अनवरत पर हुई इस चर्चा ने मुझे प्रेरित किया है कि मैं मनुष्य की जैवीयता पर कुछ बातों को स्पष्ट करुँ ...जन स्मृतियाँ बहुत अल्पकालिक होती हैं ..मैंने मनुष्य की जैवीय प्रवृत्तियों और सांस्कृतिक विकास पर एक विस्तृत पोस्ट पहले लिखी थी (देखें यहाँ यहाँ ..) मगर लगता है जैसे 'शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिय ...' वैसे ही पोस्ट पुरानी पुनि पुनि पाठय ! !
मनुष्य का जैवीय विकास /विरासत करोड़ वर्ष से कमतर नहीं है -एक करोड़ वर्ष पहले ही उसके आदि रूप रामापिथिकेस ने धरा पर अवतरण किया और एक लम्बे जैवीय विकास के बाद मनुष्य आज का कथित सुसंस्कृत मनुष्य बना है .मनुष्य का गैर पशुओं से एक पृथक विकास हुआ है -सांस्कृतिक विकास मगर वह बहुत बाद की कहानी है ...नागरीकरण के शुरुआत के कालखंड को बहुत पीछे भी हम ले जाएँ तो हद से हद १५ से २० वर्ष पीछे लौटेंगें ...इसी में सब कुछ वैदिक काल,उपनिषदीय काल ,महाकाव्य काल सिमटा हुआ है ...जाहिर है मनुष्य का स्पष्ट सांस्कृतिक काल बहुत बाद में अस्तित्व में आया .इसके पहले वह निरा पशु न भी रहा हो पर उस पर केवल और केवल जैवीयता हावी थी ...कबीलों में हिंसक संघर्ष होते थे और अनगढ़ पत्थर की गदा से प्रतिद्वंद्वी की खोपड़ी चकनाचूर कर दी जाती थी ...वजह ? वही जर जोरू और जमीन! करीब लाख वर्ष पहले मनुष्य का ही एक निकट संबंधी था नीन्डर्थल मानव जिसमे आभूषणों और अलंकरणों के प्रति रुझान थी -अभी हाल में सीपियों के तत्कालीन गहने उत्खनन में मिले हैं ..हमारी प्रजाति यानि होमो सैपिएंस में भी ऐसे ही आरम्भिक अलंकरण की वृत्ति देर से दिखती है ...दुर्भाग्य से नीन्डर्थल अज्ञात कारणों से लुप्त हो गए या एक गंभीर अध्ययन के अनुसार होमो सैपिएंस यानि हमारे पूर्वजों ने उन्हें नेस्तनाबूद कर दिया ...होमो सैपिएंस के अफ्रीका से ६० हजार वर्ष पहले महाभिनिष्क्रमण के बाद की ये घटनाए हैं... ....
जीनो -वंशाणुओं में कुदरती बदलाव लाखो वर्ष में होते हैं ....हाँ कभी कभी कुछ उत्परिवर्तन से बदलाव तुरंत हो जाते हैं मगर वे शारीरिक विकृतियाँ ही ज्यादा उत्पन्न करते हैं जैसे नागासाकी हिरोशिमा में परमाणु बम गिरने के बाद विकिरण से जनन कोशाओं के जरिये विकृतियों का पीढ़ियों में अंतरण ...मनुष्य की पाशविक विरासत जहाँ लाखों वर्ष की है वहीं उसकी कथित सांस्कृतिक विरासत अभी महज कुछ हजार वर्ष की है ....हमारे जीन ही हमारे संरक्षक हैं .हम उनके बंदी हैं ....कभी कभी लगता है कि हमारे सांस्कृतिक विकास के पीछे भी कुदरत का ही कुछ गूढ़ गुम्फित प्रयोजन है .....कई सांस्कृतिक अनुष्ठान /संस्कार दरअसल हमारे जैवीय मंतव्यों को ही महिमा मंडित करते है -जैसे एक पति/पत्नी निष्ठता के पीछे क्या केवल हमारी सांस्कृतिक परिपाटी ही है ? नहीं! नारी की लम्बी सगर्भता और भावी पीढ़ियों की संरक्षा उसके ज्यादा देखभाल की मांग करती है -और यह मनुष्य के अस्तित्व रक्षा से सीधे जुड़ा सवाल है ....एकनिष्ठता का सांस्कृतिक महत्व दरअसल हमारे जीनो की ही एक चाल है - और मनुष्य उनकी चंगुल मे आया हुआ विवाह रस्म का निरंतर अलंकरण करता गया है -मंत्रोच्चार ,सात फेरे ,अग्नि का साक्ष्य महज इसलिए कि भावी पीढी भली चंगी रहे -पूरे विश्व में जहाँ आधुनिक जीवन शैली (अति सांस्कृतिकता /भौतिकता /सभ्यता ) के चलते तलाक अधिक होते है वहां भी दाम्पत्य निष्ठता एक आदर्श है !
