ध्यान : इस पोस्ट को हलके फुल्के मन से पढने की सिफारिश की जाती है,खुद के चैन शांति की कीमत पर ही इसे गंभीरता से ले ....क्योकि यह गंभीरता से लिखी ही नहीं गयी है!
मैंने अपनी पिछली पोस्ट में जो इस पोस्ट के लिखने तक ब्लागवाणी पर सात पसंद के साथ ऊपर की आठवीं पायदान पर जा पहुँची थी एक मजाकिया सूक्ष्म संकेत क्या कर दिया मानो कयामत ही आ गयी ....अगर किताबों की तुलना रूपसियों ,प्रेयसियों और प्रेमिकाओं से थोड़ी देर के लिए कर ही दी जाय तो इसमें कौन सी आफत की बात है ...आखिर उपमा विधान है किस लिए? मुहावरे, कहावतें बनी क्यूं हैं ? मैंने तरह तरह की सुन्दर कलेवर की किताबों पर बिना किसी एक पर केन्द्रित हुए 'सभी पर मुंह मारने. की 'आत्म स्वीकारोक्ति क्या की कि भृकुटियाँ तन गयीं ....भृकुटि विलास शुरू हो गया .....अब मुंह मारना भैया एक मुहावरा है जिनका शाब्दिक अर्थ नहीं लगाया जाता है ....ब्राउजिंग का मतलब क्या है ? पगुराना या जुगाली करना ? हम नेट पर क्या करते हैं ? क्या ब्राउजिंग बुरी बात है ?अब हम कोई कालिदास तो नहीं है (उपमा कालिदासस्य ...) मगर कभी कभी कुछ मनोविनोद के लिए उपमाओं का आह्वान कर लिया करते हैं ! इस पर इतना भारी कोप ?
मैंने अपनी पिछली पोस्ट में जो इस पोस्ट के लिखने तक ब्लागवाणी पर सात पसंद के साथ ऊपर की आठवीं पायदान पर जा पहुँची थी एक मजाकिया सूक्ष्म संकेत क्या कर दिया मानो कयामत ही आ गयी ....अगर किताबों की तुलना रूपसियों ,प्रेयसियों और प्रेमिकाओं से थोड़ी देर के लिए कर ही दी जाय तो इसमें कौन सी आफत की बात है ...आखिर उपमा विधान है किस लिए? मुहावरे, कहावतें बनी क्यूं हैं ? मैंने तरह तरह की सुन्दर कलेवर की किताबों पर बिना किसी एक पर केन्द्रित हुए 'सभी पर मुंह मारने. की 'आत्म स्वीकारोक्ति क्या की कि भृकुटियाँ तन गयीं ....भृकुटि विलास शुरू हो गया .....अब मुंह मारना भैया एक मुहावरा है जिनका शाब्दिक अर्थ नहीं लगाया जाता है ....ब्राउजिंग का मतलब क्या है ? पगुराना या जुगाली करना ? हम नेट पर क्या करते हैं ? क्या ब्राउजिंग बुरी बात है ?अब हम कोई कालिदास तो नहीं है (उपमा कालिदासस्य ...) मगर कभी कभी कुछ मनोविनोद के लिए उपमाओं का आह्वान कर लिया करते हैं ! इस पर इतना भारी कोप ?
