सोमवार, 29 अप्रैल 2013

पात्रता की पहचान

यह हम सभी को पता है कि प्राचीन काल में ऋषि मुनि बिना शिक्षार्थी की पात्रता की अच्छी भली जांच परख किये उन्हें स्वीकार नहीं करते थे .कई पौराणिक कहानियां इस बात को बड़े ही रोचक तरीके से प्रस्तुत करती हैं . जैसे कर्ण और परशुराम की कहानी को ही ले लीजिये जो कुछ यूं है (साभार विकिपीडिया) -"कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक सारथी पुत्र था, और द्रोण केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे। द्रोणाचार्य की असहमति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार किया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया ............ कर्ण की शिक्षा अपने अन्तिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक जंगली कीड़ा आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण असहनीय पीड़ा को सहता रहा। कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी, और उन्होनें देखा की कर्ण की जांघ से बहुत खून बह रहा है। उन्होनें कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु डंक को सह ले, और परशुरामजी ने तपबल से सब जान लिया और  कर्ण के   मिथ्या भाषण के कारण उसे श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम नहीं आएगी। और यही हुआ युद्ध के समय ऐन वक्त कर्ण का पहिया जमीन में जा  धंसा और वह उसे निकालने में वह ऐसा बेसुध हुआ कि अर्जुन ने सहज ही उसे मार गिराया .

यह कथा यह बताती है कि शिक्षा दीक्षा के मामले में प्राचीन गुरु लोग पात्रता का बहुत ध्यान देते थे और अक्सर यह भी होता था शिष्य को अपना सम्पूर्ण ज्ञान न देकर कुछ अपने पास ही रखते थे ...इन कथाओं का मर्म यही है कि अगर पात्र व्यक्ति का चयन शिक्षा दीक्षा के लिए सही न हुआ तो ऐसा गलत चयनित व्यक्ति प्राप्त दीक्षा का दुरूपयोग कर सकता है  ,खुद अपने ही गुरु के लिए भस्मासुर बन सकता है और खुद अपना नाम बदनाम करने के साथ ही गुरु का नाम भी डुबो सकता था . ऐसा नहीं है कि ऐसी पुराकथाएँ केवल भारत भूमि की हैं . ये चतुर्दिक विश्व की बोध कथायें हैं , ली फाक के प्रसिद्ध कामिक्स श्रृखला मैन्ड्रेक में मैन्ड्रेक का एक जुड़वा दुष्ट भाई भी है जिसने  मैन्ड्रेक के साथ ही साथ गुरु थेरान से शिक्षा पायी ...मगर जहाँ मैन्ड्रेक गुरु से प्राप्त अपनी जादुई शक्तियों से एक समाजसेवी बना वहीं उसका जुड़वा भाई मानवता का दुश्मन बन बैठा और अपने गुरु के लिए भी कष्टकारी बन गया ..गुरु थेरान उसकी पात्रता की जांच में चूक गए ...
आज तो बड़ी विषम स्थति है -पात्रता का चयन बड़ा ही मुश्किल हो गया है .फलतः अकादमीय क्षेत्रों में चेला ही गुरु का कान काट ले रहा है . राजनीति में जिस सीढी से नौसिखिये नेता ऊपर जा पहुंचते हैं उसी को नीचे फेंक देते हैं . पहलवान अपने ही गुरु को धोखे से धूल चटा  दे  रहे हैं . अब परशुराम सी शक्ति तो आज बिचारे गुरुओं में रही नहीं कि अपने पथभ्रष्ट शिष्य को शापित कर सकें ..मगर आजके गुरुओं को पुराने गुरुओं की इस परम्परा को कदापि नहीं भूलना चाहिए कि दीक्षा देने के लिए पात्रता को वे अवश्य देखें -अन्यथा उनका शिष्य उनका ही कान काट खायेगा या नाम डुबो के छोड़ेगा .... अब यह भोगा यथार्थ मुझ जैसे गरीब गुरु से बेहतर कौन अनुभव कर सकता है :-(

42 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. खुश हो रहे होंगे न संजय भाई ?

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    2. बिल्कुल नहीं डाक्टर साहब, इसमें खुश होने वाली कोई बात है ही नहीं। अलबत्ता ऐसी बातों से बहुत दुख भी नहीं होता।

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    3. हाँ आपको क्यों दुःख होने लगा -जाके पैर न फटे बेवाई ते का जाने पीर पराई !

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    4. ये तो है, हम का जानें पीर पराई(अपनी से ही फ़ुर्सत नहीं).. :)

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  2. कार्य अनुसार पात्र व्यक्ति का चयन किया जाना चाहिए,,

    बहुत बेहतरीन सटीक प्रस्तुति ,,,

    RECENT POST: मधुशाला,

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    1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
      आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
      सूचनार्थ...सादर।

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    1. सतीश जी ,
      आपतो मेरे एक ही चेले से ही आक्रान्त रहते हैं -यहाँ तो कई हैं!

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  4. आज एकलव्य काट लेगा
    गुरु द्रोन का अंगूठा
    छल से धनुर्विद्या में
    प्रवीण क्यों होगा अर्जुन
    किन्तु समर में
    महाबली और नायक
    कर्ण ही होगा

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  5. इंसान गलतियों से ही सीखता है,गिर-गिर के ही संभलना सीखता है.
    कहा भी गया है न कि दूसरों की गलतियों से सीख लेनी चाहिए.सो हमने भी सीख ले ली.
    वैसे एक बात सुनी है कि बिल्ली ने शेर को कई दांव पेंच सिखाये थे लेकिन सिर्फ़ एक गुर अपने पास रखा था ..जब शेर से ने शिकार करने के सारे तरीके सीख लिए तो उसी पर हमला करने झपटा.
    बिल्ली भाग कर पेड़ पर चढ गयी और अपनी जान बचा सकी.

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  6. इंसान पहचानने में पहली भूल नासमझी होती है, दूसरी अनुमान की गलती हो सकती है मगर भूल पर भूल को दरियादिली कहते हैं। भारत की (विभाजन और) विदेशनीति, दरियादिली एक बड़ा उदाहरण है। हर समस्या का हल होता है। उदाहरणार्थ इस आलेख में वर्णित समस्या के बारे में यदि रिस्क मैनेजमेंट के गुरुओं से पूछा जाय तो समस्या के बहुत से हल सामने आ सकते हैं। हर हल का अपना मूल्य भी अलग होगा और पोटेंसी का स्तर भी। कुछ थेयरिटिकल हल उदाहरण -
    1) कम चेले रखना
    2) अधिक कान रखना
    3) जितने चेले उतने कान, ज्ञानी की बात मान
    4) कान के पक्के होना
    5) गुरु बनाने में महारथ आने तक किसी महारथी का चेला ही बन लिया जाये, क्या पता कान का बैलेंस डेबिट के बजाय क्रेडिट में आ जाये
    6) ...
    ... कान की कमी है और काम की अधिकता है इसलिए अभी के लिए इतना ही।

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    1. "मगर भूल पर भूल को दरियादिली कहते हैं" कितनी अच्छी प्रियोक्ति(euphemism) है .. :-) हम मंतव्य समझ गए अनुराग जी!

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  7. आजकल सफ़ल होने की आपाधापी में बच्चे कई जगह कोचिंग पढ़ते हैं। ऐसे ही एक ही समय लोग कई गुरु रखते हैं। गुरु जी भी ऐसे ही आंख मूंद के चेले भर्ती करते हैं। पात्रता की पहचान तब करते हैं जब कोई चेलानुमा इंसान मन की नहीं करता।

    देह धरम को दंड?

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  8. पात्रता बहुत जरूरी है, परंतु आजकल किसी भी व्यक्ति को पहचानना बहुत मुश्किल हो चला है, अब जो हो गया सो हो गया, आगे से सावधान रहियेगा ।

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  9. विवेक जी ,
    ढाढ़स के लिए आभार -मगर अगले भी उतने ही और शातिर होते जा रहे हैं :-)

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  10. योग्य पात्र को शिक्षा देना चाहीये, सहमत हुं!

    अब उदाहरणो से हमारी असहमती दर्ज की जाये, बहस को थोडा मोड भी मिलेगा

    लेकिन परशुराम द्वारा गैर ब्राह्मणो को शिक्षा ना देना और द्रोणाचार्य द्वारा राजकुल के ही छात्रो को शिक्षा देना ही गुरुकुल के अंत की शुरुवात थी। द्रोणाचार्य को तो पब्लिक स्कूलों का पुरोधा कह सकते है, उनमे तो एक पुर्वाग्रह स्पष्ट झलकता है, किसी भी शिक्षक का एक ही प्रिय शिष्य़ होना तब भी गलत था आज भी गलत है।

    महाभारत काल ही मे, सांदिपनी जी भी थे, जिनके पास सुदामा और कृष्ण दोनो वर्ग के छात्र थे।

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    1. @ आशीष जी की दूसरी बात से सहमति,
      घोषित तौर पर जाति से अहीर/यदुवंशी किन्तु संपन्न कृष्ण और निर्धन ब्राह्मण सुदामा दोनों ही शिक्षा के पात्र थे !

      @ अब एक सवाल ?
      अयोग्य / अपात्र को शिक्षा क्यों नहीं ? जबकि उसे शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता है और समाज को भी अपात्र के शिक्षित होने से लाभ है ! कहने का आशय यह है कि पात्र को शिक्षा देना स्वाभाविक और सहज और सहल है किन्तु अपात्र को शिक्षा देने में शिक्षा की सार्थकता है कि नहीं ?
      बात इत्ती सी कि धुले हुए बर्तन मांजने से पहले गंदे बर्तनों को मांजना प्राथमिकता क्यों ना हो :)

      @ अब आपका वो चेला जो शक्कर हुआ सा दिखता है ,
      आपको उसकी उपलब्धियों पे खुश होना चाहिए जो उसने एकलव्य की तरह से आपको आभासी गुरु मानकर उपलब्धियां अर्जित कीं :)

      @ एक धारणा अपनी ये कि ,
      बौद्धिक श्रेष्ठता / हीनता / पात्रता मापने का कोई सार्वजनीन / सर्वस्वीकृत / विशुद्ध पैमाना नहीं सो शिक्षा बांटने में भेदभाव / कोताही ना की जाए ये हर इंसान का हक है !

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    2. आशीष जी और अली साहब ,
      आपने इस पोस्ट को एक व्यापक वैचारिक आयाम दिया है -आभार!
      जहाँ तक प्राचीन काल की बात है उस समय की एक सामजिक व्यवस्था थी -जिसमें ब्राह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य ,शूद्र का विभाजन था यद्यपि यह कर्म के आधार पर था .....इसलिए जिनमें ज्ञान ग्रहण करने उसके उपयोग करने की प्रवृत्ति हो यानी ब्राहमण उसे ही ज्ञान दिया जाता था -बाद में दुर्भाग्य से यह व्यवस्था जन्म आधारित हो गयी ...
      हम केवल यह कहते हैं कि पात्रता का मामला इसलिए उठता रहा होगा कि ज्ञानार्जन के बाद बहुत से लोग उसका सदुपयोग न कर कदाचार में लग जाते होंगे ...जो व्यवस्था कर्म के आधार पर थी वह परम्परागत ,पुश्तैनी भी बन ती गयी होगी -क्योकि यह अधिक संभव था कि ब्राहमण का लड़का ज्ञान के प्रति सहिष्णु ,क्षत्रिय का युद्ध के प्रति उन्मुख,वैश्य का खेती बारी और विपणन तथा शूद्र का सेवाभावी हो जो की उनके पारिवारिक संस्कार बन गए होंगे -ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि राजा से अनुमति लेकर शूद्र को भी शिक्षा दी सकती थी .....

      शिक्षा व्यावसायिक उद्येश्य से नहीं थी -ब्राहमण बिना मूल्य शिक्षा देते थे,हाँ अंत में गुरु दक्षिणा का प्रावधान था वह भी प्रायः औपचारिक ही -कालांतर में शिक्षा को धनागम से जोड़ा गया और ब्राह्मणों में उपाध्याओं को इसकी शुरुआत की बात कही जाती है और तब से ही पात्र कुपात्र सभी के लिए शिक्षा सहज हो गयी !

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    3. @ कदाचार में लग जाते होंगे,
      उस समय जिन्हें कर्म से पात्र मानकर शिक्षा दी गई,उन्होंने कर्म आधारित व्यवस्था को निज हित में जन्माधारित बना डाला! स्मरण रहे कि कर्म आधारित व्यवस्था गतिशीलता की पर्याय थी जोकि संभावनाओं के द्वार सतत खुले रखती थी,उसे यथास्थितिवादी/जड़वत व्यवस्था बनाने का कदाचार,उन लोगों ने किया जिन्हें पात्र मानकर शिक्षा दी गई थी अतः शिक्षा का दुरूपयोग भिन्न विषय है,यह कोई भी कर सकता है,चाहे वो पात्र हो या अपात्र!

      फिलहाल मुद्दा ये कि शिक्षा देना / पाना 'सबका' हक है !

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  11. कभी कभी पात्रता को नज़रंदाज़ करने का कारण दोनों तरफ ही स्वार्थ होता है | आगे चलाकर कोई एक भारी पड़ जाता है

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    1. आपने आत्मान्वेषण का एक गंभीर बिंदु उठा दिया, आभार डॉ मोनिका जी !

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  12. डॉ अरविन्द मिश्र जी ! जाति और गोत्र के आधार पर चयन (योग्यता को नज़र अंदाज़ कर ) प्राचीन काल में भी गलत था और आज भी गलत है .कर्ण को जाति के आधार पर शिक्षा पूरा न करने देना यह परशुराम की भूल थी और एकलब्य का अंगुठा गुरु दक्षिना स्वरुप काट लेना, .द्रोणाचार्य को गुरु के उच्चासन से गिरा देता है और एक स्वार्थी साधारण व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है। वह व्यक्ति जो केवल अर्जुन के हित केलिए एकलब्य से गुरुदक्षिना लेने का छल करता क्योकि अर्जुन उसका शिष्य था। ।द्रोणाचार्य ने औपचारिक रूप से कभी कुछ उसको नहीं सिखाया फिर गुरु दक्षिणा किस बात का ? यह तो एकलब्य की स्वीकारोक्ति है की कुरु पांडवों को शिक्षा ग्रहण करते देख देख वह यह विद्या हासिल किया है। उसका भोलापन और कृतज्ञता का उसे दंड मिला। वह आभार व्यक्त करने गया था और उसे क्या मिला ? क्या आप कहेंगे यहाँ भास्म्सुर का काम गुरु द्रोणाचार्य ने किया ?

    गुरु के लिए सभी विद्यार्थी समान है लेकिन गुरु यदि निष्पक्ष नहो ,किसी का तरफदारी करे तो उसका परिणाम तो उसे भुगतना पड़ेगा ।
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
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    1. कालीपद प्रसाद जी ,
      भस्मासुर से याद आया शंकर ने भी बिना पात्रता का ध्यान किये भस्मासुर को वरदान दिया और तत्क्षण संकट में पड़े !
      सीख यह कोई भी गुरु भस्मासुर न बने इसके लिए भोले बाबा बने रहने की जरुरत नहीं है!

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    2. डॉ अरविन्द मिश्र जी, पहली बात भस्मासुर शिवजी का शिष्य नहीं था , न उसने शिवजी से कोई शिक्षा ग्रहण किया। उसने तपस्या के बल पर शिवजी को खुशकर उनसे वर माँगा था। भस्मासुर, असुर जाति का था इसको जानते हुए भी शिवजी ने उसको वर दिया। वर प्रभाशाली है कि नही ,इसका परिक्षण करना चाहता था . उसको कोई और नहीं दिखा तो वह शिवजी पर ही आजमाना चाहा।सभी दैत्य और राक्षस तपस्या कर शिव जी या ब्रह्माजी जी से वर प्राप्त किया और सभी उसका उपयोग देवतायों को प्रताड़ित करने में किया इसके वाबजूद भी ब्रह्माजी और शिव जी राक्षसों को और दत्यों को वर देते गए। ,जाति के आधार पर उन्हें वर से वंचित नहीं किया। वैसे ये सब काल्पनिक कहानियां है इसको आधार मानकर कोई नतीजा पर पहुँच नहीं सकते।

      आपने अपनी आलेख किस सन्दर्भ में लिखा है यह तो मुझे पता नहीं है।यदि यह किसी अनुभव के सन्दर्भ में है तो इसपर मैं कोई टिप्पणी करना नहीं चाहूँगा क्योंकि हरेक व्यक्ति का परिस्थितिजन्य अनुभव अलग अलग होता है। उसपर टिपण्णी करने के पहले पूरी बात की जानकारी होना जरुरी है।

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  13. जिन परसुराम-द्रोण आदि गुरूओं का जिक्र यहां हो रहा है वे कोई पैसे लेकर टयूशन पढ़ाने वाले सामान्य व्यक्ति नहीं युग दृष्टा लोग हैं। जरा सोचिए यदि दुर्योधन गरीब एकलव्य को भी धन का प्रलोभन देकर अपना मानसिक दास बना लेता जैसा कि अवसर मिलते ही कर्ण के साथ किया तो आज क्या वही इतिहास होता जो आज है।

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  14. एक दाव तो बिल्ली भी बचा लेती है, नहीं सिखाती.

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  15. पात्रता आजकल तो बिन पेंदे के ही हो गयी है।

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  16. सुपात्र की खोज कैसे हो यही सबसे बड़ी समस्या है ....और डोनेशन ...???????




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  17. का हो गया डॉक्टर साहेब ?
    गुरु गुड़ और चेला पोटेशियम सईनाइड हो गया क्या ?
    ये तो था मज़ाक :)

    मुझे नहीं लगता कि किसी भी गुरु को पात्रता देखनी चाहिए। कुपात्र को जो सुपात्र बनाए वही तो असली गुरु है। एक इंटेलिजेंट स्टूडेंट को कोई भी गुरु सिर्फ गाईड करे तो वो खुद ही सही राह चुन लेगा, लेकिन जो भटका हुआ विद्यार्थी है, गुरु की आवश्यकता उसे ही होती है। और अगर सारे गुरु सुपात्र की तलाश में लग गए तो उनका क्या होगा जिनको लोग 'कुपात्र' कहते हैं ?
    रही बात द्रोणाचार्य और परशुराम की तो वो लोग तो मुझे यूँ भी पसंद नहीं हैं ।

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    1. स्वप्न जी,
      कोई भी गुरु नहीं चाहता कि उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान का दुरूपयोग हो-शिष्य कदाचारी बन जाय
      इस पोस्ट को केवल इस दृष्टि से देखा जाय!

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  18. इंटरनेट के जमाने में पात्र की खोज?

    भई, मेरी सलाह तो ये है कि आप अपना सारा ज्ञान यहाँ नेट के सागर में उंडेल दो, जो भी पात्र होगा वो ढूंढ ढांढ कर उसका लाभ ले लेगा, और अपात्र को तो ख़ैर यही समझ ही नहीं आयेगा कि ढूंढा कैसे जाए! :)

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    1. रतलामी जी ,
      यह एक वैश्विक विवाद है -ज्ञान का मुक्त कंठ से दान या फिर उसकी कोई कीमत हो -क्योंकि ज्ञान भी तो एक संपदा के रूप में अब देखा जाता है -बौद्धिक संपदा! हर संपदा का कोई मूल्य तो हो ही -कम से कम इतना तो अवश्य कि उसका दुरूपयोग न हो !
      इन दिनों मुक्त वेयर आन्दोलन भी उरूज पर है ! मगर हम तो केवल यह चाहते हैं कि बौद्धिक संपदा जिसकी भी हो उसे कम से कम उसकी क्रेडिट तो मिले ? क्या आप असहमत हैं इस बात से ? क्या उन्मुक्त जी के ब्लॉग से कुछ चुरा कर(और उनके चुराए जाने जैसी सामग्री बहुत है और वे कापी लेफ्ट की वकालत भी करते हैं )कोई अपने नाम से छाप दे तो यह उचित होगा ?

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  19. सतगुरु बपुरा क्या करै , जे सिषही माहै चूक
    पर चूक देख कर काहे नहीं , गुरु होवै मूक?

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  20. en achhe vishay par sarthak vimarsh karne ke liye abhar.....

    bahu achha laga padhkar-gunkar....


    pranam.

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  21. very few possess the right quality these days..
    and with all that mask of fake but flawless behavior.. deception is easy these days

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  22. कहा कलजुग मे द्वापर त्रेता को लै के बैठे है. वो चेला कोई चेला है जो गुरु से दस नम्बर आगे ना हो...एक्लब्य और कर्ण का उदाहरण न दीजिये.. ये कम्युनिस्टो के प्रिय पात्र है.. अभी आप छेंक लिये जायेंगे (प्रलेस वालो ने देखा तो नही)
    ... वैसे आपका कोई चेला आकर इस विषय पर स्पष्टीकरण दे तो सुहाय. अन्यथा आज देख नही रहे केजरीवाल ने कैसे कान काटे अन्ना के...
    ई सब नार्मल हुयी गवा है.. अब जल्द प्रभु अवतार लेके गुरुद्रोही चेलो से मुक्ति दिलाने वाले है

    (आजकल मै भी द्रोही चेलो से पीडित हू सो .....अब इस टीप से मन हल्का हुआ)
    आभार बडे भईया

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  23. दोनों का सुपात्र होना आवश्यक है

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  24. इस व्यथा को समझा जा सकता है , हालाँकि सन्दर्भ से अनभिज्ञ हूँ ! गुरु गुड और चेला शक्कर हो जाए तो सबसे पहली प्रसन्नता गुरु को ही होती है मगर वही जब जड़ों में कुल्हाड़ी चलाये तो दुःख स्वाभाविक है .
    हम तो खैर गुरु चेले झंझट में होते ही नहीं है न, मगर कुछ गुरुओं को देखा है परेशान होते !

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  25. कई बार गुरु जानबूझकर चेलों को आगे नहीं बढ़ने देते. जो अच्छा नहीं है. मेरा मानना है चेला गुरु से आगे जाए तो उसमे गुरु का नाम भी ज्यादा होता है. लोग कहते हैं इसका गुरु कैसा होगा जो ऐसा चेला ठोक पीट के बनाया है. पर गुरु से आगे जाएँ साधना करने के बाद. शोर्टकट से जाना गलत है.

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