कड़ाके की ठण्ड पड़ रही है। मानवीय गतिविधियां शिथिल पड़ रही हैं . कहते हैं पैसे वालों के लिए ठण्ड अच्छा मौसम है .होता होगा जो समाज दुनियां से निसंग लोग है-आत्मकेंद्रित हैं . हेडोनिस्ट हैं। मगर हम लोग तो तमाम सरोकारों से जुड़े हैं सो ठण्ड से भी दो चार हो रहे हैं .
अपुन के पूर्वांचल में कैसी ठण्ड पड़ती है और जन जीवन कैसे ठहर सा जाता है, इसका एक जोरदार शब्द चित्र ब्लॉगर पदम सिंह ने खींचा है अपने ब्लॉग पर , आज ठिठुरते हुए बस वही आपसे साझा कर रहा हूँ -कविता आप भी ठिठुरते हुए पढियेगा तो ज्यादा आनंद आएगा :-)
चला गजोधर कौड़ा बारा …
कथरी कमरी फेल होइ गई
अब अइसे न होइ गुजारा
चला गजोधर कौड़ा बारा…
गुरगुर गुरगुर हड्डी कांपय
अंगुरी सुन्न मुन्न होइ जाय
थरथर थरथर सब तन डोले
कान क लवर झन्न होइ जाय
सनामन्न सब ताल इनारा
खेत डगर बगिया चौबारा
बबुरी छांटा छान उचारा …
चला गजोधर कौड़ा बारा…
बकुली होइ गइ आजी माई
बाबा डोलें लिहे रज़ाई
बचवा दुई दुई सुइटर साँटे
कनटोपे माँ मुनिया काँपे
कौनों जतन काम ना आवे
ई जाड़ा से कौन बचावे
हम गरीब कय एक सहारा
चला गजोधर कौड़ा बारा….
कूकुर पिलई पिलवा कांपय
बरधा पँड़िया गैया कांपय
कौवा सुग्गा बकुली पणकी
गुलकी नेउरा बिलरा कांपय
सीसम सुस्त नीम सुसुवानी
पीपर महुआ पानी पानी
राम एनहुं कय कष्ट नेवरा
चला गजोधर कौड़ा बारा …
कुछ समझ न आये तो सकुचाने की जरुरत नहीं है, पूछ सकते हैं! :-)
ठण्ड सतावै -
जवाब देंहटाएंफैजाबाद छोड़ के धनबाद पहुंचें है भाई-
जय गुरुदेव -
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवार के चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंमाताजी पिताजी को घर में ही रोककर रखा है।
जवाब देंहटाएंसही में ठंड तो पता पूछ रही है.:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
ताऊ लट्ठ को छुपा कहीं दुबक लीजिये लिहाफ में ....
हटाएंमिश्रा जी, अब तो तो लठ्ठ भी कांपने लगा है. इसीलिये चल नही रहा है. :)
हटाएंरामराम.
ठण्ड का असर सब पर है भारी
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति
हिस्ट्री में पढ़ी हुई रुस की एक लाइन याद आ गई। और कोई जीते या नहीं रुस में जनरल जनवरी तथा जनरल दिसंबर अजेय हैं। डर से और डर लगने लगा कविता पढ़कर
जवाब देंहटाएंहिटलर को परास्त किया तो इसी ठण्ड ने ही
हटाएंलगता है पदम सिंह जी के जलाए कौड़ा से अपनी ठंडी दूर कर रहे है,,,
जवाब देंहटाएंrecent post: वह सुनयना थी,
वाह ! ई तो पढ़ते पढ़ते ही कंपकंपी आ गई। :)
जवाब देंहटाएंसब समझ आ गया :). ठण्ड बहुत पड़ रही है वहां:).
जवाब देंहटाएंइसी से ठंड का पता लगा.
जवाब देंहटाएंवाकई हड्डियाँ काँप गयीं हैं ...