अगरचे मुझे तो आज तक यह भी पता नहीं कि प्रेमिका और प्रेयसी में असली अंतर है क्या -लोग कई कई नकली अंतर बताते हैं जो मुझे संतुष्ट नहीं करते ...मगर मुझे ठीक ठीक फर्क खुद भी नहीं पता -चूक हो गयी नहीं तो किसी असली वाली से पूंछ ही लिया होता कभी कि ये बताओ प्रिये तुम मेरी हो क्या प्रेयसी या प्रेमिका? और यह तब ही पूछना ठीक रहता जब उधर से सैंडिल वगैरह के मिसायली प्रयोग की आशंका दूर हो चुकी रहती ...खैर अब तो कारवाँ काफी आगे चला गया है -क्या बीते हुए समय में मोबाईल लग सकता है ? अब जाकर मुझे कुछ वेग सा आईडिया हुआ है कि प्रेमिका विवाह के पूर्व के रूमानी वाकयातों के स्रोत का नाम है शायद और शादी के बाद के रूमानी सम्बन्ध हो जायं तो वे प्रेयसियां होती होंगी ,शायद ! अब दो अलग शब्द साहित्यकारों ने बनाया है तो जरूर कुछ सोच समझ करके ही बनाया होगा न ! मुझे याद पढता है कि जब हम किशोरावस्था के दहलीज पर अभी कदम रखे ही थे कि एक तत्कालीन रूमानी विषयों के माहिर लेखक जैनेन्द्र ने एक विवाद खड़ा कर रखा था (लोग नाहक ब्लॉग जगत को कोसते हैं विवादों का इतिहास बहुत पुराना है भाई ),,,हाँ हाँ तो जैनेन्द्र कुमार ने एक शिगूफा छोड़ दिया था कि पत्नी घर में प्रेयसी मन मे -उस विवाद/परिवाद /संवाद का घातक असर आप देख ही रहे हैं कि आज तक वह विषय मुझे नहीं भूला ,बल्कि उसने मेरी आगामी जिन्दगी को सजाने सवारने और बर्बाद करने में भी अच्छी खासी भूमिका निभायी है ...खैर तभी से मुझे यह लगने लगा कि पत्नी के घर में आसीन हो जाने के बाद भी जो मन में आये वह प्रेमिका नहीं है प्रेयसी है ...इसी लिए मुझे शब्दार्थ निर्णय के लिए संस्कृत वालों की परमुखापेक्षिता करनी पड़ जाती है -वे शब्द विन्यास/व्युत्पत्ति से सही अर्थ बता देते हैं ..कोई मदद करेगा संत वैलेंटायींन के नाम पर प्लीज! और शोधार्थियों के लिए यह भी जानना जरूरी हो सकता है कि अगला ,ओह सारी ,अगली को क्या कहलवाया जाना अच्छा लगता है?-प्रेमिका या प्रेयसी ...वैसे मुझे यह भी लगता है कि प्रेमिका शब्द में जो उदात्तता की अनुभूति(नाम अच्छा है ) होती है वह शायद प्रेयसी में नहीं ....यह कोई ठीक बात नहीं हुई कि विवाहोपरांत के प्रेम सम्बन्ध (अगर हो ही जायं ) तो अगली प्रेयसी के नाम से ही क्यों बधे? प्रेमिका क्यों नहीं ?
अरे मैं नई नवेली पुस्तकों और रूपसियों की साम्य चर्चा को छोड़कर कहाँ भटक गया ? दोनों की ओर क्या आकर्षण एक ही सा नहीं होता ...? अगर आप सच्चे पुस्तक प्रेमी और रूपसी प्रेमी होंगें या रहे होगें तो जरूर मेरी इस संवेदना से जुडेगें ...आईये इस उपमा विधान को थोडा और विस्तार दें ...पुस्तक ( =रूपसी! ) पतली हो सकती है,मझली और मोटी हो सकती है -और आप भी जानते हैं बहुत से लोग (आश्चर्य है कि वे ऐसा करते हैं ) किताब की मोटाई या उसके पतला होने से उसका चयन करते हैं -छोडो यह बहुत मोटी है! महाभारत जैसी ....या यह बहुत पतली है राजगोपालाचारी की ऍन इंस्पायरिंग लांग पोएम की तरह ...हाँ, यह मोटाई ठीक है रागदरबारी की तरह ....हाँ यह भी पतली तो है मगर है बड़ी मनोरंजक द ओल्ड मैंन एंड सी की तरह .....कुछ पुस्तकें शुरू में बड़ी उबाऊ होती हैं खासकर अंगरेजी के साहित्यिक नावेल .... मगर धीरे धीरे बहुत आनंददायक बनती जाती हैं और क्लाईमेक्स तक रूचि बरकरार रखती हैं ...कुछ शुरू में तो रोचक होती हैं मगर शनै शनै ऊबाऊ होने लगती है और कुछ एकतार चाशनी सी होती हैं मन ही नहीं करता छोड़ने को .....मगर ऐसी वाली कई ठीक नहीं होती -इन श्रेणी में ज्यादातर जासूसी और प्रेम बाजपेयी और रानू जैसे लेखक /लेखिकाओं की कृतियाँ हैं . मगर एक बार पढने के बाद भूल ये जाती है -जाहिर हैं वे श्रेष्ठ किताबें नहीं हैं -किताबें वही श्रेष्ठ हैं जो पढ़ लेंने के बाद भूले नहीं ..रह रह कर याद आयें दृश्य दर दृश्य ...पृष्ठ दर पृष्ठ .... घटना दर घटना ....मुझे तो ऐसी ही किताबें पसंद हैं -समय के साथ पसंद भी थोडा मेच्योर हो चली है न !
