हम किनारे लग भी सकते थे
* राम जन्म पाठक
.......और अब उत्तरार्ध!
चित्रा के साथ कुछ समस्याएं थी। अनवरत बीमार मां, अतिवृद्ध पिता, युवा भाई की अकाल मौत, बेरोजगारी और तलाक के लफड़े। लेकिन, उसके साथ एक समस्या और भी थी। वह शहरी मध्यवर्गीय लड़कियों से हरगिज अलग न थी। शुरू में लगा था कि वह कुछ करना चाहती है, कि उसमें कुछ दम है। उसकी बातें बड़ी-बड़ी होतीं। मैं मोहित हो जाता। एक बार मैंने कुछ ऐसी तुकबंदीवाली लाइनें लिखीं—कितनी-कितनी है दुखदायी कहानी अपनी। जवाब में वह लिखकर लाई, फूल-सी खिलेगी कहानी अपनी। मैं खुश हो गया। मैंने उसे देवतुल्य प्यार किया।
वह उतरती सदी का महाझोंप अंधियारा था। लोग पटापट एक दूसरे को मार रहे थे या मर रहे थे। सबसे ज्यादा कुछ बुलंद था तो बेरोजगारी का परचम।कोई बड़ी चूक नहीं हुई थी मुझसे। बहुत मामूली और छोटे-मोटे स्वार्थों ने चित्रा को घेर लिया था। वह महज छह सौ रुपए पाती थी बालसदन में। बस जो भी कमजोरी थी, उसकी यही थी। मोपेडधारी ने कुछ जाल फेंका होगा मदद के नाम पर। वह आ गई चक्कर में। लेकिन इसके लिए मेरा परित्याग कोई शर्त कैसे थी ? क्या चित्रा मोपेडधारी को पूरी तरह स्पेस देना चाहती थी ? ताकि, उसे अपनी ओर पूरी तरह झुकाया जा सके। चित्रा ने बाद में मुझसे कहा था, ‘मैं तुमसे नफरत नहीं करती। मुझसे कुछ लड़कपन हुआ था ?’
वजह जो भी रही हो !
अब क्या हो सकता था। क्या हो सकता था अब ? मुझे मोपेडधारी कथाकार से मिलना पड़ेगा। वह चित्रा का, ममेरा या फुफेरा भाई है। ऐसे ही कुछ बताया था मुझे चित्रा ने। आजकल भाइयों का भी कुछ ठीक नहीं...।
असल में यह सब बाकायदा एक बिछाया हुआ जाल था, जिससे मैं तो बेखबर था ही, मेरी पग्गल भी बेखबर थी। उन्होंने उसे घेर लिया। मोपेडधारी कथाकार और झोलाछाप गीतकार बंधुओं ने। और मेरे कुछ निष्क्रिय और कपटी मित्रों ने। वे नहीं चाहते थे कि लड़की मालवीयों से निकलकर सरयूपारियों के पास जाए। यह ब्राह्मणों के भीतर का जातिवाद था, जिससे निपटना किसी के बूते की बात नहीं थी। मोपेडधारी यों तो शादीशुदा था, लेकिन मोपेड पर सुंदर, शुकनासिका,चित्रकार और थोड़ी बिलिल्ली लड़की के साथ कहीं जाना भी तो रोमांस है न। बहन लगती है तो लगने दो...। प्रेमिका नहीं कह सकते थे। उन्होंने नया नाम चुना-सहेली। इसमें सुविधा थी। झोलाछाप गीतकार चारों ओर फैलाता- भाई की सहेली। अर्थ सब समझते। सारे शहर को सूचना हो गई कि चित्रा, मोपेडधारी कथाकार की प्रेमिका हो या बहन या सहेली। लेकिन एक बात पक्की है कि वह फंसी है, उससे। बहुत बाद में चित्रा मुझसे कहनेवाली थी कि मेरा उनसे कोई ‘रगड़-फसड़’ नहीं था। कि उसने शहर छोड़ा ही था, उस मोपेडधारी कथाकार की सहायतातुर हरकतों से तंग होकर। फिलहाल तो ‘द्रौपदी-कृष्ण’ कथा सारे शहर पर तारी थी। मैं एक दिन मोपेडधारी कथाकार की पत्नी विनीता से क्षमा मांगने वाला हूं। आप अपने पति को इतना अधिक छूट कैसे दे सकी थीं ? मैं, चित्रा की नहीं, आपकी कहानी लिख रहा हूं। मैंने विनीता से ज्यादा दुखी स्त्री संसार में नहीं देखी। बाद में मुझसे चित्रा कहने वाली थीं’-नहीं, आप भी आइए, विनीता भी आती हैं।‘
विनीता न तुम्हारा, कत्ल करने आती हैं, बदमाश!
