलती का प्रायश्चित करना चाहते थे। मेरा यही मानना है। मैं आपसे कोई प्रश्न नहीं पूछ रही हूँ, न ही आपसे मुझे कोई उत्तर चाहिए, मैं सिर्फ अपनी बात कह रही हूँ।
सुषुप्त मंशा, छुपाओ, दुराव न मैंने कभी किया है ना आगे करुँगी। मैंने तो हमेशा ही साफ़-साफ़ कहा है और आगे भी कहूँगी ही। क्योंकि कहने के लिए मेरे पास अभी बहुत कुछ है, और अधिकार भी है।
:)
हटाएंब्लॉगपीठ की व्यास बना ली है प्रभु
हटाएंपता है-----
महामना सुज्ञ
सनातन भवन
सुज्ञ ब्लॉगपीठ
स्वप्न मञ्जूषा जी,
हटाएंआपकी बात से सहमत नहीं, किन्तु जब आप कायम है और अपने निर्णायक विचारों पर आपको रंचमात्र भी संदेह नहीं है। अस्तु समझने अध्ययन करने या प्रश्न के लिए कुछ भी नहीं बचता। अतः आपका मन का कहने का आपको पूर्ण अधिकार है।
aapka bahut dhanywaad ..
हटाएंसुज्ञ जी - साधुवाद । बहुत ही सटीक तरीके से अपनी बात कही है आपने अपनी इस "सनातन भवन" पोस्ट में आपने कही है ।
हटाएंअपनी-अपनी आस्थाएं और विश्वास
जवाब देंहटाएंहोते हैं.......
...धर्म और विज्ञान को एक कसौटी में तौलना ही गलत है। जिन क्षणों में व्यक्ति के काम विज्ञान नहीं आता,धर्म संभालता है,संबल देता है। विज्ञान संबल देने के लिए आधार या ज़मीन तलाशता है,धर्म ऐसा नहीं करता।
जवाब देंहटाएंधर्म दिल से जुड़ा है,विज्ञान दिमाग से ।
एक जिज्ञासा है डाक्टर साहब, विश्व के इस पिछड़े भूभाग में भी विज्ञान के शोधार्थी या मानने वालों पर फ़तवों\जुर्मों की कोई परंपरा(जैसे चर्च ने शायद गैलीलियो पर कुछ ट्रायल जैसा किया था) रही है क्या? उदाहरण सहित बतायेंगे तो और अधिक आभारी रहूंगा।
जवाब देंहटाएंसंजय जी ,
हटाएंनहीं, हिन्दू विचारधारा जड़ नहीं है! यह हमें नए विचार,तथ्य को आत्मसात करने को प्रेरित करती है!
http://creative.sulekha.com/contributions-of-ancient-india-to-the-world-of-science-1_222503_blog
हटाएंAs early as 700 BCE, research in over 60 disciplines was conducted at the World’s FirstUniversity at Takshashila, located in northwest India. At the height of its glory, this university boasted an enrollment of 10,500 students, many from far away Arabia, Babylonia (Iraq), Greece, Syria and China. The results of early scientific investigation were incorporated within the domain of Hindu religious studies. The inclusion of non-religious information into religious texts was uniquely Indian.
The tradition for inquiry across India was mentioned by Hieun Tsang, the Chinese chronicler who travelled the country extensively during the 7th century CE. In his memoirs he described the merchants of Benaras as being mostly "unbelievers". He wrote of intense polemics and debates amongst followers of different Buddhist sects. Yet, instead of undermining the faith of Indians, the newly acquired scientific information complemented the growing body of knowledge as debates focused on the value of the real-world versus the spiritual-world. In their attempts to prove the primacy of a mystical soul or "Atman", early Indian thinkers would often go to great lengths to describe competing rationalist and worldly philosophies. These did lead to developing new hypotheses, extending and elaborating existing theories, and furnishing proofs and counter-proofs. In effect, debates and discussions led to the emergence of deductive and inductive logic—the very foundation on which our present day scientific method is based.
Cont..
हटाएंSelected Scientific Contributions Of Ancient Indians
A. Mathematics
1. The Concept of the Zero
The earliest inscription of Zero was a record on Sankheda Copper Plate found in Gujarat, India (585 – 586 CE). This paved the way for the decimal system that simplified counting and calculations. It is noteworthy that it was the traders who transmitted Indian knowledge and skills to the West. Since transactions were made easier using the Indian decimal system, they quickly translated Indian mathematics into Arabic and introduced the decimal system to Islamic North Africa. In subsequent writings in the West, the Indian decimal system become known as the "Arabic number system," not because the Arabs had invented it, but because the Europeans obtained it from the Arabs! In recent times, this decimal system has paved the way for the binary system now used in computers.
