रामचरित मानस एक आदर्श परिवार, समाज और व्यवस्था की रूप रेखा सामने रखता है -जिसे 'रामराज्य' का संबोधन दिया जाता है। यद्यपि यह रामराज्य कई विवेचकों के लिए यूटोपिया का पर्याय बना है। मध्ययुगीन संत कवि तुलसी का प्रादुर्भाव तब होता है जब घोर तार्किकता और निःसंगता की तूती बोल रही थी और कबीर का उद्धत घोष - कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुआठीहाथ जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ लोगों को घर बार से बाहर निकालने का आह्वान दे रहा था - तुलसी ऐसे में टूटते परिवार और खंडित आस्था के मंडन को अवतरित होते हैं। आज मानस में एक भाई के रूप में भरत के चरित्र चित्रण के कुछ अंश आपके सामने रखना चाहता हूं।
राम के वन गमन और पिता के मृत्यु से भरत बिखर से गए हैं - राज्याभिषेक को दुत्कार देते हैं और चल पड़ते हैं राम को मनाने। वह आगे, सारी प्रजा पीछे पीछे...लोग बाग अनुरोध करते हैं -पैदल नहीं रथ पर चलिए आप। तो वे जवाब देते हैं -
सिर भर जाऊं उचित अस मोरा
सबतें सेवक धरमु कठोरा
वह कहते हैं कि इसी मार्ग से राम पैदल गए हैं तो मेरे लिए तो उचित यह है कि मैं सिर के बल जाऊं क्योंकि सेवक का धर्म बड़ा कठोर होता है। यहां भरत खुद को राम का भाई नहीं सेवक मानते हैं। यह है विनयशीलता, विनम्रता का उदाहरण और सेवक के आचरण की एक सीख। पावों में छाले/झलके पड़ जाते हैं मगर वह आगे बढ़ते जाते हैं। प्रयाग के संगम (त्रिवेणी ) तक आ पहुंचते हैं। थकी प्रजा, परिवार, माताओं के विश्राम के लिए पड़ाव डलवा देते हैं। यहां सभी श्रम-थकान को दूर करने और पुण्यलाभ के लिए त्रिवेणी स्नान करते हैं। भरत का विक्षोभित मन युमना और गंगा की लहरों को देख कुछ शांत होता है। और फिर प्रयाग के पुण्य प्रताप-सकल कामप्रद तीरथराऊ, बेदबिदित जग प्रगट प्रभाऊ से मन में सहसा एक विचार आता है कि अपनी मनोकामना प्रयाग के इस प्रसिद्ध त्रिवेणी तीर्थ पर क्यों न प्रगट कर दूं। वह विनयावनत हो उठते हैं। तीर्थराज त्रिवेणी के सामने कह पड़ते हैं -
मांगऊं भीख त्यागि निज धरमू
आरत काह न करई कुकर्मू
हे तीर्थराज मैं अपना क्षत्रिय धर्म त्याग कर आपसे भीख मांगता हूं - आखिर दुखी-आर्त व्यक्ति कौन सा कुकर्म नहीं करता (यहां बुभिक्षितम किम न करोति पापं का कितना प्रांजल भाव आया है ) ...और मांग है -
अर्थ न धरम न काम रूचि गति न चहऊं निरबान
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन
मुझे किसी भी पुरुषार्थ –धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की बिल्कुल भी चाह नहीं है। बस जन्म-जन्म में मेरा राम जी के चरणों में प्रेम हो यही वरदान, दूसरा कुछ नहीं, मांगता हूं।
भारद्वाज ऋषि से भी यहीं मुलाकात होती है। उन्हें पहले से ही सब कुछ पता रहता है। वह देखते हैं भरत ही नहीं उनकी पूरी प्रजा बहुत क्लांत, दुखी है। अपने तपोबल से वे सब वैभव सृजित कर देते हैं –
रितु बसंत बह त्रिविध बयारी सब कहं सुलभ पदारथ चारी
स्रक चन्दन बनितादिक भोगा देखि हरष बिसमय सब लोगा
मानो बसंत ऋतु ही आ गयी हो। शीतल मंद सुगंध वाली हवा बहने लगी। यही नहीं भोग के सब पदार्थ सुलभ हो गए...उर्वशियां, माला (वेणी की माला ) चन्दन आदि भोगों को देख लोग विस्मित भी हैं तो उदास भी - वे उदास राम के वियोग के कारण हैं। प्रजा की छोड़िये मगर अपना चरित्र नायक इन सबसे तटस्थ ही रहता है –
सम्पति चकई भरतु चक मुनि आयसु खेलवार
तेहि निसि आश्रम पिजरां राखे भा भिनुसार
काव्य-मान्यता है कि चकवा चकई रात में विरक्त हो रहते हैं। यहां तक कि बहेलिये द्वारा एक ही पिजरे में बंद करने के बाद भी दोनों में संयोग नहीं होता। उसी तरह भारद्वाज मुनि के सारे सुख सुविधा के ताम-झाम के बाद भी भरत का मन उन सब भोगों से विरत ही रहा और सुबह हो गई। राम के बजाय उनका मन कहां रमने वाला था?
