मंगलवार, 22 जनवरी 2013

प्रेमकथा जारी है ......


हम किनारे लग भी सकते थे 

* राम जन्म पाठक

आधुनिक प्रेमकथा का  पूर्वार्ध 


अब मध्य भाग .........
लेकिन, जब इतिहास लिखा जाएगा तो इतिहासकार लिखेगा-यह चुंबन विषाक्त था। 
समय का सांप निकल गया था। हमने अपनी सलवटें ठीक की थीं। उसने बिखरे बालों का जूड़ा बनाया था। बोली-ठीक है ? मैं ऐसे सवालों का आदी नहीं था। 
मैंने रोड पर जाकर उसे रिक्शा पकड़ाया था। वह अपने घर चली गई थी। रास्ते में उसने मुझसे कहा-तुमने मुझे जूठा कर दिया। मैं झेंप गया था। मैं कमरे पर लौट आया था। खुश। बहुत ज्यादा खुश। बहुत-बहुत ज्यादा खुश। रात को बारिश आई, पहले बूंदों भरी, फिर झमाझम। और फिर तेज हवा चली-थोड़ा तूफानी। मैंने पहला प्रेमपत्र लिखा था, देर रात जागकर। मैंने अनुमान लगाया कि वह इस वक्त कहां होगी ? यह सवालों के उस्तुरा बन जाने का मौसम था। 
हम गरीबों के पास तब मोबाइल नहीं पहुंचे थे। 
मैंने चिट्ठी लिखी। एक, दो, तीन, चार, पांच, ...फिर सो गया। उठा तो लगा कि छत से कूदकर देखूं क्या ? इतना ऊंचा तो नहीं है कि मर जाऊं?अगर तुम प्रेम करते हो तुम्हें छत से कूदना आना चाहिए। 
मैंने कहा था कि सफेद वाला शूट पहनकर आना। वह फिर आई थी, फिरोजी रंग की बिंदिया लगाकर।’सुंदर हो...सुंदर हो...सुंदर हो। ‘ मैं बौराने लगा था, वह खिलखिलाई थी-कितनी बार कहोगे ! हम ठठाकर हंसे थे। 
हम हवा में थे। हम वहां कितनी देर रहेंगे-यह इस पर निर्भर करनेवाला था कि-हमारी चाहतें कितनी टिकाऊ हैं और हमारी ताकते-परवाज कितनी है।
एक दिन मैंने कहा कि तुम्हें बांध लूं ? उसने कुछ सोचते-से कहा कि अब तो बंध गई ही हूं। एक बार आसमान से गिरा तब, जब उसने मेरी पीठ पर गोदना गोदते हुए बताया, ‘ मुझे तुम से इश्क तब हुआ, जब तुम घर पर पीलीवाली शर्ट पहनकर आए थे। और उस दिन बालसदन ‘ये वाली’ पहनकर...।‘ 
दुनिया में कितने अच्छे-अच्छे शर्ट हैं। या खुदा, मेरी कुर्बानी पक्की। ‘वक्त’ मुझे प्यार से जिबह करना! 
वह लपक-झपक थी, लता-सी झूल जाती थी और गुनाहे अजीम करके भूल जाती थी। उसकी हंसी फौव्वारा होती थी, जैसे किसी को पानी पीते समय अंदर से हंसी आ जाए- फचाक से। वह सलीके से झूठ बोलती थी, मैं बेसलीके से सच। लेकिन प्यार करना अगर किसी को सीखना हो तो उसी से सीखे। वह प्यार नहीं करती थी, जान लेती थी। सीधे हलक में और हलाक। उसका प्यार अमीराना था, पूरा खोलकर। खतरा यही है कि बस जब तक है तब तक। वह गिरगिट की तरह रंग बदलती है, बेखटके, बे-झटके। 
एक दिन हमारी भिड़ंत हुई।
चित्रा-तुम भी ‘उन्हीं’ की तरह शक्की हो । 
मैं- उन्हें बीच में मत लाना। 
एक दिन और।
चित्रा-मैं कहीं और कर लूं शादी ? 
मैं-कौन करेगा तुमसे शादी...।
वह बुरा मान गई। मैं सहम गया। कभी मिली तो मैं उससे कहूंगा कि देखो मेरा मतलब वह नहीं था, जो आपने उस दिन समझा था। आखिर क्यों नहीं करता कोई आपसे शादी। वह तो मैंने बस ऐसे ही कहा था। 
यही पल, यही नोकझोंक, छुआछुऔलि आगे चलकर मेरी यातना बननेवाली थी। 
हमारी भिड़ंतें ही ज्यादा हुईं,सुलह के पल तो कम ही थे। 
जब हम प्रेम में थे और गाफिल थे दुनिया से, तब किसी की हम पर नजर थी। राहों में लोग थे, और देख रहे थे। किसी अदृश्य दानव की, किसी अदृश्य शिकारी की, किसी अदृश्य सत्ता की, किसी अदृश्य समाज की, किसी अदृश्य दोस्त की, किसी अदृश्य दुश्मन की, किसी अदृश्य बहेलिए की। चित्रा को अपना हाथ मुझसे कसकर पकड़ाना चाहिए था, क्योंकि आंधियां तेज थीं और गर्दोगुबार प्रचंड थे। 
मैं महान अपराधी था। ताजिंदगी खुद को इसी नाम से पुकारनेवाला था। 
मगर चित्रा तुम ? तुम क्या हो ? 
क्या तुम पर कोई दफा नहीं लागू होगी, क्या तुम किसी अदालत में मुल्जिम बनाकर नहीं लाई जाओगी ? मैं तुम्हें छलात्कारी कहता हूं, बलात्कारी की तर्ज पर। इसलिए नहीं कि तुमने मुझे भड़काया ( यह जुर्म तुम कुबूल कर चुकी हो) बल्कि, इसलिए की भड़का कर भाग गईं।
इतिहास एक दिन तुमसे बात करेगा। 
मैं थोड़ा अपनी कमजोरियों की वजह से डरा हुआ था। मगर निश्चिंत था। मुझे चित्रा पर पूरा भरोसा था। वह घृणा से प्रेम की तरफ, निरावेग से आवेग की तरफ, दूरी से निकटता की तरफ बढ़ती है। लेकिन, इस बार उसने जो दांव खेला, वह सर्वथा अप्रत्याशित था। 