Cont..
हटाएं2. Geometry and Trigonometry
The word Geometry seems to have emerged from the Indian word ‘Gyaamiti’ which means measuring the Earth. Although Euclid (a Greek) is credited with its invention in 300 BCE, the concept of Geometry developed in India from the practice of making fire altars in square and rectangular shapes. Also, the Theorem now attributed to Pythagoras (the square of the hypotenuse of a right-angled triangle equals the sum of the squares of the other two sides) was elucidated earlier by Baudhayana an recorded in the Treatise, Baudhayana Sulba Sutra (6th century BCE).
The word Trigonometry is similar to ‘Trikonamiti’ meaning ‘measuring triangular forms.’ The Sanskrit text, Surya Siddhanta (4th century CE) describes details of Trigonometry which were introduced to Europe by Briggs in the 16th century.
3. The Value of Pi (n)
The ratio of the circumference to the diameter of a circle is known as Pi. The text Baudhyana Shulba Sutra mentions this ratio to be approximately equal to 3. Aryabhatta in 499 CE worked out the value of Pi to the fourth decimal place as 3.1416. In 825 CE the Arab mathematician Mohammed Ibna Musa says that “This value has been given by the Hindu (Indians).” Present day calculations give its value of Pi as 3.1415926535…
Thanks for this very valuable input Swapna ji!
हटाएंअरविन्द जी,
हटाएंमुझे जरा अंग्रेजी शब्दशः कम समझ में आती है। क्या प्रस्तुत कडी के आलेख में इन अवदानों की किन्ही भारतीयों द्वारा खुले दिल से आलोचना की गई है? या इन शोधों के शोधार्थी पर जुर्मों की किसी परंपरा का उल्लेख है इसमें? या इन शोधों के जुर्म के लिए ही तक्षशीला जला ऐसा कुछ है?
वाह सुज्ञ जी !!
हटाएंमुझे भी यही लगा था कि आप बिना समझे, यही समझ समझेंगे :):)
वाह सुज्ञ जी !!
हटाएंमुझे भी यही लगा था कि आप बिना समझे, यही समझेंगे :):)
जय हो समझ की!! :) :)
हटाएंjee haan, jai ho aapki samjh ki !!
हटाएं:):)
धन्यवाद अरविन्द जी,
हटाएंआप भी मानते हैं कि हमारे पुरखे विज्ञान के विरुद्ध नहीं थे, आपके उत्तर से आश्वस्ति हुई। हालाँकि अंग्रेजी में हाथ मेरा भी तंग है लेकिन स्वप्न मञ्जूषा जी के द्वारा दिये उद्धरण से मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि वो भी यही बताना चाह रही हैं कि वैज्ञानिक-गणितीय शोध हमारे यहाँ होती रही हैं और निष्कर्ष तक पहुँचने के लिये अटकलपच्चू तरीकों का आधार नहीं था, गहन शोध और विमर्श किये जाते थे।
आपकी इस पोस्ट से भी ज्यादा उसके मंतव्य पर कहने को बहुत कुछ है,नून तेल लकड़ी से फ़ुर्सत मिली तो समय असमय कहता रहूँगा। फ़िलहाल तो यही कहता हूं कि काश मैं भी आप लोगों की तरह सरलमना होता, सेलेक्टिव बातें देखता और सेलेक्टिव आलोचनायें करता।
सुज्ञ जी आप कहाँ अपनी ऊर्जा खपा रहे हैं ?आपके मंतव्य और अवधारणा अपनी जगह सही है।
जवाब देंहटाएं.
.कुछ लोग बड़ी तेजी से अपनी मान्यताएं बदल देते हैं और इसे वैज्ञानिकता और आधुनिकता का चोला ओढ़ा देते हैं।
संतोष जी,
हटाएंकुछ उर्जा तो खपानी ही पडेगी. विकास से हमेँ कोई दुराग्रह नहीं, लेकिन छद्म प्रगतिशीलता की आड में जडों पर कुठाराघात होगा तो परिणाम कितने भयंकर हो सकते है,हम सोच भी नहीं सकते. उपरी परिवर्तन से इतनी हानि नहीं लेकिन नींव पर थोडा भी आघात इमारत को धराशायी करने का कारण बन सकता है.
...जी ,सच कहा !
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