जवाब देंहटाएंकविता से ही ठंड लगने लग गई है, अभी हमारे यहाँ मौसम ऐसा है कि पंखा चला लेते हैं, तभी नींद आती है ।
जवाब देंहटाएंठण्ड से कंपकपाती पोस्ट सोनभद्र का सच |सर इलाहाबाद में भी ऐसा ही है |
जवाब देंहटाएंबड़ी ठिठुरन भरी कविता है। कौड़ा बर गया होगा अब मानवीय गतिविधियों को गति प्रदान की जाये।
जवाब देंहटाएंठिठुरते आनंद को भी तसल्ली मिली कि सब त्रस्त हैं इस चुभती ठण्ड से .
जवाब देंहटाएंसुकुल, भरोसे,बिन्दा काँपैं
जवाब देंहटाएंलम्बरदार तमाखू चापैं,
बूढ़े मनई रोजु कम परैं
लरिका,लैरा बाहर नाचैं !
सभी जीवों को तदानुभूति करवाती रचना .प्रासंगिक .प्रसंगवश अमरीका जैसे मुल्कों में मिशिगन जैसे राज्य(कमोबेश पूरी ईस्टरन टाइम ज़ोन के राज्य ) बे हद ठंडे रहते हैं लेकिन वहां ठंड का एहसास
जवाब देंहटाएंनहीं होता .सड़क के किनारे बर्फ
खोद के डाल
देते हैं बुल डोज़र जो कीचड सी पड़ी रहती है कलौंच लिए .कार में बैठो दो मिनिट बाद कार गर्म ,घर गर्म दफ्तर माल .स्टोर गर्म .सब गर्म ही गर्म .बस घर और कार के बीच की दूरी कार और स्टोर के
बीच की दूरी ठंड का एहसास करवाती है सच है ठंड गरबों के लिए होती है .एनर्जी गजलर्स के लिए कैसी ठंड ?
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नुकीली हवाएँ ,चुभती ठण्ड!
(Arvind Mishra)
क्वचिदन्यतोSपि...
पता नहीं कहाँ जा के एउकने वाली है ये ठण्ड ...
जवाब देंहटाएंहमारे दुबई में तो अभी पारा मौसम को मस्त कर रहा है ...
अति सुंदर कृति
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नवीनतम प्रविष्टी: गुलाबी कोंपलें
ठण्ड में काँपने का अनुभव भी अनूठा है. ये तब पता चला है जब सर्दियाँ चली जाती है और ना अलाव जला पाता हूँ और ना ही सर्द रजाई को गर्म करने से लेकर प्यारी नींद आने तक की प्रक्रिया का अनुभव ले पाता हूँ.
जवाब देंहटाएंमस्त है।
जवाब देंहटाएंइस बार बहुत ठंड पड़ रही है ,समाचारों में भी ज़िक्र है.
जवाब देंहटाएंहम यहाँ बचे हुए हैं इस सर्दी से..शाम को थोडा पारा गिरता है वर्ना तो दिन में धूल भरी हवाएं अभी से परेशान कर रही हैं लग रहा है इस बार मई- जून में गर्मी रिकॉर्ड तोड़ेगी.
can feel all the world's cold in those words :)
जवाब देंहटाएंगजोधर को कश्मीर की भी सैर करा दें।
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जवाब देंहटाएंमंगल मय हो संक्रांति पर्व .देश भी संक्रमण की स्थिति में है .सरकार की हर स्तर पर नालायकी ने देश को इकठ्ठा कर दिया है .शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .
सर जी मछली जब कांटे में आ जाती है तब वह पानी में ही होती है .कांटे से मुक्त होने के लिए वह मचलती ज़रूर है लेकिन जहां तक पीड़ा का सवाल है निरपेक्ष बनी रहती है मौन सिंह की तरह .मछली के
जवाब देंहटाएंपास प्राणमय कोष और अन्न मय कोष तो है ,मनो मय कोष नहीं है .पीड़ा केंद्र नहीं हैं .हलचल तो है चेतना नहीं है दर्द का एहसास नहीं है .शुक्रिया ज़नाब की टिपण्णी के लिए .
मंगल मय हो संक्रांति पर्व .देश भी संक्रमण की स्थिति में है .सरकार की हर स्तर पर नालायकी ने देश को इकठ्ठा कर दिया है .शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .
हिंदी म अथथ्र बताऐ
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