तो मामला यों रहा।
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लेकिन, चित्रा मुझसे साफ कह सकती थी। मैं बुरा नहीं मानता।
अगले दिन मैं और मोपेडधारी कथाकार रसूलाबाद घाट पर थे। मुंहअंधेरा हो गया था। गंगा चढ़ी हुई हैं। लहरें ऐसे लोट रही हैं,जैसे सैकड़ों हाथी करवट बदल रहे हों। दूर कोई चिता जल रही है। मैं उधर देखता हूं, तो डर लगता है। हम जब यहां आए थे तो कुछ सोच-समझकर नहीं। लेकिन, अब जब आ बैठे हैं तो यही लग रहा है कि दुनिया में शायद ही इससे बेहतर जगह हो ऐसी वार्ता के लिए। श्मशान...श्मशान...श्मशान। बाद में मैं चित्रा से कहनेवाला था कि’ एक दिन सबको रसूलाबाद जाना है।‘
हमने बात शुरू की। मैंने उन्हें सब कुछ बताया-मिलना-जुलना, आना-जाना,प्रपोजल, आलिंगन-चुंबन, ये और वो। मैंने पूछा कि मैं क्या करूं ? मुझे कहना चाहिए था कि आप बीच से हटिए। उन्होंने कहा,’आपके लिए दरवाजा बंद हो चुका है।‘
मैं उनसे यह सुनने नहीं आया था। मेरी तवक्को उनसे कुछ और थी। एक लेखक, एक लेखक के साथ इतना बुरा सुलूक नहीं कर सकता। उठा तो अपमान और अनादर से आहत था। मैंने उनसे हाथ मिलाया। उस दिन मुझे लगा कि यह आदमी कहीं मर-मरा न जाए। इतना कमजोर आदमी मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा था। मेरी प्रज्ञा कुछ सालों में सच साबित होनेवाली थी। क्या उन्हें मेरी बद्दुआ लगी होगी ? मैंने ऊपर, दूर, बहुत –दूर आसमान की तरफ देखा। ढेर सारे दैत्य दांत चियारे हंस रहे थे।
राम बचाएं दुनिया को।
यह इस शहर में इससे पहले भी हजारों बार हुआ था, और आगे भी होगा। नारायण रहे हों या प्रसाद, सभी अपना-अपना ‘प्रेम-पत्र’ बचाते इस शहर में खेत रहे थे।
मैं उठा और चला आया।
कहीं जाने से अच्छा है, पुराने दोस्त के घर जाओ। मैं बौखलाया हुआ था। मैंने एक कुत्ते को ईंट मारी, सांड़ से टकराया, रिक्शेवाले से भिड़ंत की, टैंपोवाले को गाली दी। रणंजय कमरे पर थे। मैं पहुंचा तो फटेहाल और थका हुआ। उसने कहा-कैसे बे ? प्रेमिका भाग गई क्या? इस साले को कैसे पता है। अरे, मजाक कर रहा होगा। जिंदगी में पहली बार मैंने शराब पी और फूट-फूटकर रोया। मैंने उसके कमरे के सीसे की खिड़की तोड़ दी।
सवेरे उठा तो वह मुझे देखकर हंस पड़ा।
बोला-तुम भी न पंडित !
