हम किनारे लग भी सकते थे
राम जन्म पाठक
राम जन्म पाठक
और अब पटाक्षेप...........
मेरा पांच मिनट चित्रा पर उधार चल रहा था, और वह चुका नहीं रही थी। मैं खीझा रहता। सचाई तो यही थी कि अगर ‘प्रेमिका’ शब्द का कोई संदर्भ बनता था, तो इसका संबंध मुझसे था। लेकिन, झोलाछाप गीतकार और मोपेडधारी कथाकार निहायत करीने और खामोशी से पूरे शहर में यह स्थापित करने में लगे थे कि वह, मोपेडधारी कथाकार की प्रेमिका है।
सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। छोटा-सा शहर है। घुमा-फिराकर उठने-बैठने और गपियाने की जगहें सीमित हैं। हम अक्सर टकराते कभी यहां, कभी वहां। मैंने रणंजय से खुलकर बात की। उसकी राय थी-चित्रा करिअरिस्ट और मौकापरस्त है। मुझे उसे भूल जाना चाहिए। बहुतों ने मुझसे यही कहा था। आज तक कोई मुझे यह नहीं समझा पाया कि जिसे तुम ईमानदारी से प्रेम करते हो, उसे भूल कैसे सकते हो, भले ही वह वेश्या ही क्यों न हो जाए। मेरी यातना यह नहीं थी कि चित्रा मुझे छोड़ गई थी, बल्कि यह थी कि अब किसी और को कैसे अपनाऊंगा ? यही वह नुक्ता था जो मुझे सारी जिंदगी तबाह करनेवाला था। भूलने की शर्त लगानेवाले, याद रखने की शर्त क्यों नहीं लगाते
मेरा अतीत अब दागी थी, बिना किसी जरायम के।
कुछ और डेवलेपमेंट हुए।गांव से पिताजी आएः बोले-अट्ठाईस के हो गए हो। चलो शादी कर लो। सदानंद पीछे पड़े हैं। लड़की सुंदर है, सुशील है, गृहकार्य दक्ष है। मैं उसमें जोड़ना चाहता था- चौबीस, छत्तीस, चौबीस है। तन्वंगी है और अक्षतयौनि है। पता नहीं लोग, ये सूचनाएं देना कब शुरू करेंगे। मैंने सख्ती से मना कर दिया। वे झल्लाकर चले गए।
दुर्दिन अभी और आनेवाले थे। मैं जिस अखबार में काम करता था-उसमें हड़ताल हुई और फिर तालाबंदी। रहा-सहा आधार भी ढहा। अब मैं हर तरह से मैं एक बार चित्रा से बात करना चाहता था। मैंने उसके पिता से बात की-उन्होंने कहा, बेटा, यह नासमझ है। उसकी शादी जहां हुई है, वहीं जाएगी। वे एक सीधे, सरल और निष्कपट आदमी थे। और चित्रा की शादी की विफलता से मर्माहत थे। उससे ज्यादा दुख उन्हें जवान बेटे की मौत का था। उन्होंने कहा-तुम उससे दूर रहो। मैंने उन्हें वचन दे दे दिया। यही वचनबद्धता मेरी जान की दुश्मन बनी। इसने मेरे हाथ-पांव बांध दिए।
