यह प्रसन्नता की बात है कि हिन्दी ब्लॉग जगत में काव्य कर्म को एक अग्रणी स्थान मिल चुका है -काव्य से यहाँ मेरा अर्थ पोयेट्री से है .इस क्षेत्र में महिला ब्लॉगर काफी सक्रिय हैं -यह भी एक शुभ लक्षण है . पुरुष कवि ब्लागरों के काव्य कर्म का फलक जहाँ काफी विस्तीर्ण और विषय की विविधताओं से भरा हुआ है -नारी ब्लॉगर प्रायः आत्मकेंद्रित भाव विभाव ,वियोग और पुरुष के द्वारा छले जाने जैसी आत्मानुभूतियों से लबरेज कविताओं के सृजन में मग्न दीखती हैं .खाटी और चोटी के मगर चुटिया विहीन ब्लॉगर अनूप शुक्ल ने हिन्दी ब्लॉग जगत के काव्य कर्म पर स्वभावतः एक तीखी चुटकी भी ली है ....वैसे यहाँ के काव्य कर्म और चौर्य कर्म में कभी कभार काफी साम्य दिखायी दे जाता है -मगर वह एक अलग विषय हो जाएगा जिसकी चर्चा फिर कभी ..
मेरा काव्य शास्त्र के पिंगल या निघंटु से कोई साबका नहीं रहा है मगर कविता की थोड़ी बहुत समझ का मुगालता जरुर रहा है ... .और यह समझ तभी से विकसित होनी शुरू हो गयी थी जब पन्त जी की यह कालजयी पंक्ति पढी थी -वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान -उमड़ आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान -मतलब कविता एक सहज उद्दाम प्रवाह है जो एक उमड़ती घुमड़ती नदी के मानिंद स्वतः स्फूर्त और सहज प्रगटन की प्रवृत्ति रखती है .. प्रसाद जब यह कहते हैं कि घनीभूत पीड़ा थी जो मन में छाई दुर्दिन में आंसू बन वह आज बरसने आयी तो कहीं पन्त सरीखी काव्य -भाव गहनता या विह्वलता की ही अभिव्यक्ति करते हैं ....यह तो कविता का एक पक्ष हुआ -भाव प्रवणता या भाव विह्वलता का ..मगर कविता का कोई यही एक पहलू थोड़े ही है ...कवि की कल्पनाशीलता ,भाव उर्वरता ,प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण जिसमें समानांतर दुनिया के रंग ढंग भी शामिल हैं ,उसके निजी अनुभव ,विपुल अध्ययन ,भोगे हुए यथार्थ ,शब्द और भाषा की समझ,फंतासी और यथार्थ का निरूपण आदि अनेक पहलू हैं जिससे मानव की यह सुन्दरतम वृत्ति उत्तरोत्तर समृद्ध होती गयी है....इन सभी एक-एक पक्ष पर काव्य कला /कर्म का विवेचन इस अकिंचन पोस्ट में कहाँ संभव है ...!
मुझे अक्सर लगता है कि कविता लिखना कोई हँसी ठट्ठा नहीं है ,यह सहज आलेख ,गद्य लेखन की तुलना में एक दुरूह कार्य है -भले ही मनीषियों द्वारा गद्यम कवीनां निकषं वदन्ति कहा गया हो! मैंने ब्लॉग जगत की कविताओं को पढ़ते हुए पाया है कि जहाँ कुछ कवि /कवयित्री बहुत प्रभावपूर्ण लिख रहे हैं वहीं अधिकाँश की काव्य कृति में अभी काफी सुधार की संभावना है ....और यह कतई अनुचित भी नहीं है -मगर दुःख इस बात का है कि कई रचनाकार ऐसे सुधार के प्रति सहिष्णु नहीं दिखते-ब्लॉग जगत की एक स्थायी प्रवृत्ति बन चुकी है जयकारा लगाने की ....कविताओं पर टिप्पणियों में क्रिटिकल विश्लेषण /आलोचना के बजाय बस ठकुर सुहाती का बोलबाला है ...कहीं किसी कवि(कवयित्री समाहित ) से जिज्ञासा वश ही सही कोई पृच्छा कर लीजिये तो वह नाराज हो उठता है -कई एक तो मुझे दुत्कार भी चुके हैं कि आपमें कविता की समझ ही नहीं है ..वैसे तो उनका यह आरोपण मुझे कविता की अपनी अल्प समझ का अहसास दिलाती रहती है मगर यह भी कोई बात हुई कि कुछ जेनुईन जिज्ञासा हो ही जाय तो ऐसी फटकार लगा दी जाय ... :(
कविता लिखना मेरे लिए बहुत असहज है -वैसे भी विज्ञान का आदमी कहकर मैं अपने को इस हीन भाव से मुक्त कर लेता हूँ कि मुझे कविता लिखनी नहीं आती ..लोग बाग़ मान भी जाते हैं -भलमनसाहत उनकी ...मगर मैं समझता हूँ कि विज्ञान की पद्धति और काव्य कर्म की प्रक्रिया में समानतायें कम नहीं हैं -जहाँ विज्ञान की रीति सूक्ष्म प्रेक्षण ,जिज्ञासा, विचार प्रस्फुटन,परिकल्पना और परीक्षण-सत्यापन और तब सिद्धांत का अवधारण करती है कविता भी लगभग इन्ही चरणों का अनुसरण करती है ....यहाँ भी जिज्ञासा ,भाव -विचार प्रस्फुटन और सुचिंतित भाव प्रस्तुति प्रमुखता लिए है -हाँ जहाँ विज्ञान उत्तरोत्तर वस्तुपरक होता चलता है कविता अपनी भाव निष्ठता को कायम रखती है -इसलिए ही यह बहुत कुछ व्यक्तिनिष्ठ बनी रहती है -यह कहना कि विज्ञान का ही अंतिम अभीष्ट सत्य की खोज है शायद सही नहीं है -कविता का भी उत्कर्ष /उत्स परम यथार्थ की अनुभूति ही है ...मगर हाँ कविता का साध्य सत चित आनन्द है और यहीं वह विज्ञान से अलग हो उठती है -विज्ञान का कोई ऐसा लक्ष्य नहीं दीखता और शायद इसलिए ही उसपर शुष्कता का चिर आरोपण भी हैं . प्रायः काव्य सत्य और विज्ञान सत्य का अलगाव प्रत्यक्ष हो उठता है ...
