माता जी के निर्देशन में गुंझिया निर्माण गृह उद्योग
हर बार की तरह इस बार की होली मैंने सपरिवार गांवं में मनाई -यह बात दीगर है कि
पिछले बार की तरह इस बार भी छुट्टी बीतने से पहले ही वापस मुख्यालय यानि बनारस बुला लिया गया -मगर खैरियत है .हाँ, कुछ चित्र हैं मेरे साथ जिन्हें मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ -गांवं की होली भी कई चरणों में होती है -होलिका दहन से रंग खेलने ,अबीर गुलाल लगाने से लेकर भांग की घोटाई और ठंडई की पिलाई तक और बीच बीच में कुछ मनसायन -गायन वादन भी!मुझे याद है वसंत पंचमी के दिन गाँव के छोर पर स्थापित किये जाने वाले रेंड (अरंड ) के पेड़ पर जहां रंग खेलने के दिन के पूर्व की रात में होलिका दहन होता है हम लोग खांचे -दौरे भर भर कर पत्तियाँ , खर पतवार बटोर बटोर कर लाते थे और एक भव्य होलिका दहन की तैयारी करते थे.....इस बार तो रात में हम जब बाल गोपालों और बड़े बुजुर्गों के साथ वहां पहुंचे तो पूर्णिमा की रात होने के बावजूद भी वह स्थल ही नहीं मिला जहां रेड का स्थापित होना बताया जा रहा था -बहरहाल एक स्थल को चिह्नित कर गाँव से पुआल, सरपत ,ईख की सूखी पत्तियाँ मंगाकर रखी गयी -होलिका दहन के लिए -बच्चों को मैंने अपने दिनों की याद दिला कर कोसा कि पुरुषों का पुरुषत्व भले ही ख़त्म होता जा रहा हो तुम लोगों का बचपना कहाँ चला गया है,पत्तियाँ ही बटोर कर रखते -बहरहाल इस डांट फटकार का नतीजा शायद अगले वर्ष देखने को मिले .
गुझिया और किसिम किसिम की होली -खाद्य सामग्री -शहर में सीखें ,गांवं में बनाएं
होलिका में आग लगाने के पहले
कबीर बोलने की परम्परा है जिस पर पहले लिख चुका हूँ (सिफारिश है ,समय हो तो जरूर पढ़ लें ).दरअसल होलिका दहन के पूर्व कबीर बोलने की परम्परा ही गाँवों की वह सार्वजनिक यौन उन्मुखीकरण / यौन विषयक ओपेन शिक्षण -स्थल है जहाँ किशोरावस्था की देहरी पर बस पहुँच रहे बच्चों को यौनिकता की ओर इशारा कर मानो जता दिया जाता है कि
मानव जीवन में यौनिकता का भी एक अहम् रोल है -और इसके प्रति अनावश्यक शील संकोच कुंठाओं को जन्म दे सकता है! तो कबीर में गाँव के प्रमुख लोगों ,जोड़ों से जोड़ते हुए यौनिक उद्भावनाएँ गीतों के जरिये खुल्लम खुल्ला व्यक्त होती हैं -और गाँव के दलित तक को भी पूरी छूट मिलती है कि वे गांवं के कथित संभ्रांत और उच्च वर्ग के लोगों के यौन जीवन में ताक झाँक कर मनचाही फंतासियाँ कह बोल सकें -प्रगटतः तो यह सब "अश्लील" सा लगता है और हम आज भी कबीर सुनने में शील संकोच से गड से जाते हैं -निःशब्द हो उठते हैं मगर वहां उपस्थित बच्चों -किशोरों को देख अपना अतीत भी याद आ जाता है कि किस तरह बड़े बूढों के सामने ही सुने गए 'कबीरों' के चलते अगले कुछ दिनों तक हम उनसे नजरें चुराते फिरते थे-पर इस सार्वजनिक व्यवस्था के प्रति एक आभार बोध भी है कि हमें यौनिक विषयों की जुगुप्सा यहीं से प्राप्त हुई -और इसके चलते भी बहुत कुछ सहज सामान्य सा रहा कालांतर के जीवन में -यहाँ उन 'अश्लील' उद्धरणों को तो नहीं दिया जा सकता -यह तो "
सुनतै बनत बतावत नाहीं "जैसा अनुभव ही है! इस बार कबीर गाने वाले भी कोई ख़ास नहीं रहे -अपने जमाने के
बिज्जल चमार की याद आई जो होलिका दहन के लिए ५०० मीटर दूर पर स्थित अपने घर से निकलते ही
कबीरा स र र र र र की तान छेड़ देते और बिना उनके आये होलिका नहीं जलती थी ....हाँ होलिका के जल जाने के बाद सब कुछ सुस्वप्न /दुस्वप्न सा हो जाता था -बात आई गयी हो जाती थी ..फिर कोई किसी को कबीर नहीं बोल सकता था ....मेरी भी इच्छा ब्लागजगत के कुछ ऐठू -तुनक मिजाज मगर प्यारे से लोगों को कबीर बोलने की हो आई है मगर होलिका तो जल चुकी ..चलिए अगली बार .....हा हा ...
