इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्य प्रकृति की एक सुन्दरतम संरचना है -मगर वह देवदूत है ऐसा नहीं माना जाना चाहिए! वह स्वर्ग से अवतरित कोई फ़रिश्ता नहीं बल्कि करोड़ों वर्षों के जैविक विकास से उद्भूत एक सामाजिक और 'सांस्कृतिक ' पशु ही है -जब यह बात १५० वर्ष पहले चार्ल्स डार्विन की महान कृति -"ओरिजिन " ने असंदिग्ध रूप से सामने रखी तो सारे संसार में तहलका मच गया -पादरियों ने डार्विन का घोर विरोध किया -"भला ईश्वर की बनायी गयी सृष्टि की एक बेहतरीन कृति के बारे में ऐसा घृणित विचार " को लोग सहन भी कैसे कर सकते थे.पूरे ६ दिन में सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर ने आखिर मनुष्य को अपने हाथो से अपनी खुद की प्रतिकृति (इमेज ) के रूप में बनाया था और उसकी एक पसली से उसकी सहचरी को भी उपजा दिया था -डार्विन के सिद्धांत से इस स्थापना की धज्जियां उड़ चुकी थी ..मगर धर्म के ठेकेदारों ने इस वैज्ञानिक तथ्य को मानने में एक सदी से भी अधिक समय गुजार दिया! यह एक ज्ञात इतिहास है! च्राल्स डार्विन बहुत विनम्र और खुद कभी वाद विवाद में नहीं पड़ते थे मगर जूलियन हक्सले ने पादरियों से लोहा लिया -वे डार्विन के बुलडाग माने जाते थे .कभी कभी मुझे लगता है मुझमे जूलियन हक्सले की आत्मा प्रविष्ट हो गयी है ...
मुझे जो बात सबसे बुरी लगती है वह है पढ़े लिखे लोगों की मूढ़ता और अज्ञानता जनित हठधर्मी ...ऐसे लोग समाज के लिए ज्यादा घातक है ..भोली भाली समझ के सीधे सादे लोग तो क्षम्य हैं मगर अधकचरे ज्ञान के पोंगापंथी समाज को गुमराह करते रहते हैं ...और वे हैं तो सर्वथा तिरस्कार के योग्य मगर लोकतंत्र में सब की गुजर बसर हो जाती है... आज हिटलरवाद का पुनर्जागरण हो रहा है तो इसके निहितार्थों को भी समझना होगा ....बार बार यह बात समझी और समझाई जानी चाहिए कि मनुष्य एक विकसित पशु ही है -जितनी भी मूल पाशविक वृत्तियाँ है मनुष्य में ऊर्ध्वाधर जैवीय विकास के चलते उच्चतम बिंदु पर है -आक्रामकता ,कामुकता ,क्षेत्रवाद -इन तीन वृत्तियों का पूरा परिपाक मनुष्य में आकर हुआ है और जाहिर है इनसे जुडी विसंगतियाँ भी इसी में चरम पर हैं ! उदाहरण ? क्या पशु बलात्कार करते हैं ? क्या किसी पशु ने अपने ही किसी कबीले का समूल नाश किया ? याद करिए नागासाकी हिरोशिमा! पूरा महाभारत केवल मेड़ -डांड की ही लड़ाई थी -जाहिर है पशु इतना हिंस्र नहीं है -लगता है इसलिए ही प्रकृति ने मनुष्य की चरम और निर्द्वंद्व पाशविकता पर अंकुश लगाने के लिए उसके एक नए तरीके के विकास -सांस्कृतिक विकास की कवायद शुरू की मगर उसकी जड़ें अभी ज्यादा गहरी नहीं है -अभी २० -२५ हजार वर्ष पहले तक तो आदमी गुफाओं में रहता था -जैवीय विकास के स्केल पर यह समय चंद सेकेण्ड से भी अधिक नहीं है -आशय यह कि उसकी जैविकता आज भी उस पर हावी है -उसकी सांस्कृतिक चमक "स्किन डीप " भी नहीं है .....वह सभ्यता के कथित खोल में पशु आचरण से सर्वथा मुक्त नहीं हुआ है !
आज जरूरत इस बात है कि मनुष्य के अंदर बैठे कपि के वजूद को न तो झुठलाया जाय और न ही दुलराया जाय और न ही उसे चुनौतियां दी जायं ! वह किसी भी मौजूदा वनमानुष -गोरिल्ला ,गिब्बन ,ओरांगुटान ,चिम्पान्जी और एक सैकड़ा दूसरे कापियों से किसी भी मामले में कमतर नहीं है -अधिक हिंस्र है ,अधिक कामुक है ,साल भर प्रजनन करता है ,अगम्यागम्य तक का दोषी बनता है .....आदि आदि ...उसकी असलियत की नासमझी ही कितने ही सामाजिक समस्याओं की मूल में है .
खुद को जानो तुम्हे पशु और मनुष्य का फर्क समझ में आ जायेगा ! हाँ मनुष्य अधिक प्रत्युपकारी भी है ,वंश रक्षा की भावना उसमें उच्चतम है ,स्वामिभक्त भी है (मगर जरा कुत्ते से फर्क करके देखिये! ) - साथ ही सबसे बड़ा धोखेबाज ,अहसानफरामोश और स्वजाति नाशी भी है ...कहा न कि हर जैवीय आचरण उसमे उत्स पर है! बच के रहना रे बाबा ....
(यह श्रृंखला गाहे बगाहे चलती ही रहेगी ....)
कभी कभी मुझे लगता है मुझमे जूलियन हक्सले की आत्मा प्रविष्ट हो गयी है ...
जवाब देंहटाएंतो पुनर्जन्म में विश्वास है आपका ;)
सुबह सुबह आपका आलेख पढने के बाद , अपने घर के कंगूरों पर लंगूर देखकर , मुझे लगा की मै दर्पण में देख लू की मै मानव हूँ या कपि. वैसे सब ठीक लगा , एक पूर्ण मनुष्य की तरह. आक्रामकता . लोलुपता और कामुकता अगर मनुष्य में अपनी उच्चतम स्तर पर है तो हम उसके मानसिक स्तर को कैसे भुला सकते है.. ज्ञानपरक आलेख.
जवाब देंहटाएंकहीं पढ़ रहा था कि इन्फार्मेशन थ्योरी के अनुसार मौलिक तत्वों की उथल पुथल से जीवित कोशिका सा विकसित रूप ले पाने की प्रायिकता लगभग शून्य है ।
जवाब देंहटाएंकपियों में दूसरे कबीले के संहार, उनका मांस भक्षण !! और दूसरे कबीले की मादाओं पर जबरिया अधिकार से सम्बन्धित फीचर एक बार डिस्कवरी ने दिखाया था।
जवाब देंहटाएंहमारे भीतर कथित पशुता तो रहती ही है। शिक्षा और संस्कार वगैरह तो उसे ही शमित करने के लिए होते हैं लेकिन शिक्षा बहुत गहरे प्रभाव डालने में अधिकतर असफल ही रहती है
। इसलिए आप की सलाह 'बच के रहना रे बाबा !' माननीय है।
बच कर रहने के लिए ही मैंने टिपियाना बहुत कम कर दिया है। :) पढ़ता जरूर हूँ।
"मुझे जो बात सबसे बुरी लगती है वह है पढ़े लिखे लोगों की मूढ़ता और अज्ञानता जनित हठधर्मी ...ऐसे लोग समाज के लिए ज्यादा घातक है ..भोली भाली समझ के सीधे सादे लोग तो क्षम्य हैं मगर अधकचरे ज्ञान के पोंगापंथी समाज को गुमराह करते रहते हैं .."
जवाब देंहटाएंबिलकुल ठीक कहा आपने, अफ़सोस यह है कि ऐसे लोग सम्मान भी पाते हैं और खूब पाते हैं !
मुझे जो बात सबसे बुरी लगती है वह है पढ़े लिखे लोगों की मूढ़ता और अज्ञानता जनित हठधर्मी ...ऐसे लोग समाज के लिए ज्यादा घातक है ..भोली भाली समझ के सीधे सादे लोग तो क्षम्य हैं मगर अधकचरे ज्ञान के पोंगापंथी समाज को गुमराह करते रहते हैं
जवाब देंहटाएंDr Mishra
What you may dislike about others , other may dislike about you .
None is a "perfect intelligent " and if it would be so then a "idiot " is born .
"Genius" is a contemprorary "idiot " and futuristic "genius "
All theories are just turbulence of the contemporary mind and QED happens when the mind is non turbulent and clarity of thoughts is crystal clear
DON'T UNDERESTIMATE "her" CAPABILITY THE YOUNGER THE PERSON MORE OPPORTUNITY MIND HAS TO LEARN AND GROW { unscientific!! ok but realistic insnt it . coded so that it is understood by the one its meant for !!!
-आशय यह कि उसकी जैविकता आज भी उस पर हावी है -उसकी सांस्कृतिक चमक "स्किन डीप " भी नहीं है .....वह सभ्यता के कथित खोल में पशु आचरण से सर्वथा मुक्त नहीं हुआ है !
जवाब देंहटाएंयह बात तो हर इंसान पर कही गयी है ना....या केवल पुरुषों पर?
लेख विचारणीय है
संगीता जी का प्रश्न मैं भी दोहरा रही हूँ... पशुता मानव में अब भी जीवित है, पर ये पुरुषों में ही ज्यादा क्यों दिखती है, महिलाओं में क्यों नहीं???:-)
जवाब देंहटाएंवैसे मुझे गिरिजेश जी की बात भी सही लगती है, शिक्षा और अच्छे संस्कार से हर तरह की पशुता दूर की जा सकती है...
और आपके लेख का तो मैं निष्कर्ष ही नहीं समझ पायी... आप एक ओर तो मानव की पशु-प्रवृत्ति की ओर ध्यान दिलाते हुए उससे आगाह कर रहे हैं, दुसरी ओर उसे पशु से भी गया बीता बता रहे हैं... सच-सच बताइए निम्नलिखित में से कौन सी बात सबसे सही है--
-मनुष्य मूलतः एक पशु है, इसलिए उसमें पशुत्व आज भी वर्तमान है.
-मनुष्य में पशु के कुछ गुण पाए जाते हैं.
-मनुष्य पशु से भी गया बीता है.
मेरा सोचना आप से थोडा अलग है. आप मानव को एक पशु मानते हैं, जो सामाजिक सांस्कृतिक खोल के भीतर अपनी पशु-प्रवृत्ति छुपाये हुए है... मैं मानव के एक सामाजिक प्राणी मानती हूँ... प्राणी होना पशु होना नहीं है... मनुष्य एक जीव है, इसलिए उसमें जैविक लक्षण हैं... आहार, निद्रा, मैथुन, क्षुधा आदि... पर वह पशु नहीं है... जीव या प्राणी और पशु में अंतर है मैं ये मानती हूँ और यदि जैविक प्रवृत्तियां (जो मनुष्य के जीव या प्राणी होने के कारण उसमें होती हैं) हानिकर रूप लेती हैं, तो इन्हें सामाजीकरण की प्रक्रिया से दूर किया जा सकता है, जैसा को गिरिजेश जी ने कहा है, शिक्षा उसी का अंग है.
मुक्ति जी से सहमत नही हूँ पशुता स्त्रिओं मे भी होती है मगर संचर्चना के आधार पर उसका स्वरूप अलग होता है और मै गिरिजेश जी की इस बात से [शिक्षा और संस्कार वगैरह तो उसे ही शमित करने के लिए होते हैं लेकिन शिक्षा बहुत गहरे प्रभाव डालने में अधिकतर असफल ही रहती है] सहमत हूँ। धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख |
जवाब देंहटाएंएक समय था जब मनुष्य ने सामाजिकता अपनाई पर अब शहरीकरण के दौर में पारंपरिक सामाजिकता की उपयोगिता फिर समाप्त होती दिख रही है...पशुत्व फिर लौट रहा है शायद धीरे धीरे
जवाब देंहटाएं@स्मार्ट इंडियन साहब -सचमुच बड़े स्मार्ट हैं आप -यथा नामो तथा गुणः
जवाब देंहटाएं@प्रवीण जी -प्रयोगशाला में क्रैग वेंटर ने जीव बना लिया ....कुदरत की प्रयोगशाला में कुदरत ने बनाया -प्रायिकता के सिद्धांत से जीवोत्पत्ति से मैं भी नहीं सहमत हूँ -मगर किसी चतुर्भुज ने थोड़े ही बनया होगा -क्योंकि चतुर्भुज को तो आदमी ने ही बनाया !
गिरिजेश जी मनुष्य का मनुष्य द्वारा संस्कारीकरण जारी है ...अपेक्षित परिणाम भी तो मिले ही हैं-हम रामराज्य की राह तो देख ही सकते है -दैहिक दैविक भौतिक तापा रामराज्य नहि काहुहिं व्यापा !