अब मैं आज के इस प्रलाप लेखन के हेतु पर आता हूँ -कल अपने मित्र आशीष राय जी से कविता पर काफी चैट -विमर्श हुआ .उन्हें भी कविता लिखने का शौक है और उनकी कविताओं में राष्ट्रकवि की बाह्य झलक दिखती है -उन्होंने अपनी एक कविता में अन्ना हजारे की दृढ़ता को मैनाक पर्वत की दृढ़ता बतायी -मैंने प्रतिवाद किया -भैया मेरे ,मैनाक पुराणोक्त चलायमान उड़ने वाले पहाड़ की श्रेणी में आते हैं और हनुमान के लंका प्रयाण प्रकरण में बीच समुद्र में मैनाक पर तनिक सुस्ता कर जब हनुमान ने फिर छलांग लगाई तो मैनाक रसातल को चला गया -तो मैनाक किस कारण दृढ़ता का प्रतीक हुआ? बहरहाल काफी बहस मुबाहिसों के बाद उन्होंने मेरी बात का मान रख लिया और कविता आंशिक रूप से संशोधित हो गयी और मैं उनके इस औदार्य से अभिभूत किंवा ऋणी हो गया ....अब कल की अपनी एक कविता में उन्होंने शाम के वक्त चिड़ियों को सप्तम स्वर में गाने की बात कही -मैंने पूछा कि पंचम क्यों नहीं या और कोइ और स्वर क्यों नहीं, सीधे सप्तम ही क्यों? तो उन्होंने जवाब दिया कवि की मर्जी!....मैंने पूछा क्या कभी शाम के वक्त चिड़ियों का चहचहाना उन्होंने सुना है तो भोलेपन से उनका जवाब था नहीं -फिर ऐसा प्रयोग क्यों मेरे भाई? अब काव्य सत्य के नाम पर इतनी छूट? मैंने सुबह सूर्योदय होते ही चिड़ियों का कलरव सुना है जो मुझे सप्त स्वरों को समाहित किये लगता है ..फिर दोपहर की पपीहे की पंचम भी सुनी है मगर अब चिड़ियों का सप्तम सुनना शेष है -मुझे सच में नहीं पता कि सांझ भये वे सप्तम तक जा पहुँचती हैं .....काश मेरे काबिल कवि दोस्त ने इस निरीक्षण परीक्षण के बाद ही ऐसा काव्य प्रयोग किया होता ..... बहस जारी है!
अच्छी बात है। शायद इसीलिये वर्णित विषय का ज्ञानी कवि, बन्दिशों के जानकारों से अधिक प्रभावशाली लगता है। हिन्दयुग्म पर निदा फाज़ली का इंटरव्यू उल्लेखनीय है:
जवाब देंहटाएंhttp://podcast.hindyugm.com/2009/01/nida-fazli-answers-to-readers.html
कवि /कवियत्रियों के नाम और कविता सहित (सिर्फ एक नहीं )उदहारण लिख देते तो कम से कम हर कोई खुद पर तो शक नहीं करता ...
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट पढ़कर भाषा अवश्य परिष्कॄत हो जाती है..आभार
जवाब देंहटाएंचिट्ठाजगत के कवियों को एक कविता आयोग गठित कर लेना चाहिये। कवितायें वहां जमा कर के फ़ाइनल करवाकर पोस्ट करनी चाहिये। लेकिन फ़िर वही लफ़ड़ा है अभिव्यक्ति में देरी होगी। कवि की भावनायें मुरझा जायेंगी।
जवाब देंहटाएंनिरीक्षण-परीक्षण तो वैज्ञानिक प्रक्रिया है. आम तौर पर आत्मज्ञान से सर्वज्ञ हुए कवि स्वयं को इस कवायद से मुक्त रखकर मौलिक रचते रहते हैं हम उनकी प्रतिभा के प्रति नतमस्तक हैं (आंख भी मूंदे रहना चाहते हैं).
जवाब देंहटाएं@स्मार्ट इन्डियन,
जवाब देंहटाएंबहुत महत्वपूर्ण लिंक आपने दिया है ..मैं समझता हूँ यहाँ हर टिप्पणीकार को निदा फाजली को कविता पर विचार सुनना चाहिए !आशीष को ख़ास तौर पर !
वैसे कवि को या लेखक को भी अपनी बात कहने की पूरी छूट होनी चाहिये। आलोचना और मीन-मेख दोयम दर्जे का काम है। मुख्य काम है रचना करना। रचना और आलोचना में रगड़-घसड़ होगी तो बेहतर चीज सामने आयेगी। बहुत ज्यादा सोच-विचार कर लिखने से कविता के नीरस शोध प्रबंध सरीखी हो जाने का खतरा रहता है जिसे शोधार्थी, टाइपिस्ट ,गाइड और परीक्षक के अलावा शायद ही कोई पढ़ता हो!
जवाब देंहटाएंकवियों कुछ कहने दो....... :)
जवाब देंहटाएं*को
जवाब देंहटाएंडॉ साहेब, ऐसा नहीं है महिला ब्लोग्गर ही कविताई करने में लगी है ... कविता पाठ के लिए महिला होना कोई जरूरी नहीं..... बस सवेदनशील होना जरूरी है - चाहे वो कोई भी लिंग हो. मन की स्वेदनाएँ ही अक्षरों में घुल कर कागज (अब मोनिटर) पर आकार लेती है...... और मनोव्यथा .... शब्द पाकर पूर्ण हो उठते है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइसी डर के मारे हम कविताई में हाथ नहीं डाल पाते हैं, केवल टिप्पणीबाज कवि बनकर रह गये। कौन जाने कविता में किसी वैज्ञानिक तथ्य से उल्टी बात लिख जाय और क्लास लग जाय अपनी...।
जवाब देंहटाएंबड़ी आफ़त है भाई कवियों के ऊपर..। :)
मुझे उम्मीद थी कि आप कवि गिरिजेश राव पर जरूर अपनी राय देंगे लेकिन बात कहीं और चली गयी।
अरविन्द जी
जवाब देंहटाएंमैनाक पर्वत वाली कविता में , मैंने मैनाक नाम केवल इसलिए लिया था की मैनाक पर्वत धरती पर विराजमान है और मैंने किसी पौराणिक कथा को सज्ञान में लेते हुए नहीं लिखा था . मेरा मकसद केवल पर्वत की दृढ़ता दर्शाना था . खैर आपकी द्वारा इस पौराणिक मैनाक के बारे में याद दिलाने पर मैंने वहाँ फेर बदल कर लिया था. अब सप्तम सुर की बात पर मै बस इतना ही कहूँगा की पक्षी शाम को घोसले में लौटे वक्त कलरव कर रहे है जो केवल उनकी प्रसन्नता को दर्शाना के लिए लिखा गया .. निदा फाजली साहब को सुनते है आराम से . बाकी बातें अनूप जी ने कह दिया है .
एक विनम्र सुधार , कि मैनाक ने सुस्ताने का निवेदन किया था, पर हनुमान जी ने सुस्ताना उचित न समझा, पर उनके प्रीति-निवेदन को हस्त-परस के माध्यम से स्वीकार भर किया , यह निवेदन करते हुये कि “ राम काज कीन्हें बिनु मोहिं कहाँ विश्राम ” ! फ़िर वह स्वतः - जैसे आविर्भूत हुआ था - समाया।
जवाब देंहटाएंअब बात कवि के काव्य-कर्म पर !
कवि को अपनी कविताई करते रहना चाहिये, पर श्रेष्ठ के प्रति सम्मान भाव रखना चाहिये, उसके ग्रहण के प्रति तत्परता होनी चाहिये। आत्ममुग्धता सर्वाधिक घातक वस्तु है। काव्य-विवेक तो आते-आते आता है, जिसके लिये बहुग्य होना आवश्यक है। जो भाषा के सामन्य ग्यान और टाइपिंग से सहारे कविता निष्पादन करना लक्ष्य समझते हैं, उनके सुधार की उम्मीद नहीं। परंतु खदर बदर वे भी लिखते रहें क्योंकि उनको अपने लिखने में सुकून मिलता है, जो प्राथमिक रूप से उनके लिये उपयोगी ही है। आगे काल की निर्मम धारा मूल्यांकन के लिये प्रस्तुत है ही।
आलोचना का अपना काम है, गुण-दोष विवेचन। जिस कवि में आलोचना/आलोचक स्वीकार करने का साहस न हो, माकूल जवाब दे सकने की शक्ति न हो तो उसकी कविताई भी प्राणहीन रहेगी। क्योंकि प्राणवत्ता आलोचना सह सकने, जवाब दे सकने की नहीं तो उसकी कवि-दृष्टि और विश्व-दृष्टि कमजोर ही होगी। आलोचना की आँच कविता को चमकाती ही है।
श्रेष्ठ रचनाकारों ने असहमतियों के बावजूद आलोचकों को सराहा है, जैसे निराला द्वारा विरोध के बाद भी आचार्य शुक्ल के प्रति व्यक्त किये गये उद्गार- “ अमानिशा थी समालोचना के अंबर पर.....प्रकट हुवे ज्यों दिव्य कलाधर....”
