फागुन बीत गया -मनुष्य की चिरन्तन श्रृंगारिकता को उत्प्रेरित और आलोडित करके चला गया .अब अगले वर्ष फिर लौटेगा! कितना उत्सव प्रिय है मनुष्य आज भी ,मगर यह बात लोक जीवन में ही आप ज्यादा अनुभव कर सकते हैं. बढ़ता नागरीकरण मनुष्य मन को निरंतर आत्मकेंद्रित ,स्वार्थी और व्यक्तित्वहीन ही बनाता गया है -नागरीकरण की प्रेत छाया से गाँव भी बदलते गए हैं मगर वहां आज भी सामाजिक जीवन की जीवंतता,साझे सरोकार उत्सवों के आयोजन में देखने और खूब देखने को मिलते हैं -ऐसे ही एक पारम्परिक लोकोत्सव से कल लौट आया मगर मन अभी भी उन्ही अमराईयों में कहीं बेसुध सा पड़ा है -पीड़ित सा क्लांत सा -"अमवाँ बौर गयल हो रामा ,,,पिया नहीं आये ..." "सेजिया पे टिकुली हेराने हो रामा" की गायन अनुगूंजे अभी भी मन को व्यथित किये हुए है -बार बार लगता है यही वियोग ही श्रृंगार का मूल तत्व है .जो इस वियोग की चेतना से संपृक्त नहीं हुआ समझो वह श्रृंगारिकता के सहज बोध से ही प्रवंचित रह गया .लोग कहते हैं यह श्रृंगार उत्सव तो मध्यकालीन विलासिता की ही देंन हैं -स्मृति शेष है .मुझे दुःख होता है कि लोकजीवन से कटे ये लोग जीवन की जीवन्तता से ही मानो वंचित हो गए हैं -जीवन की मुख्य धारा से ही मानो अलग हो गए हों .
क्या बिहारी और पद्माकर रचित विपुल श्रृंगार साहित्य निःशेष हुआ ? निरर्थक हुआ ? महानुभावो अगले वर्ष किसी भी होली के लोकोत्सव में भाग लेकर देखिएगा -हाँ भले ही आप अप्रस्तुत से हो जायं मगर आप एक लाईफ टाईम अनुभव तो करके ही लौटेंगे जैसा कि अभी अभय भाई बनारस से करके लौटे हैं -बताता चलूँ आज भी बनारस और इलाहाबाद कम से कम ऐसे 'आधुनिक ' शहर हैं जो प्राचीनता के कितने ही स्पंदनो को समाहित किये हुए हैं .कन्टेम्पररी क्लासिक -जैसे कुछ चिर नवीन के साथ चिर प्राचीन भी! आज की कविता प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की पगडंडियों पे चलकर लोकमानस की मुख्यधारा से ही मानो अलग थलग पड़ती गयी है -बहुत कुछ बनावटी और मेक बिलीवों से भरी हुई -आज रीतिकालीन कवियों की कवितायें बृहत्तर मानव जीवन को जीवन्तता दे रही हैं तो कैसे मान लिया जाय कि वे अप्रासंगिक हुईं -अब रही बात अश्लीलता और श्लीलता की -आज की नगरी पीढी की तो श्लीलता भी कुंठित होती लग रही है और अश्लीलता भी -उन्हें तो यह भी शायद ठीक से नहीं मालूम की असली अश्लीलता होती क्या है और इस नासमझी में वे उसे अंजाम दे देते हैं -आज भी गाँव में अश्लीलता -श्लीलता का पाठ समाज समझाता है ऐसे उत्सवों के अवसर पर और प्रकारान्तर से उनकी मनाही भी करता है सरेआम और सकारात्मकता से ...
ये उत्सव सौन्दर्यबोध के उद्दीपनो के सामूहिक कारखाने भी हैं -जीवन से सौन्दर्यबोध गया तो बचा भी क्या -ठेंठ और रूढ़ सा जीवन -आज के मशीनी जीवन में तो सौन्दर्यबोध के सतत उत्प्रेरण की और भी आवश्यकता है -बहरहाल इतनी बड़ी प्रस्तावना मैंने आपको एक गायक -श्री नागेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी ,हिन्दी प्राध्यापक ,डॉ भगवानदास इंटर कालेज बघैला जौनपुर द्वारा सुनाये पद्माकर के इस कवित्त के अस्वादन के आमंत्रण के लिए दे डाली है -मैं इसे सुनवा भी सकता हूँ मगर उनके गायन के दौरान व्यवधान हैं इसलिए फिलहाल कविता से ही संतोष कीजिये और खुद अर्थ समझिये . ज्ञानी जन तो समझ ही जायेगें और आस पड़ोस के भोले लोगों को समझा भी देंगें -फिर भी कहीं कोई संवादहीनता हो तो मुझसे संवाद कर सकते हैं -परमारथ के कारने सधुन धरा शरीर !
ऊंचे उसासन सो कहत पड़ोसन से
मेरे हिय उठत कठोर दुई पाके हैं
याही सकोचन से कछु ना सोहाय आली
ऐसो कठोर ये पिरात नहीं पाके हैं
कहैं पद्माकार न घबराहू ये बाला
ए रतिजाल वाल पोषक सुधा के हैं
जाके उर होत हैं पिरात नाहीं ताके उर
जो इन्हें ताके पिरात उर ताके हैं
हाय बीत गए ये दिन चार फागुन के ....
-फिर भी कहीं कोई संवादहीनता हो तो मुझसे संवाद कर सकते हैं
जवाब देंहटाएंज़रा अलग भाषा के चलते ठीक से समझ नहीं आई कविता...
बस गुजारे लायक ही समझा है... शायद इतना काफी है...
:)
सौन्दर्यबोध का गूढ ग्यान बहुत सुन्दर आलेख धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंवर्षा और वसंत, इन दोनों ऋतुओँ में मन प्रिय के लिए उमग उठता है। भारतीय साहित्य में उस के लंबे आख्यान भरे पड़े हैं। यौन संबंध जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उन से दूर रह कर जीवन संभव नहीं है। यह हो नहीं सकता कि उसे जीवन में और साहित्य में स्थान न मिले।
जवाब देंहटाएंकोशिश जरुर की जायेगी भाग लेने की..अच्छा आलेख.
जवाब देंहटाएंआपकी बात समझकर गांठ बांध ली है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
आज बहुत दुखी हूँ.... इस आभासी दुनिया में कभी रिश्ते नहीं बनाने चाहिए... कई रिश्ते दर्द देते हैं.... बहुत दर्द देते हैं... ऐसा दर्द जो नासूर बन जाता है...
जवाब देंहटाएंsach ko ujaagar karta hua aapke ye lekh...
जवाब देंहटाएंati uttam.
अच्छा आलेख
जवाब देंहटाएंkhoobsurti...bahut achha laga aapka ye lekh padh kar
जवाब देंहटाएंअगली बार हम भी चलेंगे इस उत्सव में. कविता समझ में नहीं आयी. थोड़ा परोपकार कीजियेगा.
जवाब देंहटाएंबेचैनी सी है सो मित्र आज कोई टिप्पणी नहीं !
जवाब देंहटाएं( संभव है कुछ दिन आपको दिखाई ना दूं...कोई टिप्पणी भी ना कर सकूं ! मुझे जहां काम हैं शायद वहां नेटवर्क नहीं होगा ! कोशिश करूंगा कि इस दौरान किसी छुट्टी के दिन आपसे सलाम दुआ कर पाऊं ! आपके नियमित पाठक बतौर मेरी गुमशुदगी को अन्यथा मत लीजियेगा )
बेहतरीन ! ऐसी प्रविष्टियों का बस एक ही ठौर है !
