रविवार, 20 जनवरी 2013

एक मित्र की फरमाईश पर यह आधुनिक प्रेम कथा........

मैंने एक अपने एक दूसरे  मित्र से वादा किया था कि उनकी पसंद की एक आधुनिक प्रेम कथा भी कभी अपने ब्लॉग पर उन्हें पढ़ाऊंगा .मगर वक्त बीतता गया और मित्र ने फिर से कहा भी नहीं मगर भला हो संतोष त्रिवेदी जी का उन्होंने यह कहानी फेसबुक पर अपने कई मित्रों से शेयर की जिनमें एक मैं भी था . मुझे अचानक लगा कि क्यों न इस कहानी  से मैं अपने उस भूले बिसरे मित्र की फरमाईश ही पूरी कर दूं। सो यह आपके भी सामने भी है .कहानी  बहुत सशक्त है और निश्चय ही यह लोगों के मनः मस्तिष्क पर मिले जुले विचारों का जबरदस्त प्रभाव डालेगी . यह कहानी कथादेश के सितम्बर 2012 के अंक में छप चुकी है और मैंने यहाँ प्रकाशित करने की अनुमति कहानीकार से संतोष त्रिवेदी जी के सौजन्य से ले ली है -एक पोस्ट  में कहानी लम्बा समय और स्थान ले रही थी इसलिए सिलसिलेवार चलेगी . यद्यपि लोगों को व्यग्र बनाये रखना मुझे नहीं सुहाता मगर मजबूरी है . आशा है सहयोग और धैर्य दोनों बनाए रखेगे! :-) 


कहानी 

हम किनारे लग भी सकते थे 


* राम जन्म पाठक
जब हम मिले थे तो करीब-करीब ध्वस्त और पस्त थे। दुख से भरे और घायल और एक दूसरे की आंखों में झांकते हुए। एक दूसरे को तौलते हुए। जैसे दरिया में डूबते दो शरीर-और सहारे के लिए एक दूसरे की तरफ झपटते हुए। और डुबोते हुए। और बहाते हुए। 
चपल। 
चौकन्ने। 
एक दूसरे को मदद देते। 
हमने चाहा होता तो हम किनारे लग भी सकते थे। 
इतिहास के कटघरे में कौन खड़ा होने वाला था- यह बहुत बाद में तय होने वाला था। 
वह कुछ मुंहफट और तुनकमिजाज थी। 
मैं भी था। 
प्रेम पहले मेरी आंखों और देह में उपजा था। 
लेकिन शादी का प्रस्ताव पहले उसने रखा था। 
हमारी शादी नहीं हो पाई। 
और प्रेम ? 
यही तो कहानी है। 
जाहिर है सब कुछ अकस्मात नहीं हुआ होगा। इसे घटने में, होने में, बनने में, बिगड़ने में दिनों, हफ्तों,महीनों लगे होंगे।
वैसे तो यह दो सदी की कहानी है। 
हम जल्द ही ‘आप’ से ‘तुम’ पर उतर आए थे। 
इसे रोशनाई से लिखा जाना था, या सियाही से, या तरबतर आसुओं और खून और शराब की मुश्तरका मिलावट से- यह भेद आगे चलकर खुलने वाला था। 

कोई प्रेम कहानी सिर्फ कहानी नहीं होती, वह जुगों से संचित और जुगों तक गाई और फैलाई जाने वाली चीज भी होती है। 