बाकी मैने काफी बातें , ऐसी ही स्थितियों में , एक बार रख चुका हूँ जिसके लिये यह पोस्ट देखी जा सकती है- ’कविता का दाय, या इलाही ये माजरा क्या है?’, लिंक यह है:
http://amrendrablog.blogspot.com/2010/08/blog-post.html
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जवाब देंहटाएंजिस गाँव जाना ही नहीं, उस पर गूढ़ मगज़मारी...?
चहचहाट एवँ कलरव के लिये सप्तम सुर का प्रयोग ग्राह्य नहीं है ।
अरविन्द जी, नमस्ते.
जवाब देंहटाएंकभी 'कालिदास-साहित्य एवं पक्षी-संगीत' नाम की एक पुस्तक पढ़ी थी. उसमें संगीत के सात स्वर सात पशु-पक्षियों से उद्भूत बताये गये हैं :
एक श्लोक मेरे संग्रह में अभी-भी है, वो ये कि
"षड्जं वदति मयूरः पुनः स्वरवृषभं चातको ब्रूते।
गान्धाराख्यं छागो निगदति च मध्यमं क्रौञ्चः।।
गदति पञ्चम मञ्चितवाक् पिको रटति धैवतमुन्मदर्दुरः ।
शृणिसमाहतमस्तककुञ्जरो गदति नासिकया स्वरमन्तिकम्।।
अर्थात् : मयूर द्वारा षड्ज, चातक द्वारा ऋषभ, छाग (बकरा) द्वारा गान्धार, क्रौञ्च द्वारा मध्यम, दर्दुर द्वारा धैवत तथा कुञ्जर द्वारा निषाद स्वर की उत्पत्ति होती है।
एक व्याख्या के अनुसार जैसे षड्ज की उत्पत्ति छः स्थानों [नासिका, कंठ, उर, तालु, जिह्वा, दंत] से होती है. मयूर से उद्भूत 'केका' ध्वनि इसी कोटि की है.
उसी प्रकार संगीत के सप्तम स्वर 'निषाद' की उत्पत्ति कुंजर (हाथी) के सर से मानी जाती है. मत्त गज के गंभीर गर्जन में भी संगीत होता है जो वीर रस का व्यंजक होता है.
मतलब हाथियों के चिंघाड़ने (गुरुगर्जना) में निषाद ध्वनि को सुना जाता है.
अब चिड़ियों के प्रातः या सायं के कलरव में चिंघाड़ने की कल्पना कोई अदभुत प्रतिभा का धनी ही कर सकता है. इसीलिए तो कहते हैं "जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे ...."। :)
पुनश्च:
जवाब देंहटाएंबतलाये प्रसंगों में मैनाक और सप्तम स्वर पर आपकी आपत्ति उचित है, काव्य-विवेक के विचार से! पर यह काव्य विवेक तो बड़ी साधना की माँग करता है, और ब्लोगबुड में कवि तो खूब हैं पर कवि-साधक नहीं !!
सुधार :
जवाब देंहटाएंसंगीत के सप्तम स्वर 'निषाद' की उत्पत्ति कुंजर (हाथी) के स्वर से मानी जाती है.
कुछ व्यक्ति तो इन स्वरों को ऋतुओं से जोड़कर भी देखते हैं :
यथा : क्रौंच का माध्यम स्वर 'ग्रीष्म' ऋतु में.
पिक का का पंचम स्वर बसंत ऋतु में
दर्दुर का धैवत स्वर 'वर्षा' ऋतु में
और
मयूर का षड्ज स्वर, कुंजर का स्वर व चातक का स्वर ....... इनके स्वर व्याख्या सापेक्ष होने से कभी और बात करेंगे.
पोस्ट शानदार है और थिर होकर विमर्श मांगती है....फुर्सत में।
जवाब देंहटाएं@ खाटी और चोटी के मगर चुटिया विहीन ब्लॉगर अनूप शुक्ल ने हिन्दी ब्लॉग जगत के काव्य कर्म पर स्वभावतः एक तीखी चुटकी भी ली है ....
जवाब देंहटाएंमुझे लगा कि आज आप अनूप शुक्ल जी से मौज लेने के चक्कर में हो :-)
एक बार हो जाए .... :-)
@ मतलब कविता एक सहज उद्दाम प्रवाह है जो एक उमड़ती घुमड़ती नदी के मानिंद स्वतः स्फूर्त और सहज प्रगटन की प्रवृत्ति रखती है ........
यह बिलकुल सच है कि स्व प्रस्फुटित गीत में जो माधुर्य और सरलता होती है वह सोंच समझ कर रचे गीतों में नहीं दिखती ! मैं अपने आपको गीतकार कभी नहीं मानता ना ही शिल्प का ज्ञान है ! मगर यह सच है कि बना कर गीत रचना कभी नहीं कर सका ! जब भी कोई रचना हुई अचानक ही गीत लिख गया ! निम्न गीतांश , गीतों के उद्गम और लेखन को लेकर ही, काफी पहले लिखा गया था शायद आपको अच्छा लगे !
प्रिये गीत की रचना करने
पहला कवि जहाँ बैठा था
निश्चय ही वसुधा के मन
से फूट पड़ा होगा संगीत
कविता नहीं प्रेरणा दिल की
गीत नहीं भाषा है, दिल की
आशा और रुझान, जहाँ पर
वही लिखा जाता है, गीत !
@ वहीं अधिकाँश की काव्य कृति में अभी काफी सुधार की संभावना है ....
जवाब देंहटाएंइस बारे में आपका आकलन ठीक ही है , ब्लॉग जगत में लोग असहिष्णु हैं !
मगर अगर हमें ठीक नहीं लगता तो हमें भी क्या जरूरत कि उसकी आलोचना कर उनका प्रभामंडल को खंडित करने का प्रयास करें ...रहने दें उन्हें उनकी गलत फहमियों को !
अभी हाल में मैंने एक धीर गंभीर ब्लागर पर बेहद आपत्ति जनक अपमान जनक भाषा प्रयोग होते हुए देखा ! मैं वहां विरोध कर सकता था शायद मुझे वहां वह हक़ हासिल था कि बदले में मुझे गाली न दी जाती मगर मैंने चाहते हुए भी कुछ न बोलना श्रेयस्कर समझा ! विशाल इन्टरनेट पर काम करते मनीषियों को समझाना असंभव कार्य है हम अपनी शक्ति जाया क्यों करें ! समय हर किसी को समझा देता है ....