मनुष्य की काबिलियत आज जो भी हो रहना वह कबीलों में ही चाहता है -यह उसके जींस की अभिव्यक्ति है -आज का सांस्कृतिक मनुष्य क्यों इतने खेमो में बटा है ? डाक्टर, वकील ,पादरी आदि कैसे कैसे अपने परिधानों से अलग वजूद बनाये हुए हैं ....यह अलग अलग गोल हैं ...और सावधान उनसे उलझने की हिमाकत मत करियो कभी ....खोपड़ी नहीं बचेगी !
जैवीयता इन सबके मूल में है -जैवीयता केवल मैथुन और जगह की मारामारी (territorialism ) ही नहीं है जैसा कि मेरे कुछ काबिल दोस्त सोचते आये हैं ...आज मनुष्य जो भी है उसकी जैवीयता ही उसकी पीठिका है ....बहुत कुछ अच्छा बुरा हमारी जैवीयता की ही देन है और मुझे प्रायः लगता है कि हमारी पूरी सांस्कृतिकता ही अपनी समग्रता में जैवीयता से ही उद्भूत है और मानव के अनेक धर्मसंकटों ,समस्याओं का हल इसी जैवीयता की बेहतर और गहरी समझ में ही निहित है ...
आज भी हम परले दर्जे के हिंस्र हैं ,जर जोरू जमीन के झगडे और जरायम आज भी केवल इसलिए ही अधिक हैं कि हम मनुष्य की जैवीय वृत्तियों की प्रायः अनदेखी कर देते हैं ....इसलिए ही नारी के वस्त्रों के चयन पर आचार संहितायें हैं ....देहरी के भीतर और बाहर की वर्जनाएं हैं ...किसलिए ..महज इसलिए कि मानव वंशावली की वाहिका कहीं खतरे में न पड़ जाय ....वो देवी है मात्रि शक्ति है मगर भस्मासुर और सुन्द उपसुन्द रूपी राक्षसों की जमात आज भी सक्रिय है .... आज भी एक नंगा कपि मनुष्य के भीतर सक्रिय है! उससे सावधान रहने की भी जरूरत है! मुझे लगता है आज के लिए इतना काफी है -अगर इतना कुछ लिखा विचार स्फुलिंगों को निर्गत कर सकेगा और कुछ भी पूर्वाग्रह रहित विचार सरणियों की निर्मिति हुई तो समझूंगा कि श्रम सार्थक हुआ !
Further Reading:
The Human Zoo
Gyaanvardhak aur Rochak vishleshan arvind ji.
जवाब देंहटाएंएक करोड़ बाद मनुष्य विकसित हो क्या बनेगा ?
जवाब देंहटाएंजर, जोरू, जमीन के त्रिसूत्र में 'जोरू' की जगह 'मरद' क्यों नहीं है?
'वन्श'नही 'वंश'
सांस्कृतिकता - ये कैसा शब्द है ?संस्कृति लिखिए न।
'मात्रि' नहीं 'मातृ'।
'स्फुलिंग' नहीं 'स्फुल्लिंग'
बाकी टिप्पणी के लिए ढेर सारा पढ़ना पड़ेगा। फिर आता हूँ।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@गिरिजेश जी ,
जवाब देंहटाएंसम्पादन के लिए शुक्रिया ,आगे का इंतज़ार है !
जैसे केशव काव्य के कठिन प्रेत थे आप वर्तनी के कठिन प्रेत हैं :)
मुझे लगता है संस्कृति और सांस्कृतिकता (दिखावापन सा बोध ) ..
मुक्ति जी कुछ प्रकाश डालें ! वे कहेगीं तो मैं विस्थापित कर दूंगा !
उम्दा पोस्ट. ज्ञान्वाधक व् रोचक.
जवाब देंहटाएंमेरे लिए यह विषय बेहद रोचक है, मगर जानकारी कम है अतः मात्र अपना शिष्य मानियेगा ! गिरिजेश राव के प्रयत्न सुंदर लगते हैं मगर यह सिर्फ विद्वानों के ब्लाग को ही सुधारते हैं जो गलती अधिक करते हैं (हम जैसे ) उन्हें कोई ठीक नहीं करेगा क्या ??
जवाब देंहटाएंअच्छी और विचारणीय पोस्ट...
जवाब देंहटाएंशोधपरक ।
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय ।
दिलचस्प...
जवाब देंहटाएं...प्रभावशाली व प्रसंशनीय पोस्ट !!!!
जवाब देंहटाएंसांस्कृतिकता संस्कृत में कोई शब्द नहीं है, हिन्दी में प्रयोग कर सकते हैं या नहीं ये हिन्दी के विद्वानों से पूछिए.
जवाब देंहटाएंपोस्ट के विषय में मैं इतना कहूँगी कि मनुष्य की जैवीयता एक सत्य है, इसे अस्वीकृत नहीं किया जा सकता, पर मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि 'जैविक निर्धारणवाद' पर ज़रूरत से ज्यादा जोर देने की मैं विरोधी हूँ. भले ही सांस्कृतिक विकास बहुत बाद में आरम्भ हुआ, पर धीरे-धीरे उसका महत्त्व बढ़ता गया है मानव विकास में. रही बात मूलभूत प्रवृत्तियों या basic instinct की तो वो स्वाभाविक है क्योंकि मनुष्य है तो आखिर जीव ही. पर मेरे विचार से सामाजिक परिस्थितियों को अनुकूल बनाकर नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर किया जा सकता है.
@मुक्ति जी ,
जवाब देंहटाएंओफ्फोह आपने भी सांस्कृतिकता का अनुमोदन नहीं किया मतलब गिरिजेश भैया सही थे ..
मगर मैं इस नए शब्द के गठन का दावा करता हूँ -सांस्कृतिकता का मतलब है संस्कृति का ऊपरी दिखावा ! हा हां !
.
जवाब देंहटाएं.
.
"मानव के अनेक धर्मसंकटों ,समस्याओं का हल इसी जैवीयता की बेहतर और गहरी समझ में ही निहित है ...
आज भी एक नंगा कपि मनुष्य के भीतर सक्रिय है! उससे सावधान रहने की भी जरूरत है!"
सत्य कथन!
आभार!
बहुत सुन्दर. सांस्कृतिकता भा गयी.
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि जैवीयता एक बिलकुल नया शब्द है जिसे आप ने पहली बार प्रयोग किया है। इसे ठीक से परिभाषित किया जाना चाहिए। यदि यह किसी अंग्रेजी शब्द का स्थानापन्न है तो उस की और इंगित किया जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंबात मनुष्य की मूलभूत जैवीय आवश्यकताओं से आरंभ हुई थी।
दिनेश जी आपका प्रेक्षण बहुत सटीक है ...