( एक जरूरी हस्तक्षेप- असल में मैं कथाकार नहीं हूं। मैं एक मजमेबाज हूं। मजमेबाज का मकसद होता है पुड़िया बेचना। पहले वह अपनी रसीली,बेधक, मोहक और जादुई बानी से दर्शकों को फुसलाता-रिझाता है, जैसे ही दर्शक एकटक हुए, पुड़िया बेचने का काम शुरू- वह किसी भी चीज की हो सकती है, पेट की, पीठ की, घुटने की, बाई-बतास या खड़ा करने की।) 
मैं भी वही करूंगा। 
असल में कोई कथाकार नहीं होता, सभी मजमेबाज होते हैं। किसी को गांधीवाद की पुड़िया बेचनी है तो किसी को मार्क्सवाद की तो किसी को कलावाद की। 
मजमेबाज हमारा पुरखा है, पुरनिया, अतिवृद्ध किस्सागो। मैं उसका वंशधर हूं। मुझे ‘प्रकाश’ और‘चित्रा ‘ की कहानी सुनानी है। प्रकाश ने अपनी लिखित मंजूरी मुझे दे दी है। चित्रा से लेखक कई बार मिला, उनसे चिरौरी-विनती की, उन्होंने कहानी कहने के लिए कभी मना नहीं किया, लेकिन मंजूरी भी नहीं दी। सिर्फ एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा,’मैं बहुत व्यस्त हूं।‘ हो सकता है वह सचमुच व्यस्त हों, हो सकता है वह बहाना कर रही हूं, हो सकता वह कथाकार ( क्षमा करें, मजमेबाज) को टार्चर कर रही हों। प्रकाश का आग्रह है कि कहानी उत्तम पुरुष यानी अहम शैली में चले। इसलिए ‘मैं ’को ‘प्रकाश ’ समझा जाए। इस कहानी के पात्र, घटनाओं, स्थानों या भावों का अगर कहीं-कोई‘रिजम्बलेंस ’ है, तो यह महज संयोग होगा।) 

उन्हीं दिनों वज्रपात हो गया था। चित्रा के दो भाइयों में से छोटे ने रेल के चक्के के नीचे कटकर जान दे दी थी। उनकी जेब में एक पुर्जी मिली था, ‘मैं बेरोजगारी से ऊबकर आत्महत्या कर रहा हूं। किसी को तंग न किया जाए।‘ वे स्कूलों के खुलने के दिन थे। हो सकता है कि उन्हें स्कूल अच्छे न लगे हों। वह सूना और उदास-सा घर आसुंओं के समंदर में बह गया था, पुनर्निर्माण मुश्किल था, लगभग असंभव। कोई भी चीज अपनी जगह नहीं रह गई थी, न दिल न दिमाग। वह शायद मुझमें अपना खोया हुआ भाई, या पति या प्रेमी तलाश रही थी। संभावनाएं तीनों थी। फैसला जल्द ही होने वाला था। हां, वह शादीशुदा थी और पिता के घर पर रहती थी। उसने मुझे बताया था कि उसके पति ने उसे बेड पर पटक दिया था, हाथापाई की थी, कि सास थोड़ी कड़क थी, कि वह अपनी तालीम पूरा करना चाहती थी। उसके बताने में जो सबसे अहम था, वह यह कि, ‘ देखने में भी नहीं अच्छे थे।‘ इस वाक्य से मुझे डरना चाहिए था, लेकिन दीवानगी ने कब, किसी की सुनी है। 

खेल तवील होने वाला था। 

शिकारी घात में थे। 
खुदा खैर करे। 
चित्रा चलती तो लगता कि भाग रही है। उसे हर वक्त कोई सांड़ या कुत्ता खदेड़े रहता। एक हड़बड़ी, हड़बोंग, हताशा, घबराहट, बेचैनी ने उसकी गर्दन फांस ली। वह जहां भी जाती हड़बड़ाई रहती। मुझसे मिलने आती-तुरंत चल देती। घड़ी हाथ में है, लेकिन दूसरों से वक्त पूछती रहती। उसे कहीं पहुंचना था और देर हो गई थी। बिना बताए तमाम चीजें उसके हाथों से फिसल गई थीं। मैंने देखा कि उसके चित्रों और स्केचों की रेखाएं टूटी हुईं, सर्पिल और लहरीली हो गई हैं। जैसे कोई कांपती रस्सी, जिसमें किसी का गला फंसाकर वह उसे मार डालना चाहती है।स्ट्रोक ऐसे, मानो बम फोड़ा गया हो। बहुत बाद में उसने जाकर एक चित्र बनाया—इंतजार । यह उसके जीवन का सार था। वह सारी उम्र किसी का इंतजार करने वाली थी। 

