शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

अच्छे और बुरे लोग -भाग दो (जानबूझ कर शीर्षक भड़काऊ नहीं है )

अंग्रेजी में एक  कहावत है ,बर्ड्स आफ सेम फेदर फ्लाक टुगेदर -मतलब एक जैसी अभिरुचियों और पसंद नापसंद के लोग एक साथ  रहते हैं ...सहज दोस्ती मित्रता और घनिष्ठ सम्बन्ध तक ऐसी अभिरुचि साम्य की बदौलत  ही होती है .कहते हैं की फला फला में दांत काटी रोटी है या फला फला  एक आत्मा दो शरीर हैं ....कभी कभी यह रूचि साम्यता तो एक नजर में ही दिल में गहरे  पैठ बना लेती है और कभी कभी अपना पूरा समय  भी लेती है --अनुभूति की गहनता कभी कभी सम्बन्धों में  किसी किसी को  एक दूजे के लिए बने होने की परिणति तक ले जाती है ......एक सहज बोध सा हो जाता है कि फला अच्छा है और फला बुरा ....

आधुनिक युग की प्रेमियों की डेटिंग भी  इसलिए ही लम्बी खिचती है ताकि जोड़े एक दूसरे की पसंद नापसंद को  भली भाति समझ बूझ  लें जिससे आगे   साथ साथ निर्वाह कर सकें यद्यपि यहाँ भी कुछ धोखे हो जाते हैं और बाद में साथ रहना झेलने सरीखा होने लगता है...हमारे पूर्वजों ने हजारों सालों के प्रेक्षण के दौरान इन बातों को बहुत अच्छी तरह से समझ लिया था ...और इन कटु यथार्थों के बावजूद भी जीवन की गाडी खिचती रहे इसलिए कई सुनहले सामजिक  नियम आदि बना कर मनुष्य की आदिम भावनाओं पर अंकुश लागना शुरू किया था  ..दाम्पत्य में एक निष्ठता के देवत्व का  आरोपण .उनमे से एक था ..लेकिन मूल भाव तो वही है आज भी -.जो जेहिं भाव नीक तेहि सोई....मतलब जो जिसे सुहाता है वही तो उसे पसंद है ....तुलसी यह भी कहते हैं कि मूलतः भले बुरे सभी ब्रह्मा के ही तो पैदा किये हुए हैं -पर गुण दोष का विचारण कर शास्त्रों  ने उन्हें अलग अलग कर दिया है ...यह विधि (ब्रह्मा )  प्रपंच (सृष्टि ) गुण अवगुणों से सनी हुयी है .....यहाँ अच्छे बुरे ही नहीं ...पूरा चराचर ही  जैसे परस्पर विरोधी द्वैत में सृजित  हुआ है ...

दुःख सुख पाप पुण्य दिन राती . साधू असाधु सुजाति कुजाती 
 दानव  देव  उंच  अरु  नीचू . अमिय  सुजीवनु   माहुर  मीचू
माया ब्रह्म जीव जगदीसा .लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा 
कासी मग सुरसरि क्रमनासा .मरू मारव महिदेव गवासा 
सरग नरग अनुराग विरागा. निगमागम गुण दोष बिभागा  
[बालकाण्ड (५)]

दुःख -सुख ,पाप पुण्य, दिन रात, साधु(भले)  -असाधु(बुरे ) , सुजाति -कुजाति ,दानव -देवता ,उंच -नीच ,अमृत विष ,सुजीवन यानि सुन्दर जीवन या मृत्यु ,माया- ब्रह्म ,जीव- ईश्वर ,संपत्ति -दरिद्रता ,रंक -राजा ,काशी- मगध,गंगा -कर्मनाशा ,मारवाड़ -मालवा ,ब्राहमण -कसाई ,स्वर्ग -नरक ,अनुराग -वैराग्य ,ये सभी तो ब्रह्मा के ही बनाए हुए हैं मगर शास्त्रों   ने इनके गुण दोष अलग किये हैं -प्रकारांतर से सृजन/सृजित  का कोई दोष नहीं ,सब चूकि अलग अलग प्रकृति के हैं इसलिए इनमे मेल संभव नहीं है ....जो जेहि भाव नीक सोई तेही ...हाँ कुछ क्षद्म वेशी इस समूह से उस समूह में आवाजाही लगाये रहते हैं -चेहरे पर मुखौटे लगाये मगर कौन कैसा है यह भी बहुत दिनों तक छुपा नहीं रहता -उघरहि अंत न होई निबाहू कालनेमि जिमी रावण राहू ....अन्ततोगत्वा तो सब उघर ही जाता है ,अनावृत्त हो जाता है कि कौन क्या है ,रावण, कालनेमि, राहू --कब तक छुपे रह सकते हैं ये ....एक दिन तो .....