मैं फिर रो पड़ा।
मैं अपने कमरे पर आ गया। काम में मन लगाने की कोशिश करने लगा। मैं एक अखबार में पत्रकार हूं, और फीचर पेज देखता हूं। यहीं मेरी भेंट हुई थी चित्रा से। इतना साफ और सुंदर अक्षर मैंने किसी का नहीं देखा। वह कला-समीक्षाएं लिखती थी। कभी कुछ और भी लिखती। मैंने कुछ छापीं। वह बहुत अच्छी चित्रकार है।
बस यों ही सब गचड़-पचड़ था।
मैं उदास रहता। ज्यादातर पस्त और थका हुआ। मद्दिम-मद्दिम बुखार रहता। जैसे किसी धीमी आंच में तप रहा होऊं। कुछ सूझता नहीं था। वह मुझसे बात नहीं करती थी। वह मुझे कोई वजह नहीं बताती थी। मोपेडधारी कथाकार के साथ जगह-जगह दिखती थी, कभी यात्रिक में, कभी एल्चीको में, कभी एकडेमी में। मेरे लिए असहनीय होता जा रहा था-सब कुछ। एक दिन मैंने सोचा-गोली वाली प्रतिज्ञा पूरी कर लूं क्या ? फिर डर गया। मारना, और जान से किसी को क्या मारना। जो खुद अपने ईमान, धर्म और रूह से न मरा, उसे क्या मारना, प्यारे। उसकी तो जिंदगी ही सजा है।
मैंने बालसदन फोन लगाया- चित्रा की मोटी-साली(प्रिंसिपल) ने उठाया।
उन्होंने बुलाकर चित्रा से बात कराई। मैंने कहा-मुझे पांच मिनट चाहिए। उसने कहा-ठीक है, यूजीसी दे लूं, फिर।
मैंने इंतजार किया। और काफी इंतजार किया। कोई किताब लेने-देने के बहाने वह मेरे कमरे पर आई। उस दिन मैं मिल गया होता तो इतिहास कुछ और होता। वह दुआओं भरा एक खत छोड़ गई थी।
मैंने पढ़ा। और हंसा-ये भी न, पागल है कुछ।
अभी पटाक्षेप बाकी है ........
एकदम सही अंदाजा था ...कि अन्त में तू उस रास्ते और मैं इस रास्ते।
जवाब देंहटाएं...एकदम सच्ची लगती ,अपनी सी लगती कहानी।
जवाब देंहटाएंप्रभावी प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय ||
sir ji - 2-3 din baad hi lauti hoon n yahaan ? aisa lag rahaa hai ki kitni saaree post nikal gayin is beech ?? 2 post peechhe bhi gayi - nal damayanti kee post nahi dikhi ::( :( :(
जवाब देंहटाएंarchive bhi nahi dikh raha ki vahaan se dhoondh loon - ya mere chrome me koi error aa gayaa hai ??
रहस्य गहराता हुआ और अंतस को छूता अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार
जवाब देंहटाएंमारना, और जान से किसी को क्या मारना। जो खुद अपने ईमान, धर्म और रूह से न मरा, उसे क्या मारना, प्यारे। उसकी तो जिंदगी ही सजा है।
जवाब देंहटाएंपाठक भाई ने बिंदास लिखा है आंचलिक प्रयोगों को भी समेटा . भावजगत और खीझ दोनों का बेहतरीन चित्रण है शब्दों के चितेरे हैं राम जनम पाठक जी .
शुक्रिया भाई साहब आपकी टिपण्णी का
कहानी से प्रारम्भ हुयी यह घटना कुछ कुछ वास्तविकता का अनुभव करा रही है।
जवाब देंहटाएंयही तो है जिंदगी ।
जवाब देंहटाएंरोचक, रोचक अति रोचक ।
जवाब देंहटाएंinteresting turn... your story is taking :)
जवाब देंहटाएंpost the rest of it soon
उत्सुकता को हवा देकर अभी ही पटाक्षेप ? .पाठकों के लिए कुछ क़िस्त और भी बढ़नी चाहिए .
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