उस दिन बुधवार था यानी मेरी साप्ताहिक छुट्टी थी। मैं अपने कमरे में यों ही बैठा ऊब-डूब रहा था। हवा में नमी और चिपचिपाहट के आसार। अब बारिश हुई कि तब। 
मकान मालिक की छोटी बेटी ने आकर बताया-कोई आया है। आपको पूछ रहा है। 
मैंने पूछा-कोई लड़की है ? 
उसने कहा-हूं। 
मैं झपटा। 
कितनी चीजें हैं, कितनी बातें है, जिन्हें हम यों ही जान लेते हैं, ज्ञान-विज्ञान से परे। बेद-लबेद से बाहर। मेरे इमकान की बुनियाद पिछली शाम को चित्रा से मुलाकात थी। मैंने ही बातों-बातों में दावत दी थी कि वह कमरे पर आएगी,तो मुझे अच्छा ही लगेगा। उसने कोई रजामंदी दिखाई हो, ऐसा मुझे नहीं लगा था। लेकिन, जब वह रिक्शे पर बैठी और उसने मुड़कर मुझे देखा तो मुझे लगा था कि शायद वह आएगी। वह मेरे कमरे पर पहली बार आई थी, इससे पहले हम बाहर-बाहर ही मिलते रहे थे। 

वह कई सीढ़ियां फांद चुकी थी। मैं दोतल्ले पर रहता हूं न। उसने गर्दन टेढ़ी की और दूधिया हंसी की बौछार... । यह उसकी बांकी अदा है, जब भी उसे झेंपना होगा, प्यार करना होगा, उसकी गर्दन गई कंधे पर। मैंने कहा-आइए, आइए। उसकी आंखें टकराईं-जैसे कह रही हों, आ गई हूं, तो गलत मत समझना। मैं वैसी नहीं हूं। मन हुआ तो चली आई, कुछ आपके लिए, कुछ अपने लिए। 

