मंगलवार, 29 जनवरी 2013

कौन सा भारत,किसका भारत?


बलात्कार भारत में नहीं इण्डिया में होते हैं भागवत  के इस बयान ने  एक बार फिर इंडिया दैट इज  भारत के निहितार्थों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया . यहाँ मैं बलात्कार कहाँ होते हैं इस विषय का विवेचन करने नहीं जा रहा हूँ बल्कि कुछ बातें आपसे इस विषय पर साझा करना चाहता हूँ कि यह भारत बनाम इण्डिया का मामला है क्या?बात भारत और इण्डिया की ही नहीं हिन्दुस्तान की भी है . मतलब देश एक नाम तीन तीन .गोली एक आदमी तीन की तर्ज पर . मगर निशाना कहाँ है? एक देश के तीन तीन  नाम  क्यों हैं .  क्या ऐसा विश्व के किसी और देश के बारे में भी है -फिर भारत ही के साथ ऐसी विडंबना क्यों?  
हमारे संविधान निर्माण करने वाले महानुभावों ने भी इस बिंदु पर विचार न किया हो ऐसा कैसे कहा जा सकता है? आखिर वे विद्वान ,अच्छे खासे पढ़े लोग थे. बहरहाल यह सामान्य सी बात तो हम सभी को पता ही है कि भारतीय सभ्यता मूलतः सिन्धु नदी की सभ्यता है जिसकी कभी सात सहायक नदियाँ हुआ करती थीं और नाम था सप्तसिन्धु -यहीं सिन्धु घाटी की प्राचीनतम सभ्यता पनपी मगर दुर्भाग्य से कुछ पुरात्तात्विक अवशेषों के अलावा इस सभ्यता के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है। जैसे कौन थे सैन्धव? क्या वे द्रविण-भारत के मूल वासी  थे? अनार्य थे ? आदि आदि .यह पूरी की पूरी सभ्यता का  नामों निशाँ तक मिट गया और आर्य भारत में स्थापित हो गए . मगर वे भी सिन्धु के आँचल में ही आबाद हुए.पारसियों और आर्यों के  चोली दामन के साथ के तमाम अंतर्साक्ष्य मौजूद हैं -इरानी आदि ग्रन्थ अवेस्ता और आर्यों के ऋग्वेद में अद्भुत साम्य है। अब इरानी जुबान में 'स' का उच्चारण 'ह; है तो आर्यों के समय से ही सिन्धु नदी के किनारे बसने वाले हिन्दू कहलाये और इसी आधार पर यह देश हिन्दुस्तान कहलाया . पहले यह एक भौगोलिक नामकरण था -कालांतर में आर्यों के विस्तार से यह सांस्कृतिक भी बना -हम हिन्दुस्तान के वासी हुए आज भी चाहे हमारा धर्म ,पूजा पद्धतियाँ कुछ भी हों -हिन्दू ,मुस्लिम, सिख ,ईसाई, पारसी सभी हिन्दुस्तानी हुए या कुछ और छूट ले लें तो ये सभी भौगोलिक लिहाज से हिन्दू हैं !
यूनानियों ने सिंधु / हिन्दु (Hindu) से एच हटाया और नदी का नया नामकरण दे दिया इंडोस (indos) -लैटिन में इंडोस बन गया इंडस (Indus) और यूरोपीय लोगों ने इस नदीय सभ्यता के लोगों के  देश का नया नामकरण कर डाला -इंडिया! और यह शेष दुनिया में ऐसा चल पडा कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भी इसी नाम को प्राथमिकता दे दी . मगर सबसे बड़ी पहेली -भारत की पहेली तो आज भी बरकरार ही है? इस देश का नाम भारत क्यों पड़ा?आज के ज्यादातर  बच्चे हो सकता है इसका जवाब न दे सकें मगर हमारी पीढी के लोग दन  से कहेगें कि शकुंतला -दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत/भारतवर्ष पड़ा . मगर यह सही नहीं है . 
दुष्यंत शकुंतला का काल ऋग्वेद के बहुत बाद का  है। और ऋग्वेद में 'भरतों' का बहुत बार उल्लेख है!  दरअसल मनु के वंश में एक प्रतापी राजा भरत हुआ है -मत्स्य पुराण में उल्लेख है -'मनुर्भरत उच्यते' -मनु को ही भरत की संज्ञा दी गयी है . यह कहा गया -'वर्ष तत भारतं स्मृतं' अर्थात मनु से ही भारत नाम आया है . दरअसल ऋग्वेद में जो 'भरताः' नाम  आया है वह मनु के वंशज का है न कि दुष्यंत के बेटे भरत का . आर्यों की दो शाखाएं हैं सूर्यवंशी आर्य और चन्द्र वंशी आर्य .वे भरत जिनके नाम  पर इस देश का नामकरण हुआ उनका सम्बन्ध सूर्यवंशी आर्यों से है न कि चंद्रवंशी आर्यों से ...दुष्यंत चंद्रवंशी आर्य हैं .मजे की बात यह भी है कि राम के भाई भरत भी हैं मगर उनके नाम पर भारत का नाम पड़ा यह भी कहीं उल्लिखित नहीं है। आशा है यह पहेली अब कुछ सुलझी होगी या और उलझ गयी ? :-) 
  

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

प्रेमकथा का पटाक्षेप-स्त्री पुरुष के घनिष्ठ सम्बन्धों पर राम जन्म पाठक की संपूर्ण कहानी(पटाक्षेप समाहित)


हम किनारे लग भी सकते थे 
 राम जन्म पाठक
और अब पटाक्षेप...........  


मेरा पांच मिनट चित्रा पर उधार चल रहा था, और वह चुका नहीं रही थी। मैं खीझा रहता। सचाई तो यही थी कि अगर ‘प्रेमिका’ शब्द का कोई संदर्भ बनता था, तो इसका संबंध मुझसे था। लेकिन, झोलाछाप गीतकार और मोपेडधारी कथाकार निहायत करीने और खामोशी से पूरे शहर में यह स्थापित करने में लगे थे कि वह, मोपेडधारी कथाकार की प्रेमिका है।

सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। छोटा-सा शहर है। घुमा-फिराकर उठने-बैठने और गपियाने की जगहें सीमित हैं। हम अक्सर टकराते कभी यहां, कभी वहां। मैंने रणंजय से खुलकर बात की। उसकी राय थी-चित्रा करिअरिस्ट और मौकापरस्त है। मुझे उसे भूल जाना चाहिए। बहुतों ने मुझसे यही कहा था। आज तक कोई मुझे यह नहीं समझा पाया कि जिसे तुम ईमानदारी से प्रेम करते हो, उसे भूल कैसे सकते हो, भले ही वह वेश्या ही क्यों न हो जाए। मेरी यातना यह नहीं थी कि चित्रा मुझे छोड़ गई थी, बल्कि यह थी कि अब किसी और को कैसे अपनाऊंगा ? यही वह नुक्ता था जो मुझे सारी जिंदगी तबाह करनेवाला था। भूलने की शर्त लगानेवाले, याद रखने की शर्त क्यों नहीं लगाते 
मेरा अतीत अब दागी थी, बिना किसी जरायम के। 
कुछ और डेवलेपमेंट हुए।गांव से पिताजी आएः बोले-अट्ठाईस के हो गए हो। चलो शादी कर लो। सदानंद पीछे पड़े हैं। लड़की सुंदर है, सुशील है, गृहकार्य दक्ष है। मैं उसमें जोड़ना चाहता था- चौबीस, छत्तीस, चौबीस है। तन्वंगी है और अक्षतयौनि है। पता नहीं लोग, ये सूचनाएं देना कब शुरू करेंगे। मैंने सख्ती से मना कर दिया। वे झल्लाकर चले गए। 
दुर्दिन अभी और आनेवाले थे। मैं जिस अखबार में काम करता था-उसमें हड़ताल हुई और फिर तालाबंदी। रहा-सहा आधार भी ढहा। अब मैं हर तरह से मैं एक बार चित्रा से बात करना चाहता था। मैंने उसके पिता से बात की-उन्होंने कहा, बेटा, यह नासमझ है। उसकी शादी जहां हुई है, वहीं जाएगी। वे एक सीधे, सरल और निष्कपट आदमी थे। और चित्रा की शादी की विफलता से मर्माहत थे। उससे ज्यादा दुख उन्हें जवान बेटे की मौत का था। उन्होंने कहा-तुम उससे दूर रहो। मैंने उन्हें वचन दे दे दिया। यही वचनबद्धता मेरी जान की दुश्मन बनी। इसने मेरे हाथ-पांव बांध दिए। 
हालांकि, मैं जानता था कि सूरज, पूरब से पश्चिम में उगने लगे तो भी चित्रा अपने पति के पास नहीं जाएगी। आगे चलकर उसने तलाक लिया था। जब चित्रा, मुझे जवाब देने आई थी, उस दिन मैंने आंखों से आंखें डालकर उससे पूछा था कि क्या वह अपने पति के पास जाएगी ? उसने संपूर्ण तीव्रता से कहा था—नहीं, बिल्कुल नहीं।
हद ही थी हर जगह। पिता कहते हैं, वहीं जाएगी, वह कहती है नहीं जाएगी। इन पिता-पुत्री के बीच मैं हूं तो कहां हूं । 
लेकिन...मैं बाजी हार चुका था।
मुझे अभी भी उसी से उम्मीद थी। क्या उसे कुछ भी याद नहीं है ? वह ऐसे, कैसे हो सकती है ! अक्तूबर गुजर गया। दिसंबर भी गया। मैं रोज अपने कमरे पर बाहर रेलिंग पकड़कर बैठा रहता और घंटों उसका इंतजार करता रहता। 
वह न आई तो नहीं ही आई। उसकी कट्टरता, क्रूरता और उन्माद का कोई सानी नहीं है। अतिशय कठोर, अतिशय नरम।
मेरे अंदर एक बदलाव चल रहा था, तूफानी गति से। यह तूफान रोज मेरी तरफ बढ़ता। चित्रा के साथ चूमाचाटी और आलिंगन-मर्दन ने मुझे ‘जगा’ दिया था। मेरी तमाम रोमांटिक कल्पनाएं और बदहवासियां उससे जुड़ी थीं। मैं निरंतर काम-पीड़ा से ग्रस्त रहता और विह्वल होता जा रहा था। कुछ सूझता नहीं था, सिवा क्रोध और झल्लाहट के। मैं आए दिन अखबारों में प्रेम-प्रसंग में हत्याओं और आत्महत्याओं की खबरें पढ़ता रहता। मैं अपने आप से डर गया था। मेरे हाथ-पांव कांपने लगते। और बेचैन हो जाता। 
एक दिन धुंधलके में निकल पड़ा कमरे से। चला जा रहा हूं...मन, बुद्धि, शरीर-कुछ भी मेरे काबू में नहीं है। एक अदम्य इच्छा, एक दुर्निवार कामना हावी है मुझ पर। या इलाही मैं कहां आ गया हूं। यह शहर की बदनाम बस्ती है। यहीं बगल में चित्रा का घर भी है। 
पतन और गिरावट की भी हद होती है।
लेकिन कहां होती है ? 
वह दरमियाना कद की एक सांवली-सी युवती थी। हम कुछ भाव-ताव कर रहे हैं। वह मुझे एक सीलनभरी अंधेरी कोठरी में ले गई है। वह मोमबत्ती जलाने में बहुत वक्त जायां कर रही है। वह मुझे तड़पा रही है। हद है, हद है..यह भी तो स्त्री ही है न। मेरी नजर एक कोने पर पड़ी। एक टोकरी में लिसलिसे गुब्बारों की ढेरी...। मुझे लगा अभी उल्टी हो जाएगी। उसने कोई पैकेट फाड़ा है, मुझे कुछ दे रही है। वह पेशेवर है। मैंने हड़बड़ी और भूख और अतृप्ति के साथ काम निपटाया। और अब सड़क पर हूं। चला जा रहा हूं... चला जा रहा हूं, पता नहीं कहां, किधर...किधर...। अब मेरे इस पाप का कोई अंत नहीं। संसार के सारे गंगाजल अब इसे नहीं धुल सकेंगे। क्या कहा था लेडी मैकबैथ ने—all the perfumes of arebia will not sweaten this little hand. ( दुनिया का सारा इत्र छिड़क लूं तो भी इस हत्यारे हाथ की बदबू नहीं जाएगी।) 
जाओ, चित्रा, मैं तुम्हें शाप देता हूं। तुम कभी सुखी नहीं रहोगी।
बहुत साल बाद चित्रा मुझसे कहनेवाली थी, ‘ आठ साल से झेल रही हूं... आप आइए, मुझे डांटिए। मैं मौनी बाबा बनकर बैठी रहूंगी। असल में , आप मुझसे बात तो कर नहीं पाए...।’ उसकी आवाज में एक गहन पछतावा, हमदर्दी और कातरता थी। क्या उसे कोई दुख है ? वह सुखी है या दुखी ? पति से तलाक, फिर एक कुंआरे से लगाव और विलगाव, फिर शादीशुदा से चक्कर। और फिर अपने से दो साल छोटे युवक से शादी। उसने अपनी अर्थ-शक्ति से जवानी खरीदी होगी ? ठेठ मरदों की तरह। वह मजा मार रही थी चारों तरफ या सजा भोग रही थी ?कौन कह सकता है ! उसने अपना वक्त खुद खराब किया। 
वह फोन पर बहुत साल बाद मुझसे यह भी पूछनेवाली थी,’तो आप कब से ‘पी’ रहे हैं ? ‘ 
और मैं उससे यह झूठ बोलनेवाला था-‘जबसे आप मुझे छोड़कर गईं।‘ वह चुप्प थी। क्या वह खुश हुई? क्या उसे तकलीफ हुई ? वह किसी के लिए तकलीफ नहीं करती । उसे सिर्फ मौत पर भरोसा है। उसने कहा-मैंने बहुत मौतें देखीं हैं। वह कहना चाहती थी कि तुम्हारी मौत के मायने क्या हैं ? मैंने उससे कहा-मैं न मरने वाला। मैं उससे यह भी कहने वाला था, ‘तुम रंगोली बनाओ, तुम छात्रोपयोगी किताबें लिखो, तुम नमूने पालो। इससे थोड़ी तुम बच जाओगी। तुम्हें मैं बचाऊंगा। तुम अपनी वजह से नहीं, मेरी वजह से जानी जाओगी। लोग पूछेंगे, चित्रा कौन। अरे, वही...। चौराहे तुम्हारा ख्याल रखेंगे। ओ! मॉय, लेडी-पिकासो । 
लेकिन, इससे पहले और भी बहुत कुछ हुआ था। मेरे दिन बहुरे थे। और वाकई बहुरे थे। मेरे गांधीवादी एक साथी ने मुझे एक अखबार में उपसंपादक की स्थायी नौकरी दिला दी थी। बढ़िया खाना और कपड़े और एक अदद स्कूटर। बहुत दिनों तक तो मुझे विश्वास ही न हुआ कि मैं स्कूटर से चलता हूं। 
जाड़ों के दिन थे। मैं ताजा पानी से खूब नहाया था। सफेद शर्ट पहनी थी और गहरा हरा ब्लैजर। बाल सदन जा पहुंचा। मोटी साली (पिंसिपल) ने कहा-बहुत दिन बाद आए। जाकर मिल लीजिए। मैं सीधे गया उसकी कक्षा में। वह मुझे देखकर खुश हो गई। ऐसे मिली, जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो। मैं दंग था, क्या यह वही चेहरा है, जिसने मुझे तिल-तिलकर मारा है। इतना इतराने और दिलजोई करने का सबब क्या है ? वह इतना दुलार क्यों मार रही है? 
वह मुझे ऐसे देख रही थी, मानो अभी पी लेगी। 
यही, वह जगह है, जहां उसने मेरी जिंदगी का सबसे रहस्यभरा, अबूझ और कभी न समझ में आनेवाला वाक्य बोला था कि मोपेडधारी कथाकार से मिलवाने का श्रेय मुझे था। यह सुनने के बाद भी मैं लड़खड़ाकर गिरा नहीं था। 
आज फिर वहीं खड़ा हूं। और उसे देख रहा हूं। और उससे बात कर रहा हूं। वह हमेशा की तरह अपनी कुर्सी पर टेढ़े-मेढ़े बैठी है। उसकी निहायत खूबसूरत ऊंची नाक, पतले-पतले अतिकामुक होंठ और शरारत से भरी आंखें चमक रही हैं। बीच-बीच में मुंह बिचका रही है। अभी कुछ करेगी वह। तय है। 
उसने आव देखा न ताव और बोल गई—‘फिर से, अच्छा फिर से। ‘
यह किसी पादरी के सामने का कन्फेशन था। धन्य है। उसने बहुत दुख सहा है, लेकिन सिफत यह है कि वह संसार के सारे दुखों के योग्य है। 
मेरी ही तरह, वह भी कोई बाजी शायद ही जीत पाए। विभीषिकाएं उसकी सहेली बनी रहेंगी।
शायद, यही सुनने मैं आया था। मैं तेजी से मुड़ा और चला आया।
शाम हो रही थी। तारे उगने लगे थे। जमाने बाद मैंने देखा कि मेरे कमरे पर एक बल्ब भी है और स्विच आन करो तो जलता भी है। मैंने उसे जला दिया। उसमें से ढेर सारी रोशनियां फूटीं। अब मैं कमरे की चीजों को साफ-साफ देख सकता था। 
बहुत साल बाद मोबाइल पर चित्रा मुझसे कहनेवाली थी—‘अगर आपने शादी न की होती तो इतिहास कुछ और होता।‘ 
वह कॉलेज में रीडर है। रीडर का एक मतलब पाठक भी होता ही है। उसने एक बार मुझसे कहा था-‘आप लिखते रहेंगे, मैं पढ़ती रहूंगी।‘ 
लो, पढ़ो, मेरी शैतान ! 
यही चाहती थीं न तुम ! .... 
क्या यह वाकई प्रेम कहानी ही है ? है भी तो कितनी अजीब !

मुझे भी कुछ कहना है ......

यह कथा मुझे  गहरे संस्पर्शित कर गयी -कारण?क्या बताना जरुरी है? :-)  पात्र जरुर काल्पनिक है, कहानी एक पुरुष का भोगा हुआ यथार्थ. मगर एक ही क्यों?यह  पुरुष  दारुणय की एक प्रतिनिधि कथा क्यों नहीं कही जा सकती ...?  इस कहानी से जहाँ घनिष्ठ मानवीय रिश्तों की जटिलता सामने आती हैं ,वहीं पुरुष नारी उभय पक्षों को अपने आचरण को सायास मर्यादित रखने की एक सीख या सूझ भी मिलती है -कहानी इस अर्थ में सोदेश्यपरक बन जाती है कि वह समाज के लिए उपयोगी बन सकती है। बाकी  चर्चा के लिए तो सुधीजन आमंत्रित हैं ही .......







बुधवार, 23 जनवरी 2013

आधुनिक प्रेमकथा का उत्तरार्द्ध


हम किनारे लग भी सकते थे 

* राम जन्म पाठक
.......और अब उत्तरार्ध! 
  
चित्रा के साथ कुछ समस्याएं थी। अनवरत बीमार मां, अतिवृद्ध पिता, युवा भाई की अकाल मौत, बेरोजगारी और तलाक के लफड़े। लेकिन, उसके साथ एक समस्या और भी थी। वह शहरी मध्यवर्गीय लड़कियों से हरगिज अलग न थी। शुरू में लगा था कि वह कुछ करना चाहती है, कि उसमें कुछ दम है। उसकी बातें बड़ी-बड़ी होतीं। मैं मोहित हो जाता। एक बार मैंने कुछ ऐसी तुकबंदीवाली लाइनें लिखीं—कितनी-कितनी है दुखदायी कहानी अपनी। जवाब में वह लिखकर लाई, फूल-सी खिलेगी कहानी अपनी। मैं खुश हो गया। मैंने उसे देवतुल्य प्यार किया। 
वह उतरती सदी का महाझोंप अंधियारा था। लोग पटापट एक दूसरे को मार रहे थे या मर रहे थे। सबसे ज्यादा कुछ बुलंद था तो बेरोजगारी का परचम।कोई बड़ी चूक नहीं हुई थी मुझसे। बहुत मामूली और छोटे-मोटे स्वार्थों ने चित्रा को घेर लिया था। वह महज छह सौ रुपए पाती थी बालसदन में। बस जो भी कमजोरी थी, उसकी यही थी। मोपेडधारी ने कुछ जाल फेंका होगा मदद के नाम पर। वह आ गई चक्कर में। लेकिन इसके लिए मेरा परित्याग कोई शर्त कैसे थी ? क्या चित्रा मोपेडधारी को पूरी तरह स्पेस देना चाहती थी ? ताकि, उसे अपनी ओर पूरी तरह झुकाया जा सके। चित्रा ने बाद में मुझसे कहा था, ‘मैं तुमसे नफरत नहीं करती। मुझसे कुछ लड़कपन हुआ था ?’ 
वजह जो भी रही हो ! 
अब क्या हो सकता था। क्या हो सकता था अब ? मुझे मोपेडधारी कथाकार से मिलना पड़ेगा। वह चित्रा का, ममेरा या फुफेरा भाई है। ऐसे ही कुछ बताया था मुझे चित्रा ने। आजकल भाइयों का भी कुछ ठीक नहीं...। 
असल में यह सब बाकायदा एक बिछाया हुआ जाल था, जिससे मैं तो बेखबर था ही, मेरी पग्गल भी बेखबर थी। उन्होंने उसे घेर लिया। मोपेडधारी कथाकार और झोलाछाप गीतकार बंधुओं ने। और मेरे कुछ निष्क्रिय और कपटी मित्रों ने। वे नहीं चाहते थे कि लड़की मालवीयों से निकलकर सरयूपारियों के पास जाए। यह ब्राह्मणों के भीतर का जातिवाद था, जिससे निपटना किसी के बूते की बात नहीं थी। मोपेडधारी यों तो शादीशुदा था, लेकिन मोपेड पर सुंदर, शुकनासिका,चित्रकार और थोड़ी बिलिल्ली लड़की के साथ कहीं जाना भी तो रोमांस है न। बहन लगती है तो लगने दो...। प्रेमिका नहीं कह सकते थे। उन्होंने नया नाम चुना-सहेली। इसमें सुविधा थी। झोलाछाप गीतकार चारों ओर फैलाता- भाई की सहेली। अर्थ सब समझते। सारे शहर को सूचना हो गई कि चित्रा, मोपेडधारी कथाकार की प्रेमिका हो या बहन या सहेली। लेकिन एक बात पक्की है कि वह फंसी है, उससे। बहुत बाद में चित्रा मुझसे कहनेवाली थी कि मेरा उनसे कोई ‘रगड़-फसड़’ नहीं था। कि उसने शहर छोड़ा ही था, उस मोपेडधारी कथाकार की सहायतातुर हरकतों से तंग होकर। फिलहाल तो ‘द्रौपदी-कृष्ण’ कथा सारे शहर पर तारी थी। मैं एक दिन मोपेडधारी कथाकार की पत्नी विनीता से क्षमा मांगने वाला हूं। आप अपने पति को इतना अधिक छूट कैसे दे सकी थीं ? मैं, चित्रा की नहीं, आपकी कहानी लिख रहा हूं। मैंने विनीता से ज्यादा दुखी स्त्री संसार में नहीं देखी। बाद में मुझसे चित्रा कहने वाली थीं’-नहीं, आप भी आइए, विनीता भी आती हैं।‘ 
विनीता न तुम्हारा, कत्ल करने आती हैं, बदमाश! 
तो मामला यों रहा।
................ 
लेकिन, चित्रा मुझसे साफ कह सकती थी। मैं बुरा नहीं मानता।
अगले दिन मैं और मोपेडधारी कथाकार रसूलाबाद घाट पर थे। मुंहअंधेरा हो गया था। गंगा चढ़ी हुई हैं। लहरें ऐसे लोट रही हैं,जैसे सैकड़ों हाथी करवट बदल रहे हों। दूर कोई चिता जल रही है। मैं उधर देखता हूं, तो डर लगता है। हम जब यहां आए थे तो कुछ सोच-समझकर नहीं। लेकिन, अब जब आ बैठे हैं तो यही लग रहा है कि दुनिया में शायद ही इससे बेहतर जगह हो ऐसी वार्ता के लिए। श्मशान...श्मशान...श्मशान। बाद में मैं चित्रा से कहनेवाला था कि’ एक दिन सबको रसूलाबाद जाना है।‘ 
हमने बात शुरू की। मैंने उन्हें सब कुछ बताया-मिलना-जुलना, आना-जाना,प्रपोजल, आलिंगन-चुंबन, ये और वो। मैंने पूछा कि मैं क्या करूं ? मुझे कहना चाहिए था कि आप बीच से हटिए। उन्होंने कहा,’आपके लिए दरवाजा बंद हो चुका है।‘ 
मैं उनसे यह सुनने नहीं आया था। मेरी तवक्को उनसे कुछ और थी। एक लेखक, एक लेखक के साथ इतना बुरा सुलूक नहीं कर सकता। उठा तो अपमान और अनादर से आहत था। मैंने उनसे हाथ मिलाया। उस दिन मुझे लगा कि यह आदमी कहीं मर-मरा न जाए। इतना कमजोर आदमी मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा था। मेरी प्रज्ञा कुछ सालों में सच साबित होनेवाली थी। क्या उन्हें मेरी बद्दुआ लगी होगी ? मैंने ऊपर, दूर, बहुत –दूर आसमान की तरफ देखा। ढेर सारे दैत्य दांत चियारे हंस रहे थे। 
राम बचाएं दुनिया को। 
यह इस शहर में इससे पहले भी हजारों बार हुआ था, और आगे भी होगा। नारायण रहे हों या प्रसाद, सभी अपना-अपना ‘प्रेम-पत्र’ बचाते इस शहर में खेत रहे थे। 
मैं उठा और चला आया। 
कहीं जाने से अच्छा है, पुराने दोस्त के घर जाओ। मैं बौखलाया हुआ था। मैंने एक कुत्ते को ईंट मारी, सांड़ से टकराया, रिक्शेवाले से भिड़ंत की, टैंपोवाले को गाली दी। रणंजय कमरे पर थे। मैं पहुंचा तो फटेहाल और थका हुआ। उसने कहा-कैसे बे ? प्रेमिका भाग गई क्या? इस साले को कैसे पता है। अरे, मजाक कर रहा होगा। जिंदगी में पहली बार मैंने शराब पी और फूट-फूटकर रोया। मैंने उसके कमरे के सीसे की खिड़की तोड़ दी।
सवेरे उठा तो वह मुझे देखकर हंस पड़ा। 
बोला-तुम भी न पंडित ! 
मैं फिर रो पड़ा। 
मैं अपने कमरे पर आ गया। काम में मन लगाने की कोशिश करने लगा। मैं एक अखबार में पत्रकार हूं, और फीचर पेज देखता हूं। यहीं मेरी भेंट हुई थी चित्रा से। इतना साफ और सुंदर अक्षर मैंने किसी का नहीं देखा। वह कला-समीक्षाएं लिखती थी। कभी कुछ और भी लिखती। मैंने कुछ छापीं। वह बहुत अच्छी चित्रकार है। 
बस यों ही सब गचड़-पचड़ था।
मैं उदास रहता। ज्यादातर पस्त और थका हुआ। मद्दिम-मद्दिम बुखार रहता। जैसे किसी धीमी आंच में तप रहा होऊं। कुछ सूझता नहीं था। वह मुझसे बात नहीं करती थी। वह मुझे कोई वजह नहीं बताती थी। मोपेडधारी कथाकार के साथ जगह-जगह दिखती थी, कभी यात्रिक में, कभी एल्चीको में, कभी एकडेमी में। मेरे लिए असहनीय होता जा रहा था-सब कुछ। एक दिन मैंने सोचा-गोली वाली प्रतिज्ञा पूरी कर लूं क्या ? फिर डर गया। मारना, और जान से किसी को क्या मारना। जो खुद अपने ईमान, धर्म और रूह से न मरा, उसे क्या मारना, प्यारे। उसकी तो जिंदगी ही सजा है। 
मैंने बालसदन फोन लगाया- चित्रा की मोटी-साली(प्रिंसिपल) ने उठाया। 
उन्होंने बुलाकर चित्रा से बात कराई। मैंने कहा-मुझे पांच मिनट चाहिए। उसने कहा-ठीक है, यूजीसी दे लूं, फिर। 
मैंने इंतजार किया। और काफी इंतजार किया। कोई किताब लेने-देने के बहाने वह मेरे कमरे पर आई। उस दिन मैं मिल गया होता तो इतिहास कुछ और होता। वह दुआओं भरा एक खत छोड़ गई थी।
मैंने पढ़ा। और हंसा-ये भी न, पागल है कुछ। 

अभी पटाक्षेप बाकी  है ........

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

प्रेमकथा जारी है ......


हम किनारे लग भी सकते थे 

* राम जन्म पाठक

आधुनिक प्रेमकथा का  पूर्वार्ध 


अब मध्य भाग .........
लेकिन, जब इतिहास लिखा जाएगा तो इतिहासकार लिखेगा-यह चुंबन विषाक्त था। 
समय का सांप निकल गया था। हमने अपनी सलवटें ठीक की थीं। उसने बिखरे बालों का जूड़ा बनाया था। बोली-ठीक है ? मैं ऐसे सवालों का आदी नहीं था। 
मैंने रोड पर जाकर उसे रिक्शा पकड़ाया था। वह अपने घर चली गई थी। रास्ते में उसने मुझसे कहा-तुमने मुझे जूठा कर दिया। मैं झेंप गया था। मैं कमरे पर लौट आया था। खुश। बहुत ज्यादा खुश। बहुत-बहुत ज्यादा खुश। रात को बारिश आई, पहले बूंदों भरी, फिर झमाझम। और फिर तेज हवा चली-थोड़ा तूफानी। मैंने पहला प्रेमपत्र लिखा था, देर रात जागकर। मैंने अनुमान लगाया कि वह इस वक्त कहां होगी ? यह सवालों के उस्तुरा बन जाने का मौसम था। 
हम गरीबों के पास तब मोबाइल नहीं पहुंचे थे। 
मैंने चिट्ठी लिखी। एक, दो, तीन, चार, पांच, ...फिर सो गया। उठा तो लगा कि छत से कूदकर देखूं क्या ? इतना ऊंचा तो नहीं है कि मर जाऊं?अगर तुम प्रेम करते हो तुम्हें छत से कूदना आना चाहिए। 
मैंने कहा था कि सफेद वाला शूट पहनकर आना। वह फिर आई थी, फिरोजी रंग की बिंदिया लगाकर।’सुंदर हो...सुंदर हो...सुंदर हो। ‘ मैं बौराने लगा था, वह खिलखिलाई थी-कितनी बार कहोगे ! हम ठठाकर हंसे थे। 
हम हवा में थे। हम वहां कितनी देर रहेंगे-यह इस पर निर्भर करनेवाला था कि-हमारी चाहतें कितनी टिकाऊ हैं और हमारी ताकते-परवाज कितनी है।
एक दिन मैंने कहा कि तुम्हें बांध लूं ? उसने कुछ सोचते-से कहा कि अब तो बंध गई ही हूं। एक बार आसमान से गिरा तब, जब उसने मेरी पीठ पर गोदना गोदते हुए बताया, ‘ मुझे तुम से इश्क तब हुआ, जब तुम घर पर पीलीवाली शर्ट पहनकर आए थे। और उस दिन बालसदन ‘ये वाली’ पहनकर...।‘ 
दुनिया में कितने अच्छे-अच्छे शर्ट हैं। या खुदा, मेरी कुर्बानी पक्की। ‘वक्त’ मुझे प्यार से जिबह करना! 
वह लपक-झपक थी, लता-सी झूल जाती थी और गुनाहे अजीम करके भूल जाती थी। उसकी हंसी फौव्वारा होती थी, जैसे किसी को पानी पीते समय अंदर से हंसी आ जाए- फचाक से। वह सलीके से झूठ बोलती थी, मैं बेसलीके से सच। लेकिन प्यार करना अगर किसी को सीखना हो तो उसी से सीखे। वह प्यार नहीं करती थी, जान लेती थी। सीधे हलक में और हलाक। उसका प्यार अमीराना था, पूरा खोलकर। खतरा यही है कि बस जब तक है तब तक। वह गिरगिट की तरह रंग बदलती है, बेखटके, बे-झटके। 
एक दिन हमारी भिड़ंत हुई।
चित्रा-तुम भी ‘उन्हीं’ की तरह शक्की हो । 
मैं- उन्हें बीच में मत लाना। 
एक दिन और।
चित्रा-मैं कहीं और कर लूं शादी ? 
मैं-कौन करेगा तुमसे शादी...।
वह बुरा मान गई। मैं सहम गया। कभी मिली तो मैं उससे कहूंगा कि देखो मेरा मतलब वह नहीं था, जो आपने उस दिन समझा था। आखिर क्यों नहीं करता कोई आपसे शादी। वह तो मैंने बस ऐसे ही कहा था। 
यही पल, यही नोकझोंक, छुआछुऔलि आगे चलकर मेरी यातना बननेवाली थी। 
हमारी भिड़ंतें ही ज्यादा हुईं,सुलह के पल तो कम ही थे। 
जब हम प्रेम में थे और गाफिल थे दुनिया से, तब किसी की हम पर नजर थी। राहों में लोग थे, और देख रहे थे। किसी अदृश्य दानव की, किसी अदृश्य शिकारी की, किसी अदृश्य सत्ता की, किसी अदृश्य समाज की, किसी अदृश्य दोस्त की, किसी अदृश्य दुश्मन की, किसी अदृश्य बहेलिए की। चित्रा को अपना हाथ मुझसे कसकर पकड़ाना चाहिए था, क्योंकि आंधियां तेज थीं और गर्दोगुबार प्रचंड थे। 
मैं महान अपराधी था। ताजिंदगी खुद को इसी नाम से पुकारनेवाला था। 
मगर चित्रा तुम ? तुम क्या हो ? 
क्या तुम पर कोई दफा नहीं लागू होगी, क्या तुम किसी अदालत में मुल्जिम बनाकर नहीं लाई जाओगी ? मैं तुम्हें छलात्कारी कहता हूं, बलात्कारी की तर्ज पर। इसलिए नहीं कि तुमने मुझे भड़काया ( यह जुर्म तुम कुबूल कर चुकी हो) बल्कि, इसलिए की भड़का कर भाग गईं।
इतिहास एक दिन तुमसे बात करेगा। 
मैं थोड़ा अपनी कमजोरियों की वजह से डरा हुआ था। मगर निश्चिंत था। मुझे चित्रा पर पूरा भरोसा था। वह घृणा से प्रेम की तरफ, निरावेग से आवेग की तरफ, दूरी से निकटता की तरफ बढ़ती है। लेकिन, इस बार उसने जो दांव खेला, वह सर्वथा अप्रत्याशित था। 
उसने ऐसा किया ही क्यों ? इस सवाल का जवाब कौन दे सकता था। मैंने किताबें पलटनी शुरू कीं, जो पाया वह दिल दहलानेवाला था- क्या कहा था बुद्ध ने, कि औरत की तरफ देखना भी मत। क्या कहा था शंकराचार्य ने, कि स्त्री नरक का द्वार है। क्या कहा था नीत्शे ने कि, स्त्री के पास जाना तो अपना चाबुक लेकर जाना। क्या कहा था तुलसीबाबा ने, कि अवगुन आठ सदा उर रहहीं। क्या कहा था भतृहरि ने, कि तिरिया चरित्र को देवता भी नहीं जानते, तुम्हारी क्या बिसात।क्या कहा था शेक्सपीयर ने, दगाबाजी तुम्हारा नाम औरत है। तुमने नहीं सुनी किसी की तो लो, भुगतो। 
हुआ यों कि एक दिन मैं अपने कमरे पर सो रहा था। किसी ने दरवाजा खटखटाया। मैंने अधनींदे में दरवाजा खोला, चित्रा थी। मुझे अच्छा लगा, क्योंकि मुझे सवेरे से लूज मोशन हो रहे थे। उसे देखकर राहत हुई। मैंने बहुत सारे प्यार के साथ कहा कि आओ। वह कुछ बोलती, इससे पहले मैं फिर बोल गया-आज मेरा पेट ही खराब हो गया। उसे इन बातों से क्या मतलब। मैंने उसे पानी पूछा। वह कुर्सी पर बैठ गई। मैं उसके पांवों के पास बैठकर उसके जूते के फीते से खेलने लगा। जैसे पालतू कुत्ते कभी-कभी अपने मालिक से दुलराते हैं। उसने आव देखा न ताव और कहा ही तो-’अच्छा तुम मुझे भूल जाओ।
’क्या sssss? ‘ 
’हां, तुम मुझे भूल जाओ।‘
मुझे कुछ न सूझा, कुछ न सूझा। 
’ मैंने उसके पांव पकड़ लिए।‘ और फफककर रो पड़ा’ ऐसे नहीं करना,प्लीज।‘
वह उठी और चली गई। कोई सुन रहा है-चित्रा न, चली गई। वह मुझे जवाब दे गई है। 
कुछ नहीं है दुनिया में।
कुच्छ भी नहीं है। 
दिन आते हैं और जाते हैं। रातें आती हैं और जाती हैं। जो आता है, वह जाता है। कुछ भी थिर नहीं है। लेकिन, कुछ तो तौर-तरीका होगा न आने-जाने का। ऐसे, कैसे। ऐसे, कैसे। आखिर हुआ क्या? अब किससे पूछूं। मेरे पास कोई उत्तरदाता नहीं।
हार नहीं मानूंगा। मैंने परन ठानी।...नैव दास्यामि, नैव दास्यामि...बिना युद्धेन...। 
मैं अब किसी काम का नहीं रह गया था। जब तुम प्रेम में विफल हो जाते हो, तो यह सिर्फ एक लड़की, जिसे तुम प्रेमिका कहते हो, केवल उसका उठकर चले जाना नहीं होता, बल्कि यह तुम्हारे मुस्तकबिल का तुमसे रूठ जाना होता है। अब मैं गड्डमगड्ड हो गया था। जाता कहीं, पहुंचता कहीं। किताबें उठाता तो पढ़ नहीं पाता। मैं डाल से टूटे पत्ते की तरह उड़ता। यहां और वहां। काफीहाउसों में और शराबखानों में और चौराहों पर। हर जगह अपमानित और बहिष्कृत। दोस्त फब्तियां कसते-दानिश्वर, कहां गई तुम्हारी महबूबा ? फिर कोई जवाब देता। एल्चीको में दिखी थी—मोपेडधारी कथाकार के साथ। मैं सुनता। सिर्फ। सुनता। 
एक दिन यों ही किसी काम से निकला। सोचा-बाल सदन के सामने से गुजरता जाऊं,क्या पता कि वह दिख जाए। मैं, उसको देखने मात्र से ही खुश हो जाता हूं और मारे खुशी के थर-थर कांपने लगता हूं। 
या खुदाया ! 
मैंने जो देखा, वह किसी को सह्य नहीं हो सकता, किसी को भी नहीं। 
मेरे परिचित, बैंक में क्लर्क, किस्सागो ( ले-देकर) और शादीशुदा ( उनकी दुखियारी पत्नी मुझे क्षमा करें)—मोपेड लेकर सदन पहुंचे। दौड़ते हुए चित्रा आई-उछलकर मोपेड पर बैठी। वह गहरे हरे रंग के सूट में बहुत सुंदर लग रही थी। बस सुंदर ही तो है वह। पता नहीं, मैं अपने ही गणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, गतिकी, स्थैतिकी और बीजगणित की भुलभुलैया में फंस गया हूं। मैं ही पहले गया था बाल सदन में उससे मिलने। 
मोपेडधारी गए चौक की तरफ। 
मेरा रंग सांवला है, लेकिन मैंने देखा कि मैं काला पड़ गया था। फिर मुझे कुछ याद नहीं। शंकर दीक्षित ने बताया कि सड़क के किनारे तुम बेहोश पड़े थे। मैं रिक्शे पर लादकर लाया हूं। डॉक्टर ने कहा कि इन्हें कोई सदमा पहुंचा है। दवाएं रख दी हैं, खा लो। और घर से किसी को बुलवा लो। और ये लौंडियाबाजी बंद करो। लड़कियां प्यार-वार नहीं करतीं। वे हरवक्त एक स्मार्ट, कमाऊ, और क्लर्क और एकाउंटेंट टाइप के पति की खोज में रहती है, जो उन्हें नाम, स्टेटस और बिस्तर की पूर्ति दे सके। शंकर दीक्षित ने मुझे एक गाली दी, जिसका संबंध मेरी मां से था। वह मुझे हिदायतें देकर चला गया। मैं पूरी रात हंसता रहा।
सरसामों की तरह। क्रमशः .....

रविवार, 20 जनवरी 2013

एक मित्र की फरमाईश पर यह आधुनिक प्रेम कथा........

मैंने एक अपने एक दूसरे  मित्र से वादा किया था कि उनकी पसंद की एक आधुनिक प्रेम कथा भी कभी अपने ब्लॉग पर उन्हें पढ़ाऊंगा .मगर वक्त बीतता गया और मित्र ने फिर से कहा भी नहीं मगर भला हो संतोष त्रिवेदी जी का उन्होंने यह कहानी फेसबुक पर अपने कई मित्रों से शेयर की जिनमें एक मैं भी था . मुझे अचानक लगा कि क्यों न इस कहानी  से मैं अपने उस भूले बिसरे मित्र की फरमाईश ही पूरी कर दूं। सो यह आपके भी सामने भी है .कहानी  बहुत सशक्त है और निश्चय ही यह लोगों के मनः मस्तिष्क पर मिले जुले विचारों का जबरदस्त प्रभाव डालेगी . यह कहानी कथादेश के सितम्बर 2012 के अंक में छप चुकी है और मैंने यहाँ प्रकाशित करने की अनुमति कहानीकार से संतोष त्रिवेदी जी के सौजन्य से ले ली है -एक पोस्ट  में कहानी लम्बा समय और स्थान ले रही थी इसलिए सिलसिलेवार चलेगी . यद्यपि लोगों को व्यग्र बनाये रखना मुझे नहीं सुहाता मगर मजबूरी है . आशा है सहयोग और धैर्य दोनों बनाए रखेगे! :-) 


कहानी 

हम किनारे लग भी सकते थे 


* राम जन्म पाठक
जब हम मिले थे तो करीब-करीब ध्वस्त और पस्त थे। दुख से भरे और घायल और एक दूसरे की आंखों में झांकते हुए। एक दूसरे को तौलते हुए। जैसे दरिया में डूबते दो शरीर-और सहारे के लिए एक दूसरे की तरफ झपटते हुए। और डुबोते हुए। और बहाते हुए। 
चपल। 
चौकन्ने। 
एक दूसरे को मदद देते। 
हमने चाहा होता तो हम किनारे लग भी सकते थे। 
इतिहास के कटघरे में कौन खड़ा होने वाला था- यह बहुत बाद में तय होने वाला था। 
वह कुछ मुंहफट और तुनकमिजाज थी। 
मैं भी था। 
प्रेम पहले मेरी आंखों और देह में उपजा था। 
लेकिन शादी का प्रस्ताव पहले उसने रखा था। 
हमारी शादी नहीं हो पाई। 
और प्रेम ? 
यही तो कहानी है। 
जाहिर है सब कुछ अकस्मात नहीं हुआ होगा। इसे घटने में, होने में, बनने में, बिगड़ने में दिनों, हफ्तों,महीनों लगे होंगे।
वैसे तो यह दो सदी की कहानी है। 
हम जल्द ही ‘आप’ से ‘तुम’ पर उतर आए थे। 
इसे रोशनाई से लिखा जाना था, या सियाही से, या तरबतर आसुओं और खून और शराब की मुश्तरका मिलावट से- यह भेद आगे चलकर खुलने वाला था। 

कोई प्रेम कहानी सिर्फ कहानी नहीं होती, वह जुगों से संचित और जुगों तक गाई और फैलाई जाने वाली चीज भी होती है। 

( एक जरूरी हस्तक्षेप- असल में मैं कथाकार नहीं हूं। मैं एक मजमेबाज हूं। मजमेबाज का मकसद होता है पुड़िया बेचना। पहले वह अपनी रसीली,बेधक, मोहक और जादुई बानी से दर्शकों को फुसलाता-रिझाता है, जैसे ही दर्शक एकटक हुए, पुड़िया बेचने का काम शुरू- वह किसी भी चीज की हो सकती है, पेट की, पीठ की, घुटने की, बाई-बतास या खड़ा करने की।) 
मैं भी वही करूंगा। 
असल में कोई कथाकार नहीं होता, सभी मजमेबाज होते हैं। किसी को गांधीवाद की पुड़िया बेचनी है तो किसी को मार्क्सवाद की तो किसी को कलावाद की। 
मजमेबाज हमारा पुरखा है, पुरनिया, अतिवृद्ध किस्सागो। मैं उसका वंशधर हूं। मुझे ‘प्रकाश’ और‘चित्रा ‘ की कहानी सुनानी है। प्रकाश ने अपनी लिखित मंजूरी मुझे दे दी है। चित्रा से लेखक कई बार मिला, उनसे चिरौरी-विनती की, उन्होंने कहानी कहने के लिए कभी मना नहीं किया, लेकिन मंजूरी भी नहीं दी। सिर्फ एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा,’मैं बहुत व्यस्त हूं।‘ हो सकता है वह सचमुच व्यस्त हों, हो सकता है वह बहाना कर रही हूं, हो सकता वह कथाकार ( क्षमा करें, मजमेबाज) को टार्चर कर रही हों। प्रकाश का आग्रह है कि कहानी उत्तम पुरुष यानी अहम शैली में चले। इसलिए ‘मैं ’को ‘प्रकाश ’ समझा जाए। इस कहानी के पात्र, घटनाओं, स्थानों या भावों का अगर कहीं-कोई‘रिजम्बलेंस ’ है, तो यह महज संयोग होगा।) 

उन्हीं दिनों वज्रपात हो गया था। चित्रा के दो भाइयों में से छोटे ने रेल के चक्के के नीचे कटकर जान दे दी थी। उनकी जेब में एक पुर्जी मिली था, ‘मैं बेरोजगारी से ऊबकर आत्महत्या कर रहा हूं। किसी को तंग न किया जाए।‘ वे स्कूलों के खुलने के दिन थे। हो सकता है कि उन्हें स्कूल अच्छे न लगे हों। वह सूना और उदास-सा घर आसुंओं के समंदर में बह गया था, पुनर्निर्माण मुश्किल था, लगभग असंभव। कोई भी चीज अपनी जगह नहीं रह गई थी, न दिल न दिमाग। वह शायद मुझमें अपना खोया हुआ भाई, या पति या प्रेमी तलाश रही थी। संभावनाएं तीनों थी। फैसला जल्द ही होने वाला था। हां, वह शादीशुदा थी और पिता के घर पर रहती थी। उसने मुझे बताया था कि उसके पति ने उसे बेड पर पटक दिया था, हाथापाई की थी, कि सास थोड़ी कड़क थी, कि वह अपनी तालीम पूरा करना चाहती थी। उसके बताने में जो सबसे अहम था, वह यह कि, ‘ देखने में भी नहीं अच्छे थे।‘ इस वाक्य से मुझे डरना चाहिए था, लेकिन दीवानगी ने कब, किसी की सुनी है। 

खेल तवील होने वाला था। 

शिकारी घात में थे। 
खुदा खैर करे। 
चित्रा चलती तो लगता कि भाग रही है। उसे हर वक्त कोई सांड़ या कुत्ता खदेड़े रहता। एक हड़बड़ी, हड़बोंग, हताशा, घबराहट, बेचैनी ने उसकी गर्दन फांस ली। वह जहां भी जाती हड़बड़ाई रहती। मुझसे मिलने आती-तुरंत चल देती। घड़ी हाथ में है, लेकिन दूसरों से वक्त पूछती रहती। उसे कहीं पहुंचना था और देर हो गई थी। बिना बताए तमाम चीजें उसके हाथों से फिसल गई थीं। मैंने देखा कि उसके चित्रों और स्केचों की रेखाएं टूटी हुईं, सर्पिल और लहरीली हो गई हैं। जैसे कोई कांपती रस्सी, जिसमें किसी का गला फंसाकर वह उसे मार डालना चाहती है।स्ट्रोक ऐसे, मानो बम फोड़ा गया हो। बहुत बाद में उसने जाकर एक चित्र बनाया—इंतजार । यह उसके जीवन का सार था। वह सारी उम्र किसी का इंतजार करने वाली थी। 

उस दिन बुधवार था यानी मेरी साप्ताहिक छुट्टी थी। मैं अपने कमरे में यों ही बैठा ऊब-डूब रहा था। हवा में नमी और चिपचिपाहट के आसार। अब बारिश हुई कि तब। 
मकान मालिक की छोटी बेटी ने आकर बताया-कोई आया है। आपको पूछ रहा है। 
मैंने पूछा-कोई लड़की है ? 
उसने कहा-हूं। 
मैं झपटा। 
कितनी चीजें हैं, कितनी बातें है, जिन्हें हम यों ही जान लेते हैं, ज्ञान-विज्ञान से परे। बेद-लबेद से बाहर। मेरे इमकान की बुनियाद पिछली शाम को चित्रा से मुलाकात थी। मैंने ही बातों-बातों में दावत दी थी कि वह कमरे पर आएगी,तो मुझे अच्छा ही लगेगा। उसने कोई रजामंदी दिखाई हो, ऐसा मुझे नहीं लगा था। लेकिन, जब वह रिक्शे पर बैठी और उसने मुड़कर मुझे देखा तो मुझे लगा था कि शायद वह आएगी। वह मेरे कमरे पर पहली बार आई थी, इससे पहले हम बाहर-बाहर ही मिलते रहे थे। 

वह कई सीढ़ियां फांद चुकी थी। मैं दोतल्ले पर रहता हूं न। उसने गर्दन टेढ़ी की और दूधिया हंसी की बौछार... । यह उसकी बांकी अदा है, जब भी उसे झेंपना होगा, प्यार करना होगा, उसकी गर्दन गई कंधे पर। मैंने कहा-आइए, आइए। उसकी आंखें टकराईं-जैसे कह रही हों, आ गई हूं, तो गलत मत समझना। मैं वैसी नहीं हूं। मन हुआ तो चली आई, कुछ आपके लिए, कुछ अपने लिए। 

या मेरे अल्लाह-मैं करूं तो क्या करूं। मैं केवल बनियान और लुंगी में था। कुछ भी नहीं सूझ रहा था मुझे, कुछ भी नहीं। वह मेरे कमरे पर पहली बार आई है। मैंने पहले ही क्यों नहीं सोच लिया कि वह आ भी सकती है। कैसे स्वागत करूं, इसका केवल बातों से। बातें भी तो नहीं हैं मेरे पास। शायद वह समझ गई, वह तेज है। मेरे कमरे में एक ही कुर्सी है, वह उसी पर बैठ गई। और कमरे का सरसरी मुआयना किया। मेरे तौर-तरीके से, ढब से वह कुछ खास तुष्ट नहीं लग रही है। मुझे अपनी गुरबत पर संत्रास फूट रहा है। उसने पीने के लिए पानी मांगा, मैंने कांपते हाथों दिया। शायद उसे भी कुछ सूझ नहीं रहा था। हमारी जान-पहचान ही है, कोई आत्मीयता या गहराई नहीं है उसमें। और यह आधा देशी-आधा शहरी, आधा कच्चा-आधा पक्का शहर है। भले ही इसकी जड़ें गहरी हों और पातालपुरी तक जाती हों, और शिखा आसमान छूती हो, भले ही यह कला-साहित्य, संस्कृति और धर्म और विज्ञान की नगरी हो। भले ही यहां विश्वविद्यालय हो, हाईकोर्ट हो। बड़े बड़े कवि, लेखक, समाजशास्त्री, नेता, दार्शनिक, वैज्ञानिक रहे हों और रहते हों। लेकिन यह सब चीजें मिलकर भी इस नगरी की आत्मा को टुच्चई से मुक्त नहीं कर पाई हैं। किसी युवक के कमरे पर किसी युवती का अकेले जाना आज भी ‘खबर’ है, और हर आते-जाते का ध्यान खींचती है। यह कोई दिल्ली नहीं है। 
शायद हमारी पहली हड़बड़ाहट यही हो। 
मेरे कमरे में एक ही कुर्सी है। वह उसी पर बैठ गई है। मैं अपनी चारपाई की पाटी पर किसी तरह। जैसे बच्चे, मैम के सामने बैठते हैं। 
चित्रा ने पूछा- क्यों आते हो बालसदन ? (वह बालसदन में छोटे बच्चों को पढ़ाती है।) 
मैं-पता नहीं, शायद कुछ होनेवाला है। कुछ ट्रैजिक, जो सिर्फ मेरे लिए होगा। 
उसने कहा-अच्छा छोड़िए। मैं आपसे शादी करूं तो आप करेंगे ? 
मैंने थोड़ी ना-नुकुर के बाद हां कर दी। 
उसने कहा कि कमरा तो बंद कर दीजिए। मैंने उसके हुक्म की तामील की। 
अचानक नजारा बदल गया। वह फफककर रो पड़ी। 
मैंने पूछा-मैं तुम्हें छू सकता हूं। उसने इजाजत दी। मैंने उसका आंसुओं से तर चेहरा अपनी हथेली में ले लिया। उसे चुप कराया। पीठ सहलाई। वह उठी और बोली-थक गई हूं, लेटूंगी। वह चारपाई पर पसर गई। 
उसने आव देखा, न ताव, अपनी बांहें मेरी गर्दन में डाल दी। 
इसके बाद सीमाएं, सीमा नहीं रहीं। मर्यादाएं, मर्यादा नहीं रही । शरीरों ने अपना काम संभाला। रसायनों ने मोर्चेबंदी की। भाव बहुत चढ़ गए। और दांव भी। दोनों ने जानने योग्य सब कुछ जाना। दोनों ने चाहा कि दोनों जान लें कि वे एक- दूसरे को कितने अच्छे लग रहे हैं। उसने शरारतन अंगड़ाई ली। जब मूर्च्छा टूटी तो मैंने पाया, वह उतान पसरी है, संपूर्ण समर्पित। मैं उसकी कोमलता में समाया हुआ हूं। चुंबनों की बाढ़ आई हुई है, प्रतिचुंबन की मांग करती हुई। लारों और थूकों का सोता फूट पड़ा है। दांत लकड़बग्घे हो गए हैं और कोमल कपोल मेमने। जिह्वा ने जिह्वा से बात की। एक चुंबन-युद्ध, एक चुंबन-महायुद्ध । उसने कहा-मुझे लगा कि तुम्हें प्रेम की जरूरत है। मैंने कहा- हूं। उसने कहा-तुम्हारी आंखों में मेरी तस्वीर। मैंने कहा- हूं।उसने कहा-मुझे बच्चा चाहिए। मैंने कहा-हूं। उसने कहा-भाभी कहती हैं बच्चा पैदा करने का तरीका अच्छा नहीं होता। मैंने कहा-हूं। उसने मेरी छाती की त्वचा का नमक चाटा। मैंने उसके मुख-विवर से पानी पिया। मुझे लगा कि वह मेरे सीने के भीतर छिप जाना चाहती है-वह दुनिया से बहुत डरी हुई थी। बाद में उसने मुझसे शिकायत की थी कि मैंने उसे ( गाल पर) काट लिया था। मैंने पूछा था-अगर मैं तुम्हें धोखा दे दूं तो ? चित्रा ने कहा था-तो मेरा विश्वास पुरुषों पर से उठ जाएगा। मैंने कहा था-अगर तुमने ऐसा किया तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा। उसने मुझे अपनी गिरफ्त में लिया था। उतना कि जितना लिया जा सकता था। ऐसे मोहाविष्ट, मर्मांतक और जादूभरे पलों में गोली की बात पर खुद मुझे बहुत पछतावा हुआ था। मैं उसे विश्वास दिलाने के लिए तेजी से चूमने लगा था। वह शांत लेटी रही थी- प्रेमरत, प्रेमश्लथ। उसकी सुंदरता लाजवाब है...और दाहक भी...और मारक भी। तुम ध्यान दो तो पाओगे कि वह सिर्फ, और सिर्फ—चूमे जाने के लिए बनी थी। उसकी यातना यही थी। उसे प्यार न मिला था। 
लेकिन, यह सब कुछ जो हो रहा है अगर यह एक गलत हरकत, एक गलत कार्रवाई हुई तो आनेवाला विहान किसके लिए अधिक दुखदायी होगा ? इसका पता तब लगनेवाला था जब मेरे दांपत्य जीवन में अंधड़ चलने वाले थे और चित्रा का दांपत्य जीवन भी उखड़ा-उखड़ा रहनेवाला था। मैंने यों ही चित्रा से पूछा कि किसे साक्षी बनाऊं, यहां तो सब बेजान चीजें हैं। चित्रा ने कोई तुक का जवाब न दिया।

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

मित्रों की फरमाईश ,समय से द्वंद्व और नल दमयंती आख्यान


मित्रों के स्नेहादेश शिरोधार्य किये बैठा हूँ कि सोनभद्र में कर्मनाशा नदी का निन्दित पुराण और अभिशप्त वर्तमान का मौके पर जाकर रपट तैयार कर यहाँ पोस्ट करूँगा, नल दमयंती की अमर कथा का जिक्र करूँगा ,राजा पुरुरवा और उनकी प्रयाग स्थित प्रतिष्ठानपुरी पर भी एक पोस्ट करूँगा , एक आधुनिक प्रणय कथा भी इस ब्लॉग पर प्रस्तुत करूँगा -मगर एक तो नया स्थान दूजे राज काज नाना जंजाला,चाह कर भी इन फरमाईशों को पूरा नहीं कर सका हूँ मगर मेरी नए वर्ष की संकल्प सूची में ये हैं जरुर और देर सवेर यहाँ दर्शित भी होंगी . आज शिल्पा मेहता जी एक आग्रह पूरा करने का प्रयास कर रहा हूँ . उन्हें नल दमयंती की अमर प्रेम कथा सुनने का मन है -मैंने उन्हें कहा कि यह कथा इतनी मशहूर है कि अंतर्जाल पर सहज ही उपलब्ध   है तो उन्होंने आग्रह किया कि उन्हें मेरे शब्दों में यह कथा सुननी है -मैं इस स्नेहपूर्ण आग्रह बल्कि स्नेहादेश कहिये के आगे अति विनम्र होकर आज्ञानुपालन के सिवा बच पाने की कोई राह नहीं देख पा रहा हूँ सो खुद को इन पुराण कथाओं के परिप्रेक्ष्य में अल्पज्ञ पाते हुए भी यह नल दमयन्ती आख्यान का जिक्र यहाँ करने की धृष्टता कर रहा हूँ . पुराणकथा मर्मज्ञ त्रुटि को क्षमा कर निवारण करगें -यही अनुरोध है . 
नल दमयंती आख्यान आर्यों के प्रसिद्ध प्राचीन दंतकथाओं में से एक है . यह उदात्त और अमर प्रेम की आदि कथा है। यह कथा महाभारत में भी (महाभारत, वनपर्व , अध्याय 53 से 78 तक) वर्णित है और इतनी सुन्दर,सरस और मनोहर है कि कई विद्वान् इसे व्यासकृत मानते हैं . इस कथा पर राजा रवि वर्मा के साथ ही अनेक चित्रकारों ने अपने चित्र/तैलचित्र बनाये हैं . यह अमर कथा अपनी नाट्य प्रस्तुतियों से कितनी बार ही मंचों को सुशोभित कर गयी है . 
दमयंती विदर्भ देश के राजा भीम की पुत्री थी और नल निषध के राजा वीरसेन के पुत्र। दोनों बहुत सुंदर थे। एक दूसरे की प्रशंसा सुनकर बिना देखे ही वे एक-दूसरे से अनुरक्त हो गए। एक हंस के जरिये दोनों ने एक दूसरे तक अपना प्रेम-संदेश पहुंचाया। वह समय स्वयम्बर का था यानि स्त्री को अपना पति स्वयं चुनने की आजादी थी . दमयंती के स्वयंवर का भी आयोजन हुआ तो देवतागण इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम भी स्वयंबर में जाने को   इच्छुक हो गए . किन्तु इन्हें जानकारी हो गयी थी कि दमयंती नल के अलावा किसी और का वरण नहीं करेगी तो उन्होंने छल किया -वे चारों भी  नल का ही रूप धारण करके स्वयम्बर में आए नल भी स्वयम्बर में उपस्थित हुए।अब दमयंती के सामने एक विषम स्थिति थी किन्तु उसने राजा नल को पहचान लिया। दोनों का विवाह हो गया . यहाँ तक तो सब कुछ ठीक रहा किन्तु अब मुश्किल का वक्त आने वाला था और दोनों बेखबर थे। 
स्वयम्बर के पश्चात देवतागण जब देवलोक वापस जा रहे थे उन्हें मार्ग में कलियुग और द्वापर साथ-साथ जाते हुए मिले। वे लोग भी दमयंती के स्वयंवर में सम्मिलित होने को लालायित थे । मगर इन्द्र से दमयंती द्वारा नल के वरण की बात सुनकर कलियुग क्रोधित हो गया , उसने नल को दंड देने के विचार से उनमें काया प्रवेश करने का निश्चय किया। उसने द्वापर से कहा कि वह जुए के पासे में चला जाय और उसकी सहायता करे।यही हुआ। नल के शरीर में प्रवेश कर कलि  दूसरा रूप धारण करके  नल के भाई पुष्कर के पास गया . कलियुग ने उसे  प्रेरित किया कि वह जुए में नल को हरा दे।उन दिनों जुए का भी बड़ा प्रचलन था . पुष्कर से खेले गए जुए में नल ने अपना समस्त राज पाट गँवा दिया। भावी की आशंका से दमयंती ने अपने दोनों बच्चों को अपने भाई के पास विदर्भ देश भेज दिया। सब कुछ हारकर मात्र एक-एक वस्त्र में नल और दमयंती ने राज्य छोड़ दिया। वे एक जंगल में जा पहुंचे। एक जगह नल ने देखा कि पेड़ों पर कई स्वर्ण पक्षी बैठे हैं जिनकी आंखें सोने की थीं। नल ने अपना वस्त्र फेंक कर उन चिड़ियों को पकड़ना चाहा ताकि उन्हें पकड़कर भूख मिटा सकें और उनकी आंखों के स्वर्ण को बेंचकर कुछ धन भी प्राप्त कर सकें किंतु चिड़िया वस्त्र ले उड़ीं तथा यह भी रहस्योद्घाटन कर गयीं कि चिड़ियों के रूप में वस्तुतः वे वे जुए की पासें थीं . अब एकमात्र वस्त्र गँवा कर नल लज्जित और  व्याकुल हो उठे। अब तक दोनों बहुत थक गए थे। दमयंती को नींद आ गयी। नल ने उनकी साड़ी का आधा भाग फाड़ कर धारण कर लिया और उसे जंगल में अकेले छोड़कर इस बिना पर चल दिए कि एक सतीत्व युक्त नारी का कुछ बिगड़ नहीं पायेगा और वे अपने मायके पहुँच ही जायेगीं . 
ऐसा  हुआ भी ...दमयंती एक अजगर की गिरफ्त में आ गयीं । विलाप सुनकर एक व्याध ने अजगर से तो उनकी जान बचा दीं किंतु  कामुक आग्रह किया . दमयंती ने देवताओं का स्मरण किया , कहा कि यदि वह पतिव्रता है तो उसकी रक्षा हो । व्याध तत्काल भस्म हो गया। आगे दमयंती की भेंट कुछ ऋषियों से हुयी उन्होंने आश्वस्त किया कि एक दिन अवश्य ही उनकी भेंट नल से होगी . आगे चलकर दमयंती की भेंट शुचि नामक व्यापारी की अगुवाई में व्यापारियों के दल से हुयी . रास्ते के अनेक संकटों को भोगते हुए दमयंती आखिर चेदिराज सुबाहु की राजधानी जा पहुँची . उनकी  दयनीय हालत देख राजमाता ने उसे आश्रय दिया। किन्तु दमयंती ने राजमाता से कहा कि वह उनके राज्य में  अपनी शर्तों पर रहेगी . किसी की जूठन नहीं खायेंगी, किसी के पाँव नहीं धोयेगी, ब्राह्मणेतर पुरुषों से बात नहीं करेगी, और कोई उसे प्राप्त करने की चेष्टा करेगा तो दण्डित होगा। यह शर्तें अपने और नल के नामोल्लेख के बिना ही दमयंती ने रखीं । वह वहां की राजकुमारी सुनंदा की सखी बनकर रहने लगी। इधर दमयंती के भाई के मित्र सुदैव नामक ब्राह्मण ने उसे खोज ही निकाला। दमयंती राजमाता की आज्ञा लेकर विदर्भ निवासी अपने बंधु-बांधवों, माता-पिता तथा बच्चों के पास चली गयी। अब उसके पिता नल की खोज के लिए आकुल हो उठे।
दमयंती से बिछुड़ जाने के बाद नल को कर्कोटक नामक सांप ने डस लिया , उनका रंग काला पड़ गया था। कर्कोटक ने नल को बताया कि उसके शरीर में कलि निवास कर रहा है, उसका निवारण उसके विष से ही संभव है। विष के कारण काले रंग के राजा नल को लोग पहचान नहीं पाए । कर्कोटक की राय के अनुसार नल ने अपना नाम बाहुक रखा और इक्ष्वाकु वंश के अयोध्यावासी ऋतुपर्ण नाम के राजा के पास गए । राजा को अश्वविद्या का रहस्य सिखाया और उनसे उससे द्यूतक्रीड़ा का रहस्य सीखा। इसी समय विदर्भ राज का पर्णाद नामक ब्राह्मण नल को खोजता हुआ अयोध्या जा पहुंचा। उसे वाहुक नामक सारथी का क्रियाकलाप संदेहास्पद लगा क्योकि वह नल से बहुत मिलता जुलता था । यह बात उसने दमयंती से बतायी . अपने पिता से गोपनीय रखते हुए मां की अनुमति से दमयंती ने सुदेव नामक ब्राह्मण के द्वारा ऋतुपर्ण को दमयंती के दूसरे स्वयंवर की सूचना दी । ऋतुपर्ण ने बाहुक से सलाह किया और विदर्भ देश के लिए बाहुक के साथ रवाना हो गया । विदर्भ देश में स्वयंवर की कोई तैयारी नहीं थी । ऋतुपर्ण विश्राम करने चला गया किंतु दमयंती ने दूतिका केशिनी के माध्यम से बाहुक की परीक्षा ली। नल को पहचानकर दमयंती ने उसे बताया कि उसे ढूंढ़ने के लिए ही दूसरे स्वयंवर की झूठी चर्चा की गयी थी। अब नल ने अपने भाई पुष्कर से पुन: जुआ खेला। जीतकर नल ने पुन: अपना राज्य प्राप्त किया। 
नोट: यह केवल नल दमयंती की कथा का वर्णन मात्र  -हाँ, सुधीजन पाठक वृन्द द्वारा  इस कहानी पर टीका टिप्पणी, भाष्य आदि का स्वागत है! 

सोमवार, 7 जनवरी 2013

नुकीली हवाएँ ,चुभती ठण्ड!

कड़ाके की ठण्ड पड़  रही है। मानवीय गतिविधियां शिथिल पड़  रही हैं . कहते हैं पैसे वालों के लिए ठण्ड अच्छा मौसम है .होता होगा जो समाज दुनियां से निसंग लोग है-आत्मकेंद्रित हैं . हेडोनिस्ट हैं। मगर हम लोग तो तमाम सरोकारों से जुड़े हैं सो ठण्ड से भी दो चार हो रहे हैं . 
अपुन के पूर्वांचल में कैसी ठण्ड पड़ती है और जन जीवन कैसे ठहर सा जाता है, इसका एक जोरदार शब्द चित्र ब्लॉगर पदम सिंह ने खींचा है अपने ब्लॉग पर , आज ठिठुरते हुए बस वही आपसे साझा कर रहा हूँ -कविता आप भी ठिठुरते हुए पढियेगा तो ज्यादा  आनंद आएगा :-) 

चला गजोधर कौड़ा बारा …


कथरी कमरी फेल होइ गई
अब अइसे न होइ गुजारा
चला गजोधर कौड़ा बारा…
गुरगुर गुरगुर हड्डी कांपय
अंगुरी सुन्न मुन्न होइ जाय
थरथर थरथर सब तन डोले
कान क लवर झन्न होइ जाय
सनामन्न सब ताल इनारा
खेत डगर बगिया चौबारा
बबुरी छांटा छान उचारा …
चला गजोधर कौड़ा बारा… 
बकुली होइ गइ आजी माई
बाबा डोलें लिहे रज़ाई
बचवा दुई दुई सुइटर साँटे
कनटोपे माँ मुनिया काँपे
कौनों जतन काम ना आवे
ई जाड़ा से कौन बचावे
हम गरीब कय एक सहारा
चला गजोधर कौड़ा बारा….
कूकुर पिलई पिलवा कांपय
बरधा पँड़िया गैया कांपय
कौवा सुग्गा बकुली पणकी
गुलकी नेउरा बिलरा कांपय
सीसम सुस्त नीम सुसुवानी
पीपर महुआ पानी पानी
राम एनहुं कय कष्ट नेवरा
चला गजोधर कौड़ा बारा …
…. पद्म सिंह (अवधी)

कुछ समझ  न आये तो सकुचाने की जरुरत नहीं है, पूछ सकते हैं! :-) 

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