चिनहट पोस्टिंग के ही दौरान 1986 में हेली के प्रसिद्ध धूमकेतु का दर्शन मैंने वहीं के प्रदूषण और शहरी चकाचौंध से रहित ग्राम्य परिवेश से किया था। मुझे मेरे बड़े चाचा डॉ सरोज कुमार मिश्रा जो नासा में वैज्ञानिक रह चुके हैं ने पक्षी निहारण और व्योम विहार की मेरी तब की अम्येच्योर रुचियों के चलते एक सात गुणे पचास मैग्नीफिकेशन का बाइनाक्यूलर गिफ्ट कर रखा था। मैंने इसी से लखनऊ क्षेत्र में सबसे पहले हेली का कमेट ढूँढा था यद्यपि उम्मीदों के विपरीत वह बहुत धुंधला धब्बा सा लग रहा था -मैंने अखबारों में यही रिपोर्ट भेजी थी कि 'ईद का चाँद हो गया हेली" … मेरे चिनहट प्रवास के दौरान यह यादगार घटना रही इसलिए यहाँ जिक्र कर रहा हूँ। हेली कमेट फिर 75 -76 वर्ष बाद लौटेगा यानि 2061 में और तब मैं धरती पर नहीं रहूँगा -हाँ बच्चे नाती पोते अगर इस संस्मरण को कभी पढ़ेगें तो वे शायद गौरवान्वित हों ले कि उनके एक बाप दादा ने हेली के कमेट को देखा था। मगर पता नहीं विज्ञान की मेरी अभिरुचि का मेरे वंशजों तक में संवहन होता रहेगा या नहीं। प्रसंगवश यह बता दूं कि कुछ ऐसी भी विश्व -हस्तियाँ हुयी हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में ही हेली कमेट को दुबारा देखा -जैसे महान लेखक मार्क ट्वेन (November 30, 1835 – April 21, 1910)।
जैसे ही हेली दर्शन का रोमांच या नशा उतरा मुझे इत्तिला दी गई कि निदेशक मत्स्य से मुझे तुरंत जाकर मिलना है। दिल की धड़कने बढ़ीं मगर जल्दी ही संयत हो गईं क्योंकि अब अज्ञात का भय सहने की आदत सी पड़ती गई थी।अगले दिन मैं निदेशक मत्स्य से उनके चैंबर में जाकर मिला। उस समय निदेशक थे वीरेंद्र कुमार जौहरी साहब जो विभागीय सेवा से ही प्रोन्नत हुए थे। मुझे देखते ही बोले, " झांसी जाओगे? सहायक निदेशक का पद खाली है " मेरे सामने सीमित विकल्प थे ,केंद्र सरकार में मुझे लिए जाने का मामला खटाई में पड़ गया लगता था। मैंने एक आज्ञाकारी मातहत की तरह हामी दे दी और उन्होंने मुझे ट्रांसफर आर्डर पकड़ा दिया। आर्डर लेकर मैं कुछ और शुभ चिंतकों से औपचारिकता वश मिलने गया जिनमें तो पहले जिक्र में चुके चुके के डी पाण्डेय साहब ही थे जो अब संयुक्त निदेशक मत्स्य पद पर प्रोन्नत हो चुके थे।
उन्होंने राज की बात यह बतायी कि मुझे झांसी भेजने की राय उनके ही द्वारा निदेशक को दी गयी थी क्योकि उनके मुताबिक़ मेरी सेवाओं का कोई लाभ विभाग को नहीं मिल पा रहा था। मगर उन्होंने सचेत किया कि मैं
झांसी पहुँच कर अपनी स्पीड वहाँ के रिटायर्ड पूर्वाधिकारी की तुलना में काफी कम रखूँ। मैं तत्काल उस वाक्य का निहितार्थ नहीं समझ पाया -हाँ झांसी पहुँचने पर इस 'महावाक्य' को समझने का प्रयास करता रहा और पूरी तरह आज भी नहीं समझ पाया -एक जन सेवक का प्राथमिक काम जनता की सेवा है। और कोई भी स्पीड गौण है, और गैर उल्लेखनीय है। मगर मुझे फिर पांडे जी ने ऐसा क्यों कहा था? क्या उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं था? हाँ ,पाण्डेय जी की ईमानदारी के किस्से कहे जाते थे मगर शायद उन्हें अपनी ईमानदारी का काफी फख्र था और उसके मुकाबले वे दुनियां के हर आदमी को कमतर ईमानदार मानते थे। ऐसी ईमानदारी का एक नशा सा होता है।
ईमानदारी निश्चय ही एक नियामत है ,सबसे अच्छी नीति है मगर ढिंढोरा पीटने का बायस नहीं। यह व्यक्ति विशेष का एक निजी जीवन मूल्य है। मगर वो है क्या कि एक जुमला काफी बहुश्रुत हो चला है कि "ईमानदारी होनी ही नहीं दिखनी भी चाहिए" … लो कर लो बात और ढिंढोरा पीटो। मैं तो मानता हूँ कि आप ईमानदार हैं तो यह दिख ही जाएगा स्वयमेव ही, उसे सायास दिखाने की जरुरत ही नहीं। और कोई व्यक्ति , सरकारी मुलाजिम सहसा ही ईमानदार नहीं हो जाता -यह एक वह जीवन मूल्य है जो संस्कार , पारिवारिक परिवेश और खुद की वंशाणुवीय संरचना (जेनेटिक मेक अप ) के मेलजोल से उपजता है.
ab ye अब ये संस्मरण शिखर की औए ले जाने लगा है। आप के अपने खानदानी खंड ही नहीं अंतयत्र भी संततियां आपके दिखाए विज्ञान पथ पर आगे बढ़ेंगी। "तू निष्काम कर्म कर अर्जुन "
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंये ऐसे लोगों से बहुत कोफ़्त होती है, जो पहेलियाँ बूझ देते हैं और ज्यादा कुछ बताते नहीं..
जवाब देंहटाएंसेवा संस्मरण अच्छा बन रहा है पार्थ----- गांडीव रखना नहीं←
जवाब देंहटाएंईमानदार मेमनो का शिकार होना उनकी नियति है
अपने गुणों को जो दिखाने का प्रयास करते हैं वे गुणवान नहीं हैं । गुण तो चमकता हुआ सूरज है वह तो अँधे को भी दिख जाता है । " कर्मन्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संङ्गोsस्त्व्कर्मणि ॥" हे अर्जुन ! तुम कर्म करो, फल की अभिलाषा मत करो ।
जवाब देंहटाएंईमानदारी का ढिंढोरा पीटने की जरुरत नहीं , स्वयं ही नजर आ जाती है। यह बात दीगर है कि वर्त्तमान परिस्थतियों में ईमानदार रहना कितना सम्भव है !
जवाब देंहटाएंझांसी के बारे में एक और कहावत प्रचलित है:
जवाब देंहटाएंराह सतरदार नहीं,
औरत बिना यार नहीं,
मर्द पानीदार नहीं।
बाकी ईमानदारी की क्या कहें?
हम तो बस यही कामना करते हैं कि आप २०६१ में भी धूमकेतु का दर्शन कर पाएं (यह असंभव तो नहीं).
जवाब देंहटाएंकाश! शुक्रिया
हटाएंईमानदारी बरतना एक बात है और दिखाना बिल्कुल दूसरी बात। यदि इसे दिखाने की कोशिश करने पड़े तो समझिए कि आप शक और प्रवंचना को दावत दे रहे हैं।
जवाब देंहटाएंकोई व्यक्ति , सरकारी मुलाजिम सहसा ही ईमानदार नहीं हो जाता -यह एक वह जीवन मूल्य है जो संस्कार , पारिवारिक परिवेश और खुद की वंशाणुवीय संरचना (जेनेटिक मेक अप ) के मेलजोल से उपजता है।
जवाब देंहटाएंशानदार बात।
सत्य वचन !
हटाएंविश्लेषण प्रधान अनुभवों का दस्तावेज़ है ये संस्मरण , । आभार आपकी टिपण्णी का। ये टिपण्णी कभी कभार लेखन की आंच को दहका देतीं हैं।
जवाब देंहटाएंधूमकेतु को देखने की लालसा लिए ही जीना है , जब जाना है तब जायेंगे !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
आंनदित फांसी का फंदा.. जानना रोचक होगा ..
जवाब देंहटाएंईमानदार रहना वो भी जब वातावरण ऐसा न हो बहुत मुश्किल होता है .. और ऊपर से दिखाना भी पड़े ... बड़ा दुष्कर कर्म है ... रोचक चल रहा है संस्मरण ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दादा !गिरते पड़ते भारत पहुँच गए हैं तबीयत वहीँ से खराब चल रही थी ,शेष कमी मुम्बई के प्रदूषण ने पूरी कर दी।
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