या मेरे अल्लाह-मैं करूं तो क्या करूं। मैं केवल बनियान और लुंगी में था। कुछ भी नहीं सूझ रहा था मुझे, कुछ भी नहीं। वह मेरे कमरे पर पहली बार आई है। मैंने पहले ही क्यों नहीं सोच लिया कि वह आ भी सकती है। कैसे स्वागत करूं, इसका केवल बातों से। बातें भी तो नहीं हैं मेरे पास। शायद वह समझ गई, वह तेज है। मेरे कमरे में एक ही कुर्सी है, वह उसी पर बैठ गई। और कमरे का सरसरी मुआयना किया। मेरे तौर-तरीके से, ढब से वह कुछ खास तुष्ट नहीं लग रही है। मुझे अपनी गुरबत पर संत्रास फूट रहा है। उसने पीने के लिए पानी मांगा, मैंने कांपते हाथों दिया। शायद उसे भी कुछ सूझ नहीं रहा था। हमारी जान-पहचान ही है, कोई आत्मीयता या गहराई नहीं है उसमें। और यह आधा देशी-आधा शहरी, आधा कच्चा-आधा पक्का शहर है। भले ही इसकी जड़ें गहरी हों और पातालपुरी तक जाती हों, और शिखा आसमान छूती हो, भले ही यह कला-साहित्य, संस्कृति और धर्म और विज्ञान की नगरी हो। भले ही यहां विश्वविद्यालय हो, हाईकोर्ट हो। बड़े बड़े कवि, लेखक, समाजशास्त्री, नेता, दार्शनिक, वैज्ञानिक रहे हों और रहते हों। लेकिन यह सब चीजें मिलकर भी इस नगरी की आत्मा को टुच्चई से मुक्त नहीं कर पाई हैं। किसी युवक के कमरे पर किसी युवती का अकेले जाना आज भी ‘खबर’ है, और हर आते-जाते का ध्यान खींचती है। यह कोई दिल्ली नहीं है। 
शायद हमारी पहली हड़बड़ाहट यही हो। 
मेरे कमरे में एक ही कुर्सी है। वह उसी पर बैठ गई है। मैं अपनी चारपाई की पाटी पर किसी तरह। जैसे बच्चे, मैम के सामने बैठते हैं। 
चित्रा ने पूछा- क्यों आते हो बालसदन ? (वह बालसदन में छोटे बच्चों को पढ़ाती है।) 
मैं-पता नहीं, शायद कुछ होनेवाला है। कुछ ट्रैजिक, जो सिर्फ मेरे लिए होगा। 
उसने कहा-अच्छा छोड़िए। मैं आपसे शादी करूं तो आप करेंगे ? 
मैंने थोड़ी ना-नुकुर के बाद हां कर दी। 
उसने कहा कि कमरा तो बंद कर दीजिए। मैंने उसके हुक्म की तामील की। 
अचानक नजारा बदल गया। वह फफककर रो पड़ी। 
मैंने पूछा-मैं तुम्हें छू सकता हूं। उसने इजाजत दी। मैंने उसका आंसुओं से तर चेहरा अपनी हथेली में ले लिया। उसे चुप कराया। पीठ सहलाई। वह उठी और बोली-थक गई हूं, लेटूंगी। वह चारपाई पर पसर गई। 
उसने आव देखा, न ताव, अपनी बांहें मेरी गर्दन में डाल दी। 
इसके बाद सीमाएं, सीमा नहीं रहीं। मर्यादाएं, मर्यादा नहीं रही । शरीरों ने अपना काम संभाला। रसायनों ने मोर्चेबंदी की। भाव बहुत चढ़ गए। और दांव भी। दोनों ने जानने योग्य सब कुछ जाना। दोनों ने चाहा कि दोनों जान लें कि वे एक- दूसरे को कितने अच्छे लग रहे हैं। उसने शरारतन अंगड़ाई ली। जब मूर्च्छा टूटी तो मैंने पाया, वह उतान पसरी है, संपूर्ण समर्पित। मैं उसकी कोमलता में समाया हुआ हूं। चुंबनों की बाढ़ आई हुई है, प्रतिचुंबन की मांग करती हुई। लारों और थूकों का सोता फूट पड़ा है। दांत लकड़बग्घे हो गए हैं और कोमल कपोल मेमने। जिह्वा ने जिह्वा से बात की। एक चुंबन-युद्ध, एक चुंबन-महायुद्ध । उसने कहा-मुझे लगा कि तुम्हें प्रेम की जरूरत है। मैंने कहा- हूं। उसने कहा-तुम्हारी आंखों में मेरी तस्वीर। मैंने कहा- हूं।उसने कहा-मुझे बच्चा चाहिए। मैंने कहा-हूं। उसने कहा-भाभी कहती हैं बच्चा पैदा करने का तरीका अच्छा नहीं होता। मैंने कहा-हूं। उसने मेरी छाती की त्वचा का नमक चाटा। मैंने उसके मुख-विवर से पानी पिया। मुझे लगा कि वह मेरे सीने के भीतर छिप जाना चाहती है-वह दुनिया से बहुत डरी हुई थी। बाद में उसने मुझसे शिकायत की थी कि मैंने उसे ( गाल पर) काट लिया था। मैंने पूछा था-अगर मैं तुम्हें धोखा दे दूं तो ? चित्रा ने कहा था-तो मेरा विश्वास पुरुषों पर से उठ जाएगा। मैंने कहा था-अगर तुमने ऐसा किया तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा। उसने मुझे अपनी गिरफ्त में लिया था। उतना कि जितना लिया जा सकता था। ऐसे मोहाविष्ट, मर्मांतक और जादूभरे पलों में गोली की बात पर खुद मुझे बहुत पछतावा हुआ था। मैं उसे विश्वास दिलाने के लिए तेजी से चूमने लगा था। वह शांत लेटी रही थी- प्रेमरत, प्रेमश्लथ। उसकी सुंदरता लाजवाब है...और दाहक भी...और मारक भी। तुम ध्यान दो तो पाओगे कि वह सिर्फ, और सिर्फ—चूमे जाने के लिए बनी थी। उसकी यातना यही थी। उसे प्यार न मिला था। 
लेकिन, यह सब कुछ जो हो रहा है अगर यह एक गलत हरकत, एक गलत कार्रवाई हुई तो आनेवाला विहान किसके लिए अधिक दुखदायी होगा ? इसका पता तब लगनेवाला था जब मेरे दांपत्य जीवन में अंधड़ चलने वाले थे और चित्रा का दांपत्य जीवन भी उखड़ा-उखड़ा रहनेवाला था। मैंने यों ही चित्रा से पूछा कि किसे साक्षी बनाऊं, यहां तो सब बेजान चीजें हैं। चित्रा ने कोई तुक का जवाब न दिया।