मैं समझता हूँ आज के लिए यह जुगाली काफी हो गयी है -भूल चूक हो गयी हो कोई जाने अनजाने तो माफी की दरकार है! यह रुपसियों की सरकार है ...प्रदेश में और देश में भी -और ब्लॉगजगत में भी !
"मैं समझता हूँ आज के लिए यह जुगाली काफी हो गयी है -भूल चूक हो गयी हो कोई जाने अनजाने तो माफी की दरकार है! यह रुपसियों की सरकार है ...प्रदेश में और देश में भी -और ब्लॉगजगत में भी !"
जवाब देंहटाएंPange lene kee aadat nahee jaayegee, lagtaa hai :)
चिंतन चालू आहे...............बहुत अच्छा.....!
जवाब देंहटाएंमैं आपका डिसकलेमर पढकर डर गया हूं. पहले ताई से परमिशन ले लूं उसके बाद पूरा पढूंगा. गर्मी के मौसम मे मुझे मेड-इन-जर्मन से चिढ सी होगई है. कहें तो मेड-इन-जर्मन आपके यहां भिजवा दूं?
जवाब देंहटाएंरामराम
पढ़ कर ही हलके हो गए जी :-)
जवाब देंहटाएंबहुत ही मज़ेदार. अच्छा लगा हल्का फुलका हास्य इस झेलाऊ गर्मी में.
जवाब देंहटाएंbaht khub
जवाब देंहटाएंshekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
मौन व्रत धारण किए हैं, वरना कुछ न कुछ तो जरुर कहते. :)
जवाब देंहटाएंबहुतै बढ़िया लिखा है।
जवाब देंहटाएंपोस्ट एकदम पकौड़ी की तरह हल्का है, कड़ाही में डालते ही उपर ही उपर तेल में तैर रहा है :)
पिछली पोस्ट भी पढ़ी थी और यह भी।
मेरी भी आदत है कि एक किताब पूरी पढ़े बिना दूसरी उठा लेता हूँ।
@मेरी भी आदत है कि एक किताब पूरी पढ़े बिना दूसरी उठा लेता हूँ।
जवाब देंहटाएंटिप्पणियाँ तईं समझ बूझ के करें भाई लोग !
:)
जवाब देंहटाएंसमझ बूझ होती तो क्या इतनी मौज ले पाता :)
तब तो यह पोस्ट गंभीरता वाली श्रेणी में चली जाती। जबकि आपने खुदै डिस्क्लेमर दई दिया है कि हल्के फुल्के मन से पढ़ें :)
@सतीश जी अब लाईन पर आयी बात ....जे बात है !
जवाब देंहटाएं@चिट्ठाचर्चा पर कमेन्ट का आप्शनावा कहाँ गया ?
comment ka option post kee heding kay bagal mein hai. dekhiye pleej. dhanyawaaad.
जवाब देंहटाएंअंतर्जाल से फ्लर्ट (ब्लॉग्गिंग) करने के बावजूद रूपसी (पुस्तक) का संग आनंददायक होता है.
जवाब देंहटाएंअरे अरे...रूपसियाँ ,प्रेमिका , प्रेयसी बाबा काहे को ग्रह युध कि तेयारियां करवा रहे हो.... आज कल तो कुडियो का है जमाना जी, कई दिन से सीटी बजाने को दिल करता है, लेकिन डर के मारे वो भी मुंह से नही निकलती, अर्विंद जी ताऊ बार बार इस मेड-इन-जर्मन कि ओर इशारा कर रहा है, जरुरत हो तो नया भिजवा दुं, पुराने को ताऊ के यहां पडा रहने दो
जवाब देंहटाएं@ .... प्रेमिका और प्रेयसी में असली अंतर है क्या - ....... // प्रभृति अन्य बातों पर भी ....
जवाब देंहटाएं--- कभी समझ में ही नहीं आया .. शब्द और अर्थ के बीच की गुत्थी है यह ..
