बुधवार, 23 जून 2010

प्रकाश झा की राजनीति -कहीं की इंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा!

मैंने 'राजनीति' देखी -प्रकाश झा की राजनीति -कहीं की इंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा...कुछ महाभारत के पात्रों के किरदार लेकर उन्हें मौजूदा हालातों पर आरोपित कर दिया तो कुछ दृश्य सरकार से ले मारा और राजनीति की जिस गंदगी को बच्चा बच्चा जानता है उसकी छौंक लगायी और कुछ कांग्रेसी राजनीति के परिवारवाद का तड़का -लीजिये हाजिर है फिल्म राजनीति ...फिल्म कुछ मौलिक दिखाने के नाम पर बुरी तरह झोल खा गयी है ..हैरत होती है कि इसी निर्देशक ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर दामुल ,अपहरण और गंगाजल जैसी बेहतरीन और दर्शकों को बांधे रहने वाली फिल्मे निर्देशित की हैं ....मगर उनकी "राजनीति" निराश करती है .

किसको नहीं मालूम है राजनीति में गुंडे- माफिया हावी है ,उद्योगपतियों और नेताओं की गठजोड़ हैं ,टिकट लेने के लिए अपने जमीर और शरीर का सौदा करने वाली 'आधुनिकाएं' है ,पग पग पर शोषण है ....अब क्या यही देखने दर्शक सिनेमा घर तक जाएगा ? नया क्या है ? आश्चर्य इस पर भी होता है कि एक योग्य निर्देशक इस बार कलाकारों से उनकी प्रतिभा के मुताबिक़ समुचित काम भी  नहीं ले पाया है नाना पाटेकर (कृष्ण सरीखा रोल ) ..अजय देवगन  (फिल्म में कर्ण सरीखी भूमिका  )  जैसे प्रतिभाशाली कलाकार थोपे हुए से लगते हैं उनकी अभिनय प्रतिभा दबी ही रह गयी है ,फिल्म में गाने नदारद हैं ....कुछ क्लासिकल संगीत की बंदिशें टाट में मखमली पैबंद की माफिक पैबस्त कर दी गयी हैं ..थोपी हुई सी और फिल्म के दृश्य और घटनाक्रम से समुचित संयोग न बिठा पाने के लिए हास्यास्पद लगती हैं ...कहीं कहीं तो ऐसे दृश्यांकन है जो बेहूदगी भरे भी है ...

कामवासना के दैहिक घृणित रूप -दृश्यों को फिल्म ने बार बार  हाईलाईट कर न जाने कौन सी कलात्मकता दर्शायी है या दर्शकों के न जाने किस  तबके को ललचाने की कोशिश की है ...कुल मिलाकर प्रकाश झा की यह नई प्रस्तुति बहुत निराश करती है !

चलिए ढाई स्टार दे देते हैं! नहीं सिफारिश तो बिलकुल  नहीं..आप अपना पैसा  और समयकहीं और लगायें !

21 टिप्‍पणियां:

  1. महाभारत, सरकार, गॉडफादर, वर्तमान राजनैतिक परिवेश व इन सबको पिरोने के लिये कल्पना, इनको मिला कर बनी है यह फिल्म ।

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  2. शुक्रिया, कुछ समय और पैसे बचे.

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  3. हम तो फ्री में प्रियमियर में इन्वाटेड थे तो दान की बछिया के दांत नहीं गिने.

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  4. पंडित जी! हाम्ने आठ तारीख को लिखी थी ये पोस्ट… और आपने सरकार कहा है, मैंने गॉड फादर की बात कही थी... जैसे गाड़ी का दरवाज़ा खोलते ही ब्लास्ट होना, अमेरिका जाते जाते हीरो का रुक कर धंदा पकड़ लेना, सोते में सर काटकर हत्याक्कर देना जैसे दृश्य हू ब हू गॉड्फादर की नक़ल है, भोंडी नक़ल... आपकी पोस्ट पर फिल्म समीक्षा एक सुखद अनुभव रहा... नीचे हमारी समीक्षा का लिंक है..अवसर मिले तो नज़र डालिएगा...
    http://samvedanakeswar.blogspot.com/2010/06/blog-post_08.html

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  5. बचा लिया आप ने मेरा समय, ध्न्यवाद

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  6. आप में गज़ब की 'झेलन-शीलता' है जो फिल्में देख पाते हैं,अपने से बर्दाश्त नही होता ये सब !

    फिल्म के चक्कर में आपनें मेरी आगामी पोस्ट का टाईटल पीट दिया "एक्चुअली आई हेट भानुमति एंड हर कुनबा" :)

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  7. इसलिए हमने तो देखी ही नहीं .

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  8. अच्छा है ! हमने भी नहीं देखी.

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  9. Achha kiya bata diya...waise bhi filmen kam dekhti hun..yah to bilkul na dekhun!

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  10. और हम जो सोनिया अम्मा और राहुल बबुआ का फ़िल्मी संस्करण देखने के चक्कर में "महाभारत, सरकार, गॉडफादर, वर्तमान राजनैतिक परिवेश" का गडडमड्ड झोल झेल आये उसका क्या!!!!!!!!!!!!!!!!!! आप थोडा पहले चेता देते तो..........................

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  11. बेहद ख़ूबसूरत और शानदार समीक्षा ! उम्दा प्रस्तुती!

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  12. हम तो देख चुके ...कई फिल्मों का मिला -जुला और हास्यास्पद गठजोड़ ही है ....
    प्रकाश झा की हिप हिप हुर्रे भी बहुत अच्छी कलात्मक फिल्म थी ...

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  13. मुझे तो ज्यादातर हिन्दी फिल्में ऐसी ही लगती हैं।
    ---------
    क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
    अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।

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  14. अच्छा हुआ आपने पहले ही बता दिया, समय और पैसे दोनों की बचत..

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  15. प्रकाश झा के इमेज के अनुसार तो ये फिल्म नहीं ही थी....गंगाजल और अपहरण के बाद उन्होंने कोई कमर्शियल फिल्म बनाने की सोची...पर इतने सारे स्टार को संभाल नहीं पाए. कर्ण के रोल के साथ भी न्याय नहीं कर पाए...अजय देवगण बिलकुल ही साइड हीरो जैसे लग रहें हैं...पर कुछ प्लस पॉइंट हैं....रणवीर कपूर का संजीदा अभिनय,मनोज बाजपेयी का लाउड कैरेक्टर और उस विदेशी बाला का सहज अभिनय, अर्जुन रामफल के मुहँ से rustic dialogues भले ही ना जमे हों..पर देखने में वे खूब जमे.
    और कौन सी फिल्म आजकल देखने लायक होती है या तो फूहड़ हास्य होता है या फिर रोने धोने का मेलोड्रामा.
    वाणी ने प्रकाश झा की अबतक की सबसे ख़ूबसूरत फिल्म का जिक्र किया है.अक्सर लोग अपनी पहली कृति में ही अपना बेस्ट दे जाते हैं.

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  16. प्रकाश झा से हमेशा बहुत उम्मीदें होती हैं । हैरानी है कि इस बार रंग नहीं जमा पाए । वैसे हमने तो ये फिल्म अभी देखी नहीं है । टी वी पर आने का इंतजार कर रहे हैं ।

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  17. हम तो इंतजार कर ही रहे थे उसी हिसाब से प्लान बनाने की सोच रहे थे ..चलिए अच्छा है अब जब काईट्स भी इसी संडे टीवी पर आ रही है तो राजनीति के लिए भी एक आध संडे रुक जाते हैं ..हम जाएं उससे पहले वह खुद ही आ जाएगी दिखाने अपने आपको ।

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  18. बिल्कुल सहमत हूँ, परंतु एक बार और सोचने की है कि अगर ये लोग फ़िल्मों में राजनीति का घिनौनापन दिखाने लगे हैं तो यह सब बातें राजनीति और समाज के लिये सहज हो गई हैं, अब अंदर नया क्या शुरु हो गया है, उसकी पड़ताल जरुरी है।

    वित्तीय स्वतंत्रता पाने के लिये ७ महत्वपूर्ण विशेष बातें [Important things to get financial freedom…]

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