जवाब देंहटाएंजब हम विषय में डूबते हैं तो शब्द खुद ब खुद ऊपर उठ आते हैं
कुछ शब्द विज्ञान के अंगरेजी ज्ञान को हिन्दी में लाने के चलते नया बनते हैं /सायास बनाने पड़ते हैं .
आज की पोस्ट के दो नए शब्द है -.जैवीयता और सांस्कृतिकता ..
मैं भाषा विज्ञानियों और शब्द साधकों से पूरी विनम्रता से इन शब्दों पर गौर करने का आग्रह करूंगा !
जब आप इन दोनों शब्दों (जैवीयता और सांस्कृतिकता) को जोड़े में देखेगें तो ये खुद अपने को पारिभाषित होते दिखेगें !
हाँ विचारणीय केवल इतना है की क्या आज की हमारी सांस्कृतिक चमक ,कथित सुनहले नियम जैवीय बन्धनों से पूरी तरह मुक्त हैं ?
कृपया अपना मंतव्य दें !
बहुत सुंदर जी
जवाब देंहटाएंगहरी जानकारी मिली ।
जवाब देंहटाएंजैवीयता शब्द के स्थान पर जैविकता प्रयुक्त होता है हिन्दी में. वैसे दोनों ही सही शब्द नहीं है संस्कृत के हिसाब से ... सही शब्द सिर्फ जैविक और जैवीय हैं.
जवाब देंहटाएंफिर भी जैवीयता अधिक सही लग रहा है. हिन्दी में इस तरह के शब्द बनाने की छूट है बशर्ते वे प्रचालन में आ जाएँ ...
जैवीय बंधनों से समाज या संस्कृति मुक्त कहाँ हो सकती है, पर जैविक सिद्धांतों पर अधिक बल देना कम से कम मुझे सही नहीं लगता.
Samay ke sath-sath naye naye shabd bante rahte hai aur bigadte bhi rahte hain, khair ek bahut hi rochak post. maja aa gaya.
जवाब देंहटाएंमिश्रा जी, गजब का लिखा है आपने। पहली बार मुझे लग रहा है कि मैं आपके एक-एक अक्षर का समर्थन करूँ।
जवाब देंहटाएंअब आते हैं 'सांस्कृतिकता' पर।
पता नहीं लोग क्यों लकीर के फकीर बने रहना चाहते हैं। जिस प्रकार कृत्रिम से बना कृत्रिमता हो सकता है, उसी प्रकार संस्कृति से हम 'सांस्कृतिकता' क्यों नहीं बना सकते?
अंग्रेजी से सीखिए हुजूर, हर साल सैकड़ों शब्द उसमें समा जाते हैं, और हम डिक्शनरी खोल कर कहते हैं कि इस नाम का शब्द इसमें तो नहीं है।
कारण / आकस्मिकता देर से पहुंचे खेद है !