सारा का सारा पढ़ा - लिखा बहुत अविश्वसनीय लगने लगता है , शब्दों को
भी छलिया पाता हूँ कभी कभी या अपनी उस सम्मुख [ वह पर ( जैसे व्यक्ति आदि ..),
जिसके सापेक्ष हम हैं ] को जो शब्दों को अलग ही
व्याख्यायित कर देता है ..
हम अपने अर्थ के प्रति इमानदार होकर चलना चाहें तो भी जरूरी नहीं की
सम्मुख भी वैसा ही हो ..
यह समस्या हांड-मांस वालों के के साथ ही नहीं उस ईश्वर के साथ भी रही होगी , तभी
तो किसी शायर ने क्या खूब कहा है ---
.
'' जो उलझी थी कभी आदम के हांथों
वो गुत्थी आज भी सुलझा रहा हूँ | ''
.
शब्दों की एक सुलझवासी - जो व्यावहारिक दुनिया से मिलती है - वह बहुत निराश
कर जाती है , अक्सर हम उसमें समझौते के साथ ही फिट हो पाते है पर अगर समझौता
पसंद नहीं करते आप तो दिक्कत होगी ही ...
पर निराशा के इसी समय तो कबीर आ जाते हैं और कहते हैं --- '' जब न नीक लगे जमाने
की सुलझवासी , तो रच दो अपनी ही अलग और नयी उलटवासी '' .. तब कबीर की तरह
कोई कह सकेगा , जमाने की आँख में आँख डाल कर ---
.
' मैं कहता सुलझावन हारी
तू राखे उरझाई रे ! ''
.
इसलिए निजत्व का आग्रह बढ़ाइए .. एक निजी बसंत बनाइये और खिलाइए उसमें एकदम
निजी शब्दार्थ-सुमन .. उसी में लगेगी सहज-समाधि और बजेगा निजी-अनहद .. ''हद बेहद दोऊ तजे'' !
..................
देखिये ,,, आपके कहने के बाद भी गंभीर - सा कह/बक गया .. पर क्या करूँ इस 'प्रेमिका' शब्द पर
कम गंभीरता के साथ बात ही नहीं कर सकता क्योकि इसी के अर्थ-गत उलझाव ने अन्य शब्दों पर भी
नए ढंग से सोचने पर विवश किया है , किं बहुना !!!
पत्नी घर में प्रेयसी मन मे..
जवाब देंहटाएंHa,ha,ha!
किताबें यदि प्रेयसी नज़र आतीं हैं, तो इसमें बुरा क्या है? कम से कम उनका खयाल तो रखा जायेगा :)
जवाब देंहटाएं"प्रेयसी" शुद्ध संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है अधिक प्रिय...पत्नी और स्वामिनी के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है. इसलिये यह शब्द प्रेमिका के अर्थ से हीन नहीं है.
जवाब देंहटाएंमुझे स्लिम और इंटेलिजेंट पसंद हैं.. किताबें :)
जवाब देंहटाएंलार तो शीर्षक पढ़ते ही टपक गई थी...
जवाब देंहटाएंशब्द बोध,चिंतन और लेखन ,सब विचारणीय और मस्त है.
जवाब देंहटाएंलिखते रहिये ...हमको क्या है ..
जवाब देंहटाएंप्रेयसी का शाब्दिक अर्थ मुक्ति ने बता ही दिया है ...:)
[इस पोस्ट को हलके फुल्के मन से पढने की सिफारिश की जाती है]
जवाब देंहटाएंअच्छा हुआ ये लिख दिया अन्यथा अब तक एक बड़ा ज्वालामुखी फटना निश्चित था.
अंत में माफ़ी मांग ली.
'बुलेटप्रूफ जेकट' पहन कर चलने लगे हैं आज कल अरविन्द जी?
-मुक्ति जी की बात पसंद आई.
बस इसी मामले में फ़ेल हो गये महाराज्।
जवाब देंहटाएंI am extremely sorry for reading the blog with utmost seriousness.
जवाब देंहटाएंBy the way, is it mandatory to give a tag of 'premika' or 'preyasi' ?
If a woman, (other than wife ) is extending her selfless love to a man, Then the man must try to see 'Ishwaratv' in her.
Above all ..kind and friendly behaviour of a woman should not be confused with love .
