संचार माध्यमों ने कुछ ऐसी फ़िजा बनाई कि मैं भी पृथ्वी प्रहर (अर्थ आवर) मनाने को संकल्पित हो गया। अर्थ आवर आने पर उसका जोरदार स्वागत करने के लिए मोमबत्तियां वग़ैरह की खरीददारी की। सोचा कि इस अवसर को एक रूमानी संस्पर्श भी दिया जाय। क्यों न अवसर का लाभ ले कैंडिल डिनर का आनंद उठाया जाय। घुप अंधेरे में और कुछ करने की बजाय एक रूमानी डिनर पर समय व्यतीत किया जाना ज्यादा पर्यावरण हितकारी लगा। वैसे भी घुप अंधेरे में दिमाग को खाली तो कदापि न रखा जाए, क्योंकि वह कहावत तो है ही न कि 'खाली दिमाग शैतान का घर होता है'। बहरहाल पृथ्वी प्रहर के आते ही हमारा डिनर तैयार था। आज हमारा भी रसोई में प्रवेश निषिद्ध नहीं था, तो मैंने भी हाथ बटाया। खाना सुस्वादु होना ही था। उठ रही सुगंध इसकी गवाही दे रही थी। पृथ्वी प्रहर आन पहुंचा था। हमने सारे कमरों की बत्ती बुझाने के लिए मेन स्विच ऑफ कर दिया और डिनर टेबल पर सजे सुस्वादु भोजन का आनंद हम दंपती आराम से पुराने रूमानी दिनों की याद करते हुए उठाते रहे। साढ़े आठ से साढ़े नौ का समय भी कब पूरा हो गया पता ही नहीं लगा। मैंने ठीक साढ़े नौ बजे मेन स्विच ऑन कर दिया।
मगर यह क्या? बिजली तो नदारद थी। ओह तो अब पृथ्वी प्रहर मनाने का सरकारी टाइम आ गया था। अपनी सरकार तो रोज ही पृथ्वी प्रहर मनाती है, एक घंटे का नहीं घंटों का। कई-कई घंटों का, चौबीस घंटे में कई अंतरालों पर अपनी सरकार नित्य प्रति पृथ्वी प्रहर मनाती है। अचानक ही विचारों का एक रेला आया और इस पोस्ट की जुगाड़ कर गया। जिस देश में सरकारें रोज ही पृथ्वी प्रहर मना रही हों वहां क्या किसी एक दिन पृथ्वी प्रहर मनाने का कोई औचित्य भी है? हम प्रायः पश्चिमी देशों के विचार और बहिष्कृत तकनीकी अपनाने के आदी हो चले हैं, मगर यह भी तो देखें की वहां पल भर को भी बिजली नहीं जाती, जबकि हमारी अधिकांश आबादी पहले से ही अंधेरे में सोने को अभ्यस्त है। तमाम पश्चिमी देशों ने नाभिकीय बिजली अपना ली है मगर आज भी हमारे देश में पनबिजली का ही आसरा है, जो ज्यादातर प्रदेशों में शहरों तक में भी 15-16 घंटे से अधिक उपलब्ध नहीं रहती, गांव की तो बात ही छोड़िए। मगर, फिर भी हम पृथ्वी प्रहर मनाने को उतावले हो जाते हैं।
इन दिनो परीक्षाएं चल रही हैं। बच्चों की पढ़ाई जोरों पर है अब बिजली आई तो बच्चे पढ़ने पर, नकलची नकल की पर्ची बनाने में लगेगें कि पृथ्वी प्रहार मनाएगें? अच्छा हुआ यह अभियान यहां बनारस में तो फेल हो गया। दरअसल, हम पश्चिमी अभियानों को अपनी जमीनी हकीकत के लिहाज ने नहीं देख पाते। पर्यावरण से जुड़े ज्यादातर बुद्धिजीवी सिर्फ अकादमिक बहसों में उलझे होते हैं, जमीन से नहीं जुड़े होते।