संतकवि सच ही कहते हैं -
जौं न होत जग जनम भरत को
सकल धरम धुर धरनि धरत को ...
अगर भरत का जन्म न होता तो आखिर धरती पर धर्म के चक्र का धारण कौन करता ?
भरत का चरित्र हर परिवार समाज के लिए एक उदाहरण है। जय श्रीराम!
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जवाब देंहटाएंMera laptop Kharab ho gaya isliye hinglish me kament kar raha hoon..
जवाब देंहटाएंsundar prasang.Bharat aise charitra hain jinke varnan me Tulsi baba garbada gaye. Ek bar kahte hain..
satta payii jahi mad nahin
ko janma nar as jag mahiin.
fir aage kahiin kahte hain ki Bharat hi vo charitra hain jinhe satta prapt hone par bhii ahankaar chhoo bhi nahiin paya.
Anand Dayak shrinkhala chal rahii hai..Sadhu..Sadhu..Sadhu..
रामचरितमानस में सब चरित्र त्याग में अक दूसरे से आगे निकलते दीखते हैं, कितना कुछ सीखने को है..
जवाब देंहटाएंसच ...मानस की हर पंक्ति जीवन का पाठ पढ़ाती सी लगती है....सब कुछ सरल, सहज पर कितना सारगर्भित.....
जवाब देंहटाएंमानस का यह बहुत उत्तम प्रसंग है.तुलसीदास जी ने भरत के बहाने एक आदर्श भाई के ऐसे प्रतिमान बनाये हैं जो अन्यत्र दुर्लभ हैं.भरत ने अपने कर्म से अपनी माँ द्वारा किया गए बुरे कर्म का पश्चात्ताप बखूबी किया है.
जवाब देंहटाएं...आदर्श भाई के रूप में भरत की कुर्सी अभी तक सलामत है.
नाम और यश के पीछे भागते जनमानुष के सोये विवेक को जगाने के लिए लिए भरत एक आदर्श हो सकते हैं .भरत की विनम्रता और त्याग अनुकरणीय है.
जवाब देंहटाएंफिर यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि "बड़े" भाई हैं कितने बड़े ? ५-६ मिनट ही न ? यह प्रेम और यह भक्ति - राम के भाई में ही पायी जा सकती थी शायद :)
जवाब देंहटाएंमन को इतनी शान्ति मिलती है इन मानस प्रसंगों से - कि क्या बताऊँ | आपका मानस पाठ चल रहा है, मेरी वाल्मीकि रामायण | राम और जानकी के विवाह का प्रसंग और बिदाई हुई, परशुराम जी वापस जा रहे हैं |
सुन्दर प्रसंग। आजकल ब्लागिन्ग कुछ धीमी है रो सब ब्लागज़ पर नही आ पाती ़ मेरी ब्लाग लिस्ट भी डिलीट हो गयी है दो तीन दिन से मन मे ध्यान आ रहा था कि आपका ब्लाग देखे बहुत दिन हो गये। त्रो आज नजर पडी तो झट से कमेन्ट छाप दिया। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंइन दिनों आध्यात्मिकता का भाव प्रबल है आप पर ! सुकून की अनुभूति हो रही होगी !
जवाब देंहटाएंआदर्शमय जीवन किस तरह से जिया जाये मानस हमें इस बात की शिक्षा देता है ...
जवाब देंहटाएंजी सही बात, आज की परिस्तिथि में मानस का अनुसरण तो नहीं किया जा सकता पर मात्र १% भी अपने जीवन में उतार ले तो परिवार स्वर्ग हो जाये.
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल के चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आकर चर्चामंच की शोभा बढायें
जवाब देंहटाएंमानस में कितने मोती हैं इसकी गणना आसान नहीं है। बार-बार इसका पुनर्पाठ जरूरी है।
जवाब देंहटाएंone of the strongest character in Hindu mythology..
जवाब देंहटाएंan epitome of knowledge and wisdom !!!
भरत का चरित्र हर परिवार समाज के लिए एक उदाहरण है।…………सत्य वचन
जवाब देंहटाएंमानस प्रसंग की उपयोगिता इस युग में और भी उभर कर सामने आती है . लेकिन पालन करने वाले भी चाहिए .
जवाब देंहटाएं@इंजीनियर शिल्पा मेहता जी,
जवाब देंहटाएंकितनी अच्छी बात है आप राम चरित प्रेमी हैं .वाल्मीकि रामयाण का नवाह्न पारायण का विधान है जो बड़ा चुनौती भरा लगता है .मानस तो कई बार पूरा करने का आनंद उठा चुका हूँ मगर रामायण का सांगोपांग अध्ययन अभी तक नहीं कर सका -हाँ यत्र तत्र से पढता रहता हूँ ....आप इन दिनों रामायण पढ़ रही हैं जानकार अच्छा लगा ..कुछ हमसे भी शेयर करियेगा जो लगे कि साझा करने लायक हों -वैसे इन आर्ष ग्रंथों में तो जो कुछ है वह सभी पठनीय है !आभार!