A married lady or a married man doesn't fit in the role of premika and premi respectively.
They can be friends only and friendship is not gender biased.
Nice post !
Thanks.
chalo isi bahane gyan vardhan ho gaya.
जवाब देंहटाएंबहुत ही हलके फुल्के ढंग से आपने सफाई से अपनी बात लिख दी है ..पहले ही बचाव का उपाय कर लिया है अच्छा है :)
जवाब देंहटाएंसुघड़, मौलिक, सहज लेखन।
जवाब देंहटाएंआत्मीयता स्थापित करता हुआ।
तीसरे दिन जा कर घर का नेट टिप्पणी करने लायक ठीक हुआ है।
'मुँह मारने ..' का प्रयोग तो बड़ा अच्छा लगा। अलग अर्थ सा देता हुआ जिसे humor कहते हैं। जिन्हें बुरा लगा हो वे लोग भयग्रस्त कहे जा सकते हैं। :)
'ध्यानाकर्षण' की कोई आवश्यकता नहीं थी।
@ अभिषेक ओझा
जवाब देंहटाएंस्लिम और इंटेलीजेंट - बस किताबें ही पसन्द हैं?
:)
Preyasi = Yani na paa skne ki bebasee
जवाब देंहटाएंPremika = Premee ka unfulfilled dream
बहुत ही बढ़िया, शानदार और ज्ञानवर्धक पोस्ट! उम्दा प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएं@ Above all ..kind and friendly behaviour of a woman should not be confused with love .
जवाब देंहटाएंA married lady or a married man doesn't fit in the role of premika and premi respectively.
They can be friends only and friendship is not gender biased.
GR8 Thought .. शत प्रतिशत सहमत ...!!
I am also fond of Tall, dark and handsome books.
जवाब देंहटाएंSmiles...
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंZeal,
जवाब देंहटाएंSo you too could not resist your temptation to reveal your likings of the books of a certain specification!
Great! I appreciate your bold gesture!
Happy reading and pasime!
अच्छा हुआ जो मुआफी मांग ली ,मांगना ही पढता है ,किताबें पढने का शौक (अब आदत )पुराना है करीब चालीस साल पुराना मगर उक्त अंतर (पहला पद दूसरी लाइन ) नहीं पढ़ा पढ़ा भी होगा तो समझ में न आया होगा
जवाब देंहटाएंआज मेज पर हिलते हांथों से एक किताब उठाई ..
जवाब देंहटाएंकिताब से जैसे पूँछ सा बैठा - किताब हो ?
किताब बोली --- '' अरविन्द मिश्र जी की पोस्ट (
किताबें ,रूपसियाँ ,प्रेमिका , प्रेयसी -एक चिंतन! ) पढ़ कर और वहाँ की
टीपों से गुजर कर आये हो क्या ? तभी ऐसा सवाल उठ रहा है .. वहाँ
मेरे अभिधात्मक अर्थ के साथ इंसानी छेड़-छाड़ हो रही है , तभी तुम्हारी बुद्धि
ज्ञानदा को भी नहीं पहचान पा रही है .. मैं ही मिली थी मजा लेने के लिए ..
भाषा की सर्जना क्या मजाकी-षड़यंत्र के लिए हुयी है ? .. बड़े - बड़े सभ्य लोग मजाक के
कम्बल में 'मुंह मरा रहे हैं , और दिमाग हल्का कर रहे हैं ' ? .. ''
मैंने कहा - मुझसे क्यों नाराज हो ,
तो जवाब आया --- '' तुम का दूध के धुले हो ? तुम सब हमाम में नंगे जैसे हो !!! ''
.
उसी समय किताब से एक पन्ना गिर पड़ा , मैंने देखा तो कोई भाषा ही नहीं समझ में आ रही
थी .. खाली जसा लग रहा था .. अर्थ निकालने की कोशिश की तो
जुबान ऐंठने लगी --- की...ता...ब...सी...य...प्रे...का...मी...प्रे....
जीभ जवाब दे गयी ...
.
आप लोग भी हंसियेगा क्योकि हंसना कभी कभी कुम्भकरण-निद्रा के पूर्व की
अनिवार्य आवश्यता भी होती है .... आभार !!!
बहुत ही बढ़िया, शानदार और ज्ञानवर्धक पोस्ट! उम्दा प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएं