बहुत से लोग स्वभावतः शोध प्रेमी होते हैं ..उन्हें नित नई नई शोध संभावनाएं सूझती रहती हैं ...यहाँ तक तो ठीक है ..कौतूहल और नई शोध संभावनाओं का उत्खनन कोई बुरी बात भी नहीं है ...मानव की एक मुख्य वृत्ति ही शोधात्मक है.मगर आफत तब आती है जब किसी दूर की वैचारिक कौड़ी पर शोध आरम्भ होता है ...सारा गुड गोबर हो उठता है ....सुन्दर वैचारिक प्रत्यय/ विषय की रेड़ मार उठती है ....और ऐसा अक्सर कला /हिन्दी विभागों के स्वनामधन्य गाईड और उनके शोधार्थी करते हैं .राग दरबारी के मसीहाई लेखक श्रीलाल शुक्ल ने अपने एक व्यंग संकलन 'अंगद के पाँव ' में 'बया का घोसला ' नाम्नी लेख में इस प्रवृत्ति का मुजाहरा किया भी है ...बया पक्षी पर शोध निष्कर्ष की कुछ लाईनों पर मुलाहिजा फरमाएं ....
"बया एक पक्षी का नाम है ,यह घोसला बनाती है ,घोसले पेड़ पर बनाये जाते हैं ....घोसले में अंडे मादा देती है ..नर अंडे नहीं देते ..."सच बताऊँ इस लेख को पढ़ कर मुझे ये सभी बहुमूल्य जानकारियाँ पहली बार प्राप्त हुईं ..मैं धन्य धन्य और कृत कृत्य हो गया या फिर वह हो गया जिसमें शायद गिरिजेश जी को वर्तनी सुधारनी पड़े इसलिए इसलिए वह होने का उल्लेख ही नहीं कर रहा ...वैसे वे इत्ते में ही वर्तनी सुधार का पूरा माद्दा रखते हैं ...वे सुन रहे होंगे मगर इन दिनों मौन पर्व मना रहे हैं जबकि पूर्वजों द्वारा निर्धारित मौन महापर्व मौनी अमावस्या बीत चुकी और बसंत की रणभेरी बस बजने ही वाली है तब वे कैसे मौन रह पायेगें ..इसलिए अभी यह सुनहरा मौका है वे इस पोस्टीय संतरा समतुल्य पेय गटक कर धीरे से अपना मौन यहीं तोड़ डालें ...अब खुदा न खास्ता अचानक व्रत तोड़ने में कहीं कोई विकार न हो जाय ...बहरहाल अपुन की हिन्दी कमजोर है यह जानते हुए भी पड़ोस की एक मनोविज्ञान की शोध छात्रा ने ऊपर के मनोविज्ञान शीर्षक विषय पर मुझसे मदद मांगी ली है और मेरी सिट्टी पिट्टी या यह जो भी होती हो गुम हो गयी है ..'सर आप तो विज्ञान के आदमी हैं , इस विषय पर मेरा बेडा पार कराईये न सर ...' अब लाख समझा रहा हूँ कि भैय्ये मैं कहाँ जीव विज्ञान का मानुष और कहाँ यह मनोविज्ञान ..मेरे लिए तो यह विषय गांडीव से भी गुरुतर है ...मैंने अचानक ही समुपस्थित इस मनो- देवि को काफी मनाया भी कि देखो तुम इस विषय में हेल्प के लिए मुझे छोड़ दो ब्लागरों की मदद ले सकती हो -एक तो अपने समय जी हैं और दूजे अपनी एल गोस्वामी -ये दोनों ही विद्वानों द्वारा अनुशंसित श्रेष्ठ मनोविज्ञान लेखक हैं और इस विषय पर इन दिनों ये सोलो लेखन भी कर रहे हैं ...मतलब अपडेट हैं ...मगर ये देवि हैं कि मान ही नहीं रहीं और मैं इस विषय की सतही जानकारी देने की मानहानि से प्रकम्पित हूँ .. त्रिया हठ के आगे आखिर टिकूंगा ही कब तक ? लिहाजा एक मैंने आउटलाईन बना ली है और इसे उन्हें सौंप कर जान छुडा लेना चाहता हूँ ...आप अगर अनुमोदन कर देगें तो मेरा काम और आसान हो जाएगा ...
विषय आप जानते ही हैं -औरत और पुरुष की संवेदना का फर्क....इस विषय में मेरे बहुत अस्पष्ट से विचार हैं -मैं समझता हूँ कि संवेदना के मामले में औरतें पुरुषों से इस लिहाज से बाजी मार ले जाती हैं कि वे जन्म से ही संवेदनशील होती हैं बल्कि उनका प्रारब्ध ही संवेदना से भरा होता है और शायद यह भी होता हो कि यह भार काफी अधिक हो जाने के कारण ही उन्हें जन्म भी ले लेना पड़ता हो उससे कुछ हल्का जाने के लिए ....अन्यथा वे जन्म ही न लें ..अगले जनम मुझे बिटिया न कीजो ....अब यह एक दीगर शोध का विषय हो सकता है कि जन्मोपरांत संवेदनाएं क्षरित होती जाती हैं या फिर और संवेदना का लोड उन पर लदता चला जाता है ...मुझे तो यह लगता है कि पुरुष में संवेदना का स्पर्श/संदूषण इन्ही के जरिये ही हो जाता होगा क्योकि मैंने खुद पाया है कि पुरुष जन्मजात ही संवेदना शून्य होते हैं -संवेदना का उनका स्वर बिना किसी औरत की प्रेरणा के उभर ही नहीं सकता ......शायद संवेदना के स्वर के युगल ब्लॉगर मेरी इस बात से इत्तेफाक भी कर जाएँ और इस शोध प्रबंध में कुछ इनपुट भी दे जायं ...दूसरे मैंने यह भी पाया है जहां पुरुष पूरी तरह संवेदना रहित देखे जाते हैं औरतें सहज ही संवेदना -सिंपल या ज्यादातर तो संवेदना -सिम्पलटन होती हैं -आसान समझ के लिए जो अंतर हंसमुख और हंसमूरख का होता है वही अंतर संवेदना -सिंपल और संवेदना सिम्पल्टन का समझना चाहिए ..विश्लेष्णात्मक तौर पर यह भी पाया गया है कि औरतें ज्यादा संवेदना टची होती हैं जबकि पुरुष संवेदना की जीरो समझ के कारण अक्सर कंधे उचका कर चल देता है ..औरतें संवेदना के मुद्दे पर अक्सर प्रछन्न और कहीं कहीं तो प्रत्यक्ष तौर पर मरने मारने पर उतारू हो जाती हैं जबकि किसी भी संवेदना -लफड़े पर पुरुष दुम दबाकर सटक लेता है ....मतलब पुरुष संवेदना के मसले पर निर्वाह करने में खुद को बिल्कुल असमर्थ पाता है ..उसकी नैया संवेदना -मझधार में ही डूब लेती है ..बेड़ा गर्क हो उठता है .....और ऊपर से तोहमत यह कि वह इमोशनल अत्याचार करता है ....जले पर नमक! इससे कभी कभी पुरुष संवेदना की आहट मात्र से आह़त हो उठता है ..और यह ही भी कि औरतों की संवेदना उनकी दिल की निस्सीम गहराईयों तक उतरती चली जाती है पाताल गंगा की तरह जबकि पुरुषीय संवेदना मन मष्तिस्क की झिल्ली ही भेद नहीं पाती ...
अब मैं यह अपनी संवेदना समझ का पुर्जा उस संवेदना ..ओह सारी ,मनो- देवि को सौंप देता हूँ ..उनके असली तारणहार तो उनके संवेदना स्थूल गाईड हैं ...हमसे क्या लेना देना ....आप भी कुछ जोड़ना चाहेगें?
'अनुशीलन' और 'विशेष संदर्भ में' इन दो शब्दों के बिना मुझे ऐसा लगता ही नहीं कि कुछ शोध-वोध का मामला है. उदाहरण से स्पष्ट करने का प्रयास है- ''राष्ट्र की प्रगति में स्थानीय निकायों की भूमिका का अनुशीलन - पार्षद श्री/श्रीमती ... के योगदान के विशेष संदर्भ में''
जवाब देंहटाएंअब इसमें क्या जोडा और क्या घटाया जाए, अपनी तो समझ में ही नहीं आ रहा।
जवाब देंहटाएं---------
ध्यान का विज्ञान।
मधुबाला के सौन्दर्य को निरखने का अवसर।
सम्वेदना में स्त्री-पुरूष का भेद कहाँ? हाँ शायद सम्वेदना व्यक्त करने में यह अन्तर बेशक हो. जिस मुखरता से स्त्रियाँ सम्वेदना व्यक्त कर लेती हैं, पुरूष शायद पौरूषता के आहत होने की (!) सम्भावना से व्यक्त नहीं कर पाता है.
जवाब देंहटाएंकमोबेश आपराधिक प्रवृत्ति के लोग जिसे हम सम्वेदना शून्य मान बैठे होते हैं, उनमें भी सम्वेदना जब परिलक्षित होती है तो वह गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों स्तरों पर परिपुष्ट होती है.
अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंकुछ विषयों के महा/अति/रथियों ने शोध को उपहास का विषय बना डाला है इन महानुभावों पर धारदार व्यंग्य के लिए सबसे पहले परसाई जी और फिर टी.वी के परदे पर जसपाल भट्टी याद आते हैं !
गिरिजेश जी मौन व्रत तोड़ेंगे या फिर कोई उनका तपोभंग करेगा :)
प्रस्तावित शोध पर कोई समर्थ ही बोले तो बेहतर होगा इस मामले में फिलहाल कोई कमेन्ट नहीं !
ओह ! तो यह लेख शायद आपने गिरिजेश जी को नींद से जगाने को लिखा है ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया है , अगर पढ़ लिया तो अवश्य जाग जायेंगे ।
नर और नारी के स्वभाव में बहुत अंतर होते हैं जिनमे संवेदना भी एक है ।
@अली सा ,
जवाब देंहटाएंजिसे तीसरे नेत्र का खौफ न हो वही गिरिजेश =गिरिजा के ईश अर्थात शंकर भगवान् का तप भंग करे -मुझे तो बस बसंत की ही आस है ! :)
मै समझता था पिनाक ही गुरुतर था , आपने गांडीव तो उठा लिया ही है . आते होगे संवेदनात्मक स्वर .अपने से तो ऐसे भरे पुरे मनोवैज्ञानिक चर्चा में भाग लेने की कूबत नहीं है . .
जवाब देंहटाएंओह हो गहन विषय.. हम तो मौनी अमावस्या एक्सटेंड कर लें. उसमें ही भलाई है...
जवाब देंहटाएं@आशीष जी ,
जवाब देंहटाएंपिनाक की अच्छी याद दिलाई आपने ....जब खुद का धनुष कभी खुद से ना उठे तो वह गांडीव है ....
और जो दुष्टों से कभी भी न उठे वह शिव का पिनाक है .....
स्त्री संवेदना की अभिव्यक्ति में शायद थोड़ी ज्यादा मुखर हो, मगर कई पुरुष भी काफी संवेदनशील होते हैं; हाँ चाहे अभिव्यक्त न भी करते हों.
जवाब देंहटाएंसंवेदना का फर्क तो है ही और नजरिये का भी.
जवाब देंहटाएंस्त्री पुरुष के बीच संवेदना के आधार पर तुलना करना बेमानी है। संवेदना व्यक्ति सापेक्ष होती है। आपसी रिश्तों के अनुसार इसका स्वरूप बदलता रहता है।
जवाब देंहटाएंअलग अलग व्यक्ति (स्त्री या पुरुष) अलग-अलग अवसरों पर बिल्कुल अलग प्रकार से संवेदित होते हैं। ईश्वर ने जिस प्रकार किन्हीं दो व्यक्तियों को ठीक एक समान नहीं बनाया उसी प्रकार किन्ही दो व्यक्तियों की संवेदनाएँ भी एक जैसी नहीं हो सकती।
जितने सिर उतनी संवेदनाएँ sui generis टाइप।
शोध का निष्कर्ष यदि पहले से ही ज्ञात हो तो।
जवाब देंहटाएंराम राम जी
जवाब देंहटाएंबया पक्षी पर शोध बड़ा मस्त है. वैसे ऐसा भी होता है कि छात्र ने निबंध याद कर लिया पुस्तकालय पर और परीक्षा में आ गया सुभाष चन्द्र बोस पर लिखने को. तो छात्र सुभाष चन्द्र बोस पुस्तकालय जाते थे लिखकर पुस्तकालय का वर्णन तो करेगा ही. अब नंबर पाने हैं. उसकी गलती क्या अगर उसने पुस्तकालय पर याद कर लिया :)
जवाब देंहटाएंलडकियां ज्यादा संवेदनशील होती हैं कह दूं तो लोग ये पूछ बैठेंगे कितने लड़कियों को जानते हो जो कह रहे हो? अनुभवहीन में निकल जायेंगे हम तो ! सैम्पल साइज़ सिग्निफिकेंट नहीं है कि कुछ बोल पाएं.
अभी तो यही समझ नहीं आ रहा है की ये लेख उन मनोदेवी को समर्पित है या गिरिजेश जी को ...
जवाब देंहटाएंभावुकता के मामले में पुरुष का क्या प्रतिशत है ये भावुकता ही हद पर निर्भर करता है....किस हद तक की भावुकता को भावुकता कहा जाए...क्या इसका कोई threshold है? की इतने से कम भावुक को संवेदना शून्य और इससे ज्यादा अधिक वाले को पागल.....
जवाब देंहटाएंपिनाक और गांडीव की चर्चा आ गयी भावुकता की चर्चा में....ये interesting है....
अगर मान लें की पुरुष भावुक नहीं होते फिर भी उसमे अपवाद तो होते ही होंगे....
@अभिषेक जी .
जवाब देंहटाएंखूब भाव पकड़ा है आपने ...मुझे खुद याद है ऐसा ही एक निबंध आ गया था मेले पर और मैंने याद किया था नौका विहार ..फिर तो मेले में ही पूरा नौका विहार ले आया और दशाश्वमेध घाट पर मेले का वर्णनं कर दिया -हिन्दी में हाईस्कूल में ६२ नंबर मिले अन्य विषयों से काफी अधिक ...गणित में तो केवल पासांक .....फेल होते होते बचे ...हिन्दी में परीक्षक ने मेरे छुपे भाषायी टैलेंट (!) को जरुर पहचाना लिया था मगर हम ही बुडबक निकले जो आगे साईंस ले लिए -जीवन चौपट हो गया !
@@वाणी जी,
जवाब देंहटाएंएक नहीं कई मनो-देवियाँ शामिल है -और हाँ गिरिजेश जी तो टार्गेट पर हैं हीं !
samajhne ki koshish kar rahe hain...
जवाब देंहटाएंsayad age kuch aur aspasht ho...
pranam.
.
जवाब देंहटाएं.
.
"औरत और पुरुष की संवेदना का फर्क....इस विषय में मेरे बहुत अस्पष्ट से विचार हैं -मैं समझता हूँ कि संवेदना के मामले में औरतें पुरुषों से इस लिहाज से बाजी मार ले जाती हैं कि वे जन्म से ही संवेदनशील होती हैं बल्कि उनका प्रारब्ध ही संवेदना से भरा होता है और शायद यह भी होता हो कि यह भार काफी अधिक हो जाने के कारण ही उन्हें जन्म भी ले लेना पड़ता हो उससे कुछ हल्का जाने के लिए ....अन्यथा वे जन्म ही न लें ..अगले जनम मुझे बिटिया न कीजो ....अब यह एक दीगर शोध का विषय हो सकता है कि जन्मोपरांत संवेदनाएं क्षरित होती जाती हैं या फिर और संवेदना का लोड उन पर लदता चला जाता है ...मुझे तो यह लगता है कि पुरुष में संवेदना का स्पर्श/संदूषण इन्ही के जरिये ही हो जाता होगा क्योकि मैंने खुद पाया है कि पुरुष जन्मजात ही संवेदना शून्य होते हैं -संवेदना का उनका स्वर बिना किसी औरत की प्रेरणा के उभर ही नहीं सकता ......शायद संवेदना के स्वर के युगल ब्लॉगर मेरी इस बात से इत्तेफाक भी कर जाएँ और इस शोध प्रबंध में कुछ इनपुट भी दे जायं ...दूसरे मैंने यह भी पाया है जहां पुरुष पूरी तरह संवेदना रहित देखे जाते हैं औरतें सहज ही संवेदना -सिंपल या ज्यादातर तो संवेदना -सिम्पलटन होती हैं -आसान समझ के लिए जो अंतर हंसमुख और हंसमूरख का होता है वही अंतर संवेदना -सिंपल और संवेदना सिम्पल्टन का समझना चाहिए ..विश्लेष्णात्मक तौर पर यह भी पाया गया है कि औरतें ज्यादा संवेदना टची होती हैं जबकि पुरुष संवेदना की जीरो समझ के कारण अक्सर कंधे उचका कर चल देता है ..औरतें संवेदना के मुद्दे पर अक्सर प्रछन्न और कहीं कहीं तो प्रत्यक्ष तौर पर मरने मारने पर उतारू हो जाती हैं जबकि किसी भी संवेदना -लफड़े पर पुरुष दुम दबाकर सटक लेता है ....मतलब पुरुष संवेदना के मसले पर निर्वाह करने में खुद को बिल्कुल असमर्थ पाता है ..उसकी नैया संवेदना -मझधार में ही डूब लेती है ..बेड़ा गर्क हो उठता है .....और ऊपर से तोहमत यह कि वह इमोशनल अत्याचार करता है ....जले पर नमक! इससे कभी कभी पुरुष संवेदना की आहट मात्र से आह़त हो उठता है ..और यह ही भी कि औरतों की संवेदना उनकी दिल की निस्सीम गहराईयों तक उतरती चली जाती है पाताल गंगा की तरह जबकि पुरुषीय संवेदना मन मष्तिस्क की झिल्ली ही भेद नहीं पाती ..."
गलत बात !
आप जैसा संवेदनशील यह सब लिख ही नहीं सकता... यह सब मनोविज्ञान की उस छात्रा के अधूरे आलेख से टीप दिये हैं आप... हमारी संवेदना का स्तर परखने को... ;))
...
बहुत गूढ़ हिन्दी लिखते हैं आप...
जवाब देंहटाएंमैं तो 'पास' हूँ जी... :)
जवाब देंहटाएंपंडित जी!
जवाब देंहटाएंमहापुरुषों के संकेत और अर्थ बड़े गूढ़ होते हैं. उनसे तो बस कालिदास ही निपट सकते हैं, दो उँगलियों के जवाब में एक उँगली दिखाकर.
सम्वेदना के स्वर के लिये नारी प्रेरणा की बात जब आपने छेड़ ही दी है तो इतना तो हम स्वीकार ही करते हैं कि हमारी पत्नियाँ और उनकी हमारे अभियान को मौन स्वीकृति ही हमारी सबसे बड़ी प्रेरणा है.
आपकी शोधार्थी के लिये आपके सुझाये विषय पर हम इनपुट तो नहीं, हां विचार अवश्य व्यक्त कर सकते है, इन शब्दों मेंः
जीव विज्ञान की दृष्टि से देखें तो ओशो कहते है कि पुरुष और स्त्री की डीएनए संरचना में माता और पिता से मिले 22 क्रोमोसोम युग्म तक कोई भेद नहीं होता है बस 23वा क्रोमोसोम युग्म एक्स-एक्स है तो वह स्त्री है और एक्स–वाई है तो पुरुष। अब स्त्री के सभी 23 क्रोमोसोम युग्म संतुलित होने के कारण उसे शरीर से लेकर मनोभाव तक में एक तरह का बैलैंस मिलता है जबकि पुरुष की स्थिति असुंतलित ही रहती है। जीव संरचना का यही असंतुलन पुरुष को कुछ कर गुजरने के लिये उतप्त रखता है। मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो पुरुष का तार्किक मन उसके बायें मस्तिष्क की क्रियाशीलता के कारण बताया जाता है इस कारण पुरुष जब किसी निष्कर्ष पर पहुचता है तो सारे लाजिक जोड़-घटाकर जबकि स्त्री का सक्रिय दायां मस्तिष्क, उसे इनटुय़टिव बनाता है और वह लाजिक वगैरह पर ज्यादा विश्वास नहीं करती।
@@वाणी जी,
जवाब देंहटाएंएक नहीं कई मनो-देवियाँ शामिल है -और हाँ गिरिजेश जी तो टार्गेट पर हैं हीं !अर्विन्द जी शन्ति शन्ति शन्ति\ आज मौन ही अच्छा है। शुभकामनायेम।
@यह लेख दरअसल उस उद्येश्य के लिए लिखा गया है जिसे मित्रों ने ब्लॉग जगत में निर्मल हास्य का नामकरण दिया है...
जवाब देंहटाएंइसा बौद्धिक विवेचन करने की जुगत प्रति -फलगामी हो सकती है -यह अपने रिस्क पर ही करें !
`मौन महापर्व मौनी अमावस्या बीत चुकी और बसंत की रणभेरी बस बजने ही वाली है तब....'
जवाब देंहटाएंतब क्या..... आक्रमण :)
संवेदना में अंतर तो संभव नहीं लगता कौन किस तरह संवेदना व्यक्त करता है यह ज़रुर अलग हो सकता हैआपके व्लाग पर पहली बार टिप्पणी कैने की हिम्मत कर रहा हूँ क्षमा करेंगे |
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी !! इसका जवाब है -our evolution.... विकास के क्रम में हमारे पूर्वज जिन जिन परिथितियो से गुजरे एक लंबे समय में उसका दिमाग पर उसी तरह का असर पड़ा ..और वैसे ही दिमाग का development हुवा ... रोटी पानी की व्यवस्था भी आदिम युग में पुरुष करता था ... जिसके लिए उसको शिकार के लिए बहुत दूर तक जाना पड़ता था ... और शिकार को मारना पड़ता था...इसके लिए उसे मजबूत होना होता था ..और संवेदनाओ को परे रखना पड़ता था ....
जवाब देंहटाएंउधर दुसरी तरफ औरतें घर में रहती थीं.... बच्चे और कुनबे की अन्य आदिम युवतियां घर की परवरिश में हर किसी का ख्याल रखती थी ,,.. आपस में मिल कर .... घर की मजबूती के लिए और बच्चों की सुरक्षा के लिए वो आपसी संह्योग और आपसी पारिवारिक सम्बन्ध बनाए रहती थी ... और जिसके लिए उन्हहोने संवेदनाओं का इस्तेमाल किया ...और इसके लिए वो भाषा का भी इस्तेमाल करती थी... अतः ... औरते बहुत भावुक और संवेदन शील होती है... और बातूनी भी...
पुरुष बात करते हैं किन्तु दिन भर बोले जाने वाले शब्द की मात्र उन्हें कम ... और महिलाओं को ज्यादा पड़ती है.... पुरुष जब ओफ्फिस से आता है तो वो काफी बाते ऑफिस में कर आता है... उसको अब ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं..( विकास के हिसाब से ) जबकि स्त्री के दिमाग में बातों का खजाना है... और वो लग जाती है बोलने ... वही पुरुष उतना सुनना नहीं पसंद करता और महिला खूब ज्यादा बोलना चाहती है .. तो अधिक संवेदनशील महिला को बहुत बुरा लगता है.... ये एक पूरी थीओरी है..... सादर
बढ़िया शोध प्रबंध काव्य.
जवाब देंहटाएंबधाई!
@डॉ नूतन रौतेला जी ....
जवाब देंहटाएंआपका विवेचन तो जैसे मेरे मुंह के शब्द ही हैं ...
आभार इस वैज्ञानिक विवेचन का ......
हम भी क्लास में बैठे समझाने की कोशिश कर रहे हैं ...हाजिरी हमारी भी ले लीजियेगा गुरुदेव !
जवाब देंहटाएंIt is good that 'both are different'.
जवाब देंहटाएंMen are less sensitive .
Most of the time they pretend to be insensitive[??].
I think they fear if they show /express their feelings ,people will call them 'girlish'.
Imagine if both men and women are equally sensitive!!!!!!
@Welcome Kriti,
जवाब देंहटाएंYour views are always rational and balanced .....but where do you elope all of sudden and that too for such a long period!