हम तो खुद को बुरा ही मानते हैं अगर अपनी कमियों को देखते हैं .....जो दिल देखू आपना मुझसा बुरा न कोय -खुशदीप ने ठीक उद्धृत किया ......यह कोई नया  चिंतन नहीं है सदियों से मनुष्य इन पर विचार विमर्श करता आया है ......आप अच्छे बने रहिये ,तब तक तो हम स्वतः बुरे रहेगें ही .......


गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

अच्छे और बुरे लोग ....1

भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक  बेहद ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले अधिकारी जो  इस समय उत्तर प्रदेश में एक उच्च पद को सुशोभित  कर रहे हैं ने काफी वर्षों पहले अपने लिए गए  एक निर्णय पर थोड़ा विचलित  होकर मुझसे पूछा था कि क्या उनका लिया गया निर्णय सही था ...वे  मुझसे वरिष्ठ अधिकारी थे  /हैं ..और चूंकि हायिआर्की का दबाव  ऐसा होता है कि आप ऐसे ही कोई कैजुअल जवाब अपने वरिष्ट अधिकारी को नहीं दे सकते इसलिए मैं थोडा पशोपेश में पड़ गया कि आखिर जवाब क्या दूं -मैं जानता था कि वह प्रश्न उन्होंने तमाम अधिकारयों की भीड़ में मुझसे ही पूछा था -बाकी उनके सामने बिछ जाने को लालायित ही रहते थे- सरकारी सेवाओं में जी हुजूरी की अपनी परम्परा रही ही है -उन्होने मुझसे पूछा, यह मुझ पर उनके विश्वास का तो परिचायक था ही मगर इस सवाल ने मेरे सामने सहसा  ही धर्मं संकट ला दिया था -बॉस को गलत जवाब भी न दूं ,उनकी औरों की तरह चापलूसी करुँ ना करू या सच इस तरह कहूं कि उन्हें मेरा जवाब चापलूसी सा न लगे -और यह कुदरती हुनर है जिसके कभी मसीहा हुआ करते थे बीरबल या तेनालीराम जैसे चतुर दरबारी .शायद उस समय मैंने इन्ही महापुरुषों का ध्यान किया हो ,अकस्मात मुंह से निकल पड़ा -
" सर आपका यह कदम अच्छे लोगों को अच्छा लगेगा और बुरे लोगों को बुरा  ...."
वे मुस्कुरा उठे और बात ख़त्म हो गयी ......मगर अकस्मात मुंह से निकल गयी बात पर मैं तब भी और आज भी वह प्रसंग याद आने पर विचारमग्न हो जाता हूँ .मेरे कहने का निहितार्थ क्या था ,यथार्थ क्या था ? आखिर उस बीरबली बात का क्या था भावार्थ ? मैं आज भी यह सोचता रहता हूँ ...

इसका एक सरलार्थ तो यही है कि दुनिया में एक ही मानसिकता के लोग नहीं होते ....संस्कार  ,परिवार और परिवेश -मतलब रहन सहन के चलते लोगों के अलग अलग व्यक्तित्व हो जाते हैं -एक जैसे विचार ,बुद्धि और व्यक्तित्व के लोगों में जमती है और अलग किस्म के अलग होने लगते हैं ....और यह आभासी दुनिया इस मामले में और भी धोखेबाज है ...मायावी है ..यहाँ लोगों के चेहरे के हाव भाव तो दीखते नहीं हैं -कुदरती निषेध भी समय रहते आगाह नहीं करते ..इसलिए यहाँ कई बिलकुल विपरीत विचारों के लोग धोखे  से पास आ जाते हैं मगर धीरे धीरे उन्हें लग जाता है की गलती हो गयी बन्दा /बंदी तो  अपने गोल की है ही नहीं -मेरे साथ ऐसा हो चुका है -और यह सचमुच बहुत पीड़ा दायक होता है दोनों पक्षों के लिए --ओह कहाँ फंस गए ..किस बजबजाती नाली /नाले में ....कितना समय तो कीचड साफ़ करते ही बीत जाता है...नए दोस्त तलाशो तो भी खतरे वही के वही ....बच के रहना रे बाबा बड़े धोखे हैं इस जाल में .....

