संस्कृत के एक महान कवि हुए हैं भवभूति . उन्हीने कहा है यह - एको रसः करुण एव -मतलब करुणा ही प्रबल मानव भाव है ! क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार दिए जाने पर आदि कवि वाल्मीकि की वाणी से भी सहसा करुणा ही फूट पडी थी जिसके लय छंद में ही पूरी रामायण लिखी गयी ! कवि सुमित्रानंदन पन्त ने करुणा के महात्म्य को कुछ यूं बुलंद किया -वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान ,उमड़ आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान ! शायद वाल्मिकी को ही स्मरण कर रहे थे वे ....अब भवभूति के भाव को भाव न देने की मेरी क्या बिसात है मगर इस अकिंचन को सदा लगता रहा है कि करुणा नहीं मनुष्य का प्राबल्य भाव श्रृंगार होना चाहिए ! क्योंकि दुःख ,करुणा तो मनुष्य का चिर साथी है -यह दुनिया दुखमय ही है -महात्मा बुद्ध भी कह गए हैं ! तो फिर हर पल का वही रोना कलपना तो नी रस हुआ न ? रस कैसे हो गया ? तो यह खाकसार सौन्दर्य को ही प्रबल रस मानता है ! सच कहूं इस रस के आगे सब रस धूरि समान लगते हैं ! और श्रृगार रस ही तो है न जिससे यह दुनिया तमाम रोने धोने के बाद भी चलायमान है -ऊर्जित है -सृजनशील है ! क्यों ,आपको क्या लगता है ? एक विलासी का आत्ममुग्ध एकालाप कि कुछ वजनदार बात ?
तो असल बात यह कि इन दिनों मैं हिन्दी का सौन्दर्य शास्त्र बाँच रहा हूँ -बल्कि पिछले एक साल से यह अध्ययन चल ही रहा है -कुछ बानगी तो सुधी जन यहाँ और यहाँ देख भी चुके हैं -इसी बीच मैं अलीगढ़ गया और वहां यह जानकारी पाकर की डॉ .छैलबिहारी लाल जी अभी हैं -मैं गदगद हो उठा और उनसे मिलने को एक कार्यक्रम सेशन को तत्क्षण छोड़ भाग चला ! वे चिरायु -शतजीवीं हों -डॉ छैल बिहारी लाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय की जो हिन्दी की पहली डी. लिट डिग्री हथियाई वह सौन्दर्य शास्त्र पर ही थी -बोले तो एस्थेटिक्स पर ! Studies in Naykaa -Nayika -bheda (1967) ,यह उदारमना गुणग्राही व्यक्तित्व अब जीवन के नब्बे शरद वसंत देख चुका है और आज भी उनकी वही चमकती ,कुछ ढूंढती आँखों का मोहक व्यक्तित्व अपनी ओर सहज ही आकर्षित करता है . न जाने क्यों इन्होने अपना नाम बदल कर डॉ राकेश गुप्त कर लिया और ज्यादातर इसी नाम से जाने जाते हैं -जाने क्या जाते हैं जीते जी एक किंवदंती हैं !
यह १९९२ की बात है जब मैं नौकरी की एक अनिवार्य दो वर्षीय ट्रेनिंग लेने मुम्बई (तब बम्बई ) गया हुआ था ,एक दिन मुझे मिली एक चिट्ठी ने विस्मित कर दिया ! यह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मेरे पूर्व प्रवास के हास्टल से पुनर्निर्देशित हो मिली एक टंकित चिट्ठी थी जिसमें १९८९ में धर्मयुग में छपी मेरी कहानी "एक और क्रौंच वध " को नवें दशक की श्रेष्ठ कहानियों और १९८९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित होने की पुलकित करती घोषणा थी -नीचे दस्तखत -डॉ राकेश गुप्त ! मैं जाहिर था फूल कर कुप्पा जैसा हो गया था ! फिर तो खतो किताबत शुरू हुई डॉ गुप्त से -उन्होंने मुझे 'नवें दशक की श्रेष्ठ कहानियां 'जो मेरे बुक सेल्फ की शोभा आज भी बढा रही है भेजी और बाद में मेरे अनुरोध पर ग्रंथायन प्रकाशन अलीगढ़ से छपी अपनी जीवनी -देखे सत्तर शरद बसंत भेजी , जो एक तरह से तत्कालीन उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग की कारस्तानियों का कच्चा चिट्ठा भी है! उनका नववर्ष काव्यमय कार्ड हमेशा बिना नागा आता रहा मगर कुछ वर्षों से यह क्रम अवरुद्ध हो गया था -मेरे ट्रांसफर आदि के चलते भी !
तो जब पिछले वर्ष मैं अलीगढ़ एक विज्ञान संचार कार्यशाला में गया तो स्थानीय प्रतिभागियों से आशंकित सा डरते डरते उनके बारे में पूंछा और मेरे आह्लाद की कोई सीमा न रही -वे मौजूद हैं सुनकर मैंने कार्यशाला सत्र छोड़ दिया -भाग चला उनसे मिलने ! यह हमारा प्रथम मिलन था ! दोनों खूब मिल बैठे , उनकी अपनी सुनी सुनाई ! उन्होंने बच्चों से कहकर खूब आदर सत्कार किया ,खिलाया पिलाया ! पूरा परिवार ही बहुत शिष्ट सुसंस्कृत ! आते समय अपनी पुस्तक "षोडश नायिका' -The Sixteen Heroines ( 1992,नवयुग प्रेस ,अलीगढ़ ) सौंप दी ! अब अंधा क्या चाहे बस दो आँखे ! मैंने पुस्तक पाकर उनका चरण स्पर्श किया और आशीर्वाद लेकर चल पड़ा अपने स्थानीय प्रवास -डेरे पर -उत्कंठा ऐसी कि एक नजर तो रास्ते में ही पूरी किताब पर डाल ली और वापसी ट्रेन यात्रा में तो सांगोपांग, आकंठ रसपान कर ही डाला !
यह १९९२ की बात है जब मैं नौकरी की एक अनिवार्य दो वर्षीय ट्रेनिंग लेने मुम्बई (तब बम्बई ) गया हुआ था ,एक दिन मुझे मिली एक चिट्ठी ने विस्मित कर दिया ! यह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मेरे पूर्व प्रवास के हास्टल से पुनर्निर्देशित हो मिली एक टंकित चिट्ठी थी जिसमें १९८९ में धर्मयुग में छपी मेरी कहानी "एक और क्रौंच वध " को नवें दशक की श्रेष्ठ कहानियों और १९८९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित होने की पुलकित करती घोषणा थी -नीचे दस्तखत -डॉ राकेश गुप्त ! मैं जाहिर था फूल कर कुप्पा जैसा हो गया था ! फिर तो खतो किताबत शुरू हुई डॉ गुप्त से -उन्होंने मुझे 'नवें दशक की श्रेष्ठ कहानियां 'जो मेरे बुक सेल्फ की शोभा आज भी बढा रही है भेजी और बाद में मेरे अनुरोध पर ग्रंथायन प्रकाशन अलीगढ़ से छपी अपनी जीवनी -देखे सत्तर शरद बसंत भेजी , जो एक तरह से तत्कालीन उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग की कारस्तानियों का कच्चा चिट्ठा भी है! उनका नववर्ष काव्यमय कार्ड हमेशा बिना नागा आता रहा मगर कुछ वर्षों से यह क्रम अवरुद्ध हो गया था -मेरे ट्रांसफर आदि के चलते भी !
तो जब पिछले वर्ष मैं अलीगढ़ एक विज्ञान संचार कार्यशाला में गया तो स्थानीय प्रतिभागियों से आशंकित सा डरते डरते उनके बारे में पूंछा और मेरे आह्लाद की कोई सीमा न रही -वे मौजूद हैं सुनकर मैंने कार्यशाला सत्र छोड़ दिया -भाग चला उनसे मिलने ! यह हमारा प्रथम मिलन था ! दोनों खूब मिल बैठे , उनकी अपनी सुनी सुनाई ! उन्होंने बच्चों से कहकर खूब आदर सत्कार किया ,खिलाया पिलाया ! पूरा परिवार ही बहुत शिष्ट सुसंस्कृत ! आते समय अपनी पुस्तक "षोडश नायिका' -The Sixteen Heroines ( 1992,नवयुग प्रेस ,अलीगढ़ ) सौंप दी ! अब अंधा क्या चाहे बस दो आँखे ! मैंने पुस्तक पाकर उनका चरण स्पर्श किया और आशीर्वाद लेकर चल पड़ा अपने स्थानीय प्रवास -डेरे पर -उत्कंठा ऐसी कि एक नजर तो रास्ते में ही पूरी किताब पर डाल ली और वापसी ट्रेन यात्रा में तो सांगोपांग, आकंठ रसपान कर ही डाला !
प्रश्न है, श्रेष्ठ क्या है? उत्तर मिलता है -सत्यम् शिवम् सुंदरम्!
जवाब देंहटाएंलेकिन जब समझना चाहें, जानना चाहेँ तो बात सुंदरम् से आरंभ होती है। सुंदरता आकर्षण की प्रथम सीढ़ी है। वहीं से सब कुछ आरंभ होता है। किसी नवजात शिशु को देखते ही सब से पहली प्रतिक्रिया उस के सौन्दर्य से आरंभ होती है। विवाह के लिए किसी वर या वधु का चुनाव करना हो तो बाद उस के सौन्दर्य से आरंभ होगी। शिव और सत्य से साक्षात्कार बहुत बाद में होगा।
विज्ञान की दृष्टि से देखें तो प्रकृति ने प्रत्येक जीवधारी को सतत जीवन बनाने के लिए आवश्यक सौन्दर्य दिया है। एक ही स्थान पर अपने वृन्त से जुड़े फूलों को इतना आकर्षक और गंधपूर्ण बनाया है कि वे कीटों को आकर्षित कर सकें जिस से निषेचन की क्रिया हो कर जीवन आगे बढ़ सके।
आप पुस्तक को सांझा कीजिए। ज्ञान तो ज्ञान है। जीवन आगे बढ़ाइए।
bahut achchi lagi yeh charcha....
जवाब देंहटाएंdhanyawaad........
वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान। कवि की बात मुझे सत्य प्रतीत होती है। अक्सर जब हम पीड़ित होते हैं, मन अथाह वेदना से कम्पायमान हो रहा होता है तब मन करता है कि कलम कुछ बोले। आपने श्रृंगार की बात की, वह भी सत्य है लेकिन ऐसे पलों में उस सौंदर्य को भोगने का ही मन करता है। अब करुण रस होना चाहिए या नहीं यह तो आप लोगों का विषय है लेकिन अनुभव में ऐसा आता है कि जब करुणा उपजती है तब स्याही के रंग ही उसे रास्ता दिखाते हैं।
जवाब देंहटाएंसुंदर संस्मरण. ज्ञान साझा करने से जीवित रहता है , सो बताइये, कौन कौन हैं ये नायिकायें.
जवाब देंहटाएंआर्य,
जवाब देंहटाएंश्रृंगार तो सृष्टि राग है, सब कुछ नाच रहा है उसके स्वरों पर !
भारतीय मानस ने इसे बहुत गहनता से समझा। इतना अधिक समझा कि पूरा तंत्र ही विकसित कर दिया। मन्दिरों पर मिथुन मनुष्य और पशु प्रतिमाएँ क्या दर्शाती हैं ?
अस्तित्त्व को विलीन कर देने की उत्कंठा श्रृंगार में व्यक्त होती है। मनुष्य की चरम चाह तो मुक्ति है और विलीन होना सम्भवत: उस दिशा में प्रथम कदम।
लेखमाला प्रारम्भ करिए - अब कालिदास की परम्परा से आती है या वात्स्यायन से या आचार्य रजनीश से या एकदम नूतन ! यह तो समय बताएगा। लेकिन जो होगा वह सुन्दर ही होगा, यह विश्वास है।
बेहतरीन चर्चा...
