धार्मिक रीति रिवाजों के दौरान पशु पक्षियों की बर्बर ,नृशंस हत्या हमें अपने असभ्य और आदिम अतीत की याद दिलाती है .यह मुद्दा मुझे गहरे संवेदित करता रहा है .वैदिक काल में अश्वमेध यज्ञ के दौरान पशु बलि दी जाती थी ..आज भी आसाम के कामाख्या मंदिर या बनारस के सन्निकट विन्ध्याचल देवी के मंदिर में भैंसों और बकरों की बलि दी जाती है ..भारत में अन्य कई उत्सवों /त्योहारों में पशु बलि देने की परम्परा आज भी कायम है . नेपाल में हिन्दुओं द्वारा कुछ धार्मिक अवसरों पर पशुओं का सामूहिक कत्लेआम मानवता को शर्मसार कर जाता है .भारत में यद्यपि हिन्दू त्योहारों पर अब वास्तविक बलि के स्थान पर प्रतीकात्मक बलि देने का प्रचलन तेजी से बढ रहा है ....यहाँ तक कि अब अंतिम संस्कार से जुड़े एक अनिवार्य से रहे अनुष्ठान -वृषोत्सर्ग को लोग अब भूलते जा रहे हैं जिसमें वृषभ (बैल ) की बलि दी जाती है ...और कहीं अब यह अनुष्ठान दिखता भी है तो किसी बैल को दाग कर(बैंडिंग या मार्किंग ) छोड़ देने तक ही सीमित हो गया है .यह ट्रेंड बता रहा है कि हम उत्तरोत्तर जीव जंतुओं के प्रति और सहिष्णु ,दयावान होते जा रहे हैं ..और मानवीय होते जा रहे हैं .
मैं अपने सभी मुस्लिम भाईयों और आपको आज बकरीद पर हार्दिक मुबारकबाद दे रहा हूँ मगर मेरी यह अपील है कि जानवरों को इतने बड़े पैमाने पर बलि देने और और बलि के तरीकों में बदलाव लाये जायं .मुझे अभी एक दायित्व दिया गया था जिसके तहत मैंने उन जगहों का निरीक्षण किया जहाँ बड़े भैंसों और ऊँट की कुर्बानी दी जाती है ...वहां के बारे में बताया गया कि ऊँट जैसे बड़े जानवर को बर्च्छे आदि धारदार औजारों से लोग तब तक मारते हैं जब तक वह निरंतर आर्तनाद करता हुआ मर नहीं जाता और उसके खून ,शरीर के अंगों को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है -इस बर्बरता के खेल को एक बहुत छोटी और बंद जगह में देखने हजारों की संख्या में लोग आ जुटते हैं .प्रशासन की ओर से मजिस्ट्रेट और भारी पुलिस बंदोबस्त भी होता है ताकि अनियंत्रित भीड़ के कारण कोई हादसा न हो जाय .मुझे यह दृश्य कबीलाई जीवन के आदिम बर्बर मानवों की याद दिला देता है .मैं उस जगह बंधे भैंसों और एक बड़े ऊँट को देखकर डिप्रेस हो गया ....और जो बात मेरे मन में कौंधी वह यही थी कि क्या बलि के बकरों की कमी हो गयी थी जो मुझे भी वहां भेज कर बलि का बकरा बना दिया गया ... उस दृश्य -संघात से मैं उबरने की कोशिश कर रहा हूँ .
आज जब वैज्ञानिक परीक्षणों में भी जीव हत्याओं पर पाबंदी और उनके जीवंत माडलों (सिमुलैटेड माडल्स ) के विकल्प इस्तेमाल में लाये जा रहे हैं हमें धार्मिक रीति रिवाजों में भी पशु बलि को निरंतर हतोत्साहित करके अपने और भी सभ्य हो चुकने के प्रमाण देते रहने से चूकना नहीं चाहिए .माना कि मनुष्य की पाशविक विरासत है और यहाँ भी कभी जीवः जीवष्य भक्षणं की जंगल नीति थी मगर आज के मानव ने नैतिकता ,बुद्धि ,विवेक का जो स्तर छू लिया है उसके सामने ऐसे विवेकहीन और मानवता पर प्रश्न चिह्न लगाने वाले कृत्य शोभा नहीं देते .और अगर ये अनुष्ठान अपरिहार्य ही हो गए हैं तो हमें पशु बलि के प्रतीकात्मक तरीकों को आजमाने चाहिए .जैसा कि वैज्ञानिक प्रयोगशालों में अब प्रयोग के नाम पर एनीमल सैक्रिफायिस के स्थान पर माडल्स प्रयोग में आ रहे हैं .
पूरी दुनिया में आदिम खेलों /मनोरंजन के नाम पर कहीं लोमड़ियों तो कहीं शार्कों और डाल्फिनों आदि की नृशंस समूह ह्त्या आज भी बदस्तूर जारी है .प्राणी सक्रियक इनके विरुद्ध गुहार लगा रहे हैं ,पेटा जैसे संगठन हाय तोबा मचाये हुए हैं मगर उनकी आवाज अनसुनी सी ही है .रीति रिवाज के मामले बहुत संवेदनशील होते हैं मगर समुदाय के जाने माने पढ़े लिखे रहनुमाओं से तो यह अपील की ही जा सकती है कि वे इस दिशा में सोचें और एक बदलाव लाने की कोशिशें करें ...मानव सभ्यता आज जिस ठांव पहुँच रही है वहां पशु बलि का महिमा मंडन किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ....
भारी संख्या में पशु बलि से उनके व्यर्थ अंग उपांगों के निस्तारण /साफ़ सफाई की भी एक बड़ी समस्या उठ खडी होती है .बहुत से लोगों को शायद पता नहीं है कि पशु व्यर्थों के निपटान में नगरों महानगरों के सफाईकर्मियों के हाथ पाँव फूल जाते हैं और उनके लिए यह एक वार्षिक त्रासदी से कम नहीं होता .अगर साफ़ सफाई में चूक हुई तो संक्रामक बीमारियों की आशंका बलवती हो उठती है ...बकरीद से शुरू होकर क्म से कम तीन दिन तक गली कूंचों में पड़े पशुव्यर्थों का निस्तारण उनके लिए एक बड़ी चुनौती लेकर आता है .बड़े पैमाने पर पशु बलि से जुडी इस हायजिन की समस्या से भी आंखे नहीं फेरी जा सकतीं .
