महापुरुषों ने कभी कभार कुछ ऐसे भी सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं जिन्हें व्यवहार में लाना असंभव नहीं तो बेहद कठिन जरुर है .अब गांधी जी को ही ले लीजिये -कहते थे अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा जड़ दे तो तुम अपना दूसरा गाल आगे कर दो ..मगर अगर वह दूसरे पर भी जड़ दे तो ..इसके बारे में गांधी जी या तो विचार करने से चूक गए या फिर यह सुनिश्चित नहीं कर पाए की गाल के बाद का दूसरा अंग उपांग क्या हो या फिर दस्तावेजों में इस बात का जिक्र छूट गया .... शायद इन्ही सब कन्फ्यूजन के कारण बापू का यह सिद्धांत भी अमली जामा नहीं ले सका... अब ऐसे ही एक सिद्धांत है रहीम साहब का -रहिमन वे नर मर चुके जो कहुं मांगन जायं ,उनसे पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाहिं ... अब इस सिद्धांत का व्यवहार में लाना कितना कठिन है यह वही समझ सकता है जिसे मंगतों के सामने जेब ढीली करनी पड़ जाती है और वह भी अपने महापुरुषों की मर्यादा बचाने के धर्मसंकट में ...मैंने खुद भी रहीमदास जी के इस सिद्धांत पर जीवन में अमल करने के चक्कर में बहुद कष्ट सहें हैं, आत्मा को दुःख पहुचाया है ताकि अपने कम से कम एक महापुरुष के वचन का प्रमाण बना रहे ...कबीरदास भी एक ऐसी ही बानी बोल गए हैं -कबिरा आप ठगाईए और न ठगिये कोय और ठगे दुःख होत है आप ठगे सुख होय ....मैंने भी जीवन में बराबर लोगों को खुद ठगा उठने का बदस्तूर मौका दिया है मगर दुःख है की मुझे कभी भी खुद को ठगाए जाने में सुख की अनुभूति नहीं हुई....शायद मुझमें ही कोई बड़ी कमी रह गयी है -मनसा वाचा कर्मणा कोई तो कमी जरुर रह गयी है अन्यथा महापुरुषों के वचन प्रमाणित न हों ऐसा कैसे हो सकता है ....कभी कभी लगता है महापुरुष भी कोई चौबीस घंटे के महापुरुष थोड़े ही रहे होंगे -किसी क्षण की सामान्य विवेकहीन मनुष्यता में कुछ ऐसी बात बोल गए होंगे जो उन्हें बाद में खुद भी याद नहीं रही होगी -अन्यथा वे सुधार जरुर कर लिए होते ...
मैं मंगतों की बात कर रहा था -शायद वे रहीमदास के सबसे बड़े अनुयायी रहे हैं ..वे निश्चय ही रहीमदास को कुलगुरु मानते होंगें जिन्होंने उनकी मदद में एक ऐसा मूल मन्त्र थमा दिया है जिसके चलते उनकी रोजी रोटी चल रही है -मांग लेने पर कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा ,अन्यथा अगला मृतक के समान नहीं हो जाएगा? मुझे लगता है माँगना महज दरिद्रता या पेशे से नहीं जुड़ा है जैसे भिखारी या फिर कर्मकांडों के माहापात्र और धर्म स्थानों के पण्डे या ररे -ये सब अपनी दरिद्रता या पेशे के कारण मांगते हैं ...हमारे जौनपुर में एक जगह है- कुल्हनामऊ-जहाँ के मंगते कुल्हनामऊ के ररा के नाम से विख्यात हैं-आपके पीछे पड़ जायं तो दमड़ी के साथ चमड़ी भी उधेड़ लें -जनता जनार्दन उनसे सहज ही आतंकित रहती है ....मगर इनकी पेशागत मजबूरिया हैं जिनके चलते वे इस निषिद्ध कर्म में लगे हैं.मगर उनका क्या जिनमें मागने की नैसर्गिक प्रवृत्ति है ....जैसे आपका पड़ोसी ...