जवाब देंहटाएंअच्छा sansmaran है और ये बात सच है ऐसे sansmarn पढ़ कर बहुत अच्छा लगता है .............
जवाब देंहटाएंबढ़िया यादगार पलो से सराबोर संस्मरण ...आभार
जवाब देंहटाएंआपका विचरोत्तेजक लेख पढ़ा |
जवाब देंहटाएंछोटे मुंह बरी बात होगी तो
माफ़ी चाहता हूं | जहाँ तक
मुझे समझ में आ रहा है,
श्रृंगार की तुलना में करुण रस
की उच्चता एक व्यापक
दृष्टिकोण में कही गयी बात है,
जिसकी ओर संकेत आ. राम
चन्द्र शुक्ल ने अपने निबंधों
में किया है | करुण रस में
पालन और रंजन दोनों वृत्तियाँ
हैं |
आपका लेख अच्छा
लगा | प्रसन्नता हुई |
बहस रुची |
धन्यवाद्...
अभी कुछ दिनों पहले ही भर्तहरी के श्रृंगार शतक से गुजरा हूं, उसे ना भूल जाइएगा। बाबू हरिदास वैद्य की टीका थी, आपके पास होगी ही।
जवाब देंहटाएंयह भी सही कहा कि करुणा भी कोई रस है, और हो भी तो मूक स्त्रियों को मुबारक, जिन्हें इस अप्रतिम सौंदर्य से भरपूर दुनिया में रोना धोना ज्यादा सूझता है। पता नहीं क्या समस्या है उन्हें, जबकि उनके सौंदर्य के पान हेतु उनके उपासक उनके चरणों में लोटने को तत्पर रहते हैं।
यह श्रृंखला अगली बार से शुरू कर रहे ही हैं आप। शुभकामनाएं।
समय के कुछ मित्रों को श्रृंगार लेखन की बहुत तलाश थी, उनको आपका लिंक भेज रहा हूं। आशा है निराश नहीं ही करेंगे उन्हें आप।
बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्तित्व हैं आप। आज की चर्चा से यह बखूबी जाहिर हो पाया है। अच्छा लगा यह जानकर कि आप कहानिया भी लिखते हैं। अगर यह नाचीज़ उनसे गुजरना चाहे, तो बताएं यह कैसे संभव हो सकता है।
शुक्रिया।
बहुत सुंदर लगा आप का यह संस्मरण.अदभुत... धन्यवाद
जवाब देंहटाएंश्रृंगार रस प्रभावित जरुर करता है ..करूणा गहरे पैठती है ...जैस ऑंखें सिर्फ देखती हैं ...दिल महसूस करता है ...माना जाता रहा है की बेहतर रचनाये दुःख और करुणा से ही उपजती हैं ...मगर श्रृंगार की महत्ता को भी गौण नहीं रखा जा सकता ...आप जरुर साझा करें ...!!
जवाब देंहटाएंआपके इस संस्मरण ने काफी प्रभावित किया. पुस्तक जरुर साझी करें.
जवाब देंहटाएंजो जस चाहे - किसी के हाथ श्रृंगार शतक आता है, किसी के नीति और किसी के वैराज्ञ शतक! :)
जवाब देंहटाएंश्रेष्ठता तो यहाँ रिलेटिव टर्म हुआ ! किसी के लिए श्रृंगार तो किसी के लिए करुण. रिलेटिव इसीलिए कह रहा हूँ कि क्या ऐसे व्यक्ति नहीं होंगे जिनके लिए वीरान वेदना इतनी मारक होगी कि वो श्रृंगार जीवन में कभी सोच ही ना पाते हों? या फिर श्रृंगार वाले क्या समझे वेदना. दोनों अपनी जगह सही हैं :) और आपकी अगली पोस्ट का इंतज़ार रहेगा ये कहने की आवश्यकता नहीं.
जवाब देंहटाएंयह पढ़कर तो एक काव्य रसधार बह चली भाई...बुधवारीय पोस्ट ऑफ समीर लाल का इन्तजार करिये...आपसे प्रेरणा प्राप्त है. यहाँ इसलिए नहीं ठेल रहा हूँ कि इल्जाम आप पर न जाये. आप तो मेरे अपने हो...वक्त के मुताबिक नहीं..हमेशा...मुद्दों से अलग भी तो दुनिया है न!! मुद्दा बेस सबंध हमारी पहचान नहीं. :) वो तो आज है और कल कहना पड़े कि उनकी क्या कहें!!
जवाब देंहटाएंजनता को इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
चलिए इसी बहाने आपने अपने गुरु छैल बिहारी लाल जी का परिचय भी करा दिया गुरु जी का स्मरण कर लिख मारिये रही बात रस की तो मधुर यानि मोहक मीठे रस का( बशर्ते डायबिटीज से आपकी इन्द्रियां शिथिल न हो गयी हो) ही बोल बाला है सो श्रृंगार से प्रारंभ करे करुणा रस वाले वैसे भी करुणा के पात्र हैं
जवाब देंहटाएंमेरा एक सुझाव है यदि आप अपने ब्लाग के किसी कोने में इन शब्दों जैसे परकीया स्वकीय प्रोशित्पेतिका आदि का शब्दार्थ भी देते चले तो लेखमाला को समझाने में साथ साथ आसानी होगी और शब्दों के अर्थ के लिए ही पुराने लेखो को देखना नहीं पड़ेगा
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंसंस्कृत साहित्य में श्रृंगार ही रसराज माना गया है और कुछ श्रृंगारप्रेमियों ने तो "उत्तररामचरितम्" के करुणरस को भी वियोग श्रृंगार सिद्ध करने का निरर्थक प्रयास भी किया है. आपने सही कहा है करुणरस तो जीवन की चिरन्तन धारा का एक कभी न समाप्त होने वाला भाव है. दुःखों से भरे इस जीवन में संयोग श्रृंगार कुछ राहत प्रदान करता है और वियोग श्रृंगार तो करुण के समान ही दुःख से भरा है, परन्तु मिलन की आशा के साथ.
आपके लेख से डॉ. छैलबिहारी लाल के विषय में पता चला. आपका संस्मरण अत्यधिक रुचिकर लगा.
मुक्ति जी ,
जवाब देंहटाएंजैसा मैंने कहा न आप विषय की मर्मग्य है अतः इस श्रृंखला के निर्विघ्न निर्वाह में अब आपका योगदान भी निवेदित है !
डॉ .छैलबिहारी लाल ने अपना एक और नाम अकादमीय संदर्भों के लिए रख लिया था -डॉ राकेश गुप्त .और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी के पहले डी लिट हैं !
अपनी तमाम इधर-उधर की व्यस्तताओं में इस अद्भुत श्रंखला की शुरूआत छुटी रह गयी थी।
जवाब देंहटाएंछैल बिहारी जी का राकेश गुप्त वाला परिचय मेरे लिये किसी रहस्योद्घाटन से कम न था...
पछता रहा हूँ कि नौकरी की व्यस्तता और कम्प्यूटर जी की बीमारी के कारण इस अद्भुत श्रृंखला की शुरुआती कड़ी तक आज ही पहुँच पाया।
जवाब देंहटाएंयह बहुत बढ़िया काम हो रहा है। साधुवाद।
ओह, इधर खासा व्यस्त/अव्यवस्थित रहा; आपकी श्रृंगार वाली सीरीज कब शुरू हो गयी जान नहीं सका...
जवाब देंहटाएं"करुणा में जब हम कलप रहे होते हैं..तो मन-ह्रदय के भीतर किसी मधुर पल की स्मृतियाँ ही तो हिलोर मार रही होती हैं...पर करुणा में हम सघन रूप से प्रवृत्त होते हैं, अभाव, भाव से ज्यादा खटकता है ना इसलिए...सो करुणा की महिमा ज्यादा हुई...वैसे सृजन की गुंजायश तो हर स्पंदन में होती है..."
"...हम अभी-अभी जवान हो रहे लोगों के लिए तो बेहद जरूरी/अच्छी चर्चा चलायी,, महामना ने....":)