एक घूमंतू गायक टोली
दूसरे दिन बच्चों के साथ हुडदंग भी किया -नतीजतन आज भी शरीर का पोर पोर दुःख रहा है .हमने गीत गायन की बैठकी में भी भाग लिया -
मनोज के निर्देशन में होली -चैता गायकी का एक जज्बा
यहाँ देख सकते हैं .ठंडई पीया और थोडा भांग भी खाई -नशा नहीं हुआ -कौन जाने भांग ही नकली न रही हो!... और फिर बैतलवा शाख पर यानि बनारस वापस आ चुका हूँ!
होलिका जलने के पहले और नीचे जलने पर .....
होली की सभी परम्पराओं का निर्वहन कर शाख पर लौटे बैतलवा का हार्दिक स्वागत है ! अब अगर हम खाद्य सामग्री / परम्पराओं / कबीर पर कुछ कहने लग गये तो गिरिजेश जी उसे बौद्धिकता के नाम से ठेला गया कह देंगे ! लिहाजा पंचमी तक धीरज धरिये उसके बाद हम उनकी एक ना सुनेंगे :)
जवाब देंहटाएंमेरी भी इच्छा ब्लागजगत के कुछ ऐठू -तुनक मिजाज मगर प्यारे से लोगों को कबीर बोलने की हो आई है
जवाब देंहटाएं---------
अभी भी बोल सकते हैं कबीर! यहां तो रोज होली-दिवाली मनाने वाले हैं। ब्लॉगजगत कोई मधुशाला से कमतर थोड़े ही है! :)
होली की शुभकामनाएं,
जवाब देंहटाएंबैतलवा मे ही भंग चढाएं।
पंचमी तक होली मनाएं।
भईया अपनी होली तो निरश ही बीती , परन्तु आपने पकवान दिखाकर मन को ललचा दिया ।
जवाब देंहटाएंहमने तो जमकर होली मनाई इस बार। और आपकी पोस्ट देखकर गुजिया मँगा ली है खाने को।
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी , गुजिया उद्धोग और कबीर पुराण के बारे में पढ़कर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंगाँव में जाकर होली मनाना तो बड़ा आनंददायक अनुभव रहा होगा।
शुभकामनायें।
होलिका थोड़ी छोटी लग रही है गाँव के हिसाब से. बाकी तो सब जाना-पहचाना सा है.
जवाब देंहटाएंये सब देख सुन...और पकवानों को देखकर...अब जम कर याद आई होली की..अभी तक तो किसी तरह दबाये थे.
जवाब देंहटाएंसारा दोष आपका...वरना यादों को दबाने में हमारी महारात रही है.
बेहतरीन पोस्ट!
सब देखकर घर से दूर होने का ग़म और बढ़ गया !
जवाब देंहटाएंआभार !
वाह गुझिया... सेमी.. वा वा
जवाब देंहटाएंमन हो रहा है कि संगणक स्क्रीन से ही चुरा लें..
कबीरा सारारारा रा रा रा...
होली है...