19 टिप्‍पणियां:

  1. ...अभी तो कहानी शुरू हुई है,आप इसका अगला हिस्सा रोज छाप सकते हैं क्योंकि ऐसी कथाएँ पाठक को धीरज धरने नहीं देती और अधिक अंतराल पर रसभंग भी होता है।
    .
    .य़ह ऐसी प्रेमकथा है जिसमें स्त्री द्वारा पुरुष का शोषण किया जाता है....बाकी कुछ नहीं बताऊँगा, कथा से सशक्त इसका शिल्प है।
    .
    .और हाँ,प्रेमकथाएँ आपके मुखारविन्द को पाकर जीवित हो उठती हैं ।

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    1. हो उठती हैं= प्रेमकथाएँ आपके मुखारविन्द से जीवन्त हो उठती हैं ।

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  2. रोचक अभिव्यक्ति..कल्पना कम अनुभव अधिक..

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  3. रोचक शैली कहानी की जान है।..दूसरे अंक की प्रतीक्षा रहेगी।

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  4. पर्याप्त धैर्य है गुरुदेव-
    आभार-

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  5. आधुनिक प्रेम कथाएं तो टी 20 की तरह होती हैं। झटपट ख़त्म होने वाली। :)

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  6. अरविन्द भाई साहब आपके प्रेम कथा का प्रथम पुष्प अपनी खुशबू बिखेर गया अगली कड़ी का बेशबरी से इंतज़ार है

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  7. उसकी यातना यही थी। उसे प्यार न मिला था........................कहानी उद्देश्‍य।

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  8. पढ़ रहे हैं ...पूरी होने पर ही कुछ कहा जा सकेगा !
    प्रकाश नाम ने उत्सुकता बना दी है !

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    1. वाणी जी , कहानी सच है , पात्रों के नाम झूठे - इसलिए उधर ज्यादा इनर्जी जाया करना सेहत के लिए ठीक नहीं है !

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  9. उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  10. लो मिल गया सूत्र :

    ( एक जरूरी हस्तक्षेप- असल में मैं कथाकार नहीं हूं। मैं एक मजमेबाज हूं। मजमेबाज का मकसद होता है पुड़िया बेचना। पहले वह अपनी रसीली,बेधक, मोहक और जादुई बानी से दर्शकों को फुसलाता-रिझाता है, जैसे ही दर्शक एकटक हुए, पुड़िया बेचने का काम शुरू- वह किसी भी चीज की हो सकती है, पेट की, पीठ की, घुटने की, बाई-बतास या खड़ा करने की।)
    मैं भी वही करूंगा।
    असल में कोई कथाकार नहीं होता, सभी मजमेबाज होते हैं। किसी को गांधीवाद की पुड़िया बेचनी है तो किसी को मार्क्सवाद की तो किसी को कलावाद की।

    ताना बाना शब्दों के चित्रे ने खूब बुना है प्रेम मिलन का ,देह संगम का .प्रयाग राज में थे न ऐसा यहाँ न होता तो कहाँ होता .सरस्वती को आगे विलुप्त होना ही है .

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  11. कहानी की शैली कमाल की है । कहानी भी रोचक, उत्सुकता बढाये जा रही है ।
    असल में मै कल आपके ब्लॉग पर आई । सोचा कहानी है इत्मिनान से पढूंगी तो आज पढ रही हूँ ।

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