हालांकि, मैं जानता था कि सूरज, पूरब से पश्चिम में उगने लगे तो भी चित्रा अपने पति के पास नहीं जाएगी। आगे चलकर उसने तलाक लिया था। जब चित्रा, मुझे जवाब देने आई थी, उस दिन मैंने आंखों से आंखें डालकर उससे पूछा था कि क्या वह अपने पति के पास जाएगी ? उसने संपूर्ण तीव्रता से कहा था—नहीं, बिल्कुल नहीं।
हद ही थी हर जगह। पिता कहते हैं, वहीं जाएगी, वह कहती है नहीं जाएगी। इन पिता-पुत्री के बीच मैं हूं तो कहां हूं ।
लेकिन...मैं बाजी हार चुका था।
मुझे अभी भी उसी से उम्मीद थी। क्या उसे कुछ भी याद नहीं है ? वह ऐसे, कैसे हो सकती है ! अक्तूबर गुजर गया। दिसंबर भी गया। मैं रोज अपने कमरे पर बाहर रेलिंग पकड़कर बैठा रहता और घंटों उसका इंतजार करता रहता।
वह न आई तो नहीं ही आई। उसकी कट्टरता, क्रूरता और उन्माद का कोई सानी नहीं है। अतिशय कठोर, अतिशय नरम।
मेरे अंदर एक बदलाव चल रहा था, तूफानी गति से। यह तूफान रोज मेरी तरफ बढ़ता। चित्रा के साथ चूमाचाटी और आलिंगन-मर्दन ने मुझे ‘जगा’ दिया था। मेरी तमाम रोमांटिक कल्पनाएं और बदहवासियां उससे जुड़ी थीं। मैं निरंतर काम-पीड़ा से ग्रस्त रहता और विह्वल होता जा रहा था। कुछ सूझता नहीं था, सिवा क्रोध और झल्लाहट के। मैं आए दिन अखबारों में प्रेम-प्रसंग में हत्याओं और आत्महत्याओं की खबरें पढ़ता रहता। मैं अपने आप से डर गया था। मेरे हाथ-पांव कांपने लगते। और बेचैन हो जाता।
एक दिन धुंधलके में निकल पड़ा कमरे से। चला जा रहा हूं...मन, बुद्धि, शरीर-कुछ भी मेरे काबू में नहीं है। एक अदम्य इच्छा, एक दुर्निवार कामना हावी है मुझ पर। या इलाही मैं कहां आ गया हूं। यह शहर की बदनाम बस्ती है। यहीं बगल में चित्रा का घर भी है।
पतन और गिरावट की भी हद होती है।
लेकिन कहां होती है ?
वह दरमियाना कद की एक सांवली-सी युवती थी। हम कुछ भाव-ताव कर रहे हैं। वह मुझे एक सीलनभरी अंधेरी कोठरी में ले गई है। वह मोमबत्ती जलाने में बहुत वक्त जायां कर रही है। वह मुझे तड़पा रही है। हद है, हद है..यह भी तो स्त्री ही है न। मेरी नजर एक कोने पर पड़ी। एक टोकरी में लिसलिसे गुब्बारों की ढेरी...। मुझे लगा अभी उल्टी हो जाएगी। उसने कोई पैकेट फाड़ा है, मुझे कुछ दे रही है। वह पेशेवर है। मैंने हड़बड़ी और भूख और अतृप्ति के साथ काम निपटाया। और अब सड़क पर हूं। चला जा रहा हूं... चला जा रहा हूं, पता नहीं कहां, किधर...किधर...। अब मेरे इस पाप का कोई अंत नहीं। संसार के सारे गंगाजल अब इसे नहीं धुल सकेंगे। क्या कहा था लेडी मैकबैथ ने—all the perfumes of arebia will not sweaten this little hand. ( दुनिया का सारा इत्र छिड़क लूं तो भी इस हत्यारे हाथ की बदबू नहीं जाएगी।)
