आज की दुनियां की भाग दौड़ ,आपाधापी में लोगों को खुद अपने लिए ही फुरसत नहीं है तब दूसरों के लिये समय की जुगाड़ करना कितना मुश्किल तलब( मुआमला )होता है इसका मुझे पूरा अहसास है और इसलिए ही दूसरों के वक्त की सीमाओं / पाबंदियों का मुझे ख़याल रहता है -बनारस से केरल के लिए रवाना होने के पहले मैनें
सारथी सरीखे सुसम्मानित ब्लॉग के स्वामी आदरणीय
डॉ जांसन सी फिलिप 'शास्त्री ' जी(
शास्त्री जे सी फिलिप) से फोन पर कोचीन पहुँचने की तिथि और उनसे मिलने का संभावित समय बता दिया था ताकि वे अपने समय का प्रबंध तदनुसार करते हुए मुझे कुछ समय दे सकें .जैसी कि उम्मीद थी शास्त्री जी ने बहुत गर्मजोशी से मेरे आग्रह को स्वीकार कर लिया था और मैंने भी तत्क्षण उनसे अवश्यमेव मिलने का मन बना लिया था -तिरुवनंतपुरम पहुँचने पर एक बार फिर मैंने उन्हें उनसे अपने अपाइंटमेंट की याद दिलाई -एक तरह की प्री कंडीशनिंग ताकि वे अपने समय के प्रबंध की प्रक्रिया अगर आरम्भ न कर सकें हों तो अब आरम्भ कर दें -बार बार के आग्रहों से शायद शास्स्त्री जी को दक्षिण भारत के पर्यटन पर मेरे पहली बार निकले होने की मनोदशा सा भान हुआ और उन्होंने यह पूछ लिया कि क्या मैं पहली बार कोचीन पहुँच रहा हूँ ? मैंने सहज और सधे स्वर में उन्हें जवाब दिया ( बस किसी एक से बात करने में मेरी जुबान कुछ बेदम होती रही अन्यथा मैं एक पेशेवर प्रवक्ता हूँ ,विज्ञान वाचस्पति का सम्मान भी हासिल कर चुका हूँ .हा हा ..मगर दुर्भाग्य या सौभाग्य से उस एक की लाईन अब नहीं मिलती ...मेरा खोया आत्मविश्वास लौट चला है) -हाँ ,तो मैंने सधे स्वर में जवाब दिया -
और यह निर्जनता की कहानी कहता वामनदेव मंदिर -हिंदूतरेणाम प्रवेशो निषिद्धः
'शास्त्री जी ,जब मैं पहले कोचीन आया था तो आपको नहीं जानता था ...इस बार आप यहाँ हैं -कोचीन विथ आर/एंड विदाउट शास्त्री जी मेक्स अ ग्रेट डिफ़रेंस ..."
नाश्ते को देख मेरा मन ललच उठा...केले सदृश दिखता ही बनाना फ्राई है
"हा हा हा '' शास्त्री जी का मृदु हास कानों में गूज उठा और वे मुतमईन हो गए कि मैं कोचीन के लिए नया नहीं हूँ .मगर कुछ संवादहीनता सी शायद फिर भी तिरी रही ...२६ मार्च की शाम को मसाले वसाले खरीद लेने के बाद मैंने शास्त्री जी के यहाँ जाने का उद्यम शुरू किया और लोकेशन और लैंडमार्क्स की जानकारी के लिए उन्हें फोन किया .... बी एस एन एल का नेटवर्क कभी कभी बहुत झुंझलाहट पैदा करता है -ठीक से बात न उन्हें सुनायी दे रही थी और न मुझे ही ...मैंने शास्त्री जी से जानना चाहा कि अगर मैं ऑटो या टैक्सी करके आना चाहूं तो वे मुझे कुछ मेजर लैंड मार्क्स बता दें ताकि मैं सहजता से उनसे मिलने आ जाऊं -शास्त्री जी ने कहा कि मैं क्यूं जहमत करता हूँ वे ही आ जायेगें -मैंने पूछा मैं उनसे कितने किलोमीटर की दूरी पर हूँ तो उन्होंने १२-१३ किमी बताया शायद .
."".नहीं नहीं मैं आ जाता हूँ आपके निवास .... " मैंने जोर देकर कहा !
"अच्छा तो आप मेरे घर आना चाहते हैं ? " उनकी इस मासूम सी जिज्ञासा पर मैं मानो आसमान से गिरा मगर खजूर में आ अटका (इस मुहावरे का जन्म कहीं भी हुआ हो मैंने बड़े शिद्दत से इसे कोचीन रेलवे स्टेशन पर शास्त्री जी के उन शब्दों के श्रवण के साथ ही सामने के खजूर के पेड़ों की ओर देखते हुए चरितार्थ पाया ....) ..अब मैं क्या कहूं ? इतने दिन और इतनी देर से मैं आपके घर ही तो पहुंचना चाह रहा हूँ शास्त्री जी !! ..अब यह संवादहीनता कैसे हुई इस मीमांसा में तो मैं अभी भी लगा हूँ मगर मैंने प्रगटतः यही कहा कि हाँ हाँ मैं आपके घर ही आना चाहता हूँ .उधर उन्होंने आदरणीय मिसेज शास्त्री जी से शायद यह कहा कि अरे यह सनकी तो घर ही आने को बोल रहा है ..(हा हा ) ..उधर से हरा सिग्नल तुरंत मिल गया था ..