हमारा यह सौभाग्य रहा है अब तक के जीवन में हमारे ऐसे पड़ोसी मिलते रहे हैं जिन्होंने हमें बराबर रहीमदास के उपरोक्त सिद्धान्त के मर्म को समझाये रखा है और बार बार हमें "जिन मुख निकसत नाहिं " की याद दिलाकर मरण से बचाये रखा है -मतलब वे जानते हैं की मिश्रा जी का परिवार मांगने वाले को मुक्त हस्त देते रहने के फिलासफी में "रघुकुल रीति सदा चलि आई ....प्राण जाय पर वचन न जाई " की सीमा तक उदार है ...सच तो यह है कि हमारे पड़ोसी सहज ही हमारी इस नैसर्गिक क्षमता को भांप लेते हैं ...और हम ठगे से रह जाते हैं ठगा जाते हैं ठगाए जाते रहते हैं ....हमारे ऐसे मंगता पड़ोसियों में कई बार तो हमसे भी ज्यादा वेतनादि पाने वाले भी रहे हैं मगर अपने पूरे परिवार को मंगता धर्म में पूर्णतया दीक्षित और निष्णात किये हुए हैं ..कालबेल बजते ही एक प्रबल संभावना पड़ोसी द्वारा कुछ मांगने की आशंका होती है जो दस बार मे कम से कम तीन बार सच साबित होती है ..हर कालबेल रिंग के साथ हम दिल को मजबूत करने में जुट जाते हैं ....अब तो मैं उनके सामने कुछ पागलों जैसा व्यवहार करने लगा हूँ -इसलिए नहीं कि इच्छित वस्तु उन्हें न देने की मंशा रखता हूँ मगर अब बार बार खुद को मृतक साबित न होने की एक्टिंग से ऊब चुका हूँ -पत्नी जी मेरे मनोभावों को समझने लगी हैं इसलिए वे तुरंत ही आगे आकर स्थिति संभालती हैं और मैं पागलों सा कुछ आयं सायं बोलता वापस हो लेता हूँ ...
पड़ोसी द्वारा मांगी जाने वाली खाद्य वस्तुओं में चाय चीनी आंटा के साथ कभी कभी नमक भी होता है ..हमारेगाँवों में अभी भी एक कहावत है कि नावं गाँव इतना बड़ा घर में नूनै नाय -लेकिन कहा ना कि यह एक प्रवृत्ति है जो लोगों को हमेशा कुछ न कुछ मांगने को उकसाती रहती है ...खाने के सामान के साथ ही अखबार ,गोंद,लिफाफा ,हथौड़ी आदि भी मांग लिए जाते हैं ..अभी कल ही तो पड़ोसी ने पिलास की मांग की ..मैं समझते हुए भी उनसे यह समझने की कोशिश करता रहा कि इसकी संरचना कैसी होती है तब तक पत्नी जी ने लाकर उसे थमा दिया ..पता नहीं वह अभी तक लौटाया भी गया कि नहीं -पोस्ट पूरी होते ही पता लगाता हूँ -एक दिन मैंने दरवाजा खोला तो अखबार की फरमाईश हुई ..हाथ में ही था मैंने तुरंत थमा दिया ...तुरंत फिर कालबेल बज उठी ..अब क्या ?... कुछ अखबार और दे दीजिये ..मतलब ? कल का ? ..नहीं नहीं कोई भी चलेगा ? अब मेरा माथा ठनका ..क्या पुराना अखबार चाहिए? हाँ हाँ रैक पर बिछाना है ...मगर अभी तो मैंने आज का ही अखबार दिया था उसे वापस कीजिये ...मैंने तो उसे बिछाकर उसपर सामान रख दिया है ....बहरहाल स्थति संभालने पत्नी जी आ गयीं थीं ...
अब ऐसा मंगता पड़ोस मिल जाय तो एक ही जीवन में आपको बार बार पुनर्जीवन मिलता रहे ....यह कोई कम सौभाग्य है? इस लेख के शीर्षक पर मत जाईये ..वह तो तुकबंदी बिठाने के लिए है!
मिश्र जी, इधर भी यही हाल है।
जवाब देंहटाएंसच कहा पंडित जी । जब पडोसी ऐसे हों तो महापुरुषी स्वयं ही अंतिम साँस गिनने लगती है ।
जवाब देंहटाएंवैसे महापुरुष भी तो पुरुष ही थे ।
भिखारियों पर एक लघु कथा कल पढना मत भूलियेगा ।
एक दिन मैंने दरवाजा खोला तो अखबार की फरमाईश हुई ..हाथ में ही था मैंने तुरंत थमा दिया ...तुरंत फिर कालबेल बज उठी ..अब क्या ?... कुछ अखबार और दे दीजिये ..मतलब ? कल का ? ..नहीं नहीं कोई भी चलेगा ? अब मेरा माथा ठनका ..क्या पुराना अखबार चाहिए? हाँ हाँ रैक पर बिछाना है ...मगर अभी तो मैंने आज का ही अखबार दिया था उसे वापस कीजिये ...मैंने तो उसे बिछाकर उसपर सामान रख दिया है ...
जवाब देंहटाएं.....हा..हा..हा..बड़ा जोरदार लिखे हैं भैया। आनंद आ गया। गंभीर चिंतन के बीच जोरदार ठहाका का मजा देती जानदार पोस्ट। आखिर रंग ही गये बनारसी मस्ती के मूड में।
.....पड़ोसी मांगते हैं तो ठीक है मगर लौटाते नहीं यह बड़ा दुखदाई है। दो दिन से हथोड़ा ढूंढ रहा हूँ मिल नहीं रहा। आज देखता हूँ पड़ोस में..मुझे तो यह भी ध्यान नहीं कि मैने दिया भी था..पूछता हूँ क्या आपके पास हथोड़ा है ?
@ मगर अगर वह दूसरे पर भी जड़ दे तो ..इसके बारे में गांधी जी या तो विचार करने से चूक गए या फिर यह सुनिश्चित नहीं कर पाए की गाल के बाद का दूसरा अंग उपांग क्या हो .......
जवाब देंहटाएंआज तो कमाल का लिख मारा देव !!
आज आपकी लेखनी के प्रति वाकई थोड़ी सी जलन के साथ श्रद्धानत हूँ साथ में अपने ऊपर कुढ़न भी कि हमारे मगज में पहले आ जाती तो हम भी लिख दिए होते , माँ शारदा कि भक्ति आपने मन से की होगी भैया,
शारदा पूजा में हमारे फूल कुछ बासी तो नहीं थे ?? माली की गलती भुगत रहे हैं आज तक :-(
अक्सर आपकी और अली सा की पोस्ट ३- ३ बार पढने के बाद ही चेहरे पर रौनक आ पाती है !
कुल्हनामऊ का नाम सुनकर एकदम से दिमाग की घंटी बज गई :)
जवाब देंहटाएंबात दरअसल यूं है कि एक बार मै मुंबई से गाँव एक बैगपैक लेकर गया था। अक्सर बैगपैक की उपयोगिता तब सामने आती है जब पीठ पर टांग मोटरसाईकिल चलाना हो, ताकि दोनों हाथ खाली रहे।
एक दिन वही बैगपैक कंधे में टांग कर बाईक में किक मार रहा था कि तब तक गाँव के ही एक मनई ने टोक दिया
- ई कुल्हनामऊ वालन की नांई झोला काहे टांगे हउआ, अए तनि गत के मनई के नांय जा ....
उस वक्त तो मैने उनकी बात हंस कर टाल दी, क्या पता किसके बारे में कह रहे हैं....बाद में पीछे बैठे चचेरे भाई से पूछा कि वो क्या कह रहे थे, तो उसने बताया कि कुल्हनामऊ एक गांव है जहां पर कि भिखारी रहते हैं और अक्सर उनके किसी एक कंधे पर झोला टंगा रहता है। तुमने बैगपैक एक ही कंधे पर टांगा हुआ था इसलिये उस शख्स ने तुम्हारी तुलना कुल्हनामऊ वालों से कर दी।
उसके बाद तो समझ सकते हैं कि कितनी दिलखोल हंसी फूटी होगी :)
मस्त-मस्त पोस्ट !
हहहः विश्वास करिए बड़ा मज़ा आया पढ़ के, हाँ कभी-कभी स्थितियां थोड़ी सी भिन्न भी होती हैं , मुझे ही देख लीजिये जो मेरा पडोसी है मै चाहता हूँ कि वह बार-बार आये लेकिन यदा कदा ही ऐसा हो पता, मै तो पैरों की आवाज़ सुनकर खुश हो जाता हूँ की शायद मेरा पडोसी आया मेरे यहाँ . परेशां न होइए आल इस वेल .
जवाब देंहटाएं@ महापुरुष भी कोई चौबीस घंटे के महापुरुष थोड़े ही रहे होंगे.....
जवाब देंहटाएंसमय भी कैसे कैसों को महापुरुष बना देता है अरविन्द भाई सब किस्मत का मामला है ...आगे लिखने में भी भीड़ से डर लगता है :-)
जरा उस समय की कल्पना कीजिये, उस जमाने में, हरतरह के गुण अवगुणों से युक्त सामान्य बुद्धि के वे पुरुष भी भारतीय जनमानस, अनपढ़ और कुबड्डों के मध्य महामानव दिखते थे ! हमने उनमें से किसी को महात्मा किसी को भगवन और किसी को तो अवतार ही बना दिया !
पुरखों की आदिम बुद्धि को सादर गले से लगाए हम लोग उस समय चौंकने को बाध्य होते हैं जब डॉ अरविन्द मिश्र जैसे लोग हमें शीशा दिखाने का प्रत्न करते हैं !
मगर हमें क्या सोंचना महापुरुषों पर ?
सरसरी निगाह से अबूझे वाक्यों को छोड़ कर, दो लाइन का कमेन्ट ही तो देना है यहाँ गुरु अथवा घाघ कहकर.....
:-))
इतने महापुरुषों को पढ़ने का कुछ न कुछ तो निष्कर्ष निकलेगा ही।
जवाब देंहटाएं@ .हर कालबेल रिंग के साथ हम दिल को मजबूत करने में जुट जाते हैं...
जवाब देंहटाएंएक कहावत पर अमल आप भी करना शुरू कर दीजिये
"मांगी चीज कभी न दीजे जब मांगे तब ही दे दीजै
नहीं चोरी नहीं पाप , भूल जाए तो रक्खो आप"
यह हाल शायद देश के हर कोने मैं है..... कमाल सब चीज़ें इतने हक़ से मांगी जाती हैं किपूछिये मत..... खैर मुझे सबसे ज़्यादा अखरता है जब समय पर चीज़ें वापस नहीं लौटती....... ज़बरदस्त पोस्ट :)
जवाब देंहटाएंबड़ी जल्दी मोहल्ले में भाभी जी पापुलर और आप खडूस कहलाओगे ! :-))
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
आज खूब हंसाया आपने ....आभारी हूँ !
जवाब देंहटाएंखुशकिस्मत हैं की आपके पडोसी ने अखबार माँगा ,सर का मुकुट नहीं माँगा ...वर्ना तो धर्म का पालन करते हुए पहले ही चढ़ावे में दिया जा चुका होता ...
जवाब देंहटाएंपडोसी की नहीं पड़ोसियों की बात होनी चाहिए थी ...लेकर समय पर नहीं लौटाने की बात हो तो फिर समझ आती है , मगर लेकर गुर्राना ..
अब तो बस इस सोच में दिन गुजरते हैं की किस दिशा के पडोसी से ज्यादा सावधान रहना है !
@पढ़ते हुये गुदगुदी वाली हँसी रुक रुक आती रही। पिलास पर तो अभी भी हुँसक
जवाब देंहटाएंरहा हूँ। अब मुझसे 'हुँसक' की संरचना समझाने को न कहियेगा।
सादर,
गिरिजेश
@डॉ दराल साहब
जवाब देंहटाएंआप की लघुकथायें जरुर पढ़ेगें ..वे जोतदार होती हैं
@वाणी जी ,
जब सामने के पड़ोसी से कुछ बचें तब न पड़ोसियों की बात की जाय ..अकेले एक ने ही कंगाल बना दिया है -पोस्ट लिखने के बाद रिफाईन तेल की मांग आ गयी थी -मसालों में हल्दी जीरा आम है ..लगता है पूरी लिस्ट देनी होगी ..... :)
@गिरिजेश जी ,
संरचना समझ गया हूँ ..... :)
@सतीश सक्सेना जी ,
भाईजान औरों के हिस्से की भी टिप्पणियाँ यहीं लुटा डालेंगें क्या? कहीं यहाँ की दरियादिली और जगहं की तंगदिली न बन जाय ..
@डॉ दराल ,
जवाब देंहटाएं*जोरदार
मिश्रा जी यह हाल सब का हे,कई महापडोसी तो चीज ले कर भुल ही जाते हे,फ़िर चीज वापिस मांगने जाओ तो चीज उन की हो जाती हे...
जवाब देंहटाएंवैसे अगर पडोसन कुछ मांगने आये ओर खुब सुरत हो तो... मिश्रा जी :) तब भी यही शिकायत होगी?
सब तरह के लोग मिल जाते हैं एक ही जगह पर ।
जवाब देंहटाएंyahan to padosi ka naam bhi nahi pata hota :)
जवाब देंहटाएंपड़ोसी का सर्वनाम न जाने किस पर लागू हो जाए, जैसे हम, तुम और वो.
जवाब देंहटाएंहा हा , मस्त पोस्ट , ऐसा लग रहा है की मै अपने आपको को आपकी दशा में देख पा रहा हूँ . ऐसे पडोसी आजकल हर जगह पाए जाते है .
जवाब देंहटाएंअरविंद जी,
जवाब देंहटाएंवैसे तो इस पोस्ट को निर्मल हास्य के रूप में ही लिया हूं लेकिन टिप्पणियां पढ़कर मुझे कुछ यूं लग रहा है जैसे ब्लॉगर लोग सम्पन्न टाईप के होते हैं, उन्हें किसी चीज के मांगने आदि की कभी जीवन में आवश्यकता ही नही पड़ती :)
Anyway, आप तो अपने गांव के ही हैं, इतना तो जानते होंगे कि गाँव देस में अक्सर सुविधाएं Barter system के तहत अब भी चलती हैं। वहां कोई कितना भी सम्पन्न क्यों न हो, ऐसी एकाध वस्तु निकल ही आती है जब दूसरे का मुंह जोहना पड़ता है। मसलन यदि आप का खेत आपके पम्पिंग सेट से दूर है तो आप पानी वहां के किसी नजदीकी किसान के पम्पिंग सेट से मांग कर लेते हैं, बदले में जो चार्ज लगे लेकिन कभी कभी ये भी होता है कि बिना चार्ज के ही खेतों में पानी की सुविधा करवानी पड़ती है, बदले में वो लोग अधिया कटिया की लागत चाहै जैसे लें, it depends कि कैसे क्या....
दूसरा उदाहरण सिलबट्टे का दूंगा.... कभी कभी विवाह आदि के दौरान मसाला पीसने हेतु ढेर सारे सिलबट्टों की जरूरत पड़ती है, क्योंकि घर का सिलबट्टा तो मंडवे के पास रखा जाता है, ऐसे में
चीजों का एक्सचेंज मोड सक्रिय हो जाता है :)
(वैसे आजकल पिसा पिसान मसाला इस्तेमाल होने लगा है, जिसके चलते सिलबट्टा लुप्तप्राय श्रेणी में आ गया है औऱ लुप्त हो गई है गंवई सामाजिक लेन देन की परंपरा )
निर्मल हास्य के तहत ही इस टिप्पणी को भी स्वीकार करें :)
बेचारे कुल्हनामऊ वाले! बद अच्छा बदनाम बुरा!
जवाब देंहटाएंवैसे, हम तो महापुरुषों को उतना ही पढते हैं जितना (हम) अफ़ोर्ड कर सकें। उदाहरण के लिये:
कुछ लेना न देना मगन रहना (कबीर दास)
भारतीय टीम को इंग्लैंड से हारते हुए देखने से बेहतर है की ब्लॉग देखे जायं यही सोचकर आया था और देखो दो बढ़िया पोस्ट पढने को मिली. एक अनुराग शर्मा जी की और एक ये आपकी वाली . साहब बड़ी विचारोत्तेजक पोस्ट है. पहली बार किसी ने पूछा है की एक गाल पर थप्पड़ के बाद अगर दुसरे गाल पर भी थप्पड़ मिले तो तीसरा कौन सा अंग प्रस्तुत किया जाय. देखिये यदि व्यक्ति के मन में मार सहने की क्षमता के प्रदर्शन का भाव है तो वो सीना तान के खड़ा रहे और अगर मन में समर्पण का भाव है तो बन्दा दो झापड़ खाने के बाद पलटे और झुक के खड़ा हो जाय.........
जवाब देंहटाएंपता नहीं गाँधी जी किस भावना से थप्पड़ खाने को तैयार रहते थे.
Ha,ha,ha!
जवाब देंहटाएं@सतीश पंचम जी ,
जवाब देंहटाएंयह मामला शहरी है -गाँव में तो जो आपने कहा है वह अभी भी चलन में है
पड़ोसी तो क्या...अगर आप पड़ोसी से दूर हैं और सफ़र पे हैं....तो आपको अपने सह यात्री पड़ोसियों की कमी पूरी करते हैं.वासी सह-यात्री भी तो टेम्परेरी पड़ोसी ही है....
जवाब देंहटाएंऔर हाँ सहे बात है की किसी ने अखबार माँगा है तो वो बस पढेगा ही.....वो तो मांगने वाले की मर्जी है वो उसका क्या करे.....
क्या कहा? आपकी तकलीफ....मेरी बला से....
"मांगने" पर काकाजी की एक बात याद आती है.....उन्होंने कहा है...
जवाब देंहटाएंधन चाहे ना दीजिये जग के पालनहार
पर इतना तो कीजिये मिलता रहे उधार.
कुछ लोग इसे भी seriously ले बैठे हैं.
बड़ा मज़ा आया मिश्रा जी लेख पढ़ कर .... आजकल के दौर में महापुरुषों की वाणी पर चलना बेहद कठिन है .... और जिन पड़ोसियों का ज़िक्र आपने किया है ... वो तो हर जगह मिलते हैं ... मगर ये ख़याल रखना बेहद ज़रूरी है .. की कहीं हम भी ऐसे ही पडोसी तो नहीं बन रहे ... :)
जवाब देंहटाएं"सच तो यह है कि हमारे पड़ोसी सहज ही हमारी इस नैसर्गिक क्षमता को भांप लेते हैं ...और हम ठगे से रह जाते हैं ठगा जाते हैं ठगाए जाते रहते हैं ...."
जवाब देंहटाएंहा-हा.. सर जी उन पड़ोसियों के एड्रेस भी ब्लॉग पर डाल दो, एक-एक को देख लूंगा :)
aapke lekh ko padhte huye hansi hi nahi ruk rahi thi ,kya pate ki baat kahi hai aapne ,poora aanand uthaya hamne ,har insaan ke apne vichar hote hai ,sabhi maane ye aavyashk nahi ,bol ka mol sahmati aankti hai ,unhe sahi raste par le jaana tha jo uchit laga wo samjha gaye ,magar ye paristhiti par nirbhar hota ki uska kaya mulya hai ?kahne aur karne me fark hai ,ek baar aajmaane ke baad har baar iska upyog sahi jame ye kahne waala kahan samjh paata hai .sab anubhav avam samya ki baate hai .khas se pahle wo bhi aam hi rahe .jaise aap aur hum .
जवाब देंहटाएंकमाल का लिखा
जवाब देंहटाएंवाह
बहुत खूब ....
पड़ोस में खाली या बिकाऊ जगह/घर है ? :)
जवाब देंहटाएं` अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा जड़ दे तो तुम अपना दूसरा गाल आगे कर दो ..मगर अगर वह दूसरे पर भी जड़ दे तो ..'
जवाब देंहटाएंतो आप को लात मारने का हक बनता है ना :)
कुल्हनामऊ के ररा को वही समझ सकता है जिसका पाला उन सबसे पड़ा हो.
जवाब देंहटाएंचौकिया शीतला धाम में इनकी कलाओं को रोज देखा जा सकता है.
दैनिक गतिविधियों को चित्रित करती उम्दा पोस्ट.
बहुत सुन्दर...गुदगुदाती हुई पोस्ट,
जवाब देंहटाएंबधाई!
@ अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंआपको टिपियाने के चक्कर में सतीश सक्सेना जी ने किसी और के कोटे में कमी तो नहीं कर दी :)
पडोसी धर्म भी कोई चीज होती है. याचक की भी और दाटा की भी. वैसे शायद अखबार पर पहला अधिकार
जवाब देंहटाएंतो पड़ोसियों का ही होता है. :-)
शहरी यहाँ महानगरीय मामला है कि हम अपने पड़ौसी को भी नहीं जानते, यहाँ तक कि नाम भी नहीं जानते वो घर में हमारा छोटा बालक है तो उसके कारण उसके दोस्तों के अभिभावक आपस में जान लेते हैं, परंतु ऐसे तो बात भी नहीं करते हैं, जैसे कि उनको लूट ही लेंगे या फ़िर पता नहीं कितना समय चुरा लेंगे, अब यहाँ बैंगलोर में भी यही हाल है, आसपास सब कन्नड़ तमिल भाषी हैं, जिनसे चाहकर भी हम उनकी भाषा में बात नहीं कर पाते, क्योंकि न तो वे हिन्दी समझते हैं और न ही अंग्रेजी पर उनका उतना अधिकार, अब फ़िर से बेटेलाल के कारण ही कुछ उत्तर भारतीय परिवारों से मुलाकात हुई है।
जवाब देंहटाएंइसलिये महानगरीय संस्कृति में मंगता पड़ौसी की अवधारणा खत्म सी हो गई लगती है।