जंगली जानवरों के शिकार को प्रतिबंधित करने के लिए बनाये गए कानूनों को आज जन समर्थन मिलने लगा है .भारत में १९७२ में बनाए गए वन्य जीव प्राणी अधिनियम जंगलों में अवैध शिकार को रोकने का एक सकारात्मक कदम रहा है और आज कई पशुओं को पकड़ने ,पालतू बनाने तक पर कड़े दंड का प्रावधान है .सलमान खान जैसे आईकन को इसी क़ानून ने तोबा बुलावा रखा है .आज बन्दूक की जगह तेजी से कैमरा लेता जा रहा है ..भले ही शब्दावलियाँ और एक्शन समान हों हम आज बंदूकों को नहीं कैमरे को लोड करते हैं ,ट्रिगर दबाते और फायर / शूट करते हैं ..आजादी के पहले दूसरा ही परिदृश्य था ..राजा महराजे ,जागीरदार और छोटे मोटे रईस भी जंगलों में शिकार को चल देते थे-हांके कराये जाते थे और डर कर भागते जानवरों पर निशाना साध कर बहादुरी की डींगे हॉकी जाती थी ..समय बदल गया है -अब ऐसे राजे रजवाड़ों के दिन भारत में तो कम से कम लद गए हैं -उनके साहबजादे कहीं कहीं चोरी छिपे अभी भी शिकार की घात लगाते हैं मगर क़ानून की जद में आ जाते हैं .आज जानवरों के शिकार पर कानून का भय है .मगर सामूहिक बलि के जानवरों को बचाने के लिए बिना एक व्यापक जान जागरण के कानून भी बनाना अभी शायद कारगर नहीं होगा .
वैदिकी हिंसा की प्रतिक्रया में बौद्ध धर्म आ संगठित हुआ था ...अहिंसा परमो धर्मः का निनाद फूट पडा था ....आज यज्ञों में आम तौर पर कहीं बलि नहीं दी जाती जबकि घर घर में यग्य अनुष्ठान होते ही रहते हैं -यह बौद्ध धर्म का ही प्रभाव है .जैन धर्म के अनुयायी मुंह में कपड़ा इसलिए बांधे रहते हैं ताकि मुंह में सूक्ष्म जीव कहीं न जाकर अपनी इह लीला समाप्त कर दें ....मगर दूसरी ओर जानवरों की आज भी सामूहिक बलि मन को व्यथित कर जाती है ..
क्या इस बर्बरता को रोकने कोई और महामानव -एक नया बुद्ध जन्म लेगा ?
जंगली जानवरों के शिकार को प्रतिबंधित करने के लिए बनाये गए कानूनों को आज जन समर्थन मिलने लगा है .भारत में १९७२ में बनाए गए वन्य जीव प्राणी अधिनियम जंगलों में अवैध शिकार को रोकने का एक सकारात्मक कदम रहा है और आज कई पशुओं को पकड़ने ,पालतू बनाने तक पर कड़े दंड का प्रावधान है .सलमान खान जैसे आईकन को इसी क़ानून ने तोबा बुलावा रखा है .आज बन्दूक की जगह तेजी से कैमरा लेता जा रहा है ..भले ही शब्दावलियाँ और एक्शन समान हों हम आज बंदूकों को नहीं कैमरे को लोड करते हैं ,ट्रिगर दबाते और फायर / शूट करते हैं ..आजादी के पहले दूसरा ही परिदृश्य था ..राजा महराजे ,जागीरदार और छोटे मोटे रईस भी जंगलों में शिकार को चल देते थे-हांके कराये जाते थे और डर कर भागते जानवरों पर निशाना साध कर बहादुरी की डींगे हॉकी जाती थी ..समय बदल गया है -अब ऐसे राजे रजवाड़ों के दिन भारत में तो कम से कम लद गए हैं -उनके साहबजादे कहीं कहीं चोरी छिपे अभी भी शिकार की घात लगाते हैं मगर क़ानून की जद में आ जाते हैं .आज जानवरों के शिकार पर कानून का भय है .मगर सामूहिक बलि के जानवरों को बचाने के लिए बिना एक व्यापक जान जागरण के कानून भी बनाना अभी शायद कारगर नहीं होगा .
वैदिकी हिंसा की प्रतिक्रया में बौद्ध धर्म आ संगठित हुआ था ...अहिंसा परमो धर्मः का निनाद फूट पडा था ....आज यज्ञों में आम तौर पर कहीं बलि नहीं दी जाती जबकि घर घर में यग्य अनुष्ठान होते ही रहते हैं -यह बौद्ध धर्म का ही प्रभाव है .जैन धर्म के अनुयायी मुंह में कपड़ा इसलिए बांधे रहते हैं ताकि मुंह में सूक्ष्म जीव कहीं न जाकर अपनी इह लीला समाप्त कर दें ....मगर दूसरी ओर जानवरों की आज भी सामूहिक बलि मन को व्यथित कर जाती है ..
क्या इस बर्बरता को रोकने कोई और महामानव -एक नया बुद्ध जन्म लेगा ?
इस व्यापक संहार को रोकना केवल जागृति से ही संभव है, क्योंकि इस पर लोग पर्व और परंपरा की दुहाई देते फ़िरते हैं। हम कितने भी संगठन खड़े कर लें कुछ नहीं होगा, जब तक जनजागृति नहीं फ़ैलायी जाती।
जवाब देंहटाएंये क्या किया आपने. आज के दिन ऐसी पोस्ट लगाई?
जवाब देंहटाएंअब कुछ लोग आयेंगे और वेद-पुराणों का हवाला देकर बताएँगे कि बलिप्रथा हिन्दू समाज का विशिष्ट अंग है. और तो और आपको यह भी बताया जाएगा कि हिन्दू रीति से किये जाने वाले अंतिम संस्कार में खरबों जीवाणु जल जाते हैं तब किसी को बुरा नहीं लगता तो पवित्र उद्देश्यों से एक बकरे की कुर्बानी क्यों खलती है.
अत्यंत ही जागृति प्रेरक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंजनजागृति का कार्य भी समय पर शोभा देता है, हिन्दीज़ेन्।
कुरितियों को उखाड फैकना,सभ्यता की मांग है।
पर्व और परंपरा की दुहाई धर्म के साथ भ्रष्टाचार है। एक हत्या भी व्यथित कर जाती है,यह तो जंगली सामुहिक संहार है।
आभार अरविन्दजी॥
पता नहीं लोग कैसे इतने नृशंस हो जाते हैं ! शिक्षा का प्रसार ही एक उम्मीद की किरण हो सकता है ..
जवाब देंहटाएंकेवल शिक्षा और समझ का प्रसार ही इस प्रकार की धार्मिक क्रियाएं और प्रथाओं को रोक सकता है ! कामाख्या के मंदिर में मैं बहुत श्रद्धा पूर्वक घुसा था मगर वहां से बापस भारी मन से आया था ! काश हम अपनी प्रथाओं से से ये विसंगतियां हटा सकें !
जवाब देंहटाएंपंडित जी! मैं एक एक अत्यंत ही शाकाहारी परिवार से आता हूँ. नवरात्रि में नवमी के दिन बलि की प्रथा रही है और सांकेतिक तौर पर हमारे परिवार की तरफ से भतुआ (white pumpkin) की बलि देने की प्रथा है.
जवाब देंहटाएंसार्थक समयोपयुक्त आलेख।
जवाब देंहटाएंबलि होते सामूहिक रूप में देख कर प्रसन्न होना आदिम आखेटक मानसिकता की ही देन है जिसे बाद में धर्म और कर्मकांडों से जोड़ दिया गया।
मानव मेधा और सभ्यता विकास के साथ बलि प्रथा सही ही कम और प्रतीकात्मक होती गई है। पुरातन संस्कारों में मृत शरीर को बलि दिए गए बैल की खाल में लपेट कर दाह किए जाने का निर्देश है। पर धीरे धीरे सब खत्म हो गया। आर्य समाज और इधर गायत्री परिवार ने कर्मकाण्डों को सरल और मानवीय बनाने में सराहनीय योगदान दिए।
रही बात आप की अपील की तो मैं उस बारे में कुछ नहीं कह सकता।
उम्दा हैं नज़्में पुरानी किताब-ए-इश्क़ में
इस ज़माने के साज उन्हें बेबहर कहते हैं।
आँखें उठाओ अब दुपहर उजाले छलके हैं
रुकी हैं जहाँ, उसे रवायती सहर कहते हैं।
किसी भी सभ्य समाज की पहचान इस बात से होती है कि मूक निर्बल प्राणियों के प्रति उसका नज़रिया कैसा है। जहाँ भारत में सभ्यता के क्रम में उत्तरोत्तर प्रगति होती रही है वहीं अनेकों विदेशी परम्पराओं के वाहक आज भी भूत की कुरीतियों को पकडे हुए घिसट रहे हैं। पहले के मुकाबले यह हिंसक जंगली प्रथायें कम हुई हैं फिर भी ज़ाहिलियत का पर्चम उठाने वाले बहुत से लोग मौजूद हैं।
जवाब देंहटाएंबलि प्रथा के बारे मे सुन कर ही रोंगटे खडे हो जाते हैं,उन निरीह प्राणियों का चीत्कार जैसे अपने मन से उठने लगता है तो सोच उभरती है कि क्या ऐसी परंपराओं को मानने वाले इन्सान ही होते हैं? अपने स्वार्थ के लिये एक इन्सान इतना कुछ कर सकता है? जनजागृ्ति तो फैलाई ही जानी चाहिये। अच्छा लगा आलेख। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंsum-samaik evem jan-jagriti charcha..
जवाब देंहटाएंpranam.
पशुओं के प्रति हिंसा रोकनी होगी। हम प्रकृति के श्रेष्ठजन हैं, यदि हम भी यही करेगें तो अहिंसा कौन धारण करेगा। सुन्दर संदेश व सामयिक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंजागरूकता प्रदान करने वाली पोस्ट ....
जवाब देंहटाएंबलियाँ भाषण से नहीं रुकेंगी। क्या इसे रोकने के लिए कोई अभियान बनेगा?
जवाब देंहटाएंदिनेश जी ,बलियां परमुखापेक्षिता से भी नहीं रुकेगीं,हम पहले तो उनके विरुद्ध अपने तई आवाज तो उठायें !
जवाब देंहटाएंनक़्क़ारखाने में तूती.
जवाब देंहटाएंइस्लाम के जिस सँदेश को पहुँचाने के लिये इस त्यौहार का सृजन हुआ, उसका मकसद कहीं पीछे छूट गया है । इस त्यौहार की फ़िलासफ़ी किसी हलाल ज़ानवर की कुर्बानी देना भर नहीं है ।
जवाब देंहटाएंइस्लाम ने इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा सिर्फ इसलिए नहीं बनाया कि लोग खुश होकर खूब पैसा लुटाएं और उसका दिखावा भी करें। हजरत इब्राहीम से अल्लाह ने अपनी सबसे कीमती चीज की कुरबानी मांगी थी। उन्होंने काफी सोचने के बाद अपने बेटे की कुरबानी का फैसला किया। उनके पास एक विकल्प यह भी था कि वह किसी जानवर की बलि देकर अपनी भक्ति पूरी कर लेते, लेकिन उन्होंने वह फैसला किया जिसके बारे में किसी को अंदाजा भी नहीं था।
जारी है....
जवाब देंहटाएंहजरत इब्राहीम ने अल्लाह के सामने जो परीक्षा दी, क्या मौजूदा दौर में कोई इंसान उस तरह की परीक्षा दे सकेगा? नामुमकिन है। लेकिन उस कुरबानी के पीछे छिपे संदेश को तो हम अपने जीवन में उतारने की कोशिश कर सकते हैं। कुर्बानी का मतलब है त्याग, उस चीज का त्याग जो आपको प्रिय हो।
आप कुरबानी के जिस बकरे को काजू, बादाम और पिज्जा खिला रहे हैं, वह इससे आपका अजीज नहीं हो जाता, क्योंकि आप उसे कुर्बानी की नीयत से ही मोल ले कर आए हैं। उसका मूल आहार तो कुछ और है। उसे यह सब चाहिए भी नहीं और न ही उसकी अंतिम इच्छा है कि उसे काजू, बादाम खिलाकर हलाल किया जाए। और कुरान शरीफ में भी यह नहीं लिखा है कि बिना काजू, बादाम खिलाए आप उसे हलाल नहीं कर सकते।
तो क्यों न ऐसा हो कि जो पैसा आप उसके काजू, बादाम पर खर्च कर रहे हैं और जो दिखावे के अलावा और कुछ नहीं है, वह पैसा आप जरूरतमंदों तक पहुंचाएं। यदि ईद में आपने खैरात और जकात किया था, और फितरा गरीब लोगों तक पहुंचाया था, तो वैसा ही करने से आपको बकरीद में कौन रोक रहा है?
जारी है....
जवाब देंहटाएंयह त्योहार सिर्फ परंपरा निभाने के लिए मत मनाइए। परंपरागत त्योहार होते हुए भी इस त्योहार का संदेश कुछ अलग तरह का है। यह त्याग करने का संदेश देता है। पैसे के बाद जिस चीज ने हम लोगों को सबसे ज्यादा अपने चंगुल में ले रखा है वह है हम लोगों का अहंकार। क्या आप ईद या बकरीद की नमाज में इस बात की दुआ मांगते हैं कि अल्लाह मुझे अहंकार से बचा लो। आज से मैं इसका त्याग करता हूं। मुझे गुनाहों से बचा लो , आज से मैं उनका त्याग करता हूं।
अब अगर अहंकार को खत्म करने की ही दुआ न मांगी गई तो वही अहंकार आप को अपने पैसे का प्रदर्शन करने - कराने के लिए बाध्य करेगा और आप लोगों को दिखाने के लिए कुरबानी के बकरे को काजू - बादाम खिलाते नजर आएंगे। दरअसल , वह अहंकार शैतान ही है जो आपको तमाम गुनाहों की तरफ धकेल रहा है। इस बकरीद पर इसे खत्म करने की दुआ मांगिए। इनका आप त्याग कर बहुत कुछ पा सकते हैं।
इस्लाम ने इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा सिर्फ इसलिए नहीं बनाया कि लोग खुश होकर खूब पैसा लुटाएं और उसका दिखावा भी करें। हजरत इब्राहीम से अल्लाह ने अपनी सबसे कीमती चीज की कुरबानी मांगी थी। उन्होंने काफी सोचने के बाद अपने बेटे की कुरबानी का फैसला किया। उनके पास एक विकल्प यह भी था कि वह किसी जानवर की बलि देकर अपनी भक्ति पूरी कर लेते, लेकिन उन्होंने वह फैसला किया जिसके बारे में किसी को अंदाजा भी नहीं था।
जारी है....
जवाब देंहटाएंयह त्योहार सिर्फ परंपरा निभाने के लिए मत मनाइए। परंपरागत त्योहार होते हुए भी इस त्योहार का संदेश कुछ अलग तरह का है। यह त्याग करने का संदेश देता है। पैसे के बाद जिस चीज ने हम लोगों को सबसे ज्यादा अपने चंगुल में ले रखा है वह है हम लोगों का अहंकार। क्या आप ईद या बकरीद की नमाज में इस बात की दुआ मांगते हैं कि अल्लाह मुझे अहंकार से बचा लो। आज से मैं इसका त्याग करता हूं। मुझे गुनाहों से बचा लो , आज से मैं उनका त्याग करता हूं।
अब अगर अहंकार को खत्म करने की ही दुआ न मांगी गई तो वही अहंकार आप को अपने पैसे का प्रदर्शन करने - कराने के लिए बाध्य करेगा और आप लोगों को दिखाने के लिए कुरबानी के बकरे को काजू - बादाम खिलाते नजर आएंगे। दरअसल , वह अहंकार शैतान ही है जो आपको तमाम गुनाहों की तरफ धकेल रहा है। इस बकरीद पर इसे खत्म करने की दुआ मांगिए। इनका आप त्याग कर बहुत कुछ पा सकते हैं।
इस्लाम ने इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा सिर्फ इसलिए नहीं बनाया कि लोग खुश होकर खूब पैसा लुटाएं और उसका दिखावा भी करें। हजरत इब्राहीम से अल्लाह ने अपनी सबसे कीमती चीज की कुरबानी मांगी थी। उन्होंने काफी सोचने के बाद अपने बेटे की कुरबानी का फैसला किया। उनके पास एक विकल्प यह भी था कि वह किसी जानवर की बलि देकर अपनी भक्ति पूरी कर लेते, लेकिन उन्होंने वह फैसला किया जिसके बारे में किसी को अंदाजा भी नहीं था।
जारी है....
अब अगर अहंकार को खत्म करने की ही दुआ न मांगी गई तो वही अहंकार आप को अपने पैसे का प्रदर्शन करने - कराने के लिए बाध्य करेगा और आप लोगों को दिखाने के लिए कुरबानी के बकरे को काजू - बादाम खिलाते नजर आएंगे। दरअसल , वह अहंकार शैतान ही है जो आपको तमाम गुनाहों की तरफ धकेल रहा है। इस बकरीद पर इसे खत्म करने की दुआ मांगिए। इनका आप त्याग कर बहुत कुछ पा सकते हैं।
जवाब देंहटाएंयह विचार यदि मेरे होते तो आप इसे साँप्रदायिक मान सकते थे ।
किन्तु यह विचार ज़नाब युसुफ़ किरमानी साहब का है, जो एक खुले दिमाग के मुस्लिम पत्रकार हैं ।
बेजुबान जानवर हो या मनुष्य ...हिंसा किसी भी तरह जायज़ नहीं मानी जाती रही है ...
जवाब देंहटाएंधार्मिक मान्यताओं पर मुझे कुछ नहीं कहना है ...नाजुक मसला है !
सम्वेदनशील मुद्दे पर बहुत सम्भाल कर संतुलित पोस्ट लिखने पर बधाई.
जवाब देंहटाएंबधाई.
जवाब देंहटाएंअभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे... बहुत पहले मुक्तिबोध कह गए . 'हम' और 'वे' के डर के बिना सही को सही कहने की हिम्मत ही शायद वह कुंजी है जिससे अलगाव की दीवार में संवाद की खिडकी खुल सकती है.
लहरतारा में जन्मे एक जुलाहे ने जिस भाषा में दोनों को गरियाया था आज ज़रूरत उसी की है. कबीर की आवश्यकता आज के हिन्दुस्तान को सबसे अधिक है.
ये बलि की प्रथा तो मेरी समझ से भी बाहर है.
जवाब देंहटाएंएक जागरूक पोस्ट ..डाक्टर अमर जी की टिप्पणी पाठन योग्य है .
जवाब देंहटाएंसही चिंता।
जवाब देंहटाएं@डॉ अमर कुमार जी ,
जवाब देंहटाएंआभार ,आपने इस मुद्दे से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं पर ज़नाब युसुफ़ किरमानी साहब के विचार प्रस्तुत किये !
सतगुरूओं ने अपने अर्जित ज्ञान का लोकहित में प्रयोग करते हुए व्यवस्था दी....कालांतर में शिष्यों ने उसे अपने सुविधानुसार बदल दिया। ज्ञान धरा रह गया मूढ़ता प्रभावी हो गई। समय काल के अनुसार भी सतगुरूओं द्वारा दी गई व्यवस्था का महत्व होता है..बाद में उसका उतना महत्व नहीं रह जाता।
जवाब देंहटाएं..कहा जाता है कि भगवान बुद्ध के शिष्यों ने 'अपने आप मरे पशुओं का मांस' खाने की छूट भगवान बुद्ध से प्राप्त कर ली। सुना है कि अब जापान में "यहां शुद्ध शाकाहारी भोजन मिलता है" के तर्ज पर "यहाँ अपने आप मरे पशुओं का मांस मिलता है" नाम की पट्टी होटलों में चस्पा रहती है।
अब इसे क्या कहें...यह धर्म भीरू जनता का सुविधानुसार बदला जाने वाला चोला।
..धार्मिक कुरीतियों पर कुठाराघात करना सबके बस की बात भी नहीं होती...सभी कबीर जैसा नहीं हो सकता। जो घर फूंके आपणों चले हमारे साथ। यहाँ तो हम पहले अपना छप्पर बचाना चाहेंगे, पड़ोसी का बाद में।
..हमारे बीच से ओशो गुजर गए..जिन्होने पहचाना उन्होने माना। जो नहीं समझ सके बस मजाक उड़ा कर रह गए। उन्होने भी कुरीतियों पर करारा प्रभाव किया है।
..इन सतगुरूओं का ज्ञान भी हम अपनी सुविधाअनुसार पसंद या नापसंद करते हैं। जब दुसरे धर्म की कुरीतियों पर करारा प्रहार पढ़ते हैं तो खुश होते हैं, जब बारी अपने धर्म पर आती है तो बगले झांकने लगते हैं।
..दरअसल समभाव से देखने की हिम्मत हम जुटा नहीं पाते...अपनी कुरूपता कभी अच्छी नहीं लगती।
फिर इस दोहरी मानसिकता में जीते हुए हम जो भी विचार व्यक्त करते हैं..उन पर लोगों को विश्वास नहीं होता। विश्वास के अभाव में बातें बेमानी हो जाती हैं।
आदरणीय मिश्र जी ... आपका बहुत बहुत आभार ये पोस्ट डालने के लिए ...
जवाब देंहटाएंआज मैं शाकाहारी हूँ इसका पूरा श्रय इस 'बलि' प्रथा को जाता है ... जब साल 6 saal की थी ... एक बार गाँव गयी थी ... वहाँ एक शादी में बलि देते देखा ... इतना घिनोना दृश्य था की आज तक उभर नहीं पायी ... और उस दिन से मांस को हाथ तक नहीं लगाया ... मैं समझ सकती हूँ आप पर क्या गुज़र रही होगी ... पहाड़ी क्षेत्रों में ये प्रथा आम है ...अपने देवी देवता को मनाने के लिए ये किया जाता है ... हिमाचल में 'शिकारी देवी' एक जगह है ... वहां जब मेला लगता है तो एक दिन में 10 से 15 हज़ार बकरों की बालियाँ दी जाती है... वो मंज़र कैसा होता होगा आप साझ सकते हैं ...
उम्मीद है आने वाले समय में जागरूकता आएगी ...
समझ में नहीं आ रहा कि एक ही कमेंट इतनी बार कैसे प्रकाशित हो गया..कृपया शेष कमेंट बाक्स से हटा दें।
जवाब देंहटाएंकुरीतियों के विरुध्द आवाज़ उठाना जरूरी है । पहले जब आदमी का भोजन शिकार पर ही अवलंबित था तब ईश्वर को भोग लगा कर फिर स्वयं ग्रहण करने की परंपरा ही इन बलियों के पीछे रही होगी । पर आज के युग में इसकी आवश्यक्ता नही है और सेवा कर्मियों पर बोझ बढता ही है । प्रेरक पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंआपने बड़ा यक्ष प्रश्न उठाया है. आपकी इस बात से "मानव सभ्यता आज जिस ठांव पहुँच रही है वहां पशु बलि का महिमा मंडन किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ..." पूर्णतः सहमत हूँ. मुझे भी ऐसे अनुभव हैं. आज भी दशहरा के पर्व पर जगदलपुर में कई भैंसे फरसे की एक मार पर काट दी जाती हैं. केरल के kodungallur मंदिर में प्रति वर्ष हजारों मुर्गे/मुर्गियों को मंदिर के दीवार पर पूरी ताकत से फेंका जाता है. (इसकी अपनी कहानी है). भैरमदेव के मंदिरों में भी बकरे की बलि दी जाती है और खून को थाली में इकठ्ठा किया जाता है. जो प्रसाद बनता है. आमेर, जयपुर कें मंदिर में पहले तो नर बलि की प्रथा थी, पर अब हर रोज बकरे की बलि दी जाती है. पहले यह जनता के समक्ष ही होता था परन्तु अब अलग कमरे में होता है. (यह इस बात की और इंगित करता है कि कहीं अपराध बोध तो है). सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम चाहे कितने भी पढ़े लिखे क्यों न हों, धर्म के नाम पर सब जायज़ मान लिया जाता हैं. क्या कभी हमारे अन्दर के आदि मानव /कबीलाई जीन से मुक्ति मिल सकती है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय मिश्र जी ... आपका बहुत बहुत आभार ये पोस्ट डालने के लिए ...
जवाब देंहटाएंxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxभगवती दुर्गा को जगत माता कहकर पुकारा जाता है, फिर उन्ही जगत माता को कुकर्मिजन जगत के जीवों की बलि चढ़ा देते हैं, फिर वे जगत माता कैसे सिद्ध हुयी.
अल्लाह ने कुर्बानी इब्राहीम अलैय सलाम से उनके बेटे की मांगी थी जो की उनका इम्तिहान था, जिसे अल्लाह ने अपनी रीती से निभाया था. अब उसी लीकटी को पीटते हुए कुर्बानी की कुरीति चलाना कहाँ तक जायज है समझ में नहीं आता. अगर अल्लाह की राह में कुर्बानी ही करनी है तो पहले हजरत इब्राहीम की तरह अपनी संतान की बलि देने का उपक्रम करे फिर अल्लाह पर है की वह बन्दे की कुर्बानी कैसे क़ुबूल करता है.
स्पष्ट है असुर स्वाभाव के मनुष्यों ने अपने जीभ के स्वाद के लिए हर उपासना पद्दत्ति में बलि
परम्परा को परमेश्वर के नाम पर प्रविष्ट कर दिया. और ईश्वर का नाम ले लेकर अपने पेट को बूचड़-खाना बना डाला.
मेरा विरोध हर उस कृत्य के प्रति है जो कहीं भी मात्र अपने जीभ के स्वाद और उपासना के नाम पर हिंसा करता है, फिर वोह चाहे अल्लाह की राह में कुर्बानी का ढोंग हो या देवी-देवताओं के निमित्त बलि का पाखण्ड.
मैं आपसे सहमत हूँ. यही बात मैं दूसरे सन्दर्भ में समझाने की कोशिश करती हूँ, तो समझ में नहीं आता कि जैविक रूप से बहुत सी ऐसी बातें हैं जो सभ्यता के विकास के इस स्तर पर आकर पुनर्विचार की माँग करती हैं. संभव है आप समझ रहे होंगे.
जवाब देंहटाएंमैं आपसे सहमत हूँ. यही बात मैं दूसरे सन्दर्भ में समझाने की कोशिश करती हूँ, तो समझ में नहीं आता कि जैविक रूप से बहुत सी ऐसी बातें हैं जो सभ्यता के विकास के इस स्तर पर आकर पुनर्विचार की माँग करती हैं. संभव है आप समझ रहे होंगे.
जवाब देंहटाएंआदरणीय अरविंद जी ,
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
ब्राह्ममुहूर्त में आपका आलेख पढ़ रहा हूं , बहुत ही विद्वतापूर्ण आलेख है –
“..और मैं बलि का बकरा बन गया ...... !”
आपने संबंधित हर पहलू को इंगित किया है ,
पशुओं का सामूहिक कत्लेआम /
बकरीद से शुरू होकर कई - कई दिन तक गली कूंचों में पड़े पशुव्यर्थों के निस्तारण की चुनौति /
संक्रामक बीमारियों की आशंका /
नैतिकता ,बुद्धि ,विवेक और संवेदनशीलता ,मानवीयता /
पशु बलि के प्रतीकात्मक तरीकों को आजमाने की आवश्यकता /
प्रणाम है आपकी लेखनी को !
अब परंपरा के नाम पर , धार्मिक कृत्य के रूप में की जाने वाली जीवहत्या पर जीभ के स्वाद के दृष्टिकोण से हटकर सोचने की ज़रूरत है ।
कुरबानी के पीछे छिपे संदेश को अपने जीवन में उतारने की कोशिश की आवश्यकता है। कुर्बानी का मतलब है त्याग, उस चीज का त्याग जो आपको प्रिय हो ,आपकी सबसे कीमती चीज हो ।
ईमानदारी से कहें तो बकरा प्रिय हो सकता है, कीमती तो हर हाल में परिवाजन ही होंगे !!
फिर … ?
मैं विशुद्ध शाकाहारी होने के नाते कहता हूं -
पर-जीवों के भक्षण से बढ़कर कृत्य नहीं वीभत्स कोई !
‘हिंसक न बनें, राक्षस न बनें’ – नासमझों को समझाता चल !!
तू करुणा रस बरसाता चल !!!
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बड़ा सामयिक पोस्ट है विशेष रूप से बनारस में मुस्लिम बहुल इलाके में बकरीद के दूसरे दिन जो साफ़ सफाई की स्थिति वीभत्स व घृणित रूप में दिखती है उससे कलिंग में अशोक की मनःस्थिति का सहज बोध स्मरण हो जाता है बस फर्क मानव व पशु मृत अंगो का ही तो है
जवाब देंहटाएंत्यौहार व प्रथाओं के नाम पर यह गिद्ध भोज ही तो है पोस्ट पढ़ कर मुझे उन मोहल्लो के रौरव नरक जैसी स्थिति का स्मरण हो आया
आपके कार्यालय के सामने भी एक मानव कसाई बन कर आजीविका चला रहा है कभी कभी उसे देखता हूँ तो सोचता हूँ कि क़यामत के दिन इसका क्या होगा उसका मजहब नहीं जानता
आपके लेख से बेहतर अमर कुमार की टिप्पणी रही
कुछ लोग तो जब तक दांत व जबड़े मजबूत रहते है शाकाहारी नहीं होते जब इनमे कमजोरी आ जाती है तब शाकाहारी बनने का ढोंग करने लगते है लगता है यही मानव प्रवृत्ति है कि जब तक इन्द्रिया सुख दे रही है तब तक किसी नैतिकता का पालन न करो जब इन्द्रिया शिथिल हो जाए तो भगत बन जाओ
संवेदनपूर्ण प्रस्तुति के लिए आभार
@ अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट तो कल ही देख ली थी पर टिपियाने का अवसर आज मिला है ,यहाँ करुणा की बयार बहती हुई देखकर जी किया कि हम भी बहती गंगा में हाथ धो लें :)
देखिये मुख्यत: मुद्दे दो हैं , पहला मुद्दा आहार , जिस पर मैंने काफी पहले एक पोस्ट लिखी थी ! अगर आप चाहेंगे तो लिंक भी दे दूंगा !
दूसरा मुद्दा है हिंसा ,जिस पर पोस्ट लिखने का ख्याल कई बार आया और गया ! सवाल मन में हैं , कभी लिख पाए तो ज़रूर लिखेंगे ! कुछ बातें जो हिंसा के मसले पर साफ़ होना चाहिए बस वही उछाल रहा हूँ !
बलि (हिंसा) ईश्वर के लिए जानवरों या मनुष्यों की भी और स्त्रियों के लिए / भूखंड के लिए / धन के लिए और दहेज वगैरह वगैरह के लिए की गयी हिंसा भी , इस बहस में शामिल होगी कि नहीं ? हमारा प्रेम हमारी करुणा केवल पशुओं के लिये या शुरुआत पहले इंसानों से हो ?
आस्था के लिए हिंसा ,प्रेम के लिए हिंसा ,देश प्रेम के लिये हिंसा ? अपनी मांगों ( कामना) के लिए हिंसा ,आदि के बारे में सोचते हुए ख्याल ये रहे कि आस्था /प्रेम /कामना का सम्बन्ध हमारे अंतर्मन से है !
देह रक्षा और भूखंड रक्षा में कोई साम्य स्वीकार्य होंगे कि नहीं ? निज देह ,निज कुल ,निज वधु ,निज बहु ,निज पूंजी , निज भूमि ,निज ईश्वर के प्रति हमारे समर्पण में कोई समानता इस बहस में शामिल होगी कि नहीं ? पशु पक्षियों के साथ इंसान भी इस हिंसा / करुणा के मंथन में शामिल होंगे कि नहीं ?
मेरा ख्याल ये है कि हिंसा बड़ी व्यापक धारणा है अतः बहस टुकड़ों में नहीं होनी चाहिए ! यहाँ शाकाहार और मांसाहार केवल अपना पक्ष थोपने को उद्धत दिखाई देते हैं जोकि स्वस्थ बहस /चिंतन के लक्षण नहीं हैं !
मित्रवर चलते चलते ये भी कह दूं कि मेरी दादी शुद्ध शाकाहारी थीं सो मेरी पत्नी और बच्चे भी और मुझे मांसाहार का अवसर नहीं मिलता :)
यहाँ ढाबों पर अहिंसा प्रेमियों के बच्चे, शराब और कबाब के मजे लूटते हुए रोज ही दिखाई देते हैं पर हिंसा प्रेमियों के बच्चे उसे अफोर्ड नहीं कर सकते :)
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंMR-अली
जवाब देंहटाएंजानवरो पर हो रही हिँसा को छोड़कर बाकि हिँसा जो आप गिना रहे हैँ. जैसे मनुष्य की बली, जमीन,दहेज और स्त्री के लिये हो रही हिँसा इत्यादि
तो आपको बता दूँ कि इन सारी हिँसाओ के लिये सजा का प्रावधान है.जो इस प्रकार की हिँसा करता है उस पर मुकदमा दर्ज होता है और सजा मिलती है
केवल इन असहाय पशु पक्षियो पर हो रही क्रूर हिँसा के लिये कोई कानून नही बना है क्यो कि ये वोट नही देते और जो इन पशु पक्षी को बड़ी बेरहमी से काटते है उनके वोट के लिये सरकार मरी जा रही है
बस लड़ाई इस बात की है कि जैसे और हत्याओ और हिँसा के लिये मुकदमा दर्ज होता है और सख्त सजा का प्रावधान है
वैसे ही इन जीव जन्तुओ पर हो रही हिँसा पर भी सख्त सजा का कानून बने और वो आज नही तो कल बनेगा ही.और तब
जिसको इन जानवरो पर हिँसा करनी हो तो शौक से करे.बस तब हिँसा करने वालो की भी अच्छी खातिरदारी की जायेगी.
पोस्ट लिखने वाले और कमेंट करनेवालों के अहंकार का क्षरण हो..... इसी दुआ में हाथ उठ रहे हैं ... आमीन :)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@ अनोनिमस जी ,
जवाब देंहटाएंकरुणा और कानून के समर्थक होकर भी आप परदे में क्यों हैं मित्र ?