पुरुषों का पुरुषत्व भले ही ख़त्म होता जा रहा हो तुम लोगों का बचपना कहाँ चला गया है
जवाब देंहटाएंऐसे ही हम भी कुनमुनाने लगे हैं अब :-)
याद आ जाता है कि किस तरह बड़े बूढों के सामने ही सुने गए 'कबीरों' के चलते अगले कुछ दिनों तक हम उनसे नजरें चुराते फिरते थे
इस बात की याद आती है तो मन बरबस ही मुस्कुरा उठता है
वैसे, पकवान दिखा कर आपने ठीक नहीं किया मिश्र जी :-)
वाह वाह गुझिया और किसिम किसिम की ... मुंह में पानी आ गया अरे वाह सलोनी भी दिख रही है //////---
जवाब देंहटाएंसमय के साथ चीजें बदल जाती हैं। होली का स्थान तलाशना पड़ा। यह दुविधा अब नगरों में भी होने लगी है।
जवाब देंहटाएंआप को और परिवार को होली पर हार्दिक शुभकामनाएँ।
मेरी भी इच्छा ब्लागजगत के कुछ ऐठू -तुनक मिजाज मगर प्यारे से लोगों को कबीर बोलने की हो आई है मगर होलिका तो जल चुकी ..चलिए अगली बार .....हा हा ...
जवाब देंहटाएंजैसे संतो की बारहों महिना दिवाली रहती है वैसे ही ब्लागर की बारहों महिना होली रहती है. छिटे उडना ही चाहिये. आप तो अगली पोस्ट से ही शुरु करिये. यूं भी होली का सुरुर एक महिना तो रहता ही है.
रामराम.
वह होली का यह रंग भी गज़ब है.
जवाब देंहटाएंबाकी सब तो ठीक ही है, पर पकवान देखकर हम बेघर लोग तो ललचा-ललचाकर मरे जा रहे हैं. आप बहुत भाग्यशाली हैं, जो आपकी माँ है, गाँव है, डाँटने के लिये कुछ लोग हैं...
जवाब देंहटाएंBahut Sitam dhayaji aapane.....ek taraf jaha aapki gaanv ki holi dekh dil khush ho gaya, dusari taraf dher sari yaadon ka selab umad aaya! Aur gujiya ka to bas puchiye mat kese dil par kabu kiya hai ....
जवाब देंहटाएंAapki holi bahut acchi rahi dekh kar accha lag raha hai....Aabhar!!
हम लगातार दूसरी बार गाँव की होली में शामिल नहीं हो सके। यह पोस्ट पढ़कर मेरा मलाल और बढ़ गया।
जवाब देंहटाएंबुरा हो इस कॉन्वेन्ट पद्धति के स्कूलों का जहाँ कल से वार्षिक परीक्षाएं शुरू हो रही हैं।
मिश्रा जी बहुत सुंदर लगे आप के सारे चित्र, बिलकुल घर का माहोल बल्कि हमे तो घर की याद आ गई, बचपने मै हम सब भी ऎसे ही मिल जुल कर मिठाईयां बनाते थे
जवाब देंहटाएंमैं तो कभी होली के मौके पर गांव नहीं रहा, लेकिन सुन कर औऱ पढ कर ही जानकारी लेता रहा हूँ कि यह होता है, वह होता है.... यहां चित्र के साथ तो थोडा और अपनापा सा लगा।
जवाब देंहटाएंमैंने सुना है कि लोग होली के एकाध हफ्ते पहले से ही अपने रिश्तेदारी जाने से बचते हैं क्योंकि रंग पडना तय होता है, भले ही होली बीते हफ्ता दस दिन ही क्यों न बीत गया हो :)
pakvan to yahan delhi mei mil gaye khane ko......thoda bahut rang bhi laga liya........parantu apke gav ki holi dekhkar laga.....abhi tak asli holi dekhi hi nahi delhi walo ne....
जवाब देंहटाएंMera ghar Jharkhand ke Ramgarh jila ke Saunda Basti mein hai...Is pure ilake mein Gujiya khane ki parmpara nahi hai... Log Mutton aur chicken bade chaw se khate hain... waise foto dekhkar achha laga. Der se hi sahi lekin Holi sabko Mubarak
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमैं भी हर साल होली गाँव में ही मानता हूँ...वहाँ होली का अंदाज ही कुछ और है...
जवाब देंहटाएंओझा जी से सहमत - बहुत छोटी होलिका जली है।
जवाब देंहटाएंकिशोरों के यौन प्रशिक्षण ;) की अच्छी कही - मेरे बाबू जी (बड़े पहलवान चाचा) तो होली के दिन भाभियों को रंग लगाने के ऐसे ऐसे तरीके बताते थे जो मैं यहाँ लिख भी नहीं सकता। हम किशोर लोग मारे शर्म के बगले झाँकने लगते थे।
@तगड़ा पदार्पण किये गिरिजेश भाई -मुला यी शहरी सेक्स -कुंठित लोग लुगायी भला का जाने यी मौज मस्ती !
जवाब देंहटाएंत कैसे मनाई इस बार का होली तनी बताई राउर!हाँ होलिका माई बहुत छोट हैं लड़िकन ससुरन के खूब डांटे हैं अगली बार देखिएगा ! न तो हम खुदई चले जायेगें रेड गाड़ने !
इन त्योहारों को मनाना, इसके बारे में लिखना और अपने बचपन के दिनों को याद करना एक जरूरी कार्य हो चुका है. आज से २५-३० साल पहले ऐसे लेखों को पढ़कर लोग कहते की ये सब तो होता ही है क्या नई बात है!
जवाब देंहटाएंविगत ४-५ वर्षों की मेहनत के बाद हमारी नई बसी कालोनी के लोग भी जगे और घरों से निकल कर खूब रंग-गुलाल का आनंद लिए.
जो भी चैतन्य हैं उनका यह सामायिक दायित्व है कि अपने त्योहारों को न केवल जीवित रखें अपितु उसमें नव उर्जा का संचार भी करें.
इस दृष्टि से यह लेख सराहनीय है.
..आभार.
bahut badhiyaa...
जवाब देंहटाएंmuh mein paani aa gaya!
डाक्साब मस्त होली और लार टपकाऊ मिठाई की दुकान सजा दी आपने तो।गांव मे दीवाली तो मनाते आयें है लेकिन होली मनाने का मौका नही मिला।और हां जो आप नही बता पा रहे हैं ना वैसा ही कुछ हमारे यंहा शहरों मे भी होता है और प्रेस क्लब मे तो किसी को नही बख्शा जाता मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री,संत्री और कंत्री(कट्खने)पत्रकारों तक़ को खुले आम सर र र र र होली है।और हां यंहा का एक कामन दोहा है जिसमे आने वाला का नाम लेकर चिल्ला कर कहा जाता है लाल है और उसके बाद वाली लाईन नही बता पाऊंगा,वैसे वरिष्ठ ब्लागर कविराज योगेद्र मौद्गिल को बता चुका हूं।मस्त कर दिया आपने होली का रंग छुटे नही छुट रहा और हां आ ज्ञान जी सही कह रहे हैं।एकाध दिन यंहा भी सर र र र र्।
जवाब देंहटाएंयह गुझिया निर्माण कार्यशाला का चित्र देख कर अच्छा लगा । ऐसी ही कार्यशाला मे हम भी भाग ले चुके हैं । अब बच्चों को इस बात के लिये प्रेरित करना चाहिये ।
जवाब देंहटाएंहम भी आ गए हैं... गोरखपुर से होली मना के....
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम, होली की हार्दिक शुभकामनायें । वाकई, गावँ की होली का मजा, शहर की होली मे कहाँ ।
जवाब देंहटाएंपकवान की तस्वीर के क्या कहने । बधाई ।
aapke gaon ki holi achhi lagi...zahir si baat hai apna gaon apna shehar sabhi ko pyara hota hai
जवाब देंहटाएंवाह! नॉस्टैल्जिया दिया आपने तो!
जवाब देंहटाएंSwadisht chitran!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया मिश्रा जी मेरी शायरी की पंक्तियों को सुधारने के लिए! अभी बिल्कुल सही लग रहा है और शब्दों का ताल मेल सही बन पड़ा है!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुन्दर चित्रों के साथ आपने विस्तारित रूप से प्रस्तुत किया है! चित्र देखकर ही लगा की आपने होली में आपने परिवार के साथ बहुत आनंद किये ! गुझिया देखकर तो मुँह में पानी आ गया! बहुत बढ़िया पोस्ट!
nice
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