तो तय बात यह है कि आप जो कुछ करते हैं वह समान धर्मा ,समान मनसा लोग पसंद करते हैं दीगर लोग नापसंद ..ब्लोगवाणी में  नापसंद की मौजूदा होड़ भी यही साबित करती है ..और लाख कोशिश की जाय ये छोटे छोटे दल यहाँ  बने ही रहेगें ....बल्कि और उग्र होते जायेगें यहाँ,  शन्ति के प्रयास बेमानी है -हम मनुष्य की प्रक्रति को इतनी जल्दी नहीं बदल सकते .संभल सकते हैं .....नीच लोग नीचों   के साथ ही रहेगें और अच्छे लोग अच्छे लोगों के साथ ..वे भी बिलकुल यही सोचते हैं .
पर दरअसल  नीच कौन है और कौन देवदूत ? अपनी अपनी निगाहों में तो सभी देवदूत ही हैं ..
यह चर्चा आगे भी चलेगी ... 






मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

अभी कुछ ही दिन बीते जब प्रियेषा कौमुदी मिश्र (बेटी जो दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययनरत है ) ने मुझसे रात में फोन कर कहा कि मुझे वह शान्ति पाठ नहीं याद आ रहा है जो मैंने  इलाहाबाद में महर्षि पातंजलि विद्यालय में सीखा था ...मैंने कहा इन दिनों जब तुम्हारा इम्तहान चल रहा है तो फिर पाठ्य पुस्तकों के अलावा सहसा ये शान्ति पाठ की जरूरत क्यूं ? उसने कहा मुझे उसकी ध्वनि बहुत अच्छी  लगती थी  और जब भी मैं उनका सस्वर पाठ करती थी तो मुझे बहुत अच्छा लगता था .इस समय मूड फ्रेश करने के लिए पठन पाठन के अंतराल में मैं शान्ति पाठ करने की सोच रही हूँ .माँ बाप बच्चों की सद इच्छा पूरी करते ही हैं -सो मैंने फोन पर ही उपनिषदों से/के  कुछ चुनिन्दा शांति पाठ उसे सुनाने  शुरू किये -

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ तन्मामवतु तद् वक्तारमवतु अवतु माम् अवतु वक्तारम्
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।

(यह अथर्ववेदीय शान्ति पाठ है ,अर्थ है ॐ हे देवगण!हम कानो से कल्याणरूप वचन  सुने . हम नेत्रों से शुभ दर्शन  करें, .सुगठित अंगों एवं शरीर से जब तक आयु है देवहित में स्तवन करते रहें . महान कीर्ति वाला इंद्र हमारा कल्याण करे .विश्वका जानने वाला सूर्य हमारा कल्याण करे .आपत्तियां आने पर चक्र के समान घातक गरुण हमारा कल्याण  करें.बृहस्पति हमारा कल्याण करे ,ॐ शान्ति शान्तिः शान्तिः  )

"नहीं पापा नहीं  यह वाला नहीं " 
"च्च ..तब कौन कुछ तो याद होगा ?" 
"नहीं बिलकुल  याद नहीं ,पहला शब्द ही याद आ जाता तो तो मुझे पूरा याद न हो आता "
" हूँ यही तो है तोता रटंत का परिणाम ,तुम्हे अर्थ सहित याद रखना  चाहिए "
 " अबसे अर्थ के साथ याद कर लूंगी ..पहले याद तो आये .." 
अच्छा तो क्या यह है- ॐ सह नाववतु  ......
वह खुशी से मानो उछल पडी हो  ,हमने आगे का शान्ति   पाठ साथ साथ किया ..आईये आप भी ज्वाईन करें -
ॐ सह नाववतु ।
सह नौ भुनक्तु ।
सहवीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु ।
मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।
(ॐ ... परमेश्वर हम शिष्य और आचार्य दोनों की  साथ साथ  रक्षा करे ....हम दोनों को साथ साथ विद्या के फल का भोग कराये ,हम दोनों एक साथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें ,हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो ,हम दोनों परस्पर द्वेष न करें .. 
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।कृष्ण यजुर्वेदीय )
अच्छा हुआ यह दूसरे नंबर का शांति पाठ ही प्रियेषा का इच्छित पाठ था ..नहीं तो पिता -पुत्री का यह शान्ति -अन्वेषण रात्रि - शान्ति का कुछ अतिक्रमण तो जरूर करता  ..मैंने उसे बताया कि ऐसे कई शान्ति पाठ हैं तो उसने सहर्ष कहा कि मैं गर्मी की छुट्टियों में उन सभी को अर्थ सहित याद कर   लूगीं -आखिर वह एक अच्छी बेटी जो है ...अगले एक मई को आने वाली है -संध्या मिश्र उसकी आगवानी   में जुट गयीं हैं .....आखिर  माँ का दिल जो ठहरा ......

मैंने यह शांति पाठ यहाँ डालना चाहा ,ब्लॉग जगत को भी इसकी निरंतर बड़ी  जरूरत है .

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

बुद्धिजीवी दिखना भी एक शौक है,एक चस्का है !

जी ,बुद्धिजीवी दिखना भी एक शौक है!यह कोई नया नहीं बल्कि पुराना शौक है या यूं कहिये कि अब आउटडेटेड हो चला है -कारण कि अब कथित बुद्धिजीवियों की कोई साख नहीं रही समाज में -एक ढूंढो हजार मिलते हैं ,मतलब कौड़ी के तीन! इधर कुछ लोग बुद्धिजीवी बनने में मशगूल रहे और उधर बिना बुद्धिजीवी बने /दिखे ही भाईयों ने अट्टालिकाएं खडी कर लीं ,अकूत धन वैभव जुटा लिया ...बुद्धिजीवी बिचारा कंधे पर झोला टाँगे पैरो में चमरौधा -पनही पहने एक उम्र पार कर गया और कहीं किसी अनजान से  कोने में कुत्ते से भी बदतर स्थिति में दम तोड़ गया -कई दशकों पहले जब बुद्धिजीवी बनने की ऐसी ललक दीगर भाई बंधुओं में दिख जाती थी तो शुरू शुरू में उन्हें  कामरेड का संबोधन और लाल सलाम मिलते रहते थे और वे  फूल फूल कर कुप्पा होते अपनी उस मंजिल की और बढ़ते जाते थे जो दरसल कहीं वजूद में थी ही नहीं ....इक कदम जो उठा था गलत राहे शौक में मंजिल तमाम उम्र मुझे ढूढती रही ....जो इतिहास से सबक नहीं लेते वे जागरूक नहीं होते ..

मुझे हमेशा से दया आती रही है ऐसे बुद्धिजीवियों पर ,बिचारों को न खुदा ही मिला न विसाले सनम ....कुछ ऐसे ही दोस्त आज भी मिलते हैं तो नजरे चुराकर चुपके से फूट लेना चाहते हैं जब तक कि मैं खुद उन्हें बढ़कर अंकवार में नहीं ले लेता-अक्सर कहता हूँ दोस्त ,जीवन कई कडवी सच्चाईयों पर टिका हुआ है यहाँ  तुम्हारे थोथे आदर्श ,मार्क्सवाद और  एंजेल के लिए आज भी जगह नहीं बन पाई है...तब उनकी सूनी आँखों और निस्तेज चेहरे से मैं भी अंदर से काँप जाता हूँ -मुझे भी कभी कुछ ऐसा ही बुद्धिजीवी बनने का शौक था ....बच गया .हाँ उन दिनों भी मार्क्स नुमा बुद्धिजीवी होने के बजाय मुझे स्वदेशी विचारधारा ज्यादा आलोड़ित करती थी मगर चड्ढी पहने बुद्धिजीवियों को देख कर मैं डर गया था ..इस  जमात से भी मुझे एक वितृष्णा सी  होने लगी थी -वह तो भला हो गुलजार का जिन्होंने चड्ढी पहन के  फूल खिला है जैसा मनोरम गीत लिख कर और उन नारीवादियों का जिन्होंने  गुलाबी चड्ढी अभियान चला कर मेरा चड्ढी भय अब काफी कम कर दिया है ...गरज कि मैं बुद्धिजीवी नहीं बन सका ..लाख लाख शुक्र है उस परवर दिगार का ....

 एक बात और साफ़ हो जानी चाहिए वह है -बुद्धिजीवी होने और दिखने में भी बड़ा अंतर है -यहाँ भी वही द्वैध है -कुछ दिखते हैं मगर होते नहीं और कुछ होते हैं मगर दिखते नहीं ....मगर उन लोगों की स्थिति शायद  सबसे दयनीय है जो होते तो बिलकुल  नहीं मगर दिखना और दिखाना चाहते हैं -वैसे तो यह सिम्पटम बस गदह पचीसी तक ही अमूमन दिखता है -हाँ यह बात दीगर है कि कुछ लोग  कालचक्र (क्रोनोलाजी ) को धता बता कर अधिक उम्र के होने पर भी अपनी गदह पचीसी बनाए रखते हैं .ब्लॉगजगत में ऐसे कई नौसिखिया बुद्धिजीवी दिख रहे हैं और मैं उनका भविष्य भांप भांप कर दहल रहा हूँ -अपने अनुभव से तो मूर्ख लोग सीखते हैं भैया ..कुछ हमरी भी मानो ..हम आपको गुमराह  नहीं कर रहे हैं आप हमरे हमराह हैं  . वैसे भी अब बुद्धिजीवी का वह चार्म  रहा भी नहीं ....काहें इस रूढ़ इमेज को ओढ़ कर अपनी जग हंसाई कराना चाहते हो -दूर की बात छोडो अपने थिंक टैंक कहे जाने वाले गोविन्दाचार्य जी की हालत देखिये -एक निर्वासित जिन्दगी जी रहे हैं ,जबकि वे असली वाले /सचमुच  के बुद्धिजीवी हैं .इस पर भी कोई पूछ नहीं है उनकी तो आप किस खेत के मूली हैं ...