जाओ, चित्रा, मैं तुम्हें शाप देता हूं। तुम कभी सुखी नहीं रहोगी।
बहुत साल बाद चित्रा मुझसे कहनेवाली थी, ‘ आठ साल से झेल रही हूं... आप आइए, मुझे डांटिए। मैं मौनी बाबा बनकर बैठी रहूंगी। असल में , आप मुझसे बात तो कर नहीं पाए...।’ उसकी आवाज में एक गहन पछतावा, हमदर्दी और कातरता थी। क्या उसे कोई दुख है ? वह सुखी है या दुखी ? पति से तलाक, फिर एक कुंआरे से लगाव और विलगाव, फिर शादीशुदा से चक्कर। और फिर अपने से दो साल छोटे युवक से शादी। उसने अपनी अर्थ-शक्ति से जवानी खरीदी होगी ? ठेठ मरदों की तरह। वह मजा मार रही थी चारों तरफ या सजा भोग रही थी ?कौन कह सकता है ! उसने अपना वक्त खुद खराब किया।
वह फोन पर बहुत साल बाद मुझसे यह भी पूछनेवाली थी,’तो आप कब से ‘पी’ रहे हैं ? ‘
और मैं उससे यह झूठ बोलनेवाला था-‘जबसे आप मुझे छोड़कर गईं।‘ वह चुप्प थी। क्या वह खुश हुई? क्या उसे तकलीफ हुई ? वह किसी के लिए तकलीफ नहीं करती । उसे सिर्फ मौत पर भरोसा है। उसने कहा-मैंने बहुत मौतें देखीं हैं। वह कहना चाहती थी कि तुम्हारी मौत के मायने क्या हैं ? मैंने उससे कहा-मैं न मरने वाला। मैं उससे यह भी कहने वाला था, ‘तुम रंगोली बनाओ, तुम छात्रोपयोगी किताबें लिखो, तुम नमूने पालो। इससे थोड़ी तुम बच जाओगी। तुम्हें मैं बचाऊंगा। तुम अपनी वजह से नहीं, मेरी वजह से जानी जाओगी। लोग पूछेंगे, चित्रा कौन। अरे, वही...। चौराहे तुम्हारा ख्याल रखेंगे। ओ! मॉय, लेडी-पिकासो ।
लेकिन, इससे पहले और भी बहुत कुछ हुआ था। मेरे दिन बहुरे थे। और वाकई बहुरे थे। मेरे गांधीवादी एक साथी ने मुझे एक अखबार में उपसंपादक की स्थायी नौकरी दिला दी थी। बढ़िया खाना और कपड़े और एक अदद स्कूटर। बहुत दिनों तक तो मुझे विश्वास ही न हुआ कि मैं स्कूटर से चलता हूं।
जाड़ों के दिन थे। मैं ताजा पानी से खूब नहाया था। सफेद शर्ट पहनी थी और गहरा हरा ब्लैजर। बाल सदन जा पहुंचा। मोटी साली (पिंसिपल) ने कहा-बहुत दिन बाद आए। जाकर मिल लीजिए। मैं सीधे गया उसकी कक्षा में। वह मुझे देखकर खुश हो गई। ऐसे मिली, जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो। मैं दंग था, क्या यह वही चेहरा है, जिसने मुझे तिल-तिलकर मारा है। इतना इतराने और दिलजोई करने का सबब क्या है ? वह इतना दुलार क्यों मार रही है?