जवाब देंहटाएंडाक्टर साहब मुझे लगता है कि बहस ट्रेक से उतर सी रही है ...क्या किसी ने ये कहा कि जैविकता की आयु सामाजिकता / सांस्कृतिकता से कम है ? या ये कि सांस्कृतिकता के वजूद में आने के बाद जैविकता शून्य हो गयी है ? ...नहीं ना ? क्या आयु / समय / काल को 'प्रभुत्व' ( डामिनेंस ) का आधार कहा जा सकेगा ? यदि आपको स्मरण हो तो मनुष्य के पशु बने रहने तक के स्तर में जैवीयता के प्रभावी होने का समर्थन हमने स्वयं किया है किन्तु समाजीकृत हो चुकने के बाद जैविकता को नम्बर दो पर रखा था ( स्मरण रहे ख़ारिज नहीं किया था ) आपका आग्रह मूलतः यह है कि " जीन ही हमारे संरक्षक हैं और हम उनके बंदी है " बाद में आप इसके समर्थन में एकलनिष्ठता का तर्क भी लाये :) मित्र सत्य कहियेगा - क्या सच में जींस / जैविकता सेक्स को लेकर एकलनिष्ठता का समर्थन करती है ? या फिर इस मूल प्रवृत्ति / सहज प्रवृत्ति / पशुतुल्य / स्वाभाविक बहु समागम के जैविक आग्रह को विवाह की रीति ( सामाजिकता ) ने अपनी एकलनिष्ठता की शर्तों के अधीन बंदी बना रखा है ! स्मरण रहे कि मुस्लिम सामाजिकता इसे अधिकतम चार की बहुनिष्ठता का बंदी बनाती है :) यदि मेरे पुत्र का पालन पोषण आप करते तो वह बेचारा आपकी एकलनिष्ठता के लिए विवश हो जाता और यदि आपके पुत्र का पालन पोषण मैंने किया होता तो ? मित्र इस विषय के परम आचार्य आप है ! क्या आपको नहीं लगता कि जींस / जैविकता चाह कर भी पशुतुल्य बहु समागम की अपनी आकांक्षा के लिए स्वतंत्र खेल नहीं कर पा रहे है बल्कि वे सामाजिकता के इशारों के मोहताज और नियंत्रण में हैं ! ये बहस निस्संदेह लम्बी है और तर्क बहुतेरे हैं पर अभी केवल इतना ही कि आदि कालीन दोपायों के काल खंड में जैविकता का स्वच्छंद राज्य था ...सही है पर फिलहाल वो सामाजिकता के नियंत्रणाधीन है और उसे सामाजिकता के निर्देशों के बाहर फुदकने की इजाजत नहीं है !
बहस यह नहीं है कि सृष्टि का मूल क्या था / है ...बहस ये है कि ड्राइविंग सीट पर कौन है :)
बहस जारी रहना चाहिये ...
वाह अली सा , यह हुआ कोई प्रतिवाद ....आपके कहने का आशय यही है की जैवीयता इतनी हावी है कि हमने उसके नियमन के लिए ही कितने सुनाहलेर नियम बनाए हैं ! सहमत हूँ! बहुलनिष्ट प्रवृत्ति प्रवृत्ति ! सोचता हूँ ! आप सही कहते हुए लग रहे हैं -मुझे भी लगता तो कुछ ऐसा ही है ? मगर फिरे मेरे जैविकता पोषित एकल समर्पण सिद्धांत का क्या होगा ? मिट्टी में मिलाय दियों न ?
जवाब देंहटाएं!
*सुनाहलेर =सुनहले
जवाब देंहटाएंजहाँ आधुनिक जीवन शैली (अति सांस्कृतिकता /भौतिकता /सभ्यता ) के चलते तलाक अधिक होते है वहां भी दाम्पत्य निष्ठता एक आदर्श है ..
जवाब देंहटाएंअभी तो बस यही समझ पाए और सहमत भी ...
पूरा लेख कई बार पढना होगा ...मैं पढने और समझने में पूरा समय लेती हूँ ...
जानकारीपूर्ण!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन आलेख , नवीन एवं उपयुक्त शब्दों का हिंदी भाषा में समावेश , हिंदी भाषा को समृद्ध करेगा , उचित और अनुचित शब्दों के बारे में भाषा विज्ञानी तय करेंगे
जवाब देंहटाएंऐसी बौद्धिक बहसें होती रहनी चाहिए, लोगों की सोच का स्तर पता चलता है।
जवाब देंहटाएं--------
ब्लॉगवाणी माहौल खराब कर रहा है?
मनुष्य जितना ६०००० साल में नहीं बदला उतना पिछले ६०० साल में बदला और जितना ६०० साल में नहीं, उतना पिछले साठ साल में।
जवाब देंहटाएंचेतना का विस्फोट है यह।
यहाँ आने के पूर्व भला कहाँ जानता था कि इस अद्भुत " बहस-रस " का आस्वादन करूंगा....अब जो कर लिया तो क्या कहूँ....धन्यवाद....आभार....और क्या...!!
जवाब देंहटाएं