रोचक बहस।
जवाब देंहटाएंविशेषकर डॉक्टर अमरजी, अलीजी, और anonymousजी की टिप्पणियाँ।
सोच रहा हूँ हम भी कुछ कहें।
हम भी जानवारों पर हो रहे अत्याचार पर दुखी होते हैं। पर लगता है कि हर व्यक्ति के, हर समुदाय के, इस मामले में अपनी अपनी "लक्षमण रेखाएं" निर्धारित होती हैं।
एक अमरीकी मित्र ने एक बार मुझसे इस विषय पर बहस करते समय कहा था
"What I kill, I eat"
कहने का तात्पर्य था कि जानवरों को मारना उसके लिए खेल नहीं। खुराक के लिए था और इसलिए वह जायज था।
कई साल पहले मेरी दक्षिणी कोरिया में पोस्टिन्ग हुई थी। वहाँ के लोग कुत्तों और बिल्लियों को मारकर खाते हैं। इस प्रथा से अमरीकी लोगों को घृणा है। वहाँ काफ़ी सारे अमरीकी लोग भी थे और देश की १/३ आबादी इसाई बन गई है और मैने कई सारे churches देखे थे। इसाई पाद्री इस प्रथा के खिलाफ़ अभियान चलाने की कोशिश में थे। कई शौचालयों के दीवारों पर मैने grafitti नोट की थी। बाहर के लोग कोरियाई लोगों की इस प्रथा पर अपनी नाराजगी दीवारों पर लिखकर व्यक्त करते थे। खुलकर बोलना नहीं चाहते थे।
ऐक दिन मुझे एक कोरियाई मित्र से इस विषय पार चर्चा करने का अवसर मिला।
वह अमरीकी लोगों की बात समझ ही नहीं सका। कहता था, जब गाय, भेड, बकरी, मीन, सूअर को मारकर खाते हैं तो हम कुत्तों को क्यों नहीं खा सकते? आखिर सभी तो जानवर ही हैं। मुझे लगा उस कोरियायी मित्र की बात में दम है।
---- जारी-----
जहाँ तक बली का मामला है मैं आपके विचार से सहमत हूँ और इसके खिलाफ़ किसी भी अभियान को मेरा समर्थन मिलेगा।
जवाब देंहटाएंपर जब खाने की बारी आती है, तो मैं लाचार हूँ। कुछ नहीं कहना चाहता। हम तो शुद्ध शाकाहारी हैं पर औरों के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। हमने अपनी रेखा शाकाहारी चीज़ों पर खींच दी। कुछ लोग इस रेखा को थोडा आगे ले जाते हैं और उन्हें अंडों से परहेज़ नहीं। कुछ लोग तो मुझसे भी पीछे लाइन खींचते हैं, (दूध से भी परहेज है। अंग्रेज़ी में उन्हें vegans कहते हैं)
कुछ लोग मछली तक अपने आहार में शामिल करके रुक जाते हैं और कुछ लोग और भी आगे निकल जाते हैं और मुर्गी, भेड/बकरी/सूअर तक पहुंच जाते हैं।
एक अमरीकी दोस्त नें मजाक करते करते हमसे कहा था "If it moves, I eat it!"
अब कौन कह सकता है की सही रेखा कहाँ खींची जानी चाहिए? गनीमत है कि अब तक किसीने इंसान को मारकर खाना सही नहीं माना।
दुर्भाग्य से जानवरों पर अत्याचार करना culture के साथ जुड गया है। Spain में Bullfighting को आप कैसे रोकेंगे? यहाँ भारत में भी हमने Cock Fights देखे हैं। इन मुर्गों के पैरों पर blades भी लगाते हैं और भीड तमाशा देखती है।
जानवरों पर अत्याचार एक और जगह होता है और वह है pharmaceutical कंपनियों के प्रयोगशालाओं में। ईद के अवसर पर बकरियों की हालत भले ही दयनीय हो, कम से कम उन्हें पीडा से जल्द ही मुक्ति मिल जाती है। पर इन प्रयोगशालाओं में तो निरंतर यातना सहना पडता है, इन जानवरों को।
जितना ज्यादा हम इस पर सोचते हैं उतना ही ज्यादा दर्द होता है।
एक सामयिक लेख के लिए बधाई
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
डा0अमर कुमार, अली जी, G.vishwanath ने सोच का दायरा काफी विस्तृत कर दिया।
जवाब देंहटाएं..आभार।
maine nayi post daali hai mishra ji ... zaroor padhariyega blog par ... dhanyawaad
जवाब देंहटाएंक्या इस बर्बरता को रोकने कोई और महामानव -एक नया बुद्ध जन्म लेगा ?....किसी बाहरी बुद्ध का इंतजार क्यों, हममें भी कई बुद्ध हो सकते हैं. सचेत करती इस पोस्ट के लिए साधुवाद स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंइस सामयिक पोस्ट को कल पढ़कर एक दूसरी पोस्ट भी याद आ रही है, जहॉं शब्दों में जूता-लात चल रहे हैं।
जवाब देंहटाएंयहॉं पर यह सब अभी शुरू नहीं हुआ है, यह देख कर अच्छा लगा।
मुझे लगता है कि जब तक समाज में मांसाहार समाज में प्रचलित है, तब तक इस तरह की प्रथाओं को रोका जाना सम्भव है। वैसे इस सम्बंध में अली जी के विचार भी महत्वपूर्ण हैं।
यह मनुष्य का स्वभाव है कि किसी भी सिद्धांत अथवा परम्परा का जो अंग उसे अच्छा लगता है, वह उसका तो समर्थन करता है, शेष का विरोध करने लगता है। मेरी समझ से यह पूरी ईमानदारी नहीं है।
हॉं, आपसे एक निवेदन है कि यदि आप चाहते हों कि यह बहस स्वस्थ रूप से आगे बढ़े, तो कृपया अनानिमस टिप्पणी का ऑपशन कम से कम इस पोस्ट में तो बंद ही कर दें, जिसे जो बात कहना हो, वह सामने आकर कहे, तो पढने वाले को भी अच्छा लगेगा।
जैसा कि आप जानते हैं कि मैं पिछले 20 वर्षों से पूर्णत: शाकाहारी हूँ, पर मैं ही जानता हूँ कि अक्सर मुझे कितनी दिक्कते झेलनी पड़ती हैं, बावजूद इसके किसी जिद की तरह यह चल रहा है। इस सम्बंध में एक बात और कहना चाहूंगा। इस तरह की परम्पराएं अक्सर लोग दिखावे के लिए और सामाजिक दबाव के कारण भी करते हैं। जैसे आप मेरा ही उदाहरण ले सकते हैं। मैं पिछले चार सालों से अपने माता-पिता से अलग रह रहा हूँ। प्रत्येक वर्ष बकरीद पर लोग मुझसे पूछते हैं- जाकिर भाई तुमने कुर्बानी कराई। मैं चुप रह जाता हूँ। अब तो बच्चे और बीवी भी इसके लिए मूड बना रहे हैं। देखता हूँ कि बकरे की मॉं कब तक खैर मनाएगी।
यह बात बडी आश्चर्यजनक है कई मांसाहार पृष्ठ्भूमि वाले सज्जन शाकाहारी है। पर जीव हिंसा का समर्थन करते प्रतित होते है। शायद पृष्ठ्भूमि ही कारण हो? या मन से त्याग न हो पाया हो?
जवाब देंहटाएंकिसी को चांस नहिं मिलता इसलिये शाकाहारी है, वह तो निश्चित ही मन से मांसाहार ही कर रहा है। क्योंकि उसकी अहिसा मनोवृति प्रबल नहिं होगी।
ऐसा तो कोई सफल रास्ता नहिं है कि मानवता के प्रति पूर्ण अहिंसा स्थापित हो तो फ़िर ही जीवों की तरफ अहिंसा बढाई जाय।
मानव के साथ होने वाली हिंसाएं द्वेष और क्रोध के कारण है, और द्वेष और क्रोध पूर्ण जीत संदिग्ध है। अब जीव के साथ हमारे सम्बंध इसप्रकार नहिं बिगडते, अतः मै समझता हू मानव के कोमल भावों की वृद्धि के लिये अहिंसा जीवों से प्रारंभ की जा सकती है।
..मेरे विचार से यह पोस्ट अंध भक्ति में निरीह पशुओं की बलि चढ़ाने का विरोध करती है। जिसका समर्थन किया जाना चाहिेए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जितने शाकाहारी हैं वे ही धर्मात्मा हैं और जो मांसाहारी हैं वे पापी हैं। करोणों मनुष्यों की रोजी-रोटी मांसाहारी लोगों के कारण ही चलती है। सभी शाकाहारी हो गए तो गरीब मछुआरों का क्या होगा ?
जवाब देंहटाएंअपनी छिछोरी आदत से बाज आ जाओ
जवाब देंहटाएंये पहली और आखिरी चेतावनी है.
तुम्हारे घटियापन की हरकतों से सभी परिचित हैं.
मेरे सब्र का इम्तिहान न लो.
और जो तुम रात-दिन कव्वाली गा रहे हो न पोल खोलने की ... तो खोलो न बेटा.
उसके बाद नोच लेना मेरी.
संभल जाओ
मेरे को लुंगी से बाहर आने पर मजबूर न करो. वरना यहाँ हर जगह मुझसे शुद्ध आल्हा सुनोगे.
pashuon pr honey waley atyachar or hinsa ka virodh hona hi chahiye or isey kisi bhi jaati,dharm ya samprday se jodkr iska virodh krna uchit nahi hoga ,
जवाब देंहटाएंphli baar apkey blog pr aaya hun,achcha laga.
abhaar.......
गहन चिंतन चल रहा है। सबके अपने-अपने तर्क हैं और सबकी अपनी-अपनी व्याख्या। इस सम्बंध में मैं एक बात कहना चाहूँगा कि यदि आप अपने आपको शाकाहारी समझते हैं, तो कृपया इसे ज़रूर पढ़ लें, हो सकता है कि आप अपनी सोच बदलने को मजबूर हो जाऍं।
जवाब देंहटाएंउस्ताद जी का चोला पहनकर इतनी ओछी बातें करना निंदनीय है। इससे यह पता चलता है कि यह व्यक्ति जो कोई भी है उम्र दराज नहीं है...
जवाब देंहटाएंइसके पहले वाली पोस्ट में भी इस शख्स ने टिप्पणी की है..
कहीं आपकी उम्र साठ के आस-पास तो नहीं है ? अगर हाँ तो मुझे कुछ नहीं कहना है.
..इससे भी सिद्ध होता है कि दूसरों को सठिया गया है कहने वाले इस व्यक्ति की उम्र कम है।
..मुखौटे पहनकर, वह भी उस्ताद जैसे नाम का मुखौटा पहनकर दूसरों को गाली देना निंदनीय है।
मेरे ब्लॉग में भी आपके नाम से इस व्यक्ति ने यही कमेंट किया था..जिसे मैने मिटा दिया।
..मैं आज तक खुश हो रहा था कि ब्लॉग जगत को कम से कम एक आलोचक तो मिला। लेकिन आज मुझे खुद पर अफसोस हो रहा है कि लोगो को पहचानने के मामले में मेरी समझ कितनी कम है।
@देवेन्द्र जी ये सज्जन जो अपने मुंह से ही मियाँ मिट्ठू बने हैं बाल प्रतिभा के धनी हैं.... बाकी सब बूढ़े ...देखिये तो कैसे धमकिया रहे हैं ...
जवाब देंहटाएंजैसे सारे अंतर्जाल की उस्तादी इन्होने ही संभाल रखी हो ...
उस्ताद जी ..वाह वाह ...मेरी एक महिला ब्लॉगर मित्र ने एक वर्ष पहले ही बता दिया था कि ये एक चालू किस्म के इंसान हैं ..इम्पोस्टर टाईप के ..इनके महिलाओं के नाम से भी क्षद्म ब्लॉग हैं ..अपनी उम्र खास तौर पर कम बताने का इनका चस्का है ..मगर असल में हैं उस्ताद किस्म के ही प्राणी ...डील डौल में ....हा हा हा इन दिनों बौखलाए हुए हैं ..चारो और से दुर्दुराहट के कारण .....
तू लतखोर का आदी लगता है
जवाब देंहटाएंतेरा ये ब्राह्मणवाद काम न आएगा
अबे छिछोरे जब तेरा आवरण उतारूंगा न तो यही लोग तेरा तमाशे का मजा लेंगे
मान जा .... मान जा
क्यूँ ब्लॉग जगत का माहौल खराब करने पर तुला हुआ है ?
तेरे जैसे 36 को बाँध के निकलता हूँ ... अब ये न पूछना कि कहाँ बांधता हूँ
इसीलिए कह रहा हूँ ... बस
this is last
उस्ताद बौखलाओ मत ,तुम्हारी कलई उतर चुकी है ..एंड यू आर फिनिश्ड !
जवाब देंहटाएंसारा ब्लॉग जगत तुम्हे डंडा लेकर लखेदने /खदेड़ने को तैयार है ..मुहूर्त की प्रतीक्षा है!
सुना है लखनऊ के कुछ मुस्लिंम लौंडों से तुम्हारे गहन सम्बन्ध हैं !
.....तो तुम्हे लखनौआ नवाबी का भी शौक रहा है .....वही सब करो न .....!
मित्रों ,
जवाब देंहटाएंइतनी गंभीर बहस को इस स्वयंभू उस्ताद ने एक गलत मोड़ दे दिया है ..इसलिए इसे यहीं विराम देते हैं और माडरेशन आन करते हैं ..उस्ताद का असली चेहरा यही है ....!
अच्छा ही हुआ देर से आया. बड़ी धांसू टिपण्णीयाँ आई हैं.
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट। बधाई।
जवाब देंहटाएंटिप्पणियां देख लेने के बाद पोस्ट की बातें ही गुम हो गईं, बेहतर हो कि बाद वाली कुछ टिप्पणियां हटा दें, पोस्ट की पठनीयता ओर गंभीरता के लिहाज से यह जरूरी लग रहा है.
जवाब देंहटाएं