@निर्मला कपिला जी,
जवाब देंहटाएंआपने इस ब्लॉग को याद किया और आयीं -जहेनसीब!
इतने दिनों बाद आपको देख अच्छा लगा !
@बाकी सभी मित्र जो यहाँ दिख रहे हैं और जिनकी रामकथा में सहज रूचि है सभी का विशेष स्वागत है ,आगे के प्रसंगों में भी साथ रहिएगा !
जवाब देंहटाएंरोचक प्रसंग .. भरत चरित्र प्रभावित करता है
जवाब देंहटाएंकाव्य-मान्यता है कि चकवा चकई रात में विरक्त हो रहते हैं। यहां तक कि बहेलिये द्वारा एक ही पिजरे में बंद करने के बाद भी दोनों में संयोग नहीं होता। उसी तरह भारद्वाज मुनि के सारे सुख सुविधा के ताम-झाम के बाद भी भरत का मन उन सब भोगों से विरत ही रहा और सुबह हो गई। राम के बजाय उनका मन कहां रमने वाला था?
जवाब देंहटाएंसंतकवि सच ही कहते हैं -
जौं न होत जग जनम भरत को
सकल धरम धुर धरनि धरत को ...
अगर भरत का जन्म न होता तो आखिर धरती पर धर्म के चक्र का धारण कौन करता ?
भरत का चरित्र हर परिवार समाज के लिए एक उदाहरण है। जय श्रीराम!
बहुत सुन्दर प्रसंग और उससे भी बढ़कर सरल सटीक व्याख्या .आभार .
जय श्री राम!
जवाब देंहटाएं@ आप इन दिनों रामायण पढ़ रही हैं जानकार अच्छा लगा ..कुछ हमसे भी शेयर करियेगा जो लगे कि साझा करने लायक हों
जवाब देंहटाएंजी, अपनी रामायण कविता के लिए ही पढ़ना शुरू किया था | श्री तुलसी जी की मानस तो पहले पढ़ चुकी हूँ अनेक बार, परन्तु यह अब तक नहीं पढ़ी थी / है | फिर इस कविता के सम्बन्ध में ही गिरिजेश जी ने कहा कि ( कई जगह जानकारी की कमी के चलते गलतियाँ हो रही हैं - जैसे - स्वयंवर का जो विवरण हम लोग मानते हैं - वैसा कुछ है ही नहीं वहां तो ) श्री वाल्मीकि रामायण पढ़ जाऊं, सो उनके ही दिए लिंक से गीताप्रेस वालों से मंगाई, और अब पढ़ रही हूँ |
पता नहीं कब तक पूरी कर सकूंगी ? परन्तु हाँ, अब उस कविता के अगले भाग जो भी आयेंगे, उस भाग के श्री वाल्मीकि रामायण के पाठ के बाद ही आयेंगे | वैसे पहले भी ऑनलाइन तो पढ़ ही रही थी | उस कविता के २-३ भागों में लिंक भी दिए हैं, जब जब कोई पाठक source पूछते हैं, तब भी लिंक देती हूँ |
@ आगे के प्रसंगों में भी साथ रहिएगा !
हम तो रहेंगे ही - अक्षय पात्र से अमृत बंटेगा तो पीछे तो कोई न रहेगा | :) | आप प्रसंग सुनाइये तो :)
maanas hai hi aisa granth..jitni baar padho..naye arth milte hain..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रसंग .....
जवाब देंहटाएंभरत को सुन्दरता से बताया है आपने..संयुक्त परिवार आज भी उसी स्थापित मूल्यों पर तो जीवित है..जिसकी जड़ें हममें गहरी जमी हुई है...
जवाब देंहटाएं@शिल्पा जी,
जवाब देंहटाएंमानस में तुलसी ने कई प्रसंग का या तो उल्लेख नहीं किया है या फिर कुछ प्रसंगों को जन रंजन के लिए घटा बढ़ा दिया है ....यहाँ कवि -विवेक का सम्मान करना होगा .
वाल्मीकि राम के प्रति भक्ति भाव से आप्लावित नहीं है ,खुद को समूचे वृत्तांत का स्वयमं द्रष्टा
हैं ....तुलसी राम के चरित को एक आदर्श के रूप में स्थापित करते हैं.....तो कथा वैभिन्य समझ में आता है!
true - of course you are right (.. i am not logged in - so benami - sorry .)
जवाब देंहटाएंTulsi Manas is full of love, while Valmiki Ramayan is more factual. Both are lovely though - kaakbhushundi ji kahte hain n - whoever tells it to whomsoever, wherever, whenever - the nectar shall always be the sweetest .... after all it is Rama :)