माना कि आज धरती के संसाधनों का बड़ा दोहन हो रहा है, मगर इसमें पश्चिमी देश ही बहुत आगे हैं। उनकी प्रति व्यक्ति बिजली या अन्य ऊर्जा साधनों की खपत हमसे पहले से ही काफी अधिक है। उनका पृथ्वी प्रहर मनाया जाना जन चेतना को जागृत करने के लिए बेहद जरूरी है। मगर, ऊर्जा का उपभोग तो हमारे यहां अब भी बहुत कम है और उत्पादन भी, इसलिए ही भारत का आम आदमी ऐसे पश्चिमी अभियानों को तवज्जो नहीं दे पाता, उसके मंतव्य से मन से जुड़ ही नहीं पाता और जिस कारण से अर्थ आवर मनाया जा रहा है वह खुद वैज्ञानिकों के बीच विवादित है। वे कहते हैं वैश्विक ऊष्मन (ग्लोबल वॉर्मिंग) की ओर दुनिया का ध्यान दिलाना है। मगर, वैज्ञानिकों का एक और खेमा यह कहता फिर रहा है ग्लोबल वॉर्मिंग की बात छोड़िए हिमयुग की वापसी होने जा रही है। अब कौन गलत है और कौन सही यह आम आदमी कैसे समझे। पहले तो ये वैज्ञानिक फैसला कर लें, तब हम फैसला करें कौन सा आयोजन मनाया जाना जरूरी है। आज भारत में भी पर्यावरण अतिवादियों का एक खेमा बहुत सक्रिय है उनसे सावधान रहने की जरूरत है। यहां पृथ्वी प्रहर के आयोजन से ज्यादा जरूरी गंगा और सहायक नदियों की रक्षा है जो जीवन की आखिरी सांसें ले रही हैं।
सभी कोई पगलाय जाते हैं कि अर्थ ऑवर मनाओ लेकिन नहीं जानते कि पूरे देश में बिजली की क्या स्थिति है। सेवर्स लोग शहर से बाहर निकलें तो पता चले। अपने जौनपुर शहर के मध्य में ही जब तक रहो तब तक तो दुकानों के प्रभाव से सारा कुछ चकाचौंध दिखता है, बाहरी जौनपुर में प्रवेश करो तो ढिबरीयां ही ढिबरीयां दिखाई देती हैं सड़कों वाली परचूनिया दुकानों पर, फिर जैसे ही गांव इलाका आता है कि सारा कुछ घुप्प अंधेरे में बदल जाता है........ अब मोटरसाईकिल के प्रकाश में चीरते चलो अंधेरे को । ऐसे में कोई अर्थ ऑवर मनाये तो बलिहारी है :)
जवाब देंहटाएं@सतीश पंचम जी,
जवाब देंहटाएंबिलकुल यही बात मैंने सामने लानेका प्रयास किया ,शुक्रिया!
शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएंशोषण करते धरा का, रहे पोषते दैत ।
जवाब देंहटाएंप्राय: विकसित देश हैं, अजगर मगर करैत ।
अजगर मगर करैत, निगलते फाड़ें काटें ।
चले दुरंगी चाल, लड़ावैं हड़पैं बाँटें ।
संसाधन सुख भोग, व्यर्थ करते उदघोषण ।
बड़ा चार सौ बीस, बढ़ाता जाता शोषण ।।
शोषण करते धरा का, रहे पोषते दैत ।
जवाब देंहटाएंप्राय: विकसित देश हैं, अजगर मगर करैत ।
अजगर मगर करैत, निगलते फाड़ें काटें ।
चले दुरंगी चाल, लड़ावैं हड़पैं बाँटें ।
संसाधन सुख भोग, व्यर्थ करते उदघोषण ।
बड़ा चार सौ बीस, बढ़ाता जाता शोषण ।।
यह सही है कि हमारे प्राकृतिक-संसाधन दिनोदिन कम होते जा रहे हैं,ऊर्जा भी उन्हीं से निकला उत्पाद है,पर इस तरह के चोंचलों के बजाय ज़रूरत है कि हम ज़मीनी-स्तर पर कार्य करें.
जवाब देंहटाएंइस तरह का कोई भी प्रयास तभी सार्थक होगा, जब सरकार और समाज इसे अपनी प्राथमिकता बनाये !
यहां पृथ्वी प्रहर के आयोजन से ज्यादा जरूरी गंगा और सहायक नदियों की रक्षा है जो जीवन की आखिरी सांसें ले रही हैं।
जवाब देंहटाएंYe baat bhee aapke ekdam sahee hai.
संतोष त्रिवेदी जी की बात अच्छी लगी..
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
सभी अपनों जिम्मेदारी समझे तो यह क्लास रूम की तरह सीखना सिखाना नहीं पड़ेगा ...यहाँ तो तब भी जगमग बिजली जल रही थी ....जागरण हो रहे थे :)
जवाब देंहटाएंसही बात है ...हम तो अभी न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति में लगे हैं इसलिए ऊर्जा की बचत के लिए जनचेतना लाने के लिए किसी और प्रयोग की जरूरत है । जिसके घर पर घंटों बिजली ही नहीं रहती उसे एक घंटे बिजली बंद करने से क्या संदेश मिलेगा । विकसित देश अपने कृत्यों के प्रभाव विकासशील और अविकसित देशों को नियंत्रित कर "कंपनसेट" करने की कोशिश में लगे रहते हैं । अर्थ अवर वही मनाए जो प्राकृतिक साधनों का ज्यादा दोहन कर रहा है ।
जवाब देंहटाएंअच्छा प्रेक्षण और प्रस्तुति है आपकी लेकिन आपने ही जो मुद्दे उठाए हैं भारत में बिजली की पर्याप्त आपूर्ति न हो पाना उसी के आलोक में छतों पर सोलर हीटर्स की तैनाती लाजिमी कर देनी चाहिए .कुल मिलाकर यदि आप पांच लाख रुपया एक मुश्त खर्च कर दें तो पूरे घर की विद्युत् आपूर्ति भी हो सकती है क्लीन एनर्जी से जीवन आगे बढ़ सकता है .यहाँ बंगलुरु में मैं जिस इलाके में रह रहां हूँ वहां निर्माण कार्य ज़ोरों पर है नए भवनों की छतों पर सोलर हीटर्स हैं यहाँ विद्या अरण्य पुरा में ,(भेल ले आउट )में .यह भारत में बड़े पैमाने पर हो सकता है . .नतीज़न यहाँ भवनों में सारे दिन गर्म पानी रहता है .अर्थ आवर रस्मी और प्रतीकात्मक भले है लेकिन एक मुद्दे की तरफ हमारा ध्यान खींचता है .भले हमारा कार्बन फुट प्रिंट बहुत कम है अमरीका का बीसवां हिस्सा मगर फिर भी भारत में बिजली नहीं है घर गाँव में बिजली के खंभे ज़रूर हैं सप्लाई नहीं है .इसलिए अर्थावर जो २००७ में सिडनी से आरम्भ करके हर साल मार्च के आख़िरी शनिवार को मनाया जाता है बिजली एक घंटा बंद करके वह वक्ती ज़रुरत है .मनाते तो हम अब पेरेंट डे भी हैं ,फादर्स और मदर्स डे भी ,सिर्फ वेलेंटाइन तक बात सीमित नहीं है सिस्टर्स ,ब्रदर्स डे ,.महिला दिवस ,फिमेल चाइल्ड दिवस ....आदि भी मनाये जाते हैं .भारत में तो शौचालय दिवस भी मनाया जाना चाहिए .गरीबी दिवस भी जो यहाँ की शाश्वत समस्याएं हैं .