..किताबों का एक कोना .....
"ओ. के. डाक्टर आप जब खुद आने को इन्सिस्ट कर रहे हैं तो थ्रिक्काकरा मंदिर तक आ जाएँ ,मैं वहीं पहुँचता हूँ ."
"कौन सी जगह ? प्लीज मुझे एस एम एस कीजिये "
एस एम एस आया -'Thrikkakara Temple " और मैं तुरत एक ऑटो लेकर चल पड़ा ...
करीब ३०- ३५ मिनट में जब मेरा ऑटो उक्त जगह पर रुका तो शास्त्री जी वहां पहले से विराजमान थे ...हम और वे पूरे उत्साह और उमंग के साथ गले मिले -वर्षों से एक दूसरे को अंतर्मन से जानते जो हैं ..फिर कैसा अपरिचय ? उन्होंने मुझे अंकवार में भरते हुए अपने गालों से मेरे दोनों गालों पर स्नेहिल संस्पर्श किया -भला कौन भूल सकता है वह वात्सल्यमय व्यवहार -अ लाईफ टाईम अनुभव! उन्होंने मुझे सामने एक मंदिर को सबसे पहले दिखाया और बताया कि इस वामन देव मंदिर में गैर हिन्दू होने के कारण उनका भी प्रवेश वर्जित है -यह उनके घर का निकटवर्ती मंदिर है -चाहे तो वे गोपनीय तौर पर वहां जा सकते हैं मगर उनकी संचेतना ऐसा करने से उन्हें रोकती है -उन्होंने मुझे उसे देख आने को कहा मगर मैंने उस निर्जन से होते वामनदेव मंदिर का बस एक फोटो खींचा और खुद उसमें प्रवेश की अनिच्छा जताई -परदेश में कौन पातालगामी बने -राजा बलि के अतिथि वामन देव पातालस्वामी जो ठहरे -बलि और बालि दोनों मिथकीय पात्र सहसा याद हो आये -पहले बालि की असंगत सी याद न जाने क्यूं आ गयी ( शायद बलि और बालि के नाम साम्य के कारण! ) ..बालि एक गुफा में घुसा तो कहाँ जल्दी वापस आया था ? -पता लगा मैं इधर मंदिर -गुहा में प्रवेश करुँ और उधर सशंकित शास्त्री जी फूट लें ..न बाबा न ..बहरहाल उन्होंने मुझे अपने वाहन में लिफ्ट दी और हम अगले दो मिनट में उनके आवास पर थे.
एक आदर्श दंपत्ति
शास्त्री जी एक साथ ही समस्त मानवीय सदवृत्तियों के पुंजीभूत रूप हैं -एक साथ ही दया करुणा मैत्री औदार्य के प्रतिमूर्ति -बोली तो इतनी मीठी है कि लगता है उसके लिए अन्नप्राशन अनुष्ठान के समतुल्य ही उनका कोई जिह्वा मधुलेपन संस्कार हुआ होगा . एक परफेक्ट इसाई जेंटलमैन हैं अपने शास्त्री जी ..एक आदर्श ईसाई के लिए सहज ही .सेवाभाव की ऐसी परिपूर्णता शास्त्री दंपत्ति में है कि उसका साक्षात्कार मुझे उनके उस अल्पकालिक स्वागत सात्कार से ही हो गया ...मैंने पत्नी दवारा दिया एक स्म्रति चिह्न श्रीमती शास्त्री जी को सौंप दिया और इस जिम्मेदारी से फुरसत हो शास्त्री जी की बातों की मधुरता में खो गया -न जाने कितनी बातें वे अल्प समय में ही कर लेना चाहते थे-तब तक भरपूर नाश्ता सामने आ चुका था ..समय प्रबंधन एक्शन में था .....
कहाँ दिखे है उत्तर दक्षिण ?
....मैंने विनम्र धृष्टता से शास्त्री जी के सुभाषित -प्रवाह को रोका .....
