बुधवार, 19 जनवरी 2011

ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है-मृणाल पांडे

इन दिनों गालियाँ भी खूब ग्लोरिफायिड हो  रही हैं .यहाँ ब्लॉग जगत में स्पंदन पर  शुरू हुई सुगबुगाहट फ़ुरसतिया तक पहुँचते पहुँचते एक बवंडर बन  गयी और अब मृणाल पाण्डेय जी के मानस को आलोड़ित कर रही हैं .उनका कहना है कि अपना ब्लॉग जगत गाली गलौज की फैक्ट्री बन गया है और इससे वे काफी संवेदित दिख रही हैं! उनका पूरा आलेख यहाँ पढ़ सकते हैं .उन्होंने गाली गलौज के बढ़ते लोकाचार को एक अप संस्कृति का आवेग माना है .आईये फिर से एक गाली विमर्श करते हैं अरे भाई गाली गलौज नहीं ...बस इसलिए कि मुझे भी कुछ कहना है ...

पहले तो गाली गलौज का मनोविज्ञान समझने की कोशिश करते हैं -लोक जीवन में गालियों का इतना सहज प्रयोग होता है कि बिना उनके शायद संवादों की प्रभावशीलता ही कुंद पड़ जाए -कितने ही मुहावरे और कहावतें ऐसी हैं जिनसे अगर गाली तत्व पृथक कर दिया जाय तो वे निष्प्रभावी हो जायं -गाली युक्त लोकोक्तियाँ गहरा मार करती हैं और बेहद सम्प्रेषणीय हैं  -कितनी ही लोकोक्तियाँ पुरुष नारी  के मूल स्थानों से जुड़ कर निशाने पर सटीक चोट करती हैं और साहित्य की लक्षणा और व्यंजना को समृद्ध करती हैं .. ....अनेक उदाहरण हैं -बाप **हि न जाने पुत्र शंख बजाये (मतलब बाप की दैन्यता और पुत्र की विलासिता ) .....जहाँ निज गा* वहां भगईए नाई (मतलब दिखावट बहुत  मगर हालत पतली )...आधी रहरी  लियें जायं बहन  बहन कहें जाय(प्रगट में तो सौजन्यता  मगर नीयत में खोट )   ...गा* पर दिया बारना (अति कर देना ) ....आदि आदि ..आशय यह कि अगर ये गालियाँ लोक जीवन और लोकाचार से निकाल दी जायं तो ग्राम्य संवाद का एक बड़ा क्षेत्र सूना पड़ जाय ..जाहिर है यहाँ ये गालियाँ अश्लीलता का पर्याय नहीं हैं ...हाँ हंसी मजाक के अवसर  जरुर हैं ..

लोकाचार  की ही बात करिए तो शादी बिआह के वक्त गालियाँ गाने की एक बहुत ही संवेदनायुक्त परम्परा/रस्म  हमारे यहाँ सदियों से रही है ...जरा शिव विवाह के समय की मानस की इन पंक्तियों पर गौर कीजिये -
नारिवृन्द सुर जेंवत  जानी .लगी देन  गारी मृदु बानी   और 
गारी मधुर स्वर देहिं सुन्दर बिंग्य बचन सुनावहीं
भोजन करहुं सुर अति विलम्बु बिनोद सुनि सचु पावहीं 
लीजिये जनाब यहाँ तो गाली की  एक अलग तासीर ही है ....यहाँ मधुर बचन में देवताओं तक को गालियाँ दी जा रही हैं और वे उन्हें सुन सुन कर इतना आनंदित हो रहे हैं कि खाने में विलम्ब कर रहे हैं ताकि सुनाने वालियों का जी भर जाय और उनकी संतृप्ति से वे भी यानि देवतागण भी संतुष्ट हो जायं. यह मानस  की कोई गयी बीती बात नहीं है . आज भी भारत के एक बड़े भौगोलिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर गालियाँ खूब सुनी सुनायी जाती हैं ...कोई इनके मनोविज्ञान पर भी तो विचार विमर्श करे -ये यहाँ तो हमारे  एक मूल जैवीय (सु ) कृत्य के स्मरण उल्लेख मात्र से आपसी स्नेह सम्बन्धों में फेविकोल का काम कर रही हैं -यहाँ तो गाली एक मांगलिक और पुनीत उद्येश्य बन गयी है ...

आईये एक और पहलू लेते हैं ..मुझे लगता है यह बात तो सभी को स्वीकार्य होगी कि गालियाँ बोलने वाले के पक्ष में एक दबंगता का माहौल सृजित करती हैं -आक्रामकता प्रायः पुरुष के मूल अंग से संयुत गालियों के रूप में प्रगट हो उठती है ..प्रकारांतर से दब्बू ,कथित  भद्र या नागरी मिथ्याचरण के अभ्यस्त लोग अवाक से हो उठते हैं ..मुझे लगता है गलियों का यही परिप्रेक्ष्य भद्र जनों को बेंध रहा है .नो वन किल्ल्ड जेसिका की एक महिला पात्र जब अपने हवाई सफ़र में सहयात्री से सहसा ही गा* की  गाली देती है तो सहयात्री अवाक रह जाता है ....जाहिर है महिलायें अब अपनी ओढाई शील सौजन्यता के चोले को उतार दबंग दिखना चाहती हैं -प्रकारांतर से यह कहना चाहती हैं कि देख लुच्चे तुम्हारे साथ कंधे से कन्धा मिलाती मैं  कतई वल्नरेबल नहीं हूँ -तेरी तरह ही दबंग हूँ ...लेकिन डर यहीं है -हर जगह पुरुष की अनुकृति का उन्हें कोई बड़ी कीमत  भी चुकानी पड़ जाती है  ...क्योकि जो असली दबंग होगा और जो भी होगा अपना सिक्का चला लेगा ..यहाँ एक विषयांतर हो सकता है मगर मैं अभी उस विषयांतर को तरजीह नहीं देना चाहता -लोग आँखे  गड़ाए बैठे हैं! 

मुझे यह भी लगता है कि गलियाँ कभी कभार घोर हताशा ,दयनीयता और विकल्पहीनता के अवसर पर भी सूझती हैं -पीपली लाईव में रघुवीर यादव की मुंह से बुलवाई गयी गाली ..साले यहाँ गा* फट रही है और तुझे गवनई सूझ रही है उसकी वेदना को व्यक्त करती है ...एक असहाय और व्यवस्था के मारे आदमी के मुंह से गालियाँ अक्सर फूट पड़ती हैं जो उसके घोर निराशा और व्यवस्था के प्रति उभरे नैराश्यपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाती हैं ...जाहिर है हम सभी गालियों को एक ही पैमाने पर नहीं ले सकते ...देश काल परिस्थिति और परिप्रेक्ष्य के अनुसार इनके औचित्य पर विचार किया जाना चाहिए ...भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में झगडालू औरतों का एक बड़ा वजूद ही है जिनके आगे बड़े बड़े दबंग पानी मांग जायं! शायद आज की असेर्टिव शहरी नारियों के लिए वे एक बेहतर रोल माडल हों! 

गलियों का कोई भी विमर्श  अधूरा रह जाएगा अगर मानव जीवन के इस सुभाषितम पहलू के पीछे दमित यौन भावना या कुंठित यौनिकता का विवेचन नहीं किया जाता ..मुझे कभी कभी लगता है कि ज्यादातर ग्राम्यांचलों में  सामान्य जीवन पर लगे पहरों के चलते महिलाओं  की यौन कुंठायें इन्ही गालियों के जरिये शमित हो जाती होंगी  ..और मांगलिक  अवसरों पर उनका एक महिमंडित रूप भी नेपथ्य से  प्रगट होता है ....जो फंतासी प्रिय मानव मन को जागृत या स्वप्न में भी बहुविध आलोडित करता होगा....इस अध्ययन क्षेत्र का समाजविदों और मनोविज्ञानियों द्वारा  उत्खनन मानव ज्ञान की अभिवृद्धि के लिए होना चाहिए ...
और   हाँ ,  मृणाल पांडे जी जाहिर है  हिन्दी ब्लागों को ईमानदारी से नहीं पढ़तीं -और एक सहज बोध के तहत ही वह जुमला उछाल दिया! लगता है नए मीडिया के अवतरण से इन्द्रासन डगमगाने लग गया है ….वैसे भी ब्लॉग जगत को गाली गलौज से बस चंद लोग ही विभूषित कर रहे हैं और यह उनकी अभिव्यक्ति की समस्या हो सकती है-शायद हम उन्हें ध्यान से सुन नहीं पा रहे या फिर वे निरंतर हाशिये पर जाते हुए आर्तनाद से कर रहे हैं या फिर कहीं कोई चोट लगी है गहरी उन्हें .अब हैं तो वे हमारे ही भाई बन्धु  .  मुझे याद है मेरा एक मित्र दारोगा का बेटा था ,दिल से बहुत अच्छा था मगर ऐसी धाराप्रवाह गलियाँ देता था की कान बंद करने पड़ जाते थे-बचपन के अवचेतन में वे गालियाँ बाप से सीख ली थी जिन्हें हार्ड कोर क्रिमिनल पर नियन्त्रण करने के लिए इस्तेमाल में लाना जरुरी रहा होगा  -मगर उनके पुत्र गालियों को उनके अर्थ बोध के साथ प्रयोग नहीं करते थे..निश्चय ही उनके पिता का भी ऐसा बोध नहीं ही रहा होगा ...हमरा परिवेश भी गलियां ,अपशब्द सिखला देता है .

आशा है मृणाल  पाण्डेय जी को ब्लॉग जगत का यह गाली -आख्यान पसंद आएगा और वे एक बार फिर गाली  शास्त्र विधान पर पुनर्चिन्तन करेगीं!
विषय की अन्यत्र चर्चा -
डॉ  दिनेश राय द्विवेदी 
गालियों पर गिरिजेश


52 टिप्‍पणियां:

  1. अरविन्द जी ,
    अपशब्दों पर लेखन के प्रेरणा स्रोत पता चले :)

    विस्तृत प्रतिक्रिया यदि संभव हुआ तो बाद में देता हूं !

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  2. मिश्रजी, आप ने जो लिखा ऊ सत्य है. परंतु आजकल जो कुछ ब्लागजगत मे हो रहा है वो कितना जायज है? हर पुरातन अऊर शीर्ष बिलागर को मां बहन का गाली से नवाजा जा रहा है। और जिस तरह से दुसरे के नाम से कई ब्लागों पर छदम लोगो ने कमेंट करना शुरू किये हैं वो कितना जायज है? समीरलाल, फ़ुरसतिया, अरविंद मिश्र, ताऊ, सतीश सक्सेना और ना भी ना जाने कितने ही भले बुरे लोगों के नाम से जगह जगह नकली कमेंट यू.आर.एल. से किया जारहा है.

    इतना नक्की मानिये कि बेनामी कमेंट से यह खतरा जियादे है क्योंकि जो लोग नया नया है अऊर टेकनीक नाही जानता है ऊ सब तो ये नकली कमेंट को भी असली ही समझबे करेगा ना?

    हमको लगता है कि अब हिंदी ब्लागिंग का बहुत ही बुरा बकहत आ गया है. आपस में खेंचतान, नाराजी, ठिठोली मौज ई सब तक बात ठीक था पर आप देखते जाईये कि अब इंहा से कितना लोग पलायन कर गया है? अऊर भाई अब हम भी विदा लेता हूं, ई हिंदी का कमान आप लोग ही संभालिए.

    -राधे राधे सटक बिहारी

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  3. “बड़े बूढों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो, जो आधा गाँव में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता. परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिले? पुरस्कार मिलने में कोई नुकसान नहीं, फायदा ही है. परन्तु मैं साहित्यकार हूँ. मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूंगा. मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूं कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूंगा. कोई बड़ा बूढा यह बताये कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं वहां मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूं? डॉट डॉट डॉट. तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं.

    गालियाँ मुझे भी अच्छी नहीं लगती. मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है. परन्तु लोग सडकों पर गालियाँ बकते हैं. पड़ोस से गालियों की आवाज़ आती है. और मैं अपने कान बंद नहीं करता, यही आप भी करते होंगे. यदि मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं तो आप मुझे क्यों दौड़ाते हैं.? वे पात्र अपने घरों में गालियाँ बक रहे हैं. वे न मेरे घर में हैं - न आपके घर में. इसीलिए साहब, साहित्य अकादेमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जुबान नहीं काट सकता। "

    - डॉ. राही मासूम रज़ा

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  4. काशीनाथ सिंह का उपन्यास जिसपर डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेदी फिल्म बना रहे हैं... ज़रा पढ़ कर देखा जाए!

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  5. उपन्यास का नमवे लिखना त भुला गए..काशी का अस्सी.

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. मृणाल पाण्डे जी ने जो लिखा ब्लॉग के बारे में:
    ब्लॉगजगत गालीयुक्त हिन्दी का जितना जितने बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है उससे लगता है कि गाली दिये बिना न तो विद्रोह को सार्थक स्वर दिया जा सकता है न प्रेम को। यह बात सिरे से गलत है। यह धारणा बनाकर सैम्पल चुनने जैसा काम किया होगा उन्होंने। या फ़िर दो-चार गालीगलौज वाले ब्लॉग देखे होंगे उन्होंने और उसी में इंटीग्रेशन कैलकुलस घुसा दिया होगा। हिन्दी के ब्लॉगों में गाली-गलौज है, अबे-तबे है लेकिन वह अल्पमत में है। बहुमत में मध्यमवर्गीय शर्मीले लेखक-पाठक हैं जो कभी ऐसा कुछ लिखते भी हैं तो **** की आड़ लेकर।

    मृणाल जी की सोच है। वे जब कभी ब्लॉग से जुड़ें शायद तब अपनी धारणा बदलने के लिये बध्य हों।

    गालियों के बारे में मैं पहले भी बहुत विस्तार से लिख चुका हूं। अब और क्या लिखा जाये! लेकिन यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मृणाल पान्डेजी की बात सिरे से गलत भले न हो लेकिन बिल्कुल सही तो कतई नहीं है। उनके वक्तव्य को सिर्फ़ एक वक्तव्य से अधिक लेने का कोई कारण समझ में नहीं आता मुझे। :)

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  8. दिनेश जी ने सही ध्यान दिलाया है। यह मृणाल जी का दृष्टिदोष है। रही गालियों की बात तो अब तक लोग कुतर्क के सहारे ही उन्हें महिमामण्डित किए जा रहे हैं।

    विवाह गीत के रूप में गारी के बारे में यही कहुंगा कि उसका आकार-प्रकार क्षेत्र के अनुसार बदलता रहता है। उलाहने-शिकायतें-उपहास और कामकुंठा का विरेचन दोनों अलग-अलग बाते हैं। शर्म से सिर झुक जाए ऐसी गालियां हर जगह नहीं दी जाती। न ही महिमामण्डित की जातीं है।

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  9. यह ठीक है कि हिन्दी ब्लाग जगत में कभी कभी कतिपय लोग गालियों का प्रयोग करते हैं।
    लेकिन मृणाल पाण्डे जी का यह कहना कि "ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है" एक दम मिथ्या बात है। यदि गाली-गलौच के प्रयोग का अनुपात देखेंगे तो वह आटे में नोन जितना और पानी में क्लोरीन जितना भी नहीं निकलेगा। मृणाल पाण्डे इस तरह एक और तो सनसनी फैला कर खुद चर्चित बने रहना चाहती हैं, दूसरी ओर हिन्दी ब्लाग जगत को बदनाम भी कर रही हैं। इस के पीछे उन का उद्देश्य क्या है? यह तो वे ही बेहतर बता सकती हैं, मैं अनुमान से कुछ कहना उचित नहीं समझता। मैं उस आलेख में व्यक्त उक्त पंक्ति औऱ उस की भावना की घोर निन्दा करता हूँ। सभी सुधी ब्लागीरों को इस की निन्दा करनी चाहिए।

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  10. लो जी, शुकुल जी खुदे गाली खाने खिलाने को तैयार बैठे हैं त मृणाल जी का भी लगता है माथा खिसक गवा है जो जबरन चिंता ले रही हैं? इहां त सबे शुकुल जी के चेले चपाटी लगत हैं, देवो भईया खूबे गाली देव हमरा क्या जात है? हमऊं तैयार हुई जाब।

    -राधे राधे सटक बिहारी

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  11. ब्लागों को पढ़ें तब तो पता चले, सुन कर ही कहना हो कुंछ भी कहें. इन्हें यूं भी टोकने की फ़ुर्सत किसे है ...

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  12. मिश्रा जी आपका जवाब नहीं है, भईया गाली पर इतना कुछ लिखा जा सकता है, खैर आप हो तो सब संभव है । मृणाल जी को क्या कहा जाए शायद ब्लोगिंग अल्पज्ञता के कारण उन्होनें ऐसा कहा ।

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  13. गालियों पर कुछ लिखना आता ही नहीं हाँ अनूप शुक्ल को यहाँ देखकर प्रसन्नता हुई और यह विषय अनूप जी को भी पसंद है ! शुभकामनायें !

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  14. लेख के सभी सन्दर्भ तो नहीं, लेकिन आपका लेख और मृणाल पाण्डेय का लेख पढ़ा | गाली के सन्दर्भ में मृणाल पाण्डेय के विचारों से सहमत हूँ |लेकिन उनके इस वाक्य से नहीं -मुंबइया फिल्मों तथा नेट ने एक नई हिंदी की रचना के लिए हिंदी पट्टी के आधी-अधूरी भाषाई समझ वालों को मानो एक विशाल श्यामपट्ट थमा दिया है।

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  15. @हेम जी ,
    "हिंदी पट्टी के आधी-अधूरी भाषाई समझ" की प्रतिक्रिया में ही यह टूटी फूटी प्रस्तुति है !

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  16. .
    .
    .
    पर हमको जरूरत है वैचारिक अभियान की, जो गाली-गलौज की चमत्कारप्रिय मानसिकता से ऊपर उठाकर हिंदी समाज को अपनी बुनियादी ताकत और महत्व से रू-ब-रू करे। जनभाषा के रूप में हिंदी की ऐसी सफाई का काम अकादमिक जगत नहीं, साहित्य ही कर सकता है।

    आदरणीय अरविन्द मिश्र जी,

    'गाली चिंतन' के बहाने यहाँ पर एजेंडा कुछ दूसरा ही है... यह बात जबकि शीशे की तरह साफ है कि ब्लॉगिंग साहित्य नहीं है, यह एक ऐसी विधा है जिसको डिफाइन करने के लिये शायद अभी तक एक उपयुक्त शब्द नहीं है हमारे पास... इस तरह के लेख लिखने का एक ही मकसद है और वह है कि ब्लॉग-मूवमेंट को हाईजैक कर अपने डोलते आसनों को स्थिर रखना...

    बाई द वे, ब्लॉगवुड मृणाल पान्डे जी की क्यों सुने...हमें तो कभी नहीं दिखी वे यहाँ...

    सौ बात की एक बात...ब्लॉगों की भाषा तो वही रहेगी जो उस ब्लॉग का ब्लॉगलेखक अपने रोजमर्रा के व्यवहार में बोलता है... जिसे पढ़ना हो पढ़े, नहीं तो अपनी स्टडी में जाये...


    ...

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  17. "एक असहाय और व्यवस्था के मारे आदमी के मुंह से गालियाँ अक्सर फूट पड़ती हैं जो उसके घोर निराशा और व्यवस्था के प्रति उभरे नैराश्यपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाती हैं ...जाहिर है हम सभी गालियों को एक ही पैमाने पर नहीं ले सकते ...देश काल परिस्थिति और परिप्रेक्ष्य के अनुसार इनके औचित्य पर विचार किया
    जाना चाहिए ..."
    गालियों के मनोविज्ञान को समग्र रूप से रखा है आपने इस पोस्ट में.

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  18. गारी तो लोक जीवन का एक अंग है,समाज इससे निवृत्ति नही पा सकता ,हाँ यह जरूर है है कि एक मर्यादा में ही यह प्रयुक्त हो. आज भी लोक-मंगल के अवसरों पर सात्विकता के साथ गारी एक श्रृंगार मानी जाती है .केवल कुछ एक अपवादों को देख कर पूरे ब्लॉग जगत का स्वरुप निर्धारित कर देना उचित नहीं लगता.

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  19. आह भर कर गालियाँ दो, पेट भर कर बददुआ।

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  20. ये तो एक हॉट टॉपिक हो गया है...रोज ही,इस पर कुछ ना कुछ मिल जाता है,पढने को...

    ब्लॉग-जगत से सम्बंधित ,मृणाल पाण्डेय की जानकारी निश्चय ही आधी-अधूरी है....ब्लॉग को भला-बुरा कह...ध्यान आकृष्ट करने की चेष्टा ही अधिक लगती है.

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  21. शायद मृणाल पांडे जी को पता नहीं है कि जहां साहित्य अब भी पुराने घिसे पिटे शब्दों वाले गालीयों का इस्तेमाल करता है, वहां पर यही हिंदी ब्लॉगजगत नई नई गालीयां इजाद कर रहा है।

    आज की तारीख में कोई किसी को 'पलटदास' कह दे तो :)

    और हां, 'लत्ता बीनवा' जैसे खतरनाक देशज शब्दालंकार का शुद्ध हिंदी और अंगरेजी तर्जुमा तक देने की हैसियत रखता है यही हिंदी ब्लॉग जगत :)

    रही बात मृणाल जी के लेख की तो उनके लेख से आधा अधूरा सहमत हूं, पूरी तरह नहीं।

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  22. बहुत सुंदर जी जो मुझे गालिया देता हे टिपण्णी मे मै उसे यहां प्रकाशित कर देता हुं, क्योकि मुझे गाली देना अच्छा नही लगता, लेकिन उस टिपण्णी को पढने वाला जरुर उसे ही गालियां दे देता होगा, मेरा काम हो जाता हे, एक गाली के बदले उसे २०, ३० गालिया आराम से मिल जाती होगी,

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  23. सुंदर प्रस्तुति.......... अच्छा विश्लेषण है.

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  24. शादी-ब्याह में तो औरतों को गाली देते तो हमने भी सूना है. और कोई बुरा भी नहीं मानता. शायद ये मानस-काल से ही चली प्रथा होगी.
    एक बात और. स्त्रीओं को पुरुष की बराबरी करने के लिए उनकी तरह गाली देने की जरूरत तो नहीं. क्या "गाली ना देना" लड़कियों को लड़कों से बेहतर नहीं बनाता?

    सलिल साहब! ये द्विवेदीजी का फिलिम कब आ रहा है. हम सुने थे कि वो शिवाजी सावंत के किताब "मृत्युंजय" पर भी कोई फिलिम ता सिरिअल बनाने वाले थे..उसका कोनो खबर है क्या?

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  25. मृणाल पाण्डे द्वारा,जिस आशय और प्रयोजन से लिखा गया है, वह किसी भय से ही निर्थक ब्लॉग निन्दा का प्रयास है।

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  26. हम बोलेगा तो बोलोगे के बोलता है
    झपाटा मारके सभी की पोल खोलता है।
    हैलो अनूप जी, हाऊ आर यू नाव-अ-डेज़ ? आपके लिए मृणाल जी को मोर्चे पर आना पड़ा। वैरी गुड। इतनी बड़ी हस्ती को ब्लॉग की ताक़त मालुम पड़ ही गई।
    मगर एक बात कहूँ ? ये सब प्रिंट मीडिया की साज़िश है ब्लॉग को बदनाम करके बंद करवाने की। जुट पड़ो भैये लोग इस साज़िश को रोकने के लिए। वकील साह्ब दिनेश जी ठीक कह रहे हैं।

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  27. 8-10 दिनो से नेट से दूर हूँ। लगता है बहुत पानी बह गया। ब्लॉग जगत की थोड़ी सी लापरवाही पहले उपेक्षाभाव से ग्रसित प्रिंट मीडिया को अच्छा विषय चुनने का आधार दे जाती है। अनूप जी ने सही लिखा ..धारणा बनाकर सैम्पल चुनने जैसा काम ..अब सागर में छुपे मोती ढूंढने की जहमत तो कोई नहीं न उठाना चाहेगा।
    ..इस विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए तथा और भी जानकारी देने के लिए धन्यवाद।

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  28. कोई भी गूगल पर जाएँ और किसी "मस्तराम" जैसी कहानियों का एक "बुरा" शब्द सर्च करें तो हजारों पेज उन्हें वैसी कहानियों का मिल जाएगा.. जिसमें से अधिकाँश चीजें किसी ना किसी ब्लॉग पर ही होगा.. अब ऐसे में कोई यह साबित करने पर तुल जाए कि हिंदी ब्लोगिंग में सिर्फ वही लिखा जाता है तो इसे क्या कहा जाएगा? कम से कम मैं तो उसे मानसिक रूप से दिवालिया ही मानूंगा चाहे वह कोई भी हो, बड़ा नाम या छोटा नाम..

    और रही बात गाली की तो मुझे एक किस्सा याद आ रहा है जो घर में कई दफे हंसी मजाक में सुनाई गई है.. कहीं एक शादी हो रही थी.. अंत में खाना खाते समय बाराती खाना खाने से मना कर देते हैं.. उनकी एक मांग रहती है कि पहले गालियों वाला गाना सुनाया जाए तभी खाना खाऊंगा..
    यह कई मायनों में हमारी ही इस "महान संस्कृति" का हिस्सा है जो कई दफे अपनापन के चलते उभर कर बाहर आती है तो कई दफे अपने मन कि कुंठा को प्रकट करने के लिए..

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  29. गालियां लोकोक्तियों या मुहावरों का ही एक प्रकार हैं.लिंग्विस्टिक्स में इन्हें फ्रोजेन एक्सप्रेशन कहते हैं.
    ये भाषा के मूल स्वरूप को बचाये रखते हैं .

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  30. शादियों और पर्वों पर गाये जाने वाले मंगल गीतों और कुत्सित भावनाओं को दर्शाने और दूसरों को अपमानित करने के लिए कुटिल भाव से दी गयी गालियों में बहुत अंतर होता है !

    हो सकता है की मृणाल जी की नजरों में गालिमय पोस्ट ज्यादा आई हों ...

    गालियों का ग्लैमराईजेशन कर उसे अशिक्षित लोगों की भाषा से उठाकर तथाकथित पढ़े लिखे सभ्य लोगों के उपयोग के लिए तार्किक बनाने का विरोध किया जाना चाहिए ...!

    दबंग होने के लिए गालियों का अधिकतम प्रयोग कत्तई आवश्यक नहीं है... !

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  31. @अभिषेक ,
    जरा अपनी बात को और एलाबोरेट करिए !

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  32. गली गली में गाली चर्चा ही चल रही है :)

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  33. vayktigat vaimanysta ke karan ek-doosre ko gali dena .... samaj me/cinema me/acadmic sahitya me ya phir bloging me ..... iski bhartsna
    honi hi chahiye lekin lok aur manas
    se jure....kalantar se sanskriti se
    jure hue hain .....oose kisi bhi tarah kharij nahi kiya ja sakta...

    samvedna ke swar ne jo 'rahi masoom raja' ko quot kiya hai.....o kahan se galat hai....kya mrinal pandeyji
    ise samjha payengi.....

    jahan tak unke lekh ka auchitya hai.....o kinihi durabhsandhiyon ka
    sikar lagti hain.....

    apne bahut achhi vivechna ki hai galiyon par.....bina kisi gali ke..

    pranam.

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  34. मैंने इस पोस्ट को पढने के बाद मृणाल पण्डे जी की पोस्ट भी पढ़ी. उनसे भी मैंने स्पष्ट किया कि ब्लॉग जगत में सिर्फ गालियाँ ही नहीं बह रही हैं, बल्कि स्तरीय साहित्य भी रचा जा रहा है. ऐसा न होता तो प्रतिष्ठित साहित्यकार ' श्री गिरिराज किशोर जी' और 'अशोक चक्रधर ji' जैसे गणमान्य लोग आज ब्लॉग जगत में न होते.
    भाषाई दृष्टिकोण से देखें तो गालियों का प्रमुखतः कोई शाब्दिक व सार्थक अर्थ नहीं होता. मगर किसी क्रोधित या हालात से हताश व्यक्ति को गौर से देखें. एक मोड़ पर शब्द उसका साथ छोड़ जाते हैं. दिमाग और जिह्वा का तालमेल टूट जाता है और तब वह अपने आवेगों को अभिव्यक्त करने के लिए या तो हिंसक हो जाता है, रो पड़ता है या फिर सहारा लेता है गालियों का.

    गालियों को एक स्तर पर सामाजिक स्वीकृति भी मिली हुई है. अगर एक रिक्शा वाला गाली दे रहा हो तो वो अभद्रता मानी जाती है, और यदि एक IITian गाली दे तो वो 'ओवर आल development' कहलाती है. तो पहले तथाकथित सभ्य जन गालियों को claasified कर लें, फिर इसकी पात्रता पर विचार करें.
    गालियाँ निश्चित रूप से सभ्य समाज का अंग नहीं होनी चाहिए मगर यह मानसिकता भी नहीं होनी चाहिए कि अंग्रेजीदां साहबी अंदाज में गालियाँ तो स्टेटस और स्टाइल के रूप में स्वीकार कर ली जायें और निचले तबके की गालियाँ सांस्कृतिक प्रदुषण मानी जायें.
    हिंदी ब्लौगिंग को गालियों के ही परिप्रेक्ष्य में देखना कही इसी मानसिकता का अंग तो नहीं. उपरोक्त साहित्यकारों ki तरह वक्त रहते समय ki नब्ज पत्रकारिता और साहित्य के मठाधीश भी पहचान लें तो यह साहित्य के हित में ही होगा.

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  35. इससे यह तो सिद्ध हुआ कि गाली गलौच के नाम पर एक पोस्ट तो लिखी ही जा सकती है :)

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  36. हॉं, यह बात सही है कि कभी-कभी इन अपशब्‍दों (मेरे एक मिश्र सुविधा के लिए इन्‍हें जार्जियन लैंग्‍वेज कहते हैं) के बिना बात में वजन नहीं पैदा होता। ये किसी भी क्‍लास में नहीं पढाई जातीं, बावजूद इसके इतनी पापुलर हैं। लेकिन फिरभी जहां तक हो सके, इनसे समझदार व्‍यक्ति को परहेज ही करना चाहिए।
    वैसे अपशब्‍दों पर इतनी सुंदर जानकारी के लिए आभार न कहूं, तो शायद कृतघ्‍नता की श्रेणी में आ जाउँ। इसलिए शुक्रिया।


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    ज्‍योतिष,अंकविद्या,हस्‍तरेख,टोना-टोटका।
    सांपों को दूध पिलाना पुण्‍य का काम है ?

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  37. @आर्जव -आप भी कृपया एलेबोरेट करें -'फ्रोजेन इक्स्प्रेशन' से आपका क्या तात्पर्य है ?

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  38. अब तो ढूँढने ही पड़ेंगे कि गाली गलोच वाले कितने ब्लॉग हैं... नहीं तो ऐसे ही हमारे ब्लॉग देश में कोई भी फ़लाना ढिमकाना कहकर गरियाता रहेगा।

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  39. १.@ पहले तो गाली गलौज का मनोविज्ञान समझने की कोशिश करते हैं…
    गालियां “विरेचन” का एक अच्छा उपकरण हैं ! मन की सभी कुण्ठाओं की “कथारसिस” गालियों से हो जाती है !

    २.@ कितने ही मुहावरे और कहावतें ऐसी हैं जिनसे अगर गाली तत्व पृथक कर दिया जाय तो वे निष्प्रभावी हो

    गालियां लोकोक्तियों या मुहावरों का ही एक प्रकार हैं । मुहावरे इत्यादि को भाषाविघ्यान में “फ्रोजेन एक्सप्रेशन” (अपरिवर्तनीय संरचनाएं) कहा जाता है । भाषाएं दो प्रकार की होती हैं : जीवित एवं मृत । जो भाषा किसी जीवित समुदाय (“स्पीच कम्यूनिटी”) द्वारा प्रयोग में नहीं लायी जाती उसे मृत भाषा कहते हैं , भले ही उसका व्याकरण हो , साहित्य हो । उदाहरण के तौर पर वैदिक संस्कृत । जो भाषा किसी समुदाय द्वारा दैनिक भाषायी व्यवहार के लिये प्रयोग में लायी जाती है वह जीवित भाषा कहलाती हैं । यहां यह जरूरी नहीं कि उसका लिखित व्याकरण या साहित्य हो ही । जैसे पारजी , कोमाली , भोजपूरी , फ्रेंच । वस्तुतः भाषा से हमारा तात्पर्य जीवित भाषा से ही होता है । निरन्तर प्रयोग में होने के कारण विभिन्न कारकॊं जैसे किसी भी प्रकार के सामाजिक , भौगोलिक परिवर्तन से भाषा के स्वरुप में परिवर्तन होता रहता है । यह ध्वनि , शब्द , अर्थ , वाक्य विन्यास ..किसी भी स्तर पर हो सकता है । जैसे वैदिक संस्कृत में “अर्क” का अर्थ था सूर्य किन्तु बाद में यह फल का रस हो गया ! एक अन्य उदाहरण से बात और स्पष्ट होगी । पहले “सब्ज” का अर्थ था हरा । इसलिये पालक , भिन्डी इत्यादि हरी तरकारियों को ही सब्जी कहा जाता था । किन्तु धीरे धीरे यह सामान्यीकृत हो गया । अब बैंगन को भी सब्जी कहा जाता है ! किन्तु जरा “सब्ज बाग दिखलाना” मुहावरे पर विचार कीजिये ! यहां “सब्ज” के उस पुराने अर्थ के कुछ “शेड्स” अभी भी हैं ! सब कुछ हरा हरा दिखाना …….यथार्थ से इतर वायवीय आशावादिता प्रदर्शित करना…………..हो सकता है आगे के सौ सालों में (जब जलवायु परिवर्तन से सब्जियां खत्म हो जांय …….) मुर्गे को भी सब्जी कहा जाने लगे लेकिन इस मुहावरे में सब्ज का पुराना अर्थ बचा रहेगा !
    मेरी नानी मुझसे खडी में बात तो खूब करती हैं लेकिन ज्यों ही कुछ गड़बड़ हुयी…… तो मैं तो हो गया………. “पिटऊर”…..लखुन्नर” …. “पाजी”…. “अड़्बहगीं” । ये शब्द सौ साल बाद भी इन्हीं अर्थों के साथ मौजूद रहेगें । इनमें अर्थ –संकुचन , अर्थ-विस्तार , अर्थ –परिवर्तन की प्रक्रिया नहीं हो सकती ।

    इस प्रकार ये अभिव्यक्तियां भाषा के मूल स्वरूप को बचाये रखतीं हैं । जब भाषाविग्यानी अण्डमान निकोबार की विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी किसी भाषा का डाक्यूमेन्टेशन करने जाते हैं तो “किन्शिप टर्म्स” (रिश्ते नाते की शब्दावली ) व मुहावरॊं , सोशल टबूज़ जैसे गालियों , स्लैंग्स इत्यादि का विषेश तौर पर संग्रहण करते हैं । इससे उस समुदाय की संस्कृति एवं परम्पराओं के बारे में भी पता चलता है ।

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  40. @शुक्रिया अभिषेक (आर्जव )
    आपसे ऐसा ही अपेक्षित था!