.. मैं देख रहा हूँ ब्लॉगजगत में कई देवियों -सज्जनों को बुद्धिजीवी दिखने का शौक चढ़ा हुआ है -वे डंके की चोट पर खुद बुद्धिजीवी मनवाने पर तुले हुए हैं ...और हमारी आपकी सहिष्णुता कि उन्हें झेल रहे हैं बल्कि कई बन्धु न जाने किस सोच के वशीभूत उन्हें झाड पर चढ़ाये जा रहे हैं -काहें  उनकी जिन्दगी को बर्बाद करने पर तुले हो भाई लोग ? आपकी टिप्पणियाँ उन्हें मुगालते में बनाए चल रही हैं -अरे ज्ञान की धारा कृपाण की धार से कम नहीं है -स्वाध्याय करते पूरा जीवन बीत जाए तब भी सही अर्थों में बुद्धिजीवी होना मुश्किल ही है ....लेकिन क्या कहिये यहाँ तो कहीं का ईंट कही का रोड़ा भानुमती ने कुनबा /ब्लॉग जोड़ा ...और मुगालता ऐसा कि देखो हम अपनी गदह पचीसी में ही बुद्धि का वह मुकाम /पड़ाव हासिल कर गए जहाँ आप अपने  उम्र के आख़िरी पड़ाव तक भी नहीं पहुँच पाए!

....और लेखनी तो सुभान अल्लाह ....खुद का लिखा/कहा  खुद ही समझा तो क्या समझा ,मजा तो तब है कि आपने कहा और दूसरे ने समझा ....नहीं नहीं मैं इन्हें हतोत्साहित नहीं कर रहा हूँ ..मगर यह कह रहा हूँ कि लिखो पढो खूब मगर बुद्धिजीवी का क्षद्म वेश धारण   कर नहीं ...सहज होकर अपनी सरल टूटी फूटी भाषा में ही ,न कि ज्ञान का दंभ और आतंक दिखा कर अगले पर और  अपनी बुद्धिजीवी होने की धाक जमाने की नीयत से....,आज के युग में इसका  चलन नहीं है भाई,जब यहाँ असली बुद्धिजीवी दर किनार कर दिए जा रहे हैं तो तुम्हारी  औकात ही क्या है ? कब तक यह थोथा चना चबैना   लेकर चलोगे ....(थोथा चना बाजे घना .) गावों में इधर एक कहावत कही जाती है बिच्छी का मन्त्र ही न जाने कीरा के मुंह में अंगुली डाले....कितना खतरनाक है यह .....मतलब अधजल गगरी भले ही छलकती जाय ..है परेशानी का सबब ही ....कम ज्ञान बहुत खतरनाक है व्यष्टि के लिए भी और समष्टि के लिए भी .....वैसे बुद्धिजीवी दिखने के लिए बुद्धिजीवी टाईप पोस्ट लिखने की कौनो जरूरत नहीं है -पुरुष भाई फ्रेंच कट ढाढी रख लें और एक झोला टांग लें बस हो गया बुद्धिजीवी का स्टीरियोटायिप ..हाँ चूकि कोई महिला बुद्धिजीवी से कभी कोई साबका पडा नहीं इसलिए महिला बुद्धिजीवी की वेश भूषा बताने में किंचित दिक्कत है -हाँ ब्लॉगजगत में उनकी पहचान उनके पोस्टों से की जा सकती हैं -कम हैं ,मगर हैं !

...अभी वक्त है पढो और पढ़ते जाओ और हाँ जब लगे कि तुन्हें  लोगों से बाटना है  कुछ तब शुरू करो लिखना ,बौद्धिक आतंक ज़माने के लिए नहीं और न ज्ञान बाटने के घोषित उद्येश्य से  ..बस अपनी बात कहने के लिए ..अभी तुम ज्ञान की लम्बी चौड़ी बातों को कहने के लिए क्वालीफाई नहीं कर रहे  ...बचकानी लगती हैं तुम्हारी पोस्टें और ज्ञान प्रदर्शन का दंभ! बुद्धिजीवी बनो जरूर मगर दिखो मत ! तुम्हे अपनी रोजी रोटी भी चलानी है!और हाँ टिप्पणियों से मत भरमाओ ,वे तुम्हारी बुद्धि पर नहीं दीगर बातों पर तरस खा रही हैं ..

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

किसी दिन कुछ ख़ास हो जाता है ....कुछ परोपकार कर ले मनुआ !