@रचना जी ,यह पोस्ट किसी व्यक्ति विशेष के लिए ही नहीं लिखी गयी -यह एक अकादमीय विषय है जिसे आकादमीय तरीके से ही समझाना सुलझाना होगा .
@ अब इस मुद्दे को आप जूनियर ब्लागर्स बनाम सीनियर ब्लागर्स को न सौंप दे :)
@यह बात तो हर इंसान पर कही गयी है ना....या केवल पुरुषों पर?
जवाब देंहटाएंसंगीता जी ,नारी क्या मनुष्य नहीं है ?
आज की प्रतिक्रियायें देख कर खुशी हुई ! कुछ ज्यादा लोगों ने बहस मे हिस्सा लिया , जरा खुल कर अपनी बात रखी ! यह मायने नही रखता कि कितने लोगों ने जी हुजूरी की ...बल्कि आपके कथन पर अधिकाधिक लोगों का रिएक्शन अधिक महत्वपूर्ण है भले ही वह आप के कथन के विरुद्ध ही क्यों ना हो !
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी आपने कहा कि वह देवदूत नही मनुष्य है ! मैं कहता हूँ ...उसे देवदूत होना भी नही चाहिये ! कुदरत (नेचर) ने उसे केवल मनुष्य होना नियत किया है सो उसे मनुष्य ही बने रहना चाहिये !
बहस के दौरान आपने कहा कि मनुष्य एक 'विकसित पशु' है अगर आपका आग्रह 'सावयव' को पशु कहने मे है तो मुझे कोई आपत्ति नही, क्यों कि आप उसके 'विकास' को स्वीकार कर रहे हैं ! उसे आपने 'सांस्कृतिक पशु' भी कहा ...तो मैं यह मान रहा हूँ कि कोई सावयव / पशु :) केवल सावयव / पशु मात्र नही है बल्कि उसके पास 'सांस्कृतिक'/'विकास'की पूंजी भी है ! इसलिये इस बिन्दु तक मतभेद की कोई भी गुंजायश खत्म हुई मानिये
!
अब बहस को इस बिन्दु से आगे बढाया जाये ...
आपने कहा कि 'सांस्कृतिक'विकास की आयु जैविक विकास के स्केल पर चन्द सेकेंड्स के बराबर है ...सहमत बिल्कुल सहमत तो क्या समय अवधि को श्रेष्ठ्ता का कोई स्केल मान लिया जाये ?
... फिर तो यही स्केल दर्शन बनाम विज्ञान के लिये भी कारगर होगा और ब्रम्हाण्ड में धरती के प्रादुर्भाव बनाम धरती पर सभ्यताओं के प्रादुर्भाव के लिये भी ! किंतु मेरा यह मानना है कि आपका यह आशय बिल्कुल भी नही है बल्कि जैविक विकास की दीर्घावधि को आप 'सांस्कृतिक पशु' की जैविक नाभिकता के विचार से आबद्ध करना चाह्ते है जिससे यह स्थापित हो सके कि 'विकसित' 'सांस्कृतिकता' का अस्तित्व केवल 'जैविक नाभिक' की वज़ह से सम्भव हुआ है और वह आज भी अपने नाभिक के इर्द गिर्द परिभ्रमण करने को बाध्य है , उसे जैविकता के खूंटे से परे उन्मुक्त विचरण की छूट आप नही देते हैं और इस अर्थ मे
सांस्कृतिकता जैविकता की बांदी के सिवा कुछ भी नहीं...तो फिर बहस की शुरुवात भी यही से की जाये कि जैविकता सांस्कृतिकता को अपने इशारों पर नचाती है या फिर नवयौवना सांस्कृतिकता ने
जैविकता को अपने खोल मे लेकर धाराओं पर अपनी प्रभुता कायम कर ली है !
बहस आगे जारी रहेगी ...फिलहाल आपसे एक सवाल मुझे नीग्रो स्त्रियों में खूबसूरती / सेक्स अपील क्यों नज़र नही आती ?
मैं उन्मत्त / कामातुर पशु सा व्यवहार क्यों नही करता भरे भरे स्तनों वाली अल्पवस्त्र सज्जित आदिवासी नवयौवना को देखकर ?
मित्र यह प्रश्न आपको छेड्ने की गरज़ से नही पूछ रहा हूं ...बस जी चाहता है कि बहस आगे बढे ...उत्तेजना हीन ...तनाव मुक्त ...सार्थक !
सम्बन्धों की म्रदुता के साथ !
वैसे आपके बहाने गिरिजेश जी ने बच के रहना रे बाबा वाले मंत्र का जाप आज से चालू कर ही दिया है :)
@मुक्ति ,
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी के कमेन्ट को एक बार फिर पढ़ें !वे तो बिचारे असहाय और निराश ही लग रहे हैं -मैंने थोड़ा ढांडस बढ़ाया है .
सतत विकास के चलते केवल काया ही नहीं प्राणी व्यवहार के जितने भी अवयव /पैटर्न हैं नकारात्मक और सकारात्मक सबका पूर्ण परिपाक मनुष्य में हुआ है -आप जितनी भी प्रवृत्तियाँ ,व्यवहार प्रतिरूप सोच सकें -गुण और गुनाह मनुष्य में सर्वोपरि है और देखिये तो वह कितना अहंकारी भी है कि अपने अपने पाशविक अतीत से झट से पल्ला झाड लेता है -मगरूर मनुष्य ! हा हा !
आप भला क्यों न मनुष्य की तरफदारी करें -संस्कृत और संस्कृति का अन्योनाश्रित सम्बन्ध है जो ...
एक होमवर्क दे रहा हूँ -
कुछ व्यवहार प्रतिरूपों की पहचान /चुनाव करलें और मनुष्य तथा कपि -वानर में उनका एक तुलनात्मक अध्ययन करें -
मैं कुछ टिप्स दे रहा हूँ -
गुण -स्वजाति प्रेम / रक्षा ,प्रेम-अनुराग ,समर्पण ,परोपकार ,प्रत्युपकार ,वात्सल्य ,अतीन्द्रिय बोध.
गुनाह -आक्रामकता ,घृणा ,उपेक्षा ,कृतघ्नता ,स्वजाति भक्षण (नरभक्षी ) ,धूर्तता/कुटिलता ,अहम् /अहंकार
आईये हम सब मिलकर इस सूची को बढ़ने का खेल खेलें (आपको ऐसे खेल पसंद तो हैं न -गर्मी कट जायेगी )
देखिये ना हम पशुओं को कितना पीछे छोड़ आये हैं ?
@अली सा ,
जवाब देंहटाएंसवाल तो आपका लाख टके का है -अप ही जवाब दे लेगें प्रभु मुझसे क्यूं दिलवा रहे हैं :)
जब हूर सहज उपलब्ध हैं तो राक्षसियों को कौन पूछेंगा ?हा हा ...
सौन्दर्यबोध की जीनिक/क्षेत्रिक जड़ें होती हैं .... क्या आपको वनमानुष उद्वेलित करते हैं ?
विजातीयता है मूल कारण !
@काजल जी सहमत हूँ -सामाजिकता के लोप की शुरुआत तो प्रत्यक्ष है !
जवाब देंहटाएं@ अली जी,
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ कंडीशनिंग, वातावरण, संस्कृति, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक परिवेश, संस्कार, आनुवंशिक गुणों आदि के प्रभाव का असर होता है कि एक व्यक्ति स्तन को केवल 'थन' की तरह देखता है या 'कामकुम्भ' की तरह ।
ध्यान दीजिएगा मैंने 'मनुष्य' कहा है स्त्री या पुरुष नहीं।
थोड़ा गड़बड़ हो गया। व्यक्ति=मनुष्य।
जवाब देंहटाएंइस समय फुटबाल मैच देख रहा हूँ, कोरिया वालों के आक्रमण दर्शनीय हैं - ग्रीस वालों के मिथकीय शारीरिक सौष्ठव को ठेंगा दिखा रहे हैं।
@ गिरिजेश जी
जवाब देंहटाएंबहस... कंडीशनिंग, वातावरण, संस्कृति, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक परिवेश, संस्कार ....बनाम... आनुवंशिक गुणों की है आप दोनो टीमो को एक साथ खिला रहे हैं :)
प्रायिकता को नकारते आधुनिक विकास का पश्चिमी सिद्धान्त गुलाठी लेने लगता है । प्रायिकता को higher intelligence को नकारने के लिये ढेला गया था । मनुष्य की बनावट में जो Information content है, उसकी उत्पत्ति उससे अधिक Intellitence से ही संभव है । अब इसे नकारने का पूरा का पूरा दारोमदार विज्ञान पर है । संभवतः नयी थ्योरी को जन्म मिलेगा ।
जवाब देंहटाएंएक मनुष्य (क्रैग वेंटर) द्वारा एक जीव की उत्पत्ति में information theory का कोई खंडन नहीं है । मनुष्य यदि अपने से अधिक information content का जीव बनायेगा, तब आधुनिक विकास की परिकल्पनायें सिद्ध कर पायेगा ।
वही तो। आप लोग आग्रही हो किसी एक पक्ष में न हों। खेल का आनन्द लीजिए। कुंजी मिलेगी।
जवाब देंहटाएंमुझे इन बहसों से सिस्टम थ्योरी के एक वैज्ञानिक याद आ जाते हैं। शायद अस्सी के दशक में उन्हों ने पूरे विश्व को एक सिस्टम मान कर कुछ प्रमुख वैरिएबल्स के साथ विश्लेषित किया और घोषित किया कि यदि पर्यावरण मुद्दे पर कुछ नहीं किया गया तो विश्व 2025 तक प्रलय का शिकार हो जाएगा। ... और अगर करेक्टिव उपाय करने शुरू कर दिए गए तो 2025 का प्रलय तो टल जाएगा लेकिन आगे के पचास वर्षों में महाप्रलय हो जाएगा।
@अली सा ,
जवाब देंहटाएंखिला रहे हैं या चुग्गा डाल रहे हैं ? हा हा !
@प्रवीण जी ,
पूरी दुनिया ही मानो सृजन्वादियों और विकासवादियों के बीच बंट गयी है -कांटे की टक्कर है!
मैं इस मुद्दे पर भी कुछ कहना चाहूंगी, वैसे अली जी ने इस पर अच्छी बहस की है. आपने जो ये कहा है-सांस्कृतिक विकास के लिए--जैवीय विकास के स्केल पर यह समय चंद सेकेण्ड से भी अधिक नहीं है--...मैं ये कहना चाहूंगी कि विकास अपने प्रारंभिक चरणों में धनात्मक रहता है और उसके बाद गुणात्मक होता जाता है... विकसित मनुष्य तेजी से विकास करते हैं. विगत बीस वर्षों में जितना विकास हुआ है, पिछले दो सदियों में नहीं हुआ...और ये न सिर्फ विज्ञान के स्तर पर है बल्कि चेतना के स्तर पर है... आजकल के बच्चे अधिक तेज, बुद्धिमान और संवेदनशील हैं ... और रहन-सहन पर ध्यान देने के कारण शारीरिक रूप से अधिक सक्षम और बलिष्ठ भी.
जवाब देंहटाएंजियो जूलियन हक्सले की आत्मा!
जवाब देंहटाएं@अरविन्द जी
जवाब देंहटाएंइसका मतलब ये हुआ कि बहस को आगे बढाने से पहले आपको "सौन्दर्यबोध की जीनिक/क्षेत्रिक जडों" पर अपने विचार रखने के लिये आमंत्रित किया जाये :)
ये हूर बनाम राक्षसी बनाम वनमानुष बनाम विजातीयता भी खूब कही ...आपको बतायें कि हमारे समान जीनिक / क्षेत्रिक जडों वाले "सांस्कृतिक पशु"
इन्ही आदिवासी नवयुवतियों पर टूट पडे आकर्षण लगभग बलपूर्वक प्रेम प्रदर्शन की तीव्रता के स्तर पर ! तो फिर क्या कहें इसे ? क्या यह मसला इतना सहल है ?
आपको नही लगता कि सरलीकरण से काम नही चलेगा ?
@मुक्ति जी ,
जवाब देंहटाएंकुछ स्पष्टीकरण जरूरी है ...जीन हजार सालों में बदलते नहीं देखे गए है ..उन्हें परिवेश के परिवर्तनों को ग्रहीत कर आनुवंशिकी का हिस्सा बनाने में ज्यादा समय लग जाता है
.जो तीव्र विकास है वह प्रौद्योगिकी जनित /संचालित है !
बदलाव आखिर है कहाँ ?चिंतन शील मनुष्य का स्वर्णकाल कहीं बीत तो नहीं गया ? अब तो मशीन परिचालित मनुष्य अवतरित होता दीख रहा है -और दर यह भी है कि कहीं मशीने ही मनुष्य को विस्थापित न कर दें -मनुष्य जिस तरह से मानवीय संवेदनाओं से दूर होता जा रहा है ऐसी दहशतनाक संभावनाएं विज्ञान कथाकार प्रगट कर चुके हैं ! और कल्पनाएँ तो यहाँ तक हैं कि भावनाएं मशीनों में उपज रही हैं और मनुष्य अवाक किंकर्तव्यविमूढ़ सा है !
लेकिन पशु और मनुष्य की तुलना क्यों ??
जवाब देंहटाएं@बदलाव आखिर है कहाँ ?चिंतन शील मनुष्य का स्वर्णकाल कहीं बीत तो नहीं गया ? अब तो मशीन परिचालित मनुष्य अवतरित होता दीख रहा है -और दर यह भी है कि कहीं मशीने ही मनुष्य को विस्थापित न कर दें -मनुष्य जिस तरह से मानवीय संवेदनाओं से दूर होता जा रहा है ऐसी दहशतनाक संभावनाएं विज्ञान कथाकार प्रगट कर चुके हैं ! और कल्पनाएँ तो यहाँ तक हैं कि भावनाएं मशीनों में उपज रही हैं और मनुष्य अवाक किंकर्तव्यविमूढ़ सा है...
जवाब देंहटाएं... मुझे लगता है कि यह अतिरंजित निष्कर्ष है... मुझे तो बिल्कुल नहीं लगता कि मनुष्य मानवीय संवेदनाओं से दूर होता जा रहा है... और समझ नहीं पा रही हूँ कि आप इतने नैराश्यपूर्ण निष्कर्ष क्यों निकाल रहे हैं ?
कल्पनाओं से वास्तविकता का अनुमान लगाना कहाँ तक उचित है... मेरे ख्याल से जो वर्तमान में है, हमें उसके आधार पर अपने निष्कर्ष निकलने चाहिए न कि परिकल्पनाओं के आधार पर.
अपि च, जब मशीनों में भावनाएं उत्पन्न हो सकती हैं तो आप स्पष्ट कर सकते हैं कि क्या कारण हैं कि मनुष्य में ये भावनाएँ खत्म हो रहीं हैं?
और 'मुक्ति' से 'मुक्ति जी' पर क्यों आ गए? कहीं गुस्सा तो नहीं चढ़ रहा है धीरे-धीरे ? :-)
जवाब देंहटाएंमुक्ति ,
जवाब देंहटाएंकहीं तो वैचारिक विलगाव है ही -आपने अन्यत्र लिखा था-
"मुझे ब्राह्मण होने पर कभी गर्व नहीं होता. शर्म अक्सर आती है, कभी-कभी गुस्सा आता है और कभी-कभी पछतावा भी होता है.."
आप यहाँ कम नैराश्यपूर्ण लगती हैं -मानव मनस्थितियाँ ऐसी ही होती ही हैं ..इसलिए आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए .आशावादी और निराशावादी होना भी मनुष्य की ही एक योग्यता है -कई विज्ञान कथाकार मनुष्य की भवितव्यता को लेकर निराश है ..मगर आशावादी भी हैं ..मैं कभी कभी अनिर्णय की स्थिति में रहता हूँ ....
बाकी ....मैंने आभी हाल ही में बहुत असहाय होकर एक जगह लिखा था कि मुझे बहुत ताज्जुब होता है कि किसी साधारण सी बात को लोग समझ क्यों नहीं पाते और प्रतिवाद करते रहते हैं -पर यह भी मनुष्य होने का ही एक अट्रीब्यूट है! असहमत होते रहना ......इसलिए ही तो कभी कभी लगता है न "अनिमल्स आर बेस्ट फ्रेंड्स .....दे आस्क नो क्विश्चन्स ....दे पास नो कमेंट्स ....
मुझे और कुछ कहना सूझ नहीं रहा है -सुबहे बनारस का आनंद उठाने निकल रहा हूँ .....
सस्नेह ,
अरविन्द
आपकी बात का समर्थन करते हुए यही कहना चाहती हूँ कि इसी लिए मनुष्य के संस्कार का विधान है। मनुष्य ही है जो संस्कृति के साथ जीता है वरना तो प्रत्येक जीव प्रकृति में ही जीते हैं। चूंकि मनुष्य ही एकमात्र कर्म करने में सक्षम प्राणी है शेष तो भोग योनि में है अत: मनुष्य को ही कहा गया कि तुम चराचर जगत का संरक्षण करो। पुरातन व्यवस्था में इसीलिए मनुष्य के दुर्गर्णों को सदैव संस्कारित करने का कार्य किया जाता था लेकिन आज दुर्भाग्य से मनुष्य को भी भोग योनि का प्राणी ही बनाया जा रहा है।
जवाब देंहटाएंरोचक पोस्ट और बहस ...
जवाब देंहटाएं@ मुझे लगता है कि यह अतिरंजित निष्कर्ष है... मुझे तो बिल्कुल नहीं लगता कि मनुष्य मानवीय संवेदनाओं से दूर होता जा रहा है...
इंसानों (नर/नारी )का अपना - अपना अनुभव होता होगा ...
फिर भी आशावादिता समाप्त नहीं होती ..
@मुक्ति जी ,वाणी जी -
जवाब देंहटाएंयह विलाप अक्सर सुनने को मिलता ही रहता है कि मनुष्य की संवेदना कहाँ चली गयी ?
मगर आप दोनो सही कह रही होंगीं -मैंने इसे उतनी गंभीरता से ,वस्तुनिष्ट तरीके से नहीं जांचा परखा है -
अब देखता हूँ -बीच में आप लोग फिर यह मत कहियेगा की मानव की संवेदना कहाँ चली गयी है ...?
वैसे वाणी जी की कुछ कवितायें तो यह चीख चीख कर कहती रही हैं ! मनुष्य का एक और अट्रीब्यूट पता चला -वह परस्पर विरोधाभाषी बातें भी करता है :) और असहमत होने के लिए भी असहमत होता रहता है (आप लोग :) ) असहमति के लिए भी सहमत (मेरे जैसा निरीह ..)
@शरद कोकास जी ,आपने पूछा कि मनुष्य और पशु में तुलना ही क्यों ?
जवाब देंहटाएंमेरी विपरीत पृच्छा(....जवाब भी !) है -मनुष्य और पशु में आखिर तुलना क्यूं नहीं ?
पाद टिप्पणी -
इस विषय में रोचक मत मतान्तर उभरे ...जिन साथियों ने इसमें भाग लिया उनका आभार ,और कतिपय किन्ही निहितार्थों के चलते कुछ विद्वान ब्लॉगर इससे तटस्थ रहे -हम उनकी भावना का भी सम्मान करते हैं! और यह चिंतन का कोई अंत नहीं ..अभी तो शुरुआत भर है ..चरैवेति चरैवेति ......
कविता हमेशा वस्तुस्थिति को ही स्पष्ट नहीं करती ...कभी कल्पना , कभी अवचेतन मस्तिष्क में दबी कोई घटना, कभी किसी परिस्थिति के केंद्र में स्वयं को रखकर (अब पुनर्जन्म , टेलीपैथी को तो आपन मानेंगे नहीं ) रची जाती हैं ...
जवाब देंहटाएंया स्वयं रच जाती हैं ..
दुनिया प्रकाश और अँधेरे का घालमेल है ...हम ज्यादा क्या फैलाएं ....ये हम पर निर्भर है ..
मगर बार बार सावधान करती आपकी आत्मीयता लुभाती है ...
@ असहमति के लिए भी सहमत (मेरे जैसा निरीह ..)...
निरीह और आप ...जिसको निरीह ना बना दे ...उसका बड़ा भाग ...:):):).....(सहज निष्कपट हास्य है थोड़ी सत्यता लिए )
अच्छी प्रस्तुति........बधाई.....
जवाब देंहटाएंसामाजिक समस्याओं के विषय में चिंतन एक बात है, परन्तु मानव की पूरी संरचना को ही कटघरे में खड़ा करना दूसरी बात...
जवाब देंहटाएं@मुक्ति ,आपकी भावना की मैं सम्मान करता हूँ मगर मनुष्य को ईश्वरीय दर्जा नहीं दे सकता ....
जवाब देंहटाएंमगर यह जानकर बहुत अच्छा लगा कि आप मनुष्य की श्रेष्ठ को लेकर संवेदनशील हैं और
मनुष्यता के पक्ष को प्रबलता के साथ रखती है -मनुष्यता को आप पर गर्व है और होना चाहिए !