उसने ऐसा किया ही क्यों ? इस सवाल का जवाब कौन दे सकता था। मैंने किताबें पलटनी शुरू कीं, जो पाया वह दिल दहलानेवाला था- क्या कहा था बुद्ध ने, कि औरत की तरफ देखना भी मत। क्या कहा था शंकराचार्य ने, कि स्त्री नरक का द्वार है। क्या कहा था नीत्शे ने कि, स्त्री के पास जाना तो अपना चाबुक लेकर जाना। क्या कहा था तुलसीबाबा ने, कि अवगुन आठ सदा उर रहहीं। क्या कहा था भतृहरि ने, कि तिरिया चरित्र को देवता भी नहीं जानते, तुम्हारी क्या बिसात।क्या कहा था शेक्सपीयर ने, दगाबाजी तुम्हारा नाम औरत है। तुमने नहीं सुनी किसी की तो लो, भुगतो। 
हुआ यों कि एक दिन मैं अपने कमरे पर सो रहा था। किसी ने दरवाजा खटखटाया। मैंने अधनींदे में दरवाजा खोला, चित्रा थी। मुझे अच्छा लगा, क्योंकि मुझे सवेरे से लूज मोशन हो रहे थे। उसे देखकर राहत हुई। मैंने बहुत सारे प्यार के साथ कहा कि आओ। वह कुछ बोलती, इससे पहले मैं फिर बोल गया-आज मेरा पेट ही खराब हो गया। उसे इन बातों से क्या मतलब। मैंने उसे पानी पूछा। वह कुर्सी पर बैठ गई। मैं उसके पांवों के पास बैठकर उसके जूते के फीते से खेलने लगा। जैसे पालतू कुत्ते कभी-कभी अपने मालिक से दुलराते हैं। उसने आव देखा न ताव और कहा ही तो-’अच्छा तुम मुझे भूल जाओ।
’क्या sssss? ‘ 
’हां, तुम मुझे भूल जाओ।‘
मुझे कुछ न सूझा, कुछ न सूझा। 
’ मैंने उसके पांव पकड़ लिए।‘ और फफककर रो पड़ा’ ऐसे नहीं करना,प्लीज।‘
वह उठी और चली गई। कोई सुन रहा है-चित्रा न, चली गई। वह मुझे जवाब दे गई है। 
कुछ नहीं है दुनिया में।
कुच्छ भी नहीं है। 
दिन आते हैं और जाते हैं। रातें आती हैं और जाती हैं। जो आता है, वह जाता है। कुछ भी थिर नहीं है। लेकिन, कुछ तो तौर-तरीका होगा न आने-जाने का। ऐसे, कैसे। ऐसे, कैसे। आखिर हुआ क्या? अब किससे पूछूं। मेरे पास कोई उत्तरदाता नहीं।
हार नहीं मानूंगा। मैंने परन ठानी।...नैव दास्यामि, नैव दास्यामि...बिना युद्धेन...। 
मैं अब किसी काम का नहीं रह गया था। जब तुम प्रेम में विफल हो जाते हो, तो यह सिर्फ एक लड़की, जिसे तुम प्रेमिका कहते हो, केवल उसका उठकर चले जाना नहीं होता, बल्कि यह तुम्हारे मुस्तकबिल का तुमसे रूठ जाना होता है। अब मैं गड्डमगड्ड हो गया था। जाता कहीं, पहुंचता कहीं। किताबें उठाता तो पढ़ नहीं पाता। मैं डाल से टूटे पत्ते की तरह उड़ता। यहां और वहां। काफीहाउसों में और शराबखानों में और चौराहों पर। हर जगह अपमानित और बहिष्कृत। दोस्त फब्तियां कसते-दानिश्वर, कहां गई तुम्हारी महबूबा ? फिर कोई जवाब देता। एल्चीको में दिखी थी—मोपेडधारी कथाकार के साथ। मैं सुनता। सिर्फ। सुनता। 
एक दिन यों ही किसी काम से निकला। सोचा-बाल सदन के सामने से गुजरता जाऊं,क्या पता कि वह दिख जाए। मैं, उसको देखने मात्र से ही खुश हो जाता हूं और मारे खुशी के थर-थर कांपने लगता हूं। 
या खुदाया ! 
मैंने जो देखा, वह किसी को सह्य नहीं हो सकता, किसी को भी नहीं। 
मेरे परिचित, बैंक में क्लर्क, किस्सागो ( ले-देकर) और शादीशुदा ( उनकी दुखियारी पत्नी मुझे क्षमा करें)—मोपेड लेकर सदन पहुंचे। दौड़ते हुए चित्रा आई-उछलकर मोपेड पर बैठी। वह गहरे हरे रंग के सूट में बहुत सुंदर लग रही थी। बस सुंदर ही तो है वह। पता नहीं, मैं अपने ही गणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, गतिकी, स्थैतिकी और बीजगणित की भुलभुलैया में फंस गया हूं। मैं ही पहले गया था बाल सदन में उससे मिलने। 
मोपेडधारी गए चौक की तरफ। 
मेरा रंग सांवला है, लेकिन मैंने देखा कि मैं काला पड़ गया था। फिर मुझे कुछ याद नहीं। शंकर दीक्षित ने बताया कि सड़क के किनारे तुम बेहोश पड़े थे। मैं रिक्शे पर लादकर लाया हूं। डॉक्टर ने कहा कि इन्हें कोई सदमा पहुंचा है। दवाएं रख दी हैं, खा लो। और घर से किसी को बुलवा लो। और ये लौंडियाबाजी बंद करो। लड़कियां प्यार-वार नहीं करतीं। वे हरवक्त एक स्मार्ट, कमाऊ, और क्लर्क और एकाउंटेंट टाइप के पति की खोज में रहती है, जो उन्हें नाम, स्टेटस और बिस्तर की पूर्ति दे सके। शंकर दीक्षित ने मुझे एक गाली दी, जिसका संबंध मेरी मां से था। वह मुझे हिदायतें देकर चला गया। मैं पूरी रात हंसता रहा।
सरसामों की तरह। क्रमशः .....