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  41. इससे पहले गाली पर अनूप शुक्ल जी की व्यंग्यात्मक पोस्ट पढ़ी थी, आज आपकी मनोवैज्ञानिक पोस्ट पढ़ रही हूँ. शिखा जी की भी पोस्ट पढ़ी और अंशुमाला जी की भी. यहाँ दो लिंक और मिल गए. मृणाल जी का लेख देखा था, पर पढ़ने की ज़रूरत नहीं समझी.
    वैसे तो मैं भी ये मानती हूँ कि गालियाँ जनमानस का हिस्सा हैं. पर वाणी जी की बात से सहमत हूँ---
    'गालियों का ग्लैमराईजेशन कर उसे अशिक्षित लोगों की भाषा से उठाकर तथाकथित पढ़े लिखे सभ्य लोगों के उपयोग के लिए तार्किक बनाने का विरोध किया जाना चाहिए ...!'

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  42. अरविन्द जी, आभार इस प्रस्तुति के लिए।
    अभी पूरा नहीं पढा है। पूरा पढकर फिर आता हूं। अभी तो जो लिख आया हूं उस समाचार पर उसे यहां भी प्रस्तुत करता हूं।
    -----ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का जितने बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है, उससे लगता है कि गाली दिए बिना न तो विद्रोह को सार्थक स्वर दिया जा सकता है, न ही प्रेम को।
    अगर उदाहरण भी देते तो सच लगती यह बात। हम तो पिछले डेढ साल से ब्लॉग लेखन कर रहे हैं। इसका समर्थन नहीं करते, गालियों का और लेखिका द्वारा उपर्युक्त टिप्पणी का भी।

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  43. यहां एक बात ध्यान देने की है। हम ब्लॉगजगत को चाहे जितना भी कोस लें, पर भाषा, साहित्य और संस्कृति की भूमि को जितना उर्वर इस माध्यम ने बनाया है अथवा बना रहा है , उतना साहित्य के अन्य माध्यमों ने नहीं। हम आप जिसे साहित्य कहते हैं, यदि साहित्य केवल वही है, तो यह तय है कि आज के भ्रष्ट और पतनशील राजनीतिक दौर में जितना कारगार और तात्कालिक हस्तक्षेप ब्लॉग कर पा रहा है, उतना साहित्य के द्वारा सम्भव नही है। यह वक्त का ऐतिहासिक तकाजा है कि ब्लॉग की अहमियत को समझा और स्वीकार किया जाये। वैसे शुद्धतावादियों के बाद और बावजूद उसकी अहमियत स्थापित हो चुकी है।

    आपने बड़ी अच्छी बातें कही है अरविन्द जी , कि- "मृणाल पांडे जी जाहिर है हिन्दी ब्लागों को ईमानदारी से नहीं पढ़तीं -और एक सहज बोध के तहत ही वह जुमला उछाल दिया! लगता है नए मीडिया के अवतरण से इन्द्रासन डगमगाने लग गया है ….वैसे भी ब्लॉग जगत को गाली गलौज से बस चंद लोग ही विभूषित कर रहे हैं और यह उनकी अभिव्यक्ति की समस्या हो सकती है-शायद हम उन्हें ध्यान से सुन नहीं पा रहे या फिर वे निरंतर हाशिये पर जाते हुए आर्तनाद से कर रहे हैं या फिर कहीं कोई चोट लगी है गहरी उन्हें .अब हैं तो वे हमारे ही भाई बन्धु ....!" आपकी बातों से सहमत हूँ , वैसे जिन कुछ लोगों की बात आप कर रहे हैं वह पूरा ब्लॉगजगत जानता है, किन्तु मृणाल जी को यह नहीं भूलना चाहिए कि काबूल में सिर्फ गड्ढे नहीं होते !

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  44. उपरोक्त टिपण्णी में गड्ढे को गधे पढ़ा जाए , अर्थात काबूल में सिर्फ गधे नहीं होते

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  45. @ और हाँ , मृणाल पांडे जी जाहिर है हिन्दी ब्लागों को ईमानदारी से नहीं पढ़तीं -और एक सहज बोध के तहत ही वह जुमला उछाल दिया! लगता है नए मीडिया के अवतरण से इन्द्रासन डगमगाने लग गया है
    अब यहां तक पहुंचा हूं, यानी अंत तक पढा। आपसे सहमत हूं। इनका शासन या साम्राज्य डगमगा गया है। पाठक इधर आ रहे हैं, और इन्हें यहां ज़्यादा भाव भी नहीं मिल रहा।
    आपका गालियों पर शोधात्मक आलेख कई नई जानकारियां प्रदान कर गया।
    हमारे मिथिला में बिना गालियों के न विवाह सम्पन्न होता न ही उसका भोज हजम होता।
    .. और कई साहित्यकारों की अमूल्य कृतियां, उतनी अमूल्य या प्रसिद्ध नहीं होती यदि उनमे गालियां, या उससे भी खतरनाक ‘बोल्ड’ सीन न होते।

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  46. रविन्द्र प्रभात जी ,
    बल्कि यह और उपयुक्त होगा की काबुल में सभी घोड़े ही नहीं हैं ! :)

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