@ मुझे सच में नहीं पता कि सांझ भये वे सप्तम तक जा पहुँचती हैं .....काश मेरे काबिल कवि दोस्त ने इस निरीक्षण परीक्षण के बाद ही ऐसा काव्य प्रयोग किया होता .....
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कवि किसी रचना के समय शब्दों पर वैज्ञानिक रिसर्च नहीं करता और शायद उसे बहुत सारे तथ्य पता भी नहीं होते ! गीत रचते समय अक्सर लोकोक्तियाँ ...मुहावरे यहाँ तक कि कपोल कल्पित कल्पनाएँ तक मुखर हो जाती हैं और अक्सर आप जैसा वैज्ञानिक कवियों को पंचम या सप्तम में फंसा कर घिस्सा दे सकने में पूर्ण समर्थ होते हैं !
मुझे अभी भी अनूप शुक्ल से टिप्पणियों द्वारा आपका टकराव .... कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद ?? याद है जिसमे अनूप भाई फंस गए थे और उस दिन मौज लेने का सहरा आपके सर बंधा था :-)
सो प्रार्थना है की कवियों की मासूम ( अनूप जी की तरह )गलतियों को आप नज़रन्दाज़ करेंगे !!
सादर !!
प्रतुल जी ,
जवाब देंहटाएंइस संदर्भणीय/संग्रहणीय श्लोक उद्धरण से ज्ञान लाभ का आभार !
देखिये न हमारे यहाँ स्वर शास्त्र पर कितना गहन चिंतन मनन हुआ है !
@राहुल जी ,
जवाब देंहटाएंकवि न हुए आत्मज्ञानी ऋषि हो गए वे !
@अनूप शुक्ल
जवाब देंहटाएंआलोचना और मीन-मेख दोयम दर्जे का काम है।
.......सो तो है ही ! जो आदमी/कवि श्रेष्ठ कार्य करेगा तो इन्ही नीच निषिद्ध कर्म से उसका बडप्पन नियत होगा न !
"मुझे उम्मीद थी कि आप कवि गिरिजेश राव पर जरूर अपनी राय देंगे लेकिन बात कहीं और चली गयी।"
जवाब देंहटाएं@सिद्धार्थ जी ,
आप उनके गुरु भाई हैं और कविता के मर्म को जानने वाले भी -यह अपेक्षा तो आपसे ही है ! :)
@"अभी हाल में मैंने एक धीर गंभीर ब्लागर पर बेहद आपत्ति जनक अपमान जनक भाषा प्रयोग होते हुए देखा ! मैं वहां विरोध कर सकता था शायद मुझे वहां वह हक़ हासिल था कि बदले में मुझे गाली न दी जाती मगर मैंने चाहते हुए भी कुछ न बोलना श्रेयस्कर समझा !"
जवाब देंहटाएंइतिहास आपको माफ़ नहीं करेगा सतीश जी !
बाकी आप तो एक सहज सरस कवि हैं और कवि ह्रदय भी !
@अमरेन्द्र ,
जवाब देंहटाएंमैनाक संदर्भ को दुरुस्त करने हेतु शुक्रिया ....वाल्मीकि रामायण का यह प्रसंग मुझे थोडा विस्मृत सा हो रहा था!
हाँ मैनाक पर्वत चलायमान है इसलिए ऊपर आया और हनुमान के स्पर्श मात्र के उपरान्त फिर नीचे गया !
@गिरिजेश ने कहा
जवाब देंहटाएंस्वरों पर कुछ:
स्वरों को मानव ने पशु ध्वनियों में ही ढूँढ़ा, यह निर्विवाद है। प्रतुल जी ने अपनी टिप्पणियों में बहुत कुछ कह दिया है।
कुछ बातें जो सरल दिखती हैं, असल में होती नहीं। भारतीय और पगान परम्पराओं की वामाचारी साधना निशाओं में अभिचारी गीत, संगीत और नृत्य की प्रधानता रही है। संगीत साधना के संकेत सिन्धु सरस्वती सभ्यता में प्राप्त पशुपति मुद्रा (http://en.wikipedia.org/wiki/Pashupati) में मिलते हैं। एक पुरातन पात्र (http://en.wikipedia.org/wiki/Gundestrup_cauldron) पर उससे मिलता जुलता चित्रण दूसरे आयामों की ओर भी संकेत देता है। विकी पर उपलब्ध ज्ञान के विपरीत एक नये ढंग का निरूपण मैंने एक बौद्ध विद्वान के यहाँ पढ़ा था।
पशुपति को कुंडलिनी जागरण की यौगिक मुद्रा में दिखाया गया है जिसमें जाग्रत लिंग ऊर्जा के उपरिगामी प्रवाह को दर्शाता है। सांगीतिक अभिचारों के संकेत मुद्रा में हैं जिसमें योगी प्रणव ध्वनि ओंकार का प्रतीक है और पाँच पशु (बाघ, हाथी, साँड़, गैंडा और हिरन) अपनी ध्वनियों द्वारा उस समय ज्ञात पाँच संगीत स्वरों को व्यक्त करते हैं। उल्लेखनीय है कि सामगायन में सूक्त विशेष के लिये एक ही स्वर का प्रयोग होता है और वैदिक युग में पहले तीन स्वर और फिर पाँच स्वरों के ज्ञान के प्रमाण मिलते हैं (सातो स्वरों के ज्ञान और उनके काल के बारे में मुझे नहीं पता)।
इस तरह से यह मुद्रा एक तरफ सिन्धु सरस्वती सभ्यता को वैदिक सभ्यता से जोड़ती है तो दूसरी ओर उस काल से बौद्ध वज्रयान के रास्ते मध्ययुगीन भारत तक प्रवाहमान और सशक्त यौगिक (तंत्रमार्गी भी - सरस्वती सभ्यता में देवी और स्त्री पुरुष जननांगों की पूजा के प्रमाण मिलते हैं) परम्परा से भी।
.. इस पर एक लेखमाला ही लिखने को सोचा था लेकिन मेरी सोच और लेखन गति में बहुत अंतराल है। ढेरों काम अधूरे हैं इसलिये विषयांतर होते हुये भी आप से कह रहा हूँ। आगे सम्भवत: आप ही इस पर विस्तार से लिखें।
रही बात कविता की तो अब मैं अपने को कवि नहीं मानता हूँ और रचनाओं को _विता कहता हूँ (अनुभव बढ़ने के साथ आदमी समझदार होता जाता है) :)।
अर्थ यह कि सम्भावना तो है लेकिन उसकी सुव्यवस्थित या संगत परिणति नहीं।
... एक अक्षम व्यक्ति कविता जैसे गहन विषय पर क्या कह सकता है? :)
वैसे हिन्दी ब्लॉग जगत में बहुत से ब्लॉगर हैं जो मुझे वास्तव में 'कवि/कवयित्री' लगते हैं। उन्हें पढ़ना सुखद होता है और उनकी कविताओं की प्रतीक्षा रहती है।
सादर,
गिरिजेश
विज्ञानं तथ्य पर आधारित है और कविता अधिकांशत: कल्पना पर.तो
जवाब देंहटाएं"मुझे लगता है कवि किसी रचना के समय शब्दों पर वैज्ञानिक रिसर्च नहीं करता और शायद उसे बहुत सारे तथ्य पता भी नहीं होते ! गीत रचते समय अक्सर लोकोक्तियाँ ...मुहावरे यहाँ तक कि कपोल कल्पित कल्पनाएँ तक मुखर हो जाती हैं"
(सतीश जी से साभार.)
कविता लिखना कोई हँसी ठट्ठा नहीं है ,यह सहज आलेख ,गद्य लेखन की तुलना में एक दुरूह कार्य है
जवाब देंहटाएंहाँ...
मुझे भी ऐसा ही लगता है...पर इसी ब्लॉग जगत में लोगो ने कहा है.."कविता तो पांच मिनट में बन जाती है ":)
@प्रसाद जब यह कहते हैं कि घनीभूत पीड़ा थी जो मन में छाई दुर्दिन में आंसू बन वह आज बरसने आयी
जवाब देंहटाएंप्रसाद जी की लिखी ये पंक्तिया शायद ऐसे है . इतने सारे गुनीजनो की नजर नहीं पड़ी इसपर .
जो घनीभूत पीड़ा मस्तक में स्मृति सी छायी
दुर्दिन में आंसू बनकर , वो आज बरसने आयी
कृपया सुधार लें .
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदृष्टि पड़ी थी आशीष, आँसु काफी कंठस्थ है. लेकिन यहाँ कुछ और महत्वपूर्ण नज़र आया इसलिये उसे नज़रंदाज़ किया. आपने भी 'थी' छोड़ दिया है
जवाब देंहटाएंजो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छायी.
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज़ बरसने आयी.
"मतलब कविता एक सहज उद्दाम प्रवाह है जो एक उमड़ती घुमड़ती नदी के मानिंद स्वतः स्फूर्त और सहज प्रगटन की प्रवृत्ति रखती है .."
जवाब देंहटाएंजब यह प्रवाह फूटता है तो पाँच मिनट में ही शब्द बह कर एक कविता का रूप धारण कर लेते हैं ...
स्वरों के बारे में निशचय ही जानकारी नहीं थी बस सात सुर होते हैं यही पता है ..प्रतुल जी ने विस्तार से जानकारी दी है ...बस अभी तक यही जाना था की सप्तम स्वर शायद सबसे तेज़ ध्वनि वाला स्वर होता है ...जब पक्षी संध्या को अपने घोंसले में लौटते हैं तो उनकी आवाज़ सच ही बहुत तीव्र होती है.. अब यह स्वर किसी को पंचम लग सकता है तो किसी को सप्तम ..और जैसे ही पक्षी अपने ठिकाने पहुंचते हैं एक दम सन्नाटा पसर जाता है ..
वैसे भी कहा भी गया है जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुँच गए कवि ...
रही मैनाक पर्वत की बात तो आप ही तो कह रहे हैं की हनुमान जी के पैर रखने के बाद वो फिर धरती पर स्थिर हो गया ...खैर यह बात अच्छी हुई की आपकी पोस्ट के बहाने हमें काफी नयी जानकारी मिली ... इसके लिए हृदय से आभार
अरविन्द जी , अब बस एक कविता आप भी लिख ही डालिए । फिर आप भी भाइयों में भाई बन जायेंगे । :)
जवाब देंहटाएंaap achchhee kavita likhte hain..aap ki kavita ka link--
जवाब देंहटाएंhttp://mishraarvind.blogspot.com/2009/09/blog-post_15.html
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जवाब देंहटाएंअरविन्द जी पहली बात ,आप अपने ब्लॉग का नाम बदल दीजिये ,इतना कठिन नाम नहीं रखना चाहिए कि लेने में जीभ और होंठ आनाकानी करें |कविता शब्दों भावों और समय की गुलाम नहीं होती ,ऐसा नहीं है कि आप कठिन शब्द अबूझे भाव और ढेर सारा समय लेकर किसी कालजयी रचना को जन्म दे देंगे |कविता एक पल की भी होती है एक उम्र की भी |कविता उनकी भी होती है जिन्हें लिखना-पढना नहीं आता |
जवाब देंहटाएंआप अन्यथा न लेंगे आपकी ये टिप्पणी इतनी कठिन है कि मुझ मूढ़ को पढना मुश्किल हो रहा है अच्छी बातों को भी कठिन ढंग से कहकर उसकी गंभीरता को ख़त्म कर रहे हैं |काव्य कोई कर्म नहीं है सिर्फ मर्म है |जहाँ तक आशीष की कविता का प्रश्न है क्या ये अपने आप में महान बात नहीं है कि शाम को भी वो चिड़ियों को सप्तम स्वर में सुन रहा है ?मुझे तो दुःख हो रहा है कि आपने उसकी रचना में उसके उस असीम साहस को क्यूँ नहीं देखा जिसमे वो अपने एकाकी मन से जुडी स्मृतियों के लिए आंसू नहीं बहाता ,प्रकृति को मित्र बनता है |ऐसे में उसकी कविता बेहद साहस के साथ व्येक्तिकता के आरोप को छिन्न-भिन्न करते हुए सार्वजानिक हो जाती है वो लिखते हैं "नभ गंगा की धवल फुहारें, सींचित करती है, उर स्थल स्पर्श मलय का आमोदित करता , प्लवित होता ह्रदय मरूस्थल"|उफ्फ्फ ,अदभुत है ये प्रयोग |अरविन्द जी सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना नहीं करे ,और अगर आप कविताओं में जबरिया गंभीरता ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं तो बाजार में उत्तर जाइए ,हिंदी ब्लागिंग में पुरुष हों चाहे महिलाएं जो कुछ लिख रहे हैं वो अभियक्ति के संकट से जुडी कुंठा के परिमार्जन का अब तक का सबसे क्रांतिकारी और खुबसूरत तरीका है ,इसका स्वागत करिए ,न कठिन रहिये न आस पास की चीजों को कठिन बनाइये |
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जवाब देंहटाएं@भाई मेरे कोई तो बताये ये टिप्पणियाँ क्यों धडाधड डिलीट की जा रही हैं ?
जवाब देंहटाएं"जो घनीभूत पीड़ा थी
जवाब देंहटाएंमस्तक में स्मृति-सी छायी.
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज़ बरसने आयी."
@प्रतुल, आशीष ,
आभार ,प्रसाद पंक्ति सशोधन प्रसाद के लिए :)
@आवेश जी ,
जवाब देंहटाएंयथा नामो तथा गुणः
आवेशित लग रहे हैं :)
ब्लॉग का नाम बदल तो दूं फिर आप अनुरोध करेगें कि मैं अपना नाम बदल कर जोश टाईप वाईप रख लूं !
निवेदन विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर रहा हूँ -आप चाहें तो समग्र परिप्रेक्ष्य और औचित्य के लिए इस ब्लॉग के नामकरण लेबल पर चटका लगा कर सदर्भ से परिचित हो सकते हैं -आप पहली बार ब्लॉग पर पधारे हैं आपका तहेदिल से स्वागत है!
मैंने जो लिखा है कोई फारसी में तो लिखा नहीं -रिक्शे वालों तक लिखने की कूवत है भी नहीं -@मगर आपको अपनी भाषा को समझने में इतनी दिक्कत हो रही है -इस पर क्या कहा जाय?
आलोचना के लिए आलोचना पर विस्तृत प्रकाश डालिए ......
अगर कवि चिड़ियों की चहचहांहट को सप्तम में सुन रहा है तो उसके पास इसका पर्याप्त आधार होना ही चाहिए -कविता अनुभूति का दस्तावेज है नहीं तो वह नकली कविता है!
बाकी तो शायद आप भी कवि कर्म निरत हैं -भेंट होती ही रहेगी :)
.
जवाब देंहटाएं@ प्रसाद जी की लिखी ये पंक्तिया शायद ऐसे है . इतने सारे गुनीजनो की नजर नहीं पड़ी इसपर .
-- पडी थी नजर , पर आप ज़रा गौर कीजिये की पोस्ट लेखक ने कोमा - इन्वर्तेद कामा - होल इन कोमाज - आदि में नहीं लिखा है..यदि ऐसा लिखा होता तो चलेबुल नहीं होता परन्तु बात बोल्ड करके गद्य के कथन-क्रम में की गयी है, कविता के हू-ब-हू इन्गिति-क्रम में नहीं ...इसलिए आप द्वारा कविता को रखना जहां श्रेष्ठ कार्य कहा जाएगा वहीं खामखा गुनीजनों को लपेटने का कार्य सायास अस्तु निंदनीय !! ..कोमा - इन्वर्तेद कामा - होल इन कोमाज - के प्रयोग की सम्यक जानकारी अर्जित करें, तो शायद भविष्य में आप ऐसी अनावश्यक आपत्तियों से बच सकेंगे !!
@अल्पना जी ,
जवाब देंहटाएंओह ,यह मेरी कविता ही है -क्या याद दिला दिया आपने-एक बिसरा हुआ माजी ..
आप भी न आप ही हैं :)
भूली बिसरी चंद उम्मीदें चंद फ़साने याद आये
तुम याद आये साथ तुम्हारे गुजरे जमाने याद आये
शाखों पर नए फूल खिले और दर्द पुराने याद आये ..
आह ......
जेहके देखा वही करत हौ अब कवियन पर चोट
जवाब देंहटाएंव्यंग्यकार, आलोचक के अब ना देबे हम वोट
कमेंट कवियन पर होई।
ज्ञानी रहतीं, लिख ना देहतीं, एक अउर रामायण
रोज उठाइत ब्रत अउर रजा, रोज करित पारायण
बतिया एक्को न मानब।
यार-मित्र जब ना सुनलन, संपादक रोज लौटावे
रोज लिखी कविता चौचक, शायद अब छप जावे
मु्श्किल से ब्लॉग मिलल हौ।
ई त हमहूँ के पता हौ कि हमरे में नाहीं कुच्छो दम
पर बहस होई सभा मा बोलब खुलके केहसे हई कम
देखिया सम्मानो पाईब।
............तुरत-फुरत व्यंग्य शैली में लिखा है। आलोचक कमियाँ बतावें..व्यंग्यकार आलोचना करें..मीडिया वाले चर्चा करें..हम जल्दी से महाकवि घोषित हों। इसी क्षुद्र कामना के साथ इस पोस्ट पर मेरा मंतव्य समझने का कष्ट करें।
अरी....... बाप रे..... मुझे लगता है.... कि चुप रहने में ही भलाई है.....
जवाब देंहटाएंहमने तो सोचा था कि हमारे सिलेबस से बाहर की पोस्ट है. पर पोस्ट और टिप्पणियां पढ़ के धन्य हुए.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंठग्गू के लड्डू नहीं रह गयी हैं
जवाब देंहटाएंअब कविता
कि
फुर्सत मे गप से खा जाओ
ग्लोबल हो चली हैं कविता
सो गले मे भी अटकती हैं
हल्के शब्दों से भारी कविता
उफ़ इतनी अभद्रता !!
आंसू भरी होती तो पोछते !!!
आह भरी होती तो समझाते !!!!
लब नयन नक्श होते तो निहारते !!!!!!!!
अब तार्किक को
सिणिमान कहते हैं चिडिमार
और
फुर्सत मे
चिंतन से
कविता और कवि
पर
चिरकुटाई मंथन करते हैं
वैसे मैं दीपक बाबा से ...ओ का कहते हैं... हंड्रेड परसेंट सहमत हूँ......
जवाब देंहटाएंनहीं ,आप केवल ब्लॉग का नाम बदल लीजिये ,आपका अरविन्द नाम स्वीकार्य है ,जोश या और कुछ रखने की जरुरत नहीं है |आप विनम्रतापूर्वक नहीं खीज पूर्वक कह रहे हैं और मै एक पाठक होने के नाते अधिकारपूर्वक कह रहा हूँ |जहाँ तक न समझने का सवाल है मैंने खुद को मूढ़ पहले ही स्वीकार कर लिया है ,फिर भी आप चाहें तो आप अपनी भाषा शैली पर एक पोल करा लें |छोटे मुंह एक बात कहूँ सरल भाषा सज्जनता का प्रतीक होती है वो लोगों को जोडती है ,कठिन भाषा व्यक्तित्व की कठोरता का प्रतीक ,वो तोडती है |
जवाब देंहटाएंअब कवि आपके कहे से तो सोचेगा ही नहीं ,कविता नितांत व्यक्तिगत चीज होती है ,अब अगर जॉन आलिया को कोहरे में लेम्प पोस्ट चाँद जैसा दिखता है तो क्या आप उनके कहन को कविता मानने से इनकार कर देंगे ?आपने सही कहा ,कविता अनुभूति का दस्तावेज है लेकिन कविता कहने के गणितीय आधार हो या फिर फ्रिदल क्राफ्ट रिएक्शन जैसे निश्चित रासायनिक समीकरण से ही कविता निकले ये जरुरी नहीं |कविता जब कभी किसी आधार का सहारा लेती है तो वो सिर्फ और सिर्फ आत्मभिव्यक्ति तक ही सीमित हो जाती है ,मेरे लिए वो कूड़ा है अगर आपके लिए चन्दन तो सर पर लगा लीजिये |
-नारी ब्लॉगर प्रायः आत्मकेंद्रित भाव विभाव ,वियोग और पुरुष के द्वारा छले जाने जैसी आत्मानुभूतियों से लबरेज कविताओं के सृजन में मग्न दीखती हैं .
जवाब देंहटाएंपंगा:)
अर्विंद मिश्रा जी इसे कहते हे सच्चा प्यार, बहुत खुब सुरत लेख,
जवाब देंहटाएं@संगीता जी,
जवाब देंहटाएंपक्षी जब वापस अपने नीड़ स्थल को पहुँचते हैं तो भिन्न भिन्न प्रजातियों की बोली अलग अलग होती है ,,
कुछ प्रजातियों में तो स्थान घेरने के लिए कोलाहल होता है -बया,गौरैया आदि में .....
अगर यह कवि को सप्तम लगता है तो ठीक है बशर्ते उसने खुद इसका पर्यवेक्षण किया हो
वाह देवेन्द्र भाई जड़ दिए एक नगीन यहाँ भी !
जवाब देंहटाएं@आवेश जी फिर आप अपना नाम बदल दीजिये मैं इस ब्लॉग का नाम बदल दूंगा -
जवाब देंहटाएंआवेश यह भी कोई नाम हुआ?
कुतर्क के लिए क्षमा -
मैंने यह नाम बहुत सोच विचार कर बाबा तुलसी के आशीर्वाद -प्रसाद स्वरुप ग्रहण किया है ..
बदल नहीं सकता -पोस्ट तो आप पढ़े नहीं होंगे ब्लॉग के नामकरण के लेबल वाले..
आवेशित बहसबाज के ये सिन्ड्रोमिक लक्षण होते हैं -मुझे पता है !
और भाषा अपनी रूचि के मुताबिक़ अच्छी बुरी होती है -आप के कहने से कोई अपने लेखन की शैली नहीं बदल सकता...
हाँ जिसे न रुचे उसे मुंह मारने के लिए यहाँ ब्लॉग जगत में नादों की कमी नहीं ,अवसर का अकाल नहीं !
.
जवाब देंहटाएं.
.
हम तो कविता करेगा
आलोचक से नहीं डरेगा
चाहे ये जमाना कहे हमको दीवाना
हम फिर भी जो कविता कहेगा
वही हमारे ब्लॉग पर छपेगा...
आदरणीय अरविन्द जी,
एक फर्क है ब्लॉग पर कविता व किताब में कविता पर, ब्लॉग पर कविता तात्कालिक है, बहुत ज्यादा गूढ़ता से ब्लॉगर उस पर सोचे तो शायद ही कुछ लिख पायेगा... वैसे भी बड़े-बड़े कवियों की डायरी में आपको उनकी कुछ कमजोर कवितायें भी मिल जायेंगी... यह बात और है कि कोई संपादक उनको छापता नहीं... ब्लॉगिंग में संपादक लेखक खुद है... इसलिये छपेगा सब कुछ, इसी में आनंद है...
"रचना और आलोचना में रगड़-घसड़ होगी तो बेहतर चीज सामने आयेगी।" आदरणीय अनूप शुक्ल जी का यह कहना बहुत सही है, परंतु इतने जानकारों के बावजूद क्या कोई भी आलोचना करने-सहने-झेलने के लिये तैयार है...
ब्लॉग पर ज्यादातर मीठा-मीठा सुनने के लिये ही दुकान लगाये हैं, यह जमीनी सत्य है... इसीलिये आलोचना/सुधार/सलाह के प्रति सहिष्णुता नहीं दिखती... जिसे यह सब सहर्ष स्वीकार है उसे आप जैसे मनीषि कोई सुधार सुझाते ही नहीं, जैसे मुझे... :)
...
Present Sir !
जवाब देंहटाएंकविता का विषय बहुत कठिन रे भाई,
शांत हो पीछे बैठो है इसी में भलाई.
आपके ब्लॉग का नाम सार्थक है और अब उच्चारण के भी अभ्यस्त हो गये हैं. आवेश जी भी हो ही जायेंगे.
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी, आपकी 'नामकरण के सन्दर्भ वाली' पोस्ट पढी.
लेकिन मैं आपके ब्लॉग शीर्षक का सीधा-सा अर्थ करता हूँ और समझता हूँ :
'कुछ अन्यों की भी.......'
जो कि एक श्रेष्ठ समीक्षक का वास्तविक धर्म है. लेखक समाज का दर्पण ही तो है....... यही तो ध्वनित होता है ब्लॉग नाम से.
आपकी पोस्ट को ललकार रूप में लिया जाये या निष्कर्ष रूप में।
जवाब देंहटाएंमुझे अक्सर लगता है कि कविता लिखना कोई हँसी ठट्ठा नहीं है
जवाब देंहटाएंsahi kaha.......tabhi aaj tak ham nahi koie kavita likhe........
jai baba banaras................
@प्रतुल जी ,
जवाब देंहटाएंमैंने इस अर्थ बोध को आत्मसात/हृदयंगम कर लिया है और तदनुसार सम्यक आचरण हेतु प्रयासरत रहूँगा -आभार!
मगर मैं कोई समीक्षक /आलोचक के पद योग्य नहीं हूँ -क्यों स्व.पंडित रामचंद्र शुक्ल जी की आत्मा संतप्त हो! हम ठहरे अदने से प्राणी!
बस मित्रों से कुछ वाग्विलास मनोरंजन हो जाय यही बहुत है .
:)
जवाब देंहटाएंकविता लिखना कोई हँसी ठट्ठा नहीं है ,यह सहज आलेख ,गद्य लेखन की तुलना में एक दुरूह कार्य है.........
जवाब देंहटाएंregards
comment karna khtre se khali nahi lag rha ha ha ha
जवाब देंहटाएंregards
(हिन्दी में तो नहीं, मगर अंग्रेज़ी में ) कविता लिखने वाले कोई 3-4 स्वचालित सॉफ़्टवेयर मैंने टेस्ट किए हैं. उनमें एक हाइकु लिखने वाला भी था. आप कुछ शब्दों (अखबारी ही सही) का इनपुट उसमें दे दें, और वह अनुप्रयोग उनको तरतीब-बेतरतीब जमा कर कविता निकाल कर दे देता था.
जवाब देंहटाएंइतना तो आसान है ये! नहीं?
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जवाब देंहटाएंअपने ब्लॉग के आगे फिर लिख दीजिये कि "बाबा तुलसी के आशीर्वाद से फलीभूत होता ब्लॉग "|जहाँ तक मेरे नाम बदलने की बात है मुझे भी लगता है कुछ परिवर्तन जरुरी है मित्रों का मानना भी है ,जैसा नाम वैसा गुण ,विचार करता हूँ |लेकिन ये विश्वास दिलाताहूँ अपना नाम आवेश क्वचिदन्यतोअपि तो नहीं रखूँगा |आप खुद लेकर देखिये इसमें और "कच्चा पापड ,पक्का पापड में कोई अंतर नजर नह आएगा |आपके कहने से आशीष राय अपनी शैली बदल सकते हैं तो आप क्या इतनी कृपा नहीं कर सकते कि कठिन लिखना छोड़कर सुगम और सहज लिखें ,अब ये मत कहियेगा कठिनता ही मेरा परिचय है |शर्मनाक है अगर आप हिंदी की अपरिपक्व ब्लागिंग को नाद की संज्ञा दे रहे है ऐसा कह कर आप मेरा नहीं उनका अपमान कर रहे हैं जो बेचारे समझते न समझते हुए भी सबको झेलते हैं ,टिपियाते हैं,जो कुछ भी वो लिख रहे हैं उनका स्वागत किये जाने कीई जरुरत है , |मेरी बहसबाजी आवेशित नहीं है अग्रज ये सच के आस पास है ,आप मीठा मीठा सुनने के आदि हो चुके हैं इसलिए आपको खराब लग रहा |
जवाब देंहटाएं@रवि रतलामी,
जवाब देंहटाएंआप कहीं आधुनिक कविता की बात तो नहीं कर रहे हैं ? :)
@आवेश,
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट पर अपने विचार रखने के लिए शुक्रिया !
` कविता की थोड़ी बहुत समझ का मुगालता जरुर रहा है ... '
जवाब देंहटाएंपर अंत तक पहूंचते-पहुंचते मुगालते ने विद्वत्ता का रूप ले ही लिया :)
क्वचिदन्यतोअपि.....
जवाब देंहटाएंबाबा तुलसीदास से खुले मन से स्वीकार किया कि रामचरितमानस में जो रामकथा है वह नई नहीं है...
हरि अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुविधि सब सन्ता।।
गोस्वामी जी इतना कहकर मौन नहीं हो गये...वे आगे लिखते हैं....क्वचिदन्यतोअपि। अर्थात इसकी सामग्री वेद,पुराण,उपनिषद और रामायण के अतिरिक्त कुछ अन्यत्र से भी ली गई है। अपने काव्य के प्रति इतनी ईमानदारी विरले ही दिखा पाते हैं।
इस ब्लॉग का नाम पढ़ते ही यह समझ में आ जाता है कि इसके पोस्ट में लेखक ने अपनी मौलिक बातों के अलावा अन्य से भी जानकारी प्राप्त की है।
पहली बार इस नाम को पढ़कर मैं भी चकराया था मगर जब तह में गया तो जाना कि कितना कुछ जानना शेष है दुनियां में।
मैं तो इस ब्लॉग का और लेखक का ऋणी हूँ जिसने मुझे क्वचिदन्यतोअपि नाम के अर्थ और इसकी महत्ता को समझने का अवसर प्रदान किया।
अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंदिक्क़त ये है कि कविता पर अपना वश नहीं ! आम तौर पर इस विधा पर कुछ भी कहने से बचता आया हूं ! आज आपका आलेख पढ़ा और काफी पहले अनूप शुक्ल और अमरेन्द्र जी का आलेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने हिमालय के बिम्ब पर एक कवि की अच्छी खासी धुलाई की थी :)
आपके कवि मित्र को कभी पढ़ा नहीं इसलिए उनपर कोई कमेन्ट करना अनुचित होगा !
एक बात जो समझ में नहीं आई वो ये कि आलेख अगर कविताई पर था तो नाम बदलने के आग्रह और कवायद क्योंकर शुरू हो गई :)
बाबा तुलसीदास ने...
जवाब देंहटाएं@ देवेन्द्र पाण्डेय,
जवाब देंहटाएंआभार आपका ...आपकी टिप्पणी से मैं भी लाभान्वित हुआ, विषद जानकारी के लिए आभार !
आपकी ताज़ा पोस्ट पढ़कर बहुत पहले की आपकी दो कविताएँ याद आ गईं ....दोनों मे अंधकूप का उल्लेख था.शायद एक में आप खिंचे चले गए तो दूसरी कविता में आप बाहर निकल आए....क्या वे आत्मकेन्द्रित न थीं...माफी चाहूँगी लेकिन जिज्ञासा को शांत करना चाहती हूँ ... याद इसलिए रह गई क्यों कि उन दिनों बेटे की एक विज्ञान से जुड़ी कहानी को दूसरा स्थान मिला था..
जवाब देंहटाएंमीनाक्षी जी ,
जवाब देंहटाएंजो कविता /(यें) आपको अभी तक याद हो वे पूर्णतया
आत्मकेंद्रित कैसे कही जा सकती है ? कविता वही श्रेष्ठ होती है जो व्यष्टि गत होते हुए भी समष्टि
से तादात्म्य स्थापित करे! (यह मैं उन कथित अपनी कविताओं श्री वर्धन में नहीं कह रहा ,क्योकि मैं
इस विधा को सच में कठिन साध्य मानता हूँ -और कवि की पीड़ा केवल उसकी नितांत वैयक्तिक पीड़ा नहीं रह जाती जब वह
कविता के रूप में प्रस्फुटित हो जाती है -तब वह सारे निसर्ग और संसार की/के लिए हो जाती है.
मैं हैरत में हूँ मेरी दो अकिंचन क्षुद्र कवितायें सारे देश काल को लांघती फलांगती आपके मन में अभी भी सुरक्षित है ,किंचित गौरवान्वित भी ......यह गुण ग्राहकता है ही न!
पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंकाव्य का ज्ञान नहीं है इसलिए काव्य-कर्म पर कुछ नहीं बोल सकता.
आपको प्रणाम!
Arvind mishrji pooraa brahmaand ghoom liyaa ,aapki is post kee maarfat.kyaa badhiyaa guft gu thi ,80 kee 80 tipaqnni (chithhthhaakashi )padh gyaa .
जवाब देंहटाएंbadhiyaa bahas mubaahissa .shrey detaa hun aapko is sabkaa .
veerubahi .
आज के बदलते युग में छन्दबद्ध कविता भी मुक्त हो कर नए नए रूप में दिखाई देती है...किसी रूप को हम सहज स्वीकार लेते हैं और किसी को नहीं...कविता अपने आप में कुछ भी नहीं..मॉर्डन आर्ट की तरह कवि खुद के लिए जाने क्या सोच कर कविता रचता है और हम पढ़ने वाले अपने अपने ढंग से सोच कर अलग अलग रूप में उसे ग्रहण कर लेते हैं..
जवाब देंहटाएंअरविंद जी प्रणाम!
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट से कई नई बाते तो जानने को मिली ही है....
परन्तु श्रीमान मैं तो दुविधा में फँस गया हु...नया नया लिखना शुरू किया है और अब तो इस संशय में हूँ की कहीं ब्लोग काव्य जगत में महिला आधिपत्य वाले क्षेत्र में तो नहीं आ गया हूँ ...वैसे इस में भी क्या बुराई है...प्रेम तो शाश्वत है... :)
इस उत्तम लेख के लिए शुक्रिया....
आपसे अक्षरसः सहमत हूँ जहाँ पुरुष अपनी विद्द्वता प्रदर्शित करने कि होड़ में हैं वहीँ महिला शब्दों की चुटिया गुंथकर दुखों के गजरा से सजाने में व्यस्त है..आपकी हिम्मत की मैं कायल हो गयी वर्ना आपने सही कहा कि ठाकुर-सुहाती में ही सब खुश हैं..मैं आपसे एक सच्चे आलोचक की उम्मीद करूँ ?अब तक नहीं मिला है..
जवाब देंहटाएंमैं बेवकूफ हूँ टिप्पणी करने के बाद मजेदार जंग पढ़ी .वाकई मसालेदार..मजा आ गया ..धन्यवाद
जवाब देंहटाएं@जिसकी रचनाओं में मौलिकता और अभिव्यक्ति की एक झक्कास ताजगी हो वह बेवकूफ भला कैसे? हमने आपकी प्रतिभा को पहचान लिया है -हांडी के एक चावल के समान ही ....आप अनवरत लिखें हम अहंर्निश पढ़ते रहेंगें !
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी, आपने और टिप्पणीकारों ने मिलकर अच्छी चर्चा की है। आनन्द आ गया। लेकिन एक-दो बातें यहाँ कहूँगा, आप अन्यथा नहीं लेंगे। पहली बात तो यह कि वास्तव में आपके ब्लाग का नाम बहुत सुन्दर है और बदलने की जरूरत नहीं। हाँ, एक काम अवश्य करें कि उसे इस रूप में कर दें-क्वचिदन्यतोSपि। क्योंकि महर्षि वाल्मीकि ने ऐसे ही दिया है। पूर्वरूप संधि होने पर अ अवग्रह के रूप में ही लिखा जाता है। यदि आपने जानबूझकर ऐसा नामकरण किया है, तो फिर मैं अपनी बात वापस लेता हूँ।
जवाब देंहटाएंदूसरी बात कि "गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति" है।
तीसरी बात कि "साम्यता" के स्थान पर "साम्य" या "समानता" उचित होगा। दो गुण-वाचक प्रत्ययों का एक साथ प्रयोग नही होता। साधुवाद।
कृपया महर्षि वाल्मीकि के स्थान पर महाकवि तुलसीदास पढ़ें। क्षमा-याचना के साथ।
जवाब देंहटाएंबाप रे! अपनी औकात नहीं यहाँ रहने की।
जवाब देंहटाएं