12 टिप्‍पणियां:

  1. छोड़ने का मन नहीं कर रहा इस कहानी को ...
    बहुत हो रोचक होती जा रही है ...

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  2. आधुनिक प्रेम कथा है तो 'देवदास' कहाँ से आ गया ?

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  3. मेरा तेरा उसका भोगा हुआ सुन्दर कथांश :

    "मैं अब किसी काम का नहीं रह गया था। जब तुम प्रेम में विफल हो जाते हो, तो यह सिर्फ एक लड़की, जिसे तुम प्रेमिका कहते हो, केवल उसका उठकर चले जाना नहीं होता, बल्कि यह तुम्हारे मुस्तकबिल का तुमसे रूठ जाना होता है। अब मैं गड्डमगड्ड हो गया था। जाता कहीं, पहुंचता कहीं। किताबें उठाता तो पढ़ नहीं पाता। मैं डाल से टूटे पत्ते की तरह उड़ता।'

    पहली क़िस्त पढ़ रहें हैं .

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  4. आज परिदृश्य को प्रस्तुत करती है कहानी.....

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  5. सर मैं इस कथा के दोनों पात्रों से परिचित हूँ |यह कथाकार की निजी कथा भी है |आभार

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  6. मिलन का आनंद और बिछोह का आतंक..क्या क्या झेले दुनिया।

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  7. .सवालों के उस्तुरा बन जाने का मौसम............
    .दिन आते हैं और जाते हैं। रातें आती हैं और जाती हैं। जो आता है, वह जाता है। कुछ भी थिर नहीं है। लेकिन, कुछ तो तौर-तरीका होगा न आने-जाने का। ऐसे, कैसे। ऐसे, कैसे। आखिर हुआ क्या? अब किससे पूछूं। मेरे पास कोई उत्तरदाता नहीं........................
    वाह.......आगे का पता है कि क्‍या होगा।

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  8. ये तो होना ही था । लडकियां पांवों के पास बैठने वाले को कैसे पसंद करें ।

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