वह मुझे ऐसे देख रही थी, मानो अभी पी लेगी।
यही, वह जगह है, जहां उसने मेरी जिंदगी का सबसे रहस्यभरा, अबूझ और कभी न समझ में आनेवाला वाक्य बोला था कि मोपेडधारी कथाकार से मिलवाने का श्रेय मुझे था। यह सुनने के बाद भी मैं लड़खड़ाकर गिरा नहीं था।
आज फिर वहीं खड़ा हूं। और उसे देख रहा हूं। और उससे बात कर रहा हूं। वह हमेशा की तरह अपनी कुर्सी पर टेढ़े-मेढ़े बैठी है। उसकी निहायत खूबसूरत ऊंची नाक, पतले-पतले अतिकामुक होंठ और शरारत से भरी आंखें चमक रही हैं। बीच-बीच में मुंह बिचका रही है। अभी कुछ करेगी वह। तय है।
उसने आव देखा न ताव और बोल गई—‘फिर से, अच्छा फिर से। ‘
यह किसी पादरी के सामने का कन्फेशन था। धन्य है। उसने बहुत दुख सहा है, लेकिन सिफत यह है कि वह संसार के सारे दुखों के योग्य है।
मेरी ही तरह, वह भी कोई बाजी शायद ही जीत पाए। विभीषिकाएं उसकी सहेली बनी रहेंगी।
शायद, यही सुनने मैं आया था। मैं तेजी से मुड़ा और चला आया।
शाम हो रही थी। तारे उगने लगे थे। जमाने बाद मैंने देखा कि मेरे कमरे पर एक बल्ब भी है और स्विच आन करो तो जलता भी है। मैंने उसे जला दिया। उसमें से ढेर सारी रोशनियां फूटीं। अब मैं कमरे की चीजों को साफ-साफ देख सकता था।
बहुत साल बाद मोबाइल पर चित्रा मुझसे कहनेवाली थी—‘अगर आपने शादी न की होती तो इतिहास कुछ और होता।‘
वह कॉलेज में रीडर है। रीडर का एक मतलब पाठक भी होता ही है। उसने एक बार मुझसे कहा था-‘आप लिखते रहेंगे, मैं पढ़ती रहूंगी।‘
लो, पढ़ो, मेरी शैतान !
यही चाहती थीं न तुम ! ....
क्या यह वाकई प्रेम कहानी ही है ? है भी तो कितनी अजीब !
मुझे भी कुछ कहना है ......
यह कथा मुझे गहरे संस्पर्शित कर गयी -कारण?क्या बताना जरुरी है? :-) पात्र जरुर काल्पनिक है, कहानी एक पुरुष का भोगा हुआ यथार्थ. मगर एक ही क्यों?यह पुरुष दारुणय की एक प्रतिनिधि कथा क्यों नहीं कही जा सकती ...? इस कहानी से जहाँ घनिष्ठ मानवीय रिश्तों की जटिलता सामने आती हैं ,वहीं पुरुष नारी उभय पक्षों को अपने आचरण को सायास मर्यादित रखने की एक सीख या सूझ भी मिलती है -कहानी इस अर्थ में सोदेश्यपरक बन जाती है कि वह समाज के लिए उपयोगी बन सकती है। बाकी चर्चा के लिए तो सुधीजन आमंत्रित हैं ही .......
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (26-1-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
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जवाब देंहटाएं.
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यह किसी एक प्रकाश व चित्रा की ही नहीं, बहुत सारे प्रकाशों व चित्राओं की कहानी है... समाज की मानसिकता, परिस्थितियाँ, मन की कुंठायें, जिम्मेदारियों का बोझ और फैसले कर पाने की असमर्थता/विलंब के चलते जीवन ऐसी अनेकों कहानियाँ व ऐसे चरित्र गढ़ता रहता है हमारे चारों ओर...शायद इसीलिये वास्तविक और कुछ अपनी सी भी लगी यह कहानी... रचनाकार को साधुवाद...
आभार आपका...
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सामंजस्य, चातुर्यता , और मजबूरी या कहूँ परिस्थिति की गढ़ी कहानी के पात्र सदा यही करते हैं इसे नियति कह सकते हैं?
जवाब देंहटाएं...वास्तव में यह कथा झकझोर देती है और कई मिथकों को भी ध्वस्त करती है:
जवाब देंहटाएं..यह कि हमेशा शोषण पुरुष ही करता है !
..यह कि स्त्री परिस्थितियों की मारी होती है !
..यह कि पुरुष केवल देह से प्यार करता है !
..यह कि स्त्री ही शिकायती होती है !
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बहरहाल, यह कथा अपने शिल्प के कारण मुझे अच्छी लगी और आपकी तरह न जाने कितने लोगों ने मेल मँगाकर पढ़ी ।इसको पढ़ने का मजा एक साँस में पढ़ने में अधिक है ।
पाठक जी को बधाई और आपका आभार !