जवाब देंहटाएंलोकोत्सव की गंध घिर-घहरा रही है इधर !
स्वर सुन लेते इस कवित्त का तो आनन्द आ जाता ! खैर !
प्रस्तावना बहुत पसन्द आई।
जवाब देंहटाएंताके और पाके में यमक अलंकार बहुत जँचा। पद्माकर हैं पद्माकर भैया !
आचारज जी लोग दिख नहीं रहे :)
लोग व्याख्या नहीं पूछ रहे मतलब कि समझ रहे हैं। मुझे लोगों की परिपक्वता पर संतोष हुआ।
ये महफूज भाई इतने दु:खी क्यों हो गए ?
अरे अभी तो 'रामा चईत मासे' का गायन चलेगा ही कुछ दिन. हाँ फागुन वाली बात तो अब अगले साल ही आएगी.
जवाब देंहटाएं@गिरिजेश जी ,आचारज जी ने बैठकी बदल दी है इन दिनों और प्रगतिशील खेमें में चले गए हैं मगर आयेगें यही जानता हूँ !
जवाब देंहटाएंजैसे पुनि जहाज को पंछी उडि जहाज पर आवे !
बहुत बढ़िया आलेख! बेहतरीन प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएं@मुझे फोन पर उक्त कविता के अर्थ के लिए पृच्छायें प्राप्त हुयी हैं और निरंतर प्राप्त हो रही हैं -सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की भावना से यहाँ एक सरलार्थ प्रस्तुत है -
जवाब देंहटाएंषोडशी नायिका अपनी पड़ोसन से कह रही है -
(लम्बे निःश्वास के साथ ) मेरे हिय -वक्ष पर दो कठोर पाके (फोड़े सदृश रचनाएँ ) उभरती जा रही हैं -अब इस संकोच के चलते मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है -कठोर तो हैं ये मगर ये दर्द नही कर रहे -पद्माकर अब बीच में आ कर सांत्वना देते हैं कि ये बाला घबराओ नहीं ये रति जाल (कामदेव की पत्नी का उपजाया कौतुक ) अमृत भरे हैं -ये जहाँ होते हैं ,जिसके उर में होते हैं वहां नहीं दर्द उपजाते बल्कि इन्हें देखने वाले के उर में ये दर्द उपजाते हैं .
लोकजीवन से कटे ये लोग जीवन की जीवन्तता से ही मानो वंचित हो गए हैं --
जवाब देंहटाएं-bahut sahi kahi yah baat...16 aane sach!
--वियोग ही श्रृंगार का मूल तत्व है .जो इस वियोग की चेतना से संपृक्त नहीं हुआ समझो वह श्रृंगारिकता के सहज बोध से ही प्रवंचित रह गया-
shayad is liye prakriti ne bhi mausam ke kayee ruup banaye hain...patjhad...basant...!
बेचारे आपको फोन करने वाले...
जवाब देंहटाएंहमें सहानुभूति है उन सब से.....
और उन से ज्यादा आपसे................
@मनु भाई सा (मैं साहब का संक्षिप्त रूप "सा'' लिखता हूँ और बहुत कम लोगों को इससे नवाजा है आपको भी दिया ) ,
जवाब देंहटाएंफोन की घंटियाँ कमतर हो ईन यही बड़ी राहत है -लिख दिया यही पढ़ लेगें लोग -वो बार बार बताने में संकोच भी तो था बहुत -पुरुषों को तो तब भी ठीक ,अब जब वे ही पूंछे जिनके लिए यह लिखा गया तो अब बताएं हम बताएं क्या ? शर्म से पानी पानी हो लिए -फोन भी कट गया!
अरविन्द सा जी,
जवाब देंहटाएंसच में हमें लगा था के हमीं हैं बस जो ये भाषा नहीं जानते...पर जैसे तैसे समझ ही लिया था....
अब फोन आने कि बात पर हमें ख़ुशी हुई के और भी लोग हैं...
जो हम से भी कम समझ सके हैं....
:)
:)
आपका आभार.....
रीति कालीन कविता समझाने में थोड़ा विलम्ब तो होता है मगर समझ में आजाय तो बहुत आनंद आता है
जवाब देंहटाएंअरविन्द ''सा''
जवाब देंहटाएंज्यादा तर ब्लोगर्स आपको साइंटिस्ट मानते हैं..
इस बारे मैं आपको क्या कहना है....?
जितने अच्छे साइंटिस्ट, उतने ही अच्छे साहित्यकार, उतने ही अच्छे संगीतज्ञाता, उतने ही अच्छे मनोविनोदी, उतने ही अच्छे ऑरगनाइज़र... जिन डॉ. अरविन्द मिश्र को मैं जानती हूँ वे ऐसे ही है...सम्माननीय और ब्लॉग जगत के सशक्त हस्ताक्षर !!!!
जवाब देंहटाएं@ये कुछ ज्यादा या बहुत ज्यादा नहीं हो गया मीनू जी ? मगर राहत है जब लुटिया डूब रही हो ऐसे प्रोत्साहन बहुत राहत देते हैं और आगे की राह दिखा देते हैं !
जवाब देंहटाएंदेर से टीप रहा हूँ , पर टीप ही तो रहा हूँ !
जवाब देंहटाएंअरे भाई इसपर क्या कहें , ये तो ब्लॉग स्वामी की मर्जी !
पर अगर कोई इसकदर दिल से लिखा हो , तो दुःख होगा ही !
मैं तो इस दुःख से अब उबर चुका हूँ , यही मान लें कि आपकी
बात कम से कम उस ब्लॉग लेखक तक तो चली ही गयी , आगे चाहे ब्लॉग स्वामी
मिटाए , चाहे उखरि परे !
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@ आपकी पिछली पोस्ट और वहां की टीपों पर ,,,
कविता की गजब कटपीस गिरी ! लोग परोपकारातुर दिखे !
'' उतरी हुई नदी का कोई करे निरादर सम्मान करने वाले सम्मान कर रहे हैं '' !
@ आचारज जी लोग दिख नहीं रहे :)
भो गिरि-वर-गहन !
आपकी छिन्नतार वीणा की छेडन अदा बड़ी मासूम-मरहूम-कातिलाना है ! :)
@ ,,,,,,,,, @गिरिजेश जी ,आचारज जी ने बैठकी बदल दी है इन दिनों और प्रगतिशील खेमें में चले गए हैं
मगर आयेगें यही जानता हूँ ! जैसे पुनि जहाज को पंछी उडि जहाज पर आवे !
,,,,,,,,,सर !
जहाँ जो पसंद आता है वहां चार मोटी चुनने जरूर चला जाता हूँ ,
अपुन का न किसी से स्थायी बैर है न प्रीत !
प्रगतिशील खेमें में भी कम बाह्याचार नहीं हैं , जे,एन.यू. में इस खेमे
की भी हकीकत देख चुका हूँ , इसलिए खेमों से अलग - थलग रहने को ज्यादा अहम मानता हूँ !
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ज्ञान - जहाज पर यह पंछी उड़कर बार बार आएगा !
लेकिन क्या करूँ ?
ज्ञानेतर स्थिति आहत भी करती है न !
और अपने कबीर दास जी ने तो यहाँ तक चेताया है ;
'' भेड़ा देखा जर्जरा , उतरि परे फरंकि '' !
क्या करूँ जहां ज्ञान-जर्जरा दिखती है वहां से मन झिझकने लगता है !
.
कही आपका दिल दुखा हो तो क्षमा चाहूँगा , क्या पता आगे फिर दुखाना पड़े आपको !
भगवान न करे ऐसा हो मगर फिर भी !