जब ऐसे ही हम रोज रोज की सुबह शामों में जिन्दगी  को तमाम  करते होते हैं  किसी दिन कुछ ख़ास हो जाता  है -कुछ यादगार सा! अभी उसी दिन ही तो मुझे एक एस एम् एस मिला और पहली नजर में मैंने उस पर रोजमर्रा की ही तरह सरसरी निगाह डाल कर दीगर दुनियावी कामों में लग गया ...मगर कहीं कुछ खटक सा रहा था ...मेरे पास विज्ञान प्रगति और साईंस रिपोर्टर पत्रिकाओं में छपने वाले  लोकप्रिय विज्ञान के लेखों पर अक्सर फोन काल और एस एम् एस के जरिये प्रतिक्रियाएं और जिज्ञासाएं ज्यादातर  बिहार ,मध्य प्रदेश ,उत्तरांचल ,राजस्थान और अपने उलटे... ओह सारी..उत्तर प्रदेश  -यानि पूरे हिन्दी बेल्ट से आती रहती हैं .और इनके प्रति मेरी  अब उतनी  सक्रियता/रूचि  भी  नहीं रह गयी है  ,यद्यपि इनसे स्व -अस्तित्व  को लेकर तनिक भर ही सही यह सार्थकता बोध तो बना रहता  है कि यह जीवन शायद  उतना व्यर्थ नहीं गया जितना मौजूदा देश दुनिया के हालातों में सहज संभाव्य था! बहरहाल  एक बार मैंने अपना  एस एम् एस बाक्स फिर खोला और चैक किया ...सन्देश अंगरेजी में था -आप उसका हिन्दी अनुवाद पढ़ें -
प्रिय अरविन्द जी ,
नमस्ते ,
आपका एक 'फैन'  होने के नाते मेरी  सदैव आपसे मिलने की इच्छा रही  है ...और मेरे लिए यह किसी बड़े सुखद आश्चर्य से कम नहीं है कि आज मुझे आपका नंबर मिल गया .अभी जल्दी ही मैंने एक साईट जारी की है उसका नाम है , www.suicidesaver.com यह युवाओं को अवसाद और आत्महत्या से बचाने का एक प्रयास भर है ,अगर आपको मेरा यह प्रयास उचित लगे तो कृपा कर दूसरों से भी साझा करिएगा . वहीं पर मेरी एक विज्ञान कथा(साईंस फिक्शन ) भी आपको पढने को  मिल जायेगी जिसे मैंने २५ वर्षों पहले लिखी थी -इस पर भी आपका ध्यान चाहूँगा -शुभ कामनाओं के साथ -प्रकाश गोविन्दवर नागपुर ..

यह कहने भर का ही एस एम एस सन्देश था ...मगर अब तक इतना भान  हो गया था कि इस सन्देश में कुछ गंभीरता थी ...मैंने सोचा कि बताई साईट  देख लूँगा ...मगर व्यस्तता,ब्लागिंग  और चैटिंग के चलते साईट जल्दी चैक नहीं कर सका और तब तक प्रकाश जी का फोन भी आ गया -फैन और आईडल -फिगर (हा हा ) के बीच औपचारिकताओं का आदान प्रदान हुआ मगर चूंकि ये फैन नुमा प्राणी बड़े वो होते हैं जैसा  आप जानते ही हैं और उस समय मैं मंडलायुक्त के प्रतीक्षाकक्ष में बैठा किसी भी पल आयुक्त महोदय के उपस्थित होने से आशंकित था मैंने हठात उनसे विनयपूर्वक शाम को खुद फोन कर बात करने का अनुरोध कर फोन काट दिया ...शाम को साईट चैक की ...और प्रकाश जी के ईमानदार काम से प्रभावित हुआ . ..

आप भी ऊपर के लिंक पर जाकर अवश्य देखें ....एक प्रयास ही सही ..हम समाज के लिए कब और कितना कुछ करते हैं ? क्या हम सामाजिक सरोकार से बिलकुल रहित हो सकते हैं ? पर क्या हम कभी यह भी देखते हैं कि अपने खुद और बीबी/हब्बी , बाल बच्चों की सुख सुविधा में  जीवन भर कोल्हू के बैल के तरह लगे रहने के सिवा हम समाज के लिए क्या करते हैं ? उत्तर निराशाजनक ही है .मगर दूसरा क्या कर रहा है इसके बजाय हमें खुद अपना गरेबान झाकते रहना  चाहिए कि हम  अपने से दीगर दूसरों के लिए क्या कर रहे हैं ...कहते भी हैं न -चैरिटी बिगिन्स एट होम!

मैंने गोविन्द जी को फोन लगाया -उनसे लम्बी बात चीत की ..वे किसी अकादमीय संस्थान मे नहीं हैं आश्चर्य हुआ जानकर कि वे एक हैंडलूम व्यवसायी है और  मुश्किल से समय निकाल कर सामाजिक सेवा के अपने सरोकार में लग जाते हैं और अपनी साईंस फिक्शन और विज्ञान के प्रचार प्रसार के शौक को पूरा करते हैं ...उनकी नभ भौतिकी में बहुत रूचि है और सौर धब्बों , ब्लैक होल्स,डार्क मैटर  तथा ब्रह्माण्ड के जन्म पर उनका अपना मौलिक चिंतन है -संक्षेप में कहें तो गजब या कमाल के आदमी हैं गोविन्द जी ...आप भी उनके अभियान से जुड़ें इस लिए इस पोस्ट को लिख रहा हूँ -उनकी किताबें  हिन्दी अंगरेजी और मराठी में हैं और उक्त लिंकित साईट से डाऊनलोड की जा सकती हैं ...आप भी देखिये न उनका रचना संसार ! मुझे उनकी विज्ञान कथा महा प्रलय की प्रतीक्षा में भी पढनी है अभी ....यह हुई एक अगली नई किताब पढने को ललचाती हुई! जिन्दगी से  फासला थोडा और बढ़ा ...कुछ परोपकार कर ले मनुआ !

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

किताबें ,रूपसियाँ ,प्रेमिका , प्रेयसी -एक चिंतन!

 ध्यान : इस पोस्ट को हलके फुल्के मन  से पढने की सिफारिश की जाती है,खुद के चैन  शांति की कीमत पर ही इसे गंभीरता से ले ....क्योकि यह गंभीरता से लिखी ही नहीं गयी है! 
मैंने अपनी पिछली पोस्ट में जो इस पोस्ट के लिखने तक ब्लागवाणी पर सात पसंद के साथ ऊपर की आठवीं पायदान पर जा पहुँची थी   एक मजाकिया सूक्ष्म संकेत क्या कर दिया मानो कयामत ही आ गयी ....अगर किताबों की तुलना रूपसियों ,प्रेयसियों और प्रेमिकाओं से थोड़ी देर के लिए कर ही दी जाय तो इसमें कौन सी आफत की बात है ...आखिर उपमा विधान है किस लिए? मुहावरे, कहावतें बनी क्यूं हैं ? मैंने तरह तरह की सुन्दर कलेवर की किताबों पर बिना किसी एक पर केन्द्रित हुए 'सभी पर मुंह मारने. की 'आत्म स्वीकारोक्ति क्या की कि भृकुटियाँ तन गयीं ....भृकुटि  विलास शुरू हो गया .....अब मुंह मारना भैया एक मुहावरा है जिनका  शाब्दिक अर्थ नहीं  लगाया जाता है ....ब्राउजिंग का मतलब क्या है ? पगुराना या जुगाली करना ? हम नेट पर क्या करते हैं ? क्या ब्राउजिंग बुरी बात है ?अब हम कोई कालिदास तो नहीं है (उपमा कालिदासस्य ...) मगर कभी कभी कुछ मनोविनोद के लिए उपमाओं का आह्वान  कर लिया करते हैं ! इस पर इतना भारी कोप ?

अगरचे मुझे तो आज तक यह भी पता नहीं कि प्रेमिका और प्रेयसी में असली अंतर है क्या -लोग कई कई नकली अंतर बताते हैं जो मुझे संतुष्ट नहीं करते ...मगर मुझे ठीक ठीक फर्क खुद भी नहीं पता -चूक हो गयी नहीं तो किसी असली वाली से पूंछ ही लिया होता कभी कि ये बताओ प्रिये तुम मेरी  हो क्या प्रेयसी  या प्रेमिका? और यह तब ही पूछना ठीक रहता जब उधर से सैंडिल वगैरह के मिसायली  प्रयोग की आशंका दूर हो चुकी  रहती ...खैर अब तो कारवाँ काफी आगे चला गया है -क्या बीते हुए समय में मोबाईल लग सकता है ? अब जाकर मुझे कुछ वेग सा आईडिया हुआ है कि प्रेमिका विवाह के पूर्व के रूमानी वाकयातों के स्रोत का नाम है शायद और शादी के बाद के रूमानी सम्बन्ध हो जायं तो वे प्रेयसियां होती होंगी ,शायद ! अब दो अलग शब्द साहित्यकारों ने बनाया है तो जरूर कुछ सोच समझ करके ही बनाया  होगा न ! मुझे याद पढता है कि जब हम किशोरावस्था के दहलीज पर अभी कदम रखे ही थे कि एक तत्कालीन रूमानी विषयों के माहिर लेखक जैनेन्द्र ने एक विवाद खड़ा कर रखा था (लोग नाहक ब्लॉग जगत को कोसते हैं विवादों का इतिहास बहुत पुराना है भाई ),,,हाँ हाँ तो जैनेन्द्र कुमार ने एक शिगूफा छोड़ दिया था कि पत्नी घर में प्रेयसी मन मे  -उस विवाद/परिवाद /संवाद  का घातक असर आप देख  ही रहे हैं कि आज तक वह विषय मुझे नहीं भूला ,बल्कि उसने मेरी आगामी जिन्दगी को सजाने सवारने और बर्बाद करने में भी अच्छी खासी भूमिका निभायी है ...खैर तभी से मुझे यह लगने लगा कि पत्नी के घर  में  आसीन हो जाने के बाद भी जो मन  में आये वह प्रेमिका नहीं है प्रेयसी है ...इसी लिए मुझे शब्दार्थ  निर्णय के लिए संस्कृत वालों की परमुखापेक्षिता करनी पड़ जाती है -वे शब्द विन्यास/व्युत्पत्ति  से सही अर्थ बता देते हैं ..कोई मदद करेगा संत वैलेंटायींन   के नाम पर प्लीज! और शोधार्थियों के लिए यह भी जानना जरूरी हो सकता है कि अगला ,ओह सारी ,अगली को क्या  कहलवाया जाना अच्छा लगता  है?-प्रेमिका या प्रेयसी ...वैसे मुझे यह भी लगता है कि प्रेमिका शब्द में जो उदात्तता की अनुभूति(नाम अच्छा है )  होती है वह शायद प्रेयसी में नहीं ....यह कोई ठीक बात नहीं हुई कि विवाहोपरांत के प्रेम सम्बन्ध (अगर हो ही जायं ) तो अगली प्रेयसी के नाम से ही क्यों बधे? प्रेमिका क्यों नहीं ? 

अरे मैं  नई नवेली पुस्तकों और रूपसियों की साम्य चर्चा को छोड़कर  कहाँ भटक गया ? दोनों की ओर क्या आकर्षण एक ही सा नहीं होता ...? अगर आप सच्चे पुस्तक प्रेमी और रूपसी प्रेमी होंगें या रहे होगें तो जरूर मेरी इस संवेदना से जुडेगें ...आईये इस उपमा विधान को थोडा और विस्तार दें  ...पुस्तक ( =रूपसी! ) पतली हो सकती है,मझली और मोटी  हो सकती है -और आप भी जानते हैं बहुत से लोग (आश्चर्य है कि वे ऐसा करते हैं ) किताब की मोटाई या उसके पतला होने से उसका चयन करते हैं -छोडो यह बहुत मोटी है! महाभारत जैसी ....या यह बहुत पतली है राजगोपालाचारी की ऍन  इंस्पायरिंग लांग पोएम की तरह ...हाँ, यह मोटाई ठीक है रागदरबारी की तरह ....हाँ यह भी पतली तो है मगर है बड़ी मनोरंजक द ओल्ड मैंन  एंड सी की तरह .....कुछ पुस्तकें शुरू में बड़ी उबाऊ होती हैं खासकर अंगरेजी के साहित्यिक नावेल .... मगर धीरे धीरे बहुत आनंददायक बनती जाती हैं और क्लाईमेक्स तक रूचि बरकरार रखती हैं ...कुछ शुरू में तो रोचक होती हैं मगर शनै शनै ऊबाऊ होने लगती है और कुछ एकतार चाशनी सी होती हैं मन  ही नहीं करता छोड़ने को .....मगर ऐसी वाली  कई ठीक नहीं होती -इन श्रेणी में ज्यादातर जासूसी और प्रेम बाजपेयी और रानू जैसे लेखक /लेखिकाओं की कृतियाँ हैं . मगर एक बार पढने के बाद भूल ये जाती है -जाहिर हैं वे श्रेष्ठ किताबें नहीं हैं -किताबें वही श्रेष्ठ हैं जो पढ़ लेंने के बाद भूले नहीं ..रह रह कर याद आयें दृश्य दर दृश्य ...पृष्ठ दर पृष्ठ ....  घटना दर घटना ....मुझे तो ऐसी ही किताबें  पसंद हैं -समय के साथ पसंद भी थोडा मेच्योर हो चली है न ! 

मैं समझता हूँ आज के लिए यह जुगाली काफी हो गयी है -भूल चूक हो गयी हो कोई जाने अनजाने तो माफी की दरकार है! यह रुपसियों की सरकार है ...प्रदेश में और देश में भी -और ब्लॉगजगत में भी !

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

किताबें मिली ,कुछ पढ़ीं कुछ अधपढ़ीं !

मेज पर कुछ किताबें पडी हैं ..मतलब पूरी तरह पढी नