चिनहट से विदाई का वक्त आ गया था। झांसी जल्दी ज्वाइन करना था। चिनहट के दो ढाई साल के प्रवास में कोई सामान वगैरह तो था नहीं इसलिए एक ट्रेलर वाली जीप पर पलंग रजाई गद्दा बर्तन आदि लाद फांद और उसी पर खुद बैठ हम अपने जौनपुर के पैतृक गाँव आ गए। सामान व पत्नी को वहीं छोड़ा। और खाली हाथ झाँसी को चल पड़े। मगर रुकिए अभी कुछ बची खुंची यादें चिनहट की रह गयीं हैं, उन्हें निबटा लूं। चिनहट से बस कुछ किलोमीटर की दूरी पर कुकरैल का वन था/है। वहाँ घड़ियालों की सैंक्चुअरी तब स्थापित हो रही थी। वन्य जीव अधिनियम 1972 के अधीन घड़ियाल और मगरमच्छ अबध्य प्राणी हैं। इनकी तेजी से घटती संख्या को देखकर इनकी प्रजाति को बढ़ावा देने के उद्येश्य से कुकरैल में उनके प्रजनन स्थल की स्थापना की गयी. भारत में एलीगैटर नहीं मिलते। मगरमच्छ और घड़ियाल मिलते हैं। घड़ियाल तो गंगा और सहायक नदियों का एक मुख्य निवासी है। मैंने जब इन विशाल सरीसृपों के पुनरुद्धार की परियोजना कुकरैल में देखी थी तो सहज ही रोमांच हो आया था। आप भी जब लखनऊ जाएँ तो कुकरैल जाकर इनका साक्षात्कार कर सकते हैं।
चिनहट में ही पर्यटन विभाग ने एक 'पिकनिक स्पाट ' बना रखा था। यह शहर से काफी दूर निर्जन में होने के कारण प्रेमी जोड़ों की पहली पसंद था। यहाँ अब तो पर्यटन विभाग ने मान्यवर काशीराम इंस्टीच्यूट आफ टूरिज्म मैनेजमेंट खोल दिया है, मगर तब पर्यटन के नाम पर एक कमरा था बस। हमारे प्राचार्य महोदय ने उधर जाने की प्रशिक्षुओं को मनाही कर रखी थी. और इसकी सूचना मुझे भी मेरे ज्वायनिंग के समय ही दे दी गयी थी। मैं विस्मित कि पब्लिक प्लेस पर जाने की आखिर मनाही क्यों ?कारण पूछा तो एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट और यह कहकर टाल दिया गया था कि मैं खुद जान जाऊँगा। मगर उत्कंठा भी तो कोई चीज है। शाम होते होते मुझे पता लग गया था। दरसअल वहाँ जोड़े एक ख़ास मकसद से आते थे और घंटे आधे घंटे कमरे में रहकर चल देते थे। कई बार उम्र की कई बेमेल जोड़ियां भी आती थीं। उन्हें सामने सड़क से प्रायः स्कूटर से आते और जाते हुए मैं खुद भी देखता था। वहाँ पर्यटन विभाग का एक चौकीदार भर था। अब आपसी सहमति से प्रगाढ़ संबंध पर किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए यह बात मेरे दिमाग में आती तो थी मगर खुद भी उधर जाने की इच्छा ही नहीं रहती थी। मेरे प्रिसिपल साहब का आदेश मेरे लिए काफी था -उनके निर्देश से वह एक प्रतिबंधित स्थान था तो था -मंजूर। और फिर उस अंगने में मेरा क्या काम था?
मगर घर से तीन माहों या अधिक की ट्रेनिंग पर आये युवा या अधेड़ प्रशिक्षुओं के लिए यह स्थल आकर्षण का केंद्र था। वे गाहे बगाहे उधर हो आते और प्रिंसिपल साहब की डांट भी खाते। एक दो बार मैंने वहाँ के सेट अप ,इंतजाम आदि के लिए सरकारी शिष्टता के साथ मुआइना भी किया तो यही पाया कि लोगों की जैवीय प्रवृत्ति के शमन के बहाने से वहाँ का चौकीदार अवैध कमाई में लिप्त था। बाद में चिनहट थाने के एक सिपाही को भी अपना हिस्सा लेने की लत पड़ गयी तो वह अक्सर उधर ही मंडराता रहता और कमाई की फिराक में रहता। आने वाले जोड़ों को डराता धमकाता और रकम वसूलता। एक बार वही सिपाही हमारे एक प्रशिक्षु को पकड़े लगभग घसीटते प्रिंसिपल के पास ले आया। और कहा इन्हे संभालिये। माजरा समझने में वक्त तो नहीं लगना था मगर मेरे हस्तक्षेप पर प्राचार्य साहब ने सुनवाई शुरू की।
चिनहट की इन कुछ भूली बिसरी यादें आपसे साझा कर अब आपको हम लिए चलते हैं झांसी जहाँ से मेरे नौकरी का एक नया फेज शुरू होने जा रहा था। … जारी ...
अतीत के चल-चित्र मानव को, उज्ज्वल भविष्य की ओर बढने में, प्रेरक की भूमिका निभाते हैं ।
जवाब देंहटाएंकुकरैल पिकनिक स्पॉट के बारे में आपने बहुत रोचक जानदारी थी। देखिए न, मैं उस स्थान से ज्यादा दूर नहीं रहता हूँ लेकिन इधर जाना नहीं हो पाया। जब इंदिरानगर में कोषाधिकारी के रूप में पाँच महीने का प्रशिक्षण (१९९९ में) ले रहा था उसी दौरान अपनी नयी नवेली दुल्हन को लेकर लखनऊ के तमाम घूमने लायक स्थानों का चक्कार लगाया था। उसी क्रम में कुकरैल भी जाना हुआ था जहाँ के कीचड़ में सने मगरमच्छों को देखने के बाद बोरियत हो गयी थी और हम जल्दी ही वहाँ से लौट गये थे।
जवाब देंहटाएंझांसी चला जाये।
जवाब देंहटाएंहा हा इस तरह की कई जगहें प्रसिद्ध रहती हैं अपने अपने जमाने की, और कुछ अब भी प्रसिद्ध होती है.. बढ़िया संस्मरण चल रहा है, हम भी वैसे कहीं नई जगह जाते हैं तो केवल १ सूटकेस में अपने जरूरत की चीजें आ जाती हैं और एक अदद लेपटॉप बैग..
जवाब देंहटाएंयह आपने बढ़िया किया कि सरकारी कार्यकाल को लिपिबद्ध कर दिया , अन्यथा बहुत सी बातें याद ही नहीं रहतीं !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
देख सब माया वादी खेल ,
जवाब देंहटाएंझेल रे प्राणी अब तू झेल।
संमरन बढ़िया चाल अकड़े है रे भाई !
बहुत से रंग समेटे है आपके ये संस्मरण ..... पढ़ रहे हैं , शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंऐसे पिक्मिक स्पोट पे जाने मन तो जरूर करता होगा ... छुप छुप के जाते तो यादें कुछ और होतीं ... हा हा ... कई रंग लिए जीवन के आपका संस्मरण रोचक चल रहा है ...
जवाब देंहटाएंदेश के हर जगह में कमोबेश यही हाल है.
जवाब देंहटाएंरोचक रहा ये चिनहट संस्मरण । घडियाल सेंक्चुअरी के बारे में कबी विस्तार से बतायें। बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आ पाई। पीछे का भी पढूंगी आराम से।
जवाब देंहटाएंअच्छी रही चिनहट की विदाई..
जवाब देंहटाएंयह सबकुछ स्मृति से ही लिखा जा रहा है तो गज़ब है स्मरण शक्ति !
जवाब देंहटाएंएक अकेला इस शहर में, ऐसे हजारों अकेलों से भरा शहर और चिनहट।
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