"नाश्ते का दृश्य मात्र मुझे और कहीं केन्द्रित नहीं करने देता शास्त्री जी ...." मैंने निश्चित ही अशिष्टता ( बैड मैनर्स ) दिखायी ..पर क्या करें ,दोनों बराबर के आकर्षण पर एक साथ ही तो ध्यान नहीं रखा जा सकता था न ...नाश्ते में मुझे बनाना फ्राई ख़ास तौर पर आमंत्रित कर रही थी ....मैंने देखा कि प्रगटतः तो शास्त्री जी नाश्ते में मेरा साथ देने लगे मगर असली नाश्ता तो मैं ही कर रहा था -चटोर जनम जनम का ....इस बीच शास्त्री जी ब्लॉग जगत के अपने निजी , बिजी और सार्वजनिक अनुभवों को बताते रहे -मेरी दृष्टि भी बहुत साफ़ हुई -महापुरुष की औपनिषदिक संगति भला अपना प्रभाव क्यूं न डाले -उनके मन में ब्लॉगर मात्र के लिए जो आकंठ करुणा थी वह बार बार छलकती पड़ रही थी ...पर यह ब्लागजगत भी ..छोडिये क्या कहें ? हमने भी खुलकर अपने मंतव्य व्यक्त किये. कहना न होगा हमारे और उनके बीच कोई भी वैचारिक वैषम्य नहीं रहा .हमने व्यक्ति से समष्टि तक ,रामपुरिया से कानपुरिया तक ,कनाडा से कन्नौज तक ,साकार से निराकार तक , नामी से बेनामी तक ,तर्क से कुतर्क तक ,रचना से अ -रचना तक बहुत ही भावपूर्ण संवाद नाश्ते के साथ किया -न किसी के प्रति कोई मानो मालिन्य और नही कोई निंदा भाव ....सब समय के दास हैं ..यही निष्पत्ति रही हमारी नाश्ता चर्चा का ....
फिर शास्त्री जी ठाढ़ भये नव सहज सुहाए मुद्रा में उठकर मेरा हाथ पकड़ अपने घर के प्रथम तल के ध्यान कक्ष में लेकर पहुंचे -द्वार पर ही व्यायामं की बड़ी सी जुगत अपना पूरा इम्पैक्ट ड़ाल रही थी -उन्होंने बताया कि वे नियिमत व्यायाम करते हैं जो उनके शरीर के गठन(कसरती बदन ) और सहज उत्फुल्लता से लग ही रहा था-बस एक यही वैषम्य मुझमें और उनमे प्रमुख रहा ,सहसा ही मैं कुछ चिंता निमग्न हुआ .लेकिन वह क्षणिक ही था ..सामने एक विशाल निजी लाईब्रेरी ने मुझे चकित सा कर दिया ....विगत दिनों से वे
मुद्रा शास्त्र (न्यूमिस्मैटिक्स ) के शास्त्रीय पक्षों के अध्ययन पर पर जुटे हैं ...ऐसा अध्ययन जो विरले अध्यवसायी कर पाते हैं -उनकी लाईब्रेरी में मानविकी , धर्म दर्शन , इतिहास की अनेक पुस्तकें और ज्ञान कोश सुशोभित थे -मेरा मन ललचा रहा था मगर मैं
आर के नारायण के एक निबंध "अ बुकिश टापिक " की याद करके मन मसोस रहा था ..बातें तो अंतहीन थी ..परशुराम के केरल प्रवास ,आदि मानव के केरल तट से प्रवेश और कालान्तर की सैन्धव सभ्यता और आर्यों का उत्कर्ष आदि विषयों पर हमारा अनवरत संवाद होता रहा ..अचानक घड़ी पर निगाह पडी -सवा आठ ..मेरा अपायिन्टमेंट ख़त्म हो गया था ..समय पल भर में बीत गया था ...
काव्य शास्त्र विनोदेंन कालो गच्छति धीमताम ......
मिसेज शास्त्री जी भी विनम्रता की साक्षात प्रतिमूर्ति दिखीं --एक सफल व्यक्तित्व का संबल, अनुप्रेरण ...उन्होंने तो मुझे बिना कहे कि "मातु मुझे दीजे कछु चीन्हा ...." अनेक उपहारों से लाद दिया ..शास्त्री जी ने मुझे एक द्विधात्विक सिक्का दिया और पत्नी के पूजा गृह लिए अहिल्याबाई होलकर का चांदी का दुर्लभ सिक्का जिसमें शिवलिंग उत्कीर्ण है सहेज कर दिया और अहिल्याबाई के शिव समर्पण के दास्तान से उस सिक्के का महत्व भी बताया ..इतना उपहार और धरोहर ..मैं किंचित असहज सा महसूस करने लगा था -मगर शास्त्री दम्पति के वात्सल्य भाव के आगे मेरा संकोच तिरोहित होता गया ..मैंने उन्हें बनारस आने का आमंत्रण दिया ...शास्त्री जी मुझे दूर तक अपने वाहन से छोड़ने आये ....रात ९ बजे तक मैं अपने कैंप तक पहुंच आया था और वापसी यात्रा की एक नई दिनचर्या की तैयारियां शुरू हो गयी थीं ...
जारी ..