पुरुष कठोर समझा जाता है, आशा की जाती है कि वह सब सह लेगा। ईश्वर ने पर हृदय तो दोनों का ही एक ही धातु से बनाया है।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया -
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें-
गणतंत्र दिवस की -
कुछ और डेवलेपमेंट हुए।गांव से पिताजी आएः बोले-अट्ठाईस के हो गए हो। चलो शादी कर लो। सदानंद पीछे पड़े हैं। लड़की सुंदर है, सुशील है, गृहकार्य दक्ष है। मैं उसमें जोड़ना चाहता था- चौबीस, छत्तीस, चौबीस है। तन्वंगी है और अक्षतयौनि है। पता नहीं लोग, ये सूचनाएं देना कब शुरू करेंगे। मैंने सख्ती से मना कर दिया। वे झल्लाकर चले गए।
जवाब देंहटाएंकुछ और डेवलेपमेंट हुए।गांव से पिताजी आएः बोले-अट्ठाईस के हो गए हो। चलो शादी कर लो। सदानंद पीछे पड़े हैं। लड़की सुंदर है, सुशील है, गृहकार्य दक्ष है। मैं उसमें जोड़ना चाहता था- चौबीस, छत्तीस, चौबीस है। तन्वंगी है और अक्षतयौनि है। पता नहीं लोग, ये सूचनाएं देना कब शुरू करेंगे। मैंने सख्ती से मना कर दिया। वे झल्लाकर चले गए।
हमारे परिवेश और नित्य प्रति बदलते सम्बन्धों के स्वरूप का अक्श लिए है यह कथा .अब तो हम वैसे भी अ -प्रति -बद्ध प्रेम मिलन के दौर में चले आयें हैं -डबल इनकम नो किड्स सहजीवन से एक कदम आगे .
शैली रोचक है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन काम तो इसमें भी वही(दोष दूसरे पक्ष पर डाल देने का) हुआ न?
जवाब देंहटाएंकुछ रचनायें ऐसी पढ़ीं, फ़िलहाल बलवंत सिंह का लिखा उपन्यास ’गुलिया के तोते’ ध्यान आ रहा है, जिसमें कहानी का एक हिस्सा एक पात्र बताता है और अगला हिस्सा दूसरा पात्र और ये क्रमश: चलता रहता है। वो प्रयोग अच्छा लगा था।
चर्चा भड़केगी तो फ़िर आयेंगे :)
मैं अपना पक्ष कहानी के उत्तरार्द्ध में प्रस्तुत कर चुका हूं कि प्रेम की परिणति खेल-खिलौनों के बाद(तू अपने रास्ते मैं अपने रास्ते) ही होती है .....
जवाब देंहटाएंकथा और शिल्प मुझे बहुत अच्छी लगी,,,,बधाई ,,,,
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
recent post: गुलामी का असर,,,
दो अहंकार कभी मिटे भी हैं क्या ? चेष्टाएँ कभी टूटी भी हैं क्या ? इसलिए व्यक्तियों का प्रेम कभी पूर्ण नहीं हो पाता- हो भी नहीं सकता . प्रेम की कथाएं अवश्य बन जाती है .चाहे जैसी भी हो .
जवाब देंहटाएंयहाँ तो कथा का अंत हो गया यौन लती की कथा का तो पटाक्षेप ही नहीं होता स्वपीडन रति से लेकर परपीडन तक फैलते हैं इस महा यौन रोग के तार .
जवाब देंहटाएंyah prakash va chitra kalpanik to nahi lagate aap mithako ke maadhyam se fiction vigyan katha me likhane me paarngat hai lekin aatm katha jaisi lag rahi hai yah kahani ek bhoga hua yathaarth
जवाब देंहटाएंरोचक शैली ... बिना किसी दायरे में बंधे ... सत्य को सत्य की तरह लिखा है ...
जवाब देंहटाएंये आखरी किस्त आज पढ़ी है ... अब सोच रहा हूं इसके सत्य को ...