जवाब देंहटाएंशोचनीय स्थितियों पर सोचनीय पोस्ट। सार्वभौमिक समस्याओं के अनेक पक्ष होते हैं जिनका शोषण और पोषण अपने-अपने हिसाब से होता है।
जवाब देंहटाएंहमने भी डिनर कर लिया था, हालांकि सरकारी घोषणा थी अर्थ अवर के दौरान कर्नाटक में बिजली नहीं रहेगी, परंतु शायद बिजली काटना भूल गये तो कैंडल लाईट मिस किया, रोज ही लाईट कभी न कभी चली ही जाती है, और देहात में तो बुरी हालत है, वहाँ तो घंटों में बिजली आती है, देहात में आदमी को बिजली का समय रटा होता है, और अगर उससे ज्यादा आ जाये तो वह आश्चर्य करने लगता है। तो अपने भारत में तो अपन रोज ही अर्थ अवर मना रहे हैं।
जवाब देंहटाएंआप के पास बिजली है जो कुछ घंटे नहीं आती ?
जवाब देंहटाएंसैकड़ों गाँव ऐसे अब भी हैं जहां बिजली है ही नहीं ?
संसाधनों के बेमेल बंटवारे और बेमेल इस्तेमाल को छोड़ भी दिया जाये तो ?
प्रश्न यह है कि हम जिस भी मुद्दे पर आन्दोलन खड़ा करते हैं उसे प्रतीकात्मकता के हवाले कर देते हैं और सोचते हैं , सार्थक विरोध जारी है :)
sachet karta lekh likha hai arvind bhai aapne!
जवाब देंहटाएंअर्थ आवर पश्चिमी देशों को मुबारक हो. " मैंने भी हाथ बटाया। खाना सुस्वादु होना ही था" इसी में सार हैं.
जवाब देंहटाएंप्राकृतिक संशाधनों का विवेक पूर्ण दोहन शोषण और पोषण अर्थ आवर की आत्मा है .भारत जैसे देश के लिए जहां इन्फ्रा -स्ट्रक्चर पर अभी बहुत कुछ खर्च होना है यह और भी ज्यादा मायने रखता है .स्थलाकृति के अनुरूप भवन भू -कंप रोधी हों ,नए भवनों में वर्षा जल संग्रहण प्रणाली वाटर हार्वेस्टिंग लाजिम हो अब हम इसकी और उपेक्षा नहीं कर सकते .यही सन्देश है 'अर्थ आवर 'का .
जवाब देंहटाएंउसी समय राजेन्द्र प्रसाद घाट में महामूर्ख सम्मेलन चल रहा था। हमारी तरह बनारस के अधिकांश मूर्ख वहीं जमा थे। हम सोच रहे थे, शेष बचे बुद्धिमान क्या कर रहे होंगे..! अब जाना, अर्थ आवर मना रहे थे।:)
जवाब देंहटाएंआखिरी पंक्ति में लेख का सार आ गया .
जवाब देंहटाएंवैसे भी यहाँ आवर नहीं , पावर की ज़रुरत है .
देवेन्द्र पाण्डे जी की टिपण्णी --हा हा हा ! बहुत बढ़िया रही !
जवाब देंहटाएंइससे अच्छा तो है की हर कोई इंसान अपने तौर पर अपना योगदान करे ... जब ज़रूरत न हो तो बिजली के उपकरण बंद रखें ... बाकी आपने अंत में सही कहा की और भी मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है ... जैसे की लुप्त होने की कगार पर हमारी नदियाँ ...
जवाब देंहटाएंइससे अच्छा तो है की हर कोई इंसान अपने तौर पर अपना योगदान करे ... जब ज़रूरत न हो तो बिजली के उपकरण बंद रखें ... बाकी आपने अंत में सही कहा की और भी मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है ... जैसे की लुप्त होने की कगार पर हमारी नदियाँ ...
जवाब देंहटाएंहम जिस भी मुद्दे पर आन्दोलन खड़ा करते हैं उसे प्रतीकात्मकता के हवाले कर देते हैं और सोचते हैं , सार्थक विरोध जारी है।...वाह! यह प्रश्न नहीं है, यही कटु सत्य है।
जवाब देंहटाएंbilkul sach kah rahe hain aap -
जवाब देंहटाएंdevendra ji,sach hai. prateekaatmakta se aage badhein ham, to koi baat bane
सर बहुत ही सारगर्भित आलेख |
जवाब देंहटाएंलोगों ने इन्वर्टर से काम चलाया......
जवाब देंहटाएंऔर बेहतरीन अर्थ आवर मनाया............
बेमतलब के चोचले!!!!!
सादर
अनु
रूमानी दिनों की याद करते हुए नियमित मना सकते हैं आप तो ’धरती घंटा’ । :)
जवाब देंहटाएंभारत में भी पर्यावरण अतिवादियों का एक खेमा बहुत सक्रिय है उनसे सावधान रहने की जरूरत है। यहां पृथ्वी प्रहर के आयोजन से ज्यादा जरूरी गंगा और सहायक नदियों की रक्षा है जो जीवन की आखिरी सांसें ले रही हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन पोस्ट,....
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...
रूमानियत से शुरु हुई पोस्ट बड़ी व्यावहारिक बातों पर आकर खत्म हुई ..... सच बहुत कुछ किया जाना है पर्यावरण सहेजने को ....
जवाब देंहटाएंहमने तो ८:३० से ९:३० बिजली बंद रख कर पूर्ण सम्मान के साथ दिवस विशेष का सहयोग किया...बाकी आपका कहा तो सत्य है ही.
जवाब देंहटाएंदिल्ली में जब रोज पृथ्वी-प्रहर मनता है तो और जगहों का क्या कहना ।त्रिवेदी जी की और संतोष जी की बात सही लगी ।
जवाब देंहटाएंदेखिये, सरकार आपके मन की बात पहले से जानती थी, उसने पहले भांजी मार दी।
जवाब देंहटाएंकिसी भी समाज की सामुहिक योजना में सभी वर्गों का अंशदान समान नहीं हो सकता। उच्च वर्ग का अनुदान अधिक होना चाहिए और निम्न वर्ग का न्यून सांकेतिक मात्र।
जवाब देंहटाएंपहले से ही अभावग्रस्त के लिए यह शोषण है।
very nice post ...indeed .
जवाब देंहटाएंYE HAI MISSION LONDON OLYMPIC-LIKE THIS PAGE AND SHOW YOUR PASSION OF INDIAN HOCKEY -NO CRICKET ..NO FOOTBALL ..NOW ONLY GOAL !
अर्थ आवर का दूसरा अर्थ कहीं पूँजीवाद तो नहीं.. अपने यहाँ न उफनती हुई पूँजी न ही पावर . तो कैसा अर्थ पावर..
जवाब देंहटाएंहमारे देश में जहाँ गांवों में रोज ही कई घंटों बिजली का अकाल रहता है , वहां अर्थ आवर मनाने का क्या औचित्य जबकि इससे बड़ी और भी समस्याएं हैं ....सही !
जवाब देंहटाएंभाई साहब यह नोर्थ साउथ डिवाइड खत्म होना चाहिए .ये पर्यावरण ,ये फिजा सबकी है .किसी का फुट प्रिंट कम किसी का ज्यादा .कोई अमीर कोई गरीब लेकिन पृथ्वी के संशाधन क्योंकि सबको चाहिए उनके संरक्षण उन्हें बनाए रहने ,उनके दोहन शोषण और पोषण का काम पूरी कायनात का है .सबका है .तभी यह 'गृह'हमारा 'ग्रह ' बचेगा जहां इत्तेफाकन जीवन है .भारत को 'अर्थ आवर' की ज़रुरत है .कमी बेशी को रोकने के लिए जो कम है उसका अप -अव्य तो न करे . जो कम है उसे बचाना ,बचाए रखना और भी ज़रूरी है .
जवाब देंहटाएंएक नै विंडो खोलें ,उसमें नवीनतर पोस्ट जो लिखी है उसे पोस्ट करने से पहले जो भी वहां पेस्ट करना चाहते हैं , और रिपोर्ट्स उन्हें पुरानी पोस्ट (विंडो) खोल- खोल के बारी बारी कोपी करते जाएँ .अब सब एक जगह आ गया .क्योंकि मुझे नवीनतर देने की जल्दी होती है इसलिए उससे थोड़ा पहले की पोस्ट मैं उसी के साथ पेस्ट कर देता हूँ .एक दम से सीधी बात है ,करके देखें .