हिमांशु की एक कहानीनुमा कविता ने मुझे स्वर्गीय पिताजी की एक कविता की याद दिला दी -आप भी देंखें शायद अच्छी लग जाय !
उर्वशी
मंद मुस्काती छटा में करुण क्रंदन की कहानी
मद भरे आंखों में अंकित विवशता की मूक वाणी
नूपुरों के कलरवों में चीखता संगीत का स्वर
चितग्राही हर अदा पर घुट रहा यौवन निरंतर (१)
विवशता की इस चिता पर इन्द्रधनुषी स्वप्न जलते
प्रणय के इतिहास मिटते बन्धनों के बंध हसते
रूप यौवन साधना का दुखद परिणति घुटन ही है
प्रेम और श्रृंगार का अभिशप्त संगम जलन ही है (2 )
सर्वगुण संपन्न होकर उर्वशी साधन बनी क्यों
संगीत की देवी न जाने विषय की प्रतिमा बनी क्यों
कोटि उर मे बस रही जो ह्रदय अपना रिक्त रखती
इन्द्र की आराधना में साधना को भ्रष्ट करती (३)
देवता दानव मनुज की वासना का नग्न चित्रण
सिसकती संवेदना में भावना सौदर्य मिश्रण
उर्वशी सौन्दर्य गंगे ,सृष्टि का उपहास है तू
इन्द्र की वैभव शिखा पर अश्रु की बरसात है तूं (4)
सतत शाश्वत लग रही है आज भी तेरी कहानी
युद्ध हो या शान्ति हो तुम हो वही माध्यम पुरानी
सृष्टि की सर्वोत्तमें तुम भ्रष्ट करती ही रही हो
कुछ नहीं तेरा पर इतिहास रचती ही रही हो (5)
पतित करना ही तुम्हारी साधना का साध्य क्यों है
जो तुम्हे साधन बनाता फिर वही आराध्य क्यों है
वेद शास्त्र -पुराण हो या डार्विन फ्रायड की कथाएँ
उर्वशी जीवित रहेगी साथ ही उसकी व्यथाएं (६)
सभी जीवों का कोई आदर्श भी है लक्ष्य भी है
पर तुम्हारी अस्मिता का अर्थ क्या दासत्व ही है
सोचने पर लग रहा है तुम कहीं कुछ भी नहीं हो
मात्र शाश्वत कामना हो उर्वशी संज्ञा बनी हो (७)
डॉ राजेन्द्र प्रसाद मिश्र (१९६१)
यह कविता १९६१ में हिन्दी विभाग,कलकत्ता विश्वविद्यालय की भित्ति पत्रिका में तब
प्रकाशित हुयी थी जब प्रोफेसर कल्याण मल लोढा जी विभागाध्यक्ष थे ! अभी तो यह
राजेन्द्र स्मृति(२०००) से ली गयी है जिसके सम्पादक साहित्य वाचस्पति डॉ . श्रीपाल सिंह क्षेम जी हैं .
उर्वशी
मंद मुस्काती छटा में करुण क्रंदन की कहानी
मद भरे आंखों में अंकित विवशता की मूक वाणी
नूपुरों के कलरवों में चीखता संगीत का स्वर
चितग्राही हर अदा पर घुट रहा यौवन निरंतर (१)
विवशता की इस चिता पर इन्द्रधनुषी स्वप्न जलते
प्रणय के इतिहास मिटते बन्धनों के बंध हसते
रूप यौवन साधना का दुखद परिणति घुटन ही है
प्रेम और श्रृंगार का अभिशप्त संगम जलन ही है (2 )
सर्वगुण संपन्न होकर उर्वशी साधन बनी क्यों
संगीत की देवी न जाने विषय की प्रतिमा बनी क्यों
कोटि उर मे बस रही जो ह्रदय अपना रिक्त रखती
इन्द्र की आराधना में साधना को भ्रष्ट करती (३)
देवता दानव मनुज की वासना का नग्न चित्रण
सिसकती संवेदना में भावना सौदर्य मिश्रण
उर्वशी सौन्दर्य गंगे ,सृष्टि का उपहास है तू
इन्द्र की वैभव शिखा पर अश्रु की बरसात है तूं (4)
सतत शाश्वत लग रही है आज भी तेरी कहानी
युद्ध हो या शान्ति हो तुम हो वही माध्यम पुरानी
सृष्टि की सर्वोत्तमें तुम भ्रष्ट करती ही रही हो
कुछ नहीं तेरा पर इतिहास रचती ही रही हो (5)
पतित करना ही तुम्हारी साधना का साध्य क्यों है
जो तुम्हे साधन बनाता फिर वही आराध्य क्यों है
वेद शास्त्र -पुराण हो या डार्विन फ्रायड की कथाएँ
उर्वशी जीवित रहेगी साथ ही उसकी व्यथाएं (६)
सभी जीवों का कोई आदर्श भी है लक्ष्य भी है
पर तुम्हारी अस्मिता का अर्थ क्या दासत्व ही है
सोचने पर लग रहा है तुम कहीं कुछ भी नहीं हो
मात्र शाश्वत कामना हो उर्वशी संज्ञा बनी हो (७)
डॉ राजेन्द्र प्रसाद मिश्र (१९६१)
यह कविता १९६१ में हिन्दी विभाग,कलकत्ता विश्वविद्यालय की भित्ति पत्रिका में तब
प्रकाशित हुयी थी जब प्रोफेसर कल्याण मल लोढा जी विभागाध्यक्ष थे ! अभी तो यह
राजेन्द्र स्मृति(२०००) से ली गयी है जिसके सम्पादक साहित्य वाचस्पति डॉ . श्रीपाल सिंह क्षेम जी हैं .
वेद शास्त्र -पुराण हो या डार्विन फ्रायड की कथाएँ
जवाब देंहटाएंउर्वशी जीवित रहेगी साथ ही उसकी व्यथाएं (६)
" उर्वशी को कन्द्रीय पात्र बना उसके होने की कल्पना या न होने का सत्य , उसका रूप श्रृंगार , विवशता ,संवेदना, दासत्व और भी बहुत कुछ की जिस तरह इन शब्दों मे बंधा गया है.... वह अकल्पनीय है ....इतना सुंदर और सजीव चित्रण जैसे शब्दों मे साक्षात् उर्वशी उतर आई हो....पिता जी को शत शत प्रणाम"
regards
sunder abhivykti hai is shabdshilpi ko slaam
जवाब देंहटाएंसुंदर,सजीव चित्रण. पिता जी को शत शत प्रणाम"
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar likha hai aapne...
जवाब देंहटाएंपतित करना ही तुम्हारी साधना का साध्य क्यों है
जवाब देंहटाएंजो तुम्हे साधन बनाता फिर वही आराध्य क्यों है
वेद शास्त्र -पुराण हो या डार्विन फ्रायड की कथाएँ
उर्वशी जीवित रहेगी साथ ही उसकी व्यथाएं (६)
यह पंक्तियाँ बहुत बढ़िया लगी ..इसक पढ़वाने के लिए धन्यवाद
पतित करना ही तुम्हारी साधना का साध्य क्यों है
जवाब देंहटाएंजो तुम्हे साधन बनाता फिर वही आराध्य क्यों है
पिताजी को नमन !
पिता जी को सादर नमन. इस अन्यतम कविता की प्रस्तुति के लिये आपका बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंमेरी कहानीनुमा कविता के उल्लेख से उसका लिखना सार्थक हुआ. विनयावनत.
राजेन्द्र स्मृति(२०००) के सम्बन्ध में कुछ बतायें.
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी शुक्रिया इतनी अच्छी कविता पढ़वाने के लिए ।
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी सुंदर कविता के रचियता को, ओर आप ने पिता जी को सादर प्राणाम, आप का धन्यवाद इस सुंदर कविता को हम तक पहुचाने के लिये
जवाब देंहटाएंमिश्र जी, आपके पिताजी को नमन।
जवाब देंहटाएंकविता ने दिनकर जी की ऊर्वशी याद दिला दी।
डॉ राजेन्द्र प्रसाद मिश्र जी की कविता बहुत पसँद आई - यहाँ प्रस्तुत करने के लिये आभार आपका
जवाब देंहटाएंमकर सँक्रात शुभ हो गई -
" वेद शास्त्र -पुराण हो या डार्विन फ्रायड की कथाएँ
उर्वशी जीवित रहेगी साथ ही उसकी व्यथाएं (६)"
अनेकोँ शुभकामनाएँ ~~~
बहुत ही अभिव्यंजक है आपके पिताजी की कविता। उन्हें शत शत नमन्। कई सारे सवाल खड़ी करती है कविता, जिनका उत्तर तलाशने में दिल और दिमाग में उथल-पुथल लगता है। इतनी अच्छी रचना पढ़ाने के लिए हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता है. आदरणीय पिताजी को नमन. उनके बारे में और जानने की इच्छा है.
जवाब देंहटाएंआपके पिताजी को नमन।
जवाब देंहटाएंसृष्टि की सर्वोत्तमें तुम भ्रष्ट करती ही रही हो
जवाब देंहटाएंकुछ नहीं तेरा पर इतिहास रचती ही रही हो-
वेद शास्त्र -पुराण हो या डार्विन फ्रायड की कथाएँ
उर्वशी जीवित रहेगी साथ ही उसकी व्यथाएं
उर्वशी कविता पसंद आई..
उच्चस्तरीय चिंतन..
बहुत ही खूबसूरती से बहुत कुछ कह दिया है..
यह उर्वशी..हर काल -हर युग --हर जगह --रहती है--
डॉ राजेन्द्र प्रसाद मिश्र जी की कविता प्रस्तुत करने हेतु धन्यवाद.
उनको मेरा सदर नमन
बहुत सुन्दर कविता, हालॉंकि इसे पहले ही पढ लिया था, पर किन्हीं कारणवश टिप्पणी नहीं कर पाया था।
जवाब देंहटाएंइस सुन्दर कविता को पढवाने के लिए आभार।
पढ़ा, उर्वशी के बारे में बचकर न निकल पाने की आपकी बात सत्य ही लगती है, जीवन में भी, साहित्य में भी।
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