हिन्दी फिल्मों में एक ट्रेंड तेजी से अब स्थायी रूप लेता जा रहा है -वह है गालियों का खुल्लमखुला प्रयोग ,तेरी माँ की..... ,बहन**,मादर**.भो*****,गाँ*, ला*, झा*... सारी पूर्वी गालियाँ अब बालीवुड के जरिये जगजाहिर हो रही हैं! मगर जब अनावश्यक रूप से इन भदेस गालियों का बात बात पर बिना बात के भी इस्तेमाल होगा तो वे वैसी सम्प्रेषणीयता या हास्य मूलकता खो देगीं जैसा कि पीपली लाईव की कुल जमा एक दो गालियों की थी.या नो वन किल्ड जेसिका की माहिला पात्रों से दिलवाई बेलौस गालियाँ . . तबसे तो मानो फिल्मों में गालियों का एक धडल्ला प्रचलन ही चल चुका है. गैंग्स आफ वासेपुर अपनी मौके बेमौके की गालियों के चलते सन्नाम हो रही है..यह सही है कि कभी कभार तो रियल ज़िंदगी के पात्र भी गालियाँ बूकते हैं मगर इतना नहीं जितना निर्देशक अनुराग कश्यप इस फिल्म में हर रहीम शहीम पात्र से बोलवाते चलते हैं..इस फिल्म में गालियाँ मानो पात्रों की संवाद अदायगी की टेक सी बन गयी हों -हाँ कहीं कहीं पर वे सहज भी लगी है और वहां दर्शकों के ठहाके भी गूजे हैं!
हाल में घुसते ही देखा कि दर्शकों की अच्छी खासी भीड़ है . बाक्स आफिस पर फिल्म अपना सिक्का जमा चुकी है .तो क्या यह भीड़ केवल गालियाँ सुनने वालों की है?नहीं यह भीड़ अपने ही बीच के एक अंधेरी हकीकत को परदे पर भी देखने को आतुर है .जहाँ रोशनी नहीं है केवल रात ही रात है -जरायम है,सेक्स है ,खून खराबा है ,जुगुप्सा है, दहशत है और मजे की बात कि ज़िंदकी की धड़कने तब भी वहां बदस्तूर कायम है . दृश्यों का फिल्मांकन जबर्दस्त हुआ है -फिल्म के अनुसार वासेपुर झारखंड का एक वास्तविक गाँव है जहाँ दो गुटों का प्रतिशोध ,खून खराबा -गैंगवार पुश्तनी है .ताज्जुब है यह गैंगवार दो मुस्लिम गुटों के बीच है -अरे सिया सुन्नी नहीं बल्कि कुरेशी (कसाई) और खान समुदायों के बीच में मचा घमासान जिसमें राजनीति भी घुसपैठिया है. अब कसाईयों की बस्ती है तो जगह जगह कटे जानवरों के भयानक दृश्य वितृष्णा /जुगुप्सा उत्पन्न करते हैं जो बहुत लोगों को आपत्तिजनक लग सकते हैं .
कहानी एक लबे कालक्रम के फलक पर चलती है जिसमें गुलाम भारत से लेकर स्वतंत्र भारत और आज तक कहानी की निरंतरता बनाए रखने के लिए निदेशक को काफी मशक्कत करनी पडी है -धनबाद कोयला खदान -माफिया फिर ट्रेंड यूनियनों की दादागीरी ,अंग्रेजों के बाद खदानों पर स्थानीय दबंगों का कब्ज़ा, फिर इस्पात -स्क्रैप का धंधा और काफी बाद में माफिया गैंगों द्वारा मछली -व्यवसाय के हथियाने के दंद फंद फिल्म की थीम है .इन्ही में कितनी हत्याएं हुयी हैं ,ताबड़तोड़ गोलियां और बम चले हैं -लाशों पर लाशें बिछती गयीं है -एक चालबाज नेता कसाईयों को अपने प्रतिशोध के लिए इस्तेमाल करता चलता है . और अंत में उनका भी खात्मा करवाता है . दरअसल इसी दृश्य से फिल्म की स्तब्धकारी शुरुआत होती है और सारी फिल्म फ्लैशबैक में चलती है .नैरेशन और डाक्यूमेंट्री शैली के सहारे. बीच बीच में पूर्वांचल के देशी गीत गवनई की भी रह रह कर छौंक है . कहीं कहीं इससे संवाद आदायगी को सुनाने में भी खलल पड़ती है .
फिल्म के पात्रों के चरित्र चित्रण पर काफी मेहनत की गयी है . मुख्य पात्र सरदार की भूमिका में मनोज वाजपेयी एक वहशी ,कुछ मनोरोगी ,नारी देह के दीवाने और क्रूर निर्मम हत्यारे के मिश्रित चरित्र के निर्वाह में जी जान से लगे दिखते हैं .फिल्म के नारी पात्र अनुराग कश्यप की फंतासी की 'ख़ास च्वाईस' लगती हैं ....अपने पति की नारी देह की भूख की चारित्रिक वृत्ति को स्वीकार करती हुयी सरदार की पत्नी उसे मछली का एक अतिरिक्त मुंडा खाने को देती हुयी यह फिकरा /ताना भी कसती है कि 'ठीक से खाया करो .... उसके सामने कहीं बेईज्जती मत करवा बैठना" जबकि सरदार की फिलासफी यह है कि पुरुष जितनी नारियों को उपकृत करता है कम से कम उतने परिवार का भरण पोषण तो होता रहता है . एक बंगालन बेसहारा हिन्दू लडकी के पीछे पड़कर सरदार का कामुक हाव भाव प्रदर्शन अभिनेता में ऐसे पात्र मानो प्रविष्ट कर देता है -अभिनेता और पात्र का चरित्र यकसां हो जाते हैं -लाजवाब अभिनय! .उधर अभिनेत्री भी कुछ कम नहीं है -लगता है दोनों पात्र एक दूसरे को फंसाते है -एक को सहारा चाहिए और एक को काम पिपासा का अहर्निश शमन ....इस नयी नारी पात्र के चलते सरदार कुछ समय के लिए अपना परिवार भी छोड़ देता है . सरदार के बाद उसके दोनों बेटे भी लड़की पटाने और उनको व्याहने का हुनर बदस्तूर जारी रखते हैं . नारी पात्रों के चयन और उनके प्रति पुरुष फंतासियों को सेल्यूलायड पर उतारना तो कोई अनुराग से सीखे .
मैं पशोपेश में हूँ -फिल्म के लिए रिकमेंड करूँ या न करूँ -फिल्म की सिलसिलेवार कहानी मैं इसलिए बताता नहीं कि आप का मजा किरकिरा न हो और आप अपना खुद का निर्णय ले सकें ....मगर हाँ अगर आप को हिंसा ,गाली गलौज और खुद अपनी ही धरती-देश काल में पर गन्दगी,फूहड़ता पसंद नहीं तो मत जाईये देखने .....और हाँ यह भी न पूछिए कितना स्टार मेरी ओर से इस फिल्म को मिल सकता है .....मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ .....हाँ तीन के ऊपर तो किसी कीमत पर नहीं.. अभी यह फिल्म का पहला पार्ट है -पार्ट टू अगस्त में आने वाली हैं जिसकी कुछ झलकियाँ बतौर प्रोमो इस फिल्म के आखीर में है ...और उसे देखने के लोभ में दर्शकों को हाल से निकलते निकलते सहसा खड़े होकर काफी देर तक प्रोमो -दृश्यों को देखना दर्शकों को नागवार लगता है.
फिल्म तो शायद ही जल्दी देख पायें लेकिन आखों देखे हाल पर ही अनुमान लग गया। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंमैंने इसे देखा है.यह फिल्म न विशुद्ध मनोरंजन करती है न ही कोई आदर्श सन्देश देती है.गालियाँ और गोलियाँ इसकी खास पहचान हैं,पर आज की नई पीढ़ी को यह सब अच्छा लगता है.जिस तरह की संस्कृति बढ़-फ़ैल रही है उसमें गाली-गलौज बहुत आम बात है.खासकर दूसरों की 'माँ-बहन'करना बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों को भी पसंद है.इस कमजोर नस को अनुराग ने दबाया है और इसीलिए सिनेमा-हॉल में जमकर सिटियाबाज़ी होती है.इन दर्शकों में किशोर-वर्ग के लड़के-लड़कियाँ मैंने ज़्यादा देखे हैं.
जवाब देंहटाएं...बहुत सी चीज़ें आम ज़िन्दगी में होती हैं तो क्या उनको खुल्ले-आम करना ज़रूरी है ? अनुराग का मकसद केवल व्यावसायिक-हित साधने से है,चरित्र-निर्माण से नहीं !
आपका लिखा पढ़ कर ही फिल्म के बारे में पता चल गया :)
जवाब देंहटाएंफिल्म वालों को फिल्म रीलीज होने से पहले सभी ब्लॉगरों के लिए कम से कम एक स्पेशल पास तो भेजना ही चाहिए। देखो और लिखो मुफ्त समीक्षा।
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत में खूब तारीफ पढ़ी। 'शुक्रवार' के पिछले अंक में आलोचना भी पढ़ी। आपकी समीक्षा में 'शुक्रवार' की आलोचना से मिलती जुलती है।
बिलकुल सही... अब बऊ , माँ की गाली ... बड़े परदे से निकल कर छोटे परदे पर भी छा रही हैं और जिसे सभी वर्ग के जन देखते और सुनते हैं
जवाब देंहटाएंये चैनल भी बच्चों को संस्कार हीन बनाने पर तुल गए हैं ...
लोकप्रियता का मापदंड किसी समाज का दिशा निर्धारित तो नहीं करता पर पसंद को इंगित जरुर करता है कि आत्मिक भूख की खुराक क्या है.. कुरूपता, विभत्सता आदि को देखकर आपनी मानसिक वृतियों को एक बल मिलता है ..चलो ये तो केवल हममे नहीं है , हर आदमी में है..और अपनी नजर में वो सही सिद्ध हो जाता है..आस-पास बहुत कुछ होता रहता है पर देखने वाला आँख बचाकर निकल जाता है.. परदे पर देखना और ताली पीटना मनोरंजक है..
जवाब देंहटाएंसॉरी कुछ वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ ज्यादा हो गई थी पूर्व के कमेन्ट में :P
जवाब देंहटाएंपूरा आर्टिकल पढ़ा. जी मैं तो न देखूं ऐसी फिल्म. कीचड़ और गंदगी भरे किसी सागर में लाख मोती हो मैं तो न उतरूं. नही चाहिए मुझे ऐसे मोती. हर क्षेत्र में मेरे यही विचार रहे और उसी के अनुसार जी.
व्यक्तिगत जीवन में मुझे हर स्तर की गालियाँ आती है.पर उनका प्रयोग तभी जब .... कोई और भाषा सामने वाले को समझ में आये ही न आये
और हाँ .... मेरी तबियत तो कभी खराब रह ही नही सकती. कार्डिक-वार्ड में हमने डांस किया. यकीन मानेंगे आप??? हा हा हा
इन्दुजी,आपका स्वागत है !!
जवाब देंहटाएंदेल्ही बेल्ली देखने के बाद ऐसी फ़िल्में न देखने की कसम खा चुके हैं .
जवाब देंहटाएंगालियों को छोड़ दिया जाये तो हमें तो यह फिल्म अच्छी लगी ..समय परिवेश को जिस बारीकी से अनुराग दिखाते हैं काबिले तारीफ़ है.और एडिटिंग इतनी चुस्त कि इतनी लंबी फिल्म भी उठने नहीं देती.
जवाब देंहटाएंमनोज वाजपई जैसे कलाकार ने ये फिल्म क्या केवल पैसो के लिए की है ? तब ठीक है, वर्ना उन्हें आगे सोचना होगा जी . कभी कभी बुद्धिजीविओ को ऐसी फिल्म देखने जाना चहिये, ज्ञान की सरिता बहने लगती है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअभी तक देख नहीं पाए फिल्म ... अब आपने चेता दिया है तो संभल के जाना पढ़ेगा ... मतलब तैयार हो के जाना पड़ेगा ... देखनी तो है ...
जवाब देंहटाएंदेख आये हैं, सोच नहीं पा रहे हैं कि क्या कहा जाये, क्या न कहा जाये..
जवाब देंहटाएंइतना तय है कि इस फिल्म को बच्चों के साथ जाकर नहीं देखना चाहिए। आपकी समीक्षा और टिप्पणियाँ तो यही बताती हैं। अकेले जाकर फिल्म देखने का हुनर मुझे अभी तक नहीं आया। इसलिए मुश्किल ही है इसे देखना। कुछ समय बाद टीवी पर कट-कटाके आएगी तो देखी जाएगी।
जवाब देंहटाएं‘बोल बच्चन’ देख आये कि नहीं? पुरानी ‘गोलमाल’ और टीवी के ‘लाफ़्टर शो’ का घालमेल करके तीन घंटे का अच्छा मसाला बनाया है।
हमारे सिलेबस के बाहर की बातें हैं. हम तो झाँक कर भी नहीं देखेंगे.
जवाब देंहटाएंइस मामले में सुब्रमनियन जी का हमख्याल हूं ! पहले सोचा था कहूंगा कि, डाक्टर दराल जी का हमख्याल हूं पर वे देल्ही बेली देख चुके हैं :)
जवाब देंहटाएं@अली भाई वैसे भी प्रोफ़ेसर टाईप कालेज और क्लास से बाहर निकल ही कहाँ पाते हैं
जवाब देंहटाएंजिस तरह की समीक्षा है उससे लगता नहीं कि यह असभ्यों वाली भाषा उस क्षेत्र विशेष की पहचान हो। अब बहुत ही बदलाव आए हैं, और निर्माता निर्देशक को यह भी ध्यान रखना चाहिए। शायद पार्ट टू में रखें।
जवाब देंहटाएंनहीं देखनी है है सोच लिया है.....
जवाब देंहटाएंअब फिल्म तो नही देखि है , लेकिन वासेपुर जरुर देखा जो फिल्म वाले वासेपुर के बिलकुल उलट है . गनीमत है वासेपुर के लोगो ने कोई विरोध नही किया ....और जिस पृष्ठभूमि और संस्कृति पर फिल्म फिल्माई गयी है , मैं भी उसी संस्कृति से हूँ ...हमारे यहाँ इतनी गालिया तो प्पगल भी नही देते ........बाकि आपने कह ही दिया ! जय हिंद !
जवाब देंहटाएंखुलके स्टार्स लगाओ भाई साहब और ये कोई आंचलिक (पुरबिया बोली की बानगियाँ नहीं हैं ,हमारी राष्ट्रीय गालियाँ हैं ,यकीन न हो तो चैन्नोई के किसी वेटर के कान में कह के देख लो तेरी माँ की ....,लुंगी हिलाता हुआ आपके ऊपर चढ़ जाएगा ,भले हिंदी विमुख हैं चेंनैया "बढिया से भी बढिया चर्चा ,प्रस्तुति .मनोज बाज पै का नाम राष्ट्रीय पुरूस्कार के लिए तस्दीक करो डर्टी पिक्चर की बालन से कम हुनर मन्द नहीं हैं मनोज बाज पै .
जवाब देंहटाएंकृपया यहाँ भी पधारें -
शुक्रवार, 6 जुलाई 2012
वो जगहें जहां पैथोजंस (रोग पैदा करने वाले ज़रासिमों ,जीवाणु ,विषाणु ,का डेरा है )नै सामिग्री जोड़ी गई है इस आलेख/रिपोर्ट में .
*** bhee zyaada de diye aapne bhai saab...ye film ** ke bhee laayak nahee hai....na sar na pair...
जवाब देंहटाएंपिक्चर बकवास लगी बेवजह गालियाँ नहीं होती तो शायद अच्छी हो सकती थी ...
जवाब देंहटाएंआभार
फिल्म तकनीकी रूप से बेहतरीन है, संगीत भी उम्दा... संवाद पर थोडा अफ़सोस होता है.. लेकिन बिल्कुल जड़ को पकड़ कर लिखी गयी फिल्म है... कुछ भी काल्पनिक नहीं है... गावं के गुंडे यही भाषा का इस्तमाल करते हैं... हाँ इसे परदे पर दिखाना सही है या गलत ये दूसरा मुद्दा है.... बाकी सब ठीक है...
जवाब देंहटाएंपढ़ लिखा. और देख भी लिया :)
जवाब देंहटाएं.यह सही है कि कभी कभार तो रियल ज़िंदगी के पात्र भी गालियाँ बूकते हैं मगर इतना नहीं जितना निर्देशक अनुराग कश्यप इस फिल्म में हर रहीम शहीम पात्र से बोलवाते चलते हैं..इस फिल्म में गालियाँ मानो पात्रों की संवाद अदायगी की टेक सी बन गयी हों -हाँ कहीं कहीं पर वे सहज भी लगी है और वहां दर्शकों के ठहाके भी गूजे हैं!
जवाब देंहटाएंसबसे ज्यादा ज़रूरी लगा हर दिल अज़ीज़ अजीमतर भाई साहब को बतलाऊं प्रयोग -'पुश्तैनी' है पुश्तनी नहीं और कसाई का बहुवचन कसाइयों हो जाएगा 'कसाईयों 'नहीं जैसे भाई का भाइयों ,नाई का नाइयों हो जाता है .
अंतर जाल टंकड़ की सीमाएं भी कई मर्तबा खुलकर सामने आतीं हैं .
सबसे ज्यादा ज़रूरी लगा हर दिल अज़ीज़ अजीमतर भाई साहब को बतलाऊं प्रयोग -'पुश्तैनी' है पुश्तनी नहीं और कसाई का बहुवचन कसाइयों हो जाएगा 'कसाईयों 'नहीं जैसे भाई का भाइयों ,नाई का नाइयों हो जाता है .
जवाब देंहटाएंअंतर जाल टंकड़ की सीमाएं भी कई मर्तबा खुलकर सामने आतीं हैं .
रहा सवाल गाली गलौंज का ,इसका संसद से सड़क तक चलन है .
जवाब देंहटाएंफिल्म की कहानी से थोड़ा परिचित था...हमारे एक मित्र रवि जी वासेपुर के ही रहने वाले हैं और बहुत पहले से ही उनके जरिये सुनता आया हूँ वहाँ की कहानी...फिल्म में जो भी दिखाया गया है कमोबेश असली वासेपुर में वो सब होता ही है...
जवाब देंहटाएंमुझे फिल्म बहुत पसंद आई थी और इसे बिना कोई झिझक के मैं चार स्टार से सकता हूँ :)
फिल्म में और भी कई चीजें हैं. पीपली लाइव,तनु वेड्स मनू, पान सिंह तोमर ,..वासेपुर इत्यादि फिल्मों के सहारे हिन्दी सिनेमा के फिल्मांकन में उत्तर आधुनिक दृष्टिकोण का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है. जैसे shift to ancillary realities and giving them focal treatment, increased colloquial essence in the treatment of love scenes & dialogues.गालियों का बढ़ता प्रयोग इसी श्रृंखला में एक कड़ी कही जा सकती है. अब मुख्य पात्र स्विट्जरलैण्ड की आन्चलिकता के बजाय लुंगी गंजी पहने, चारा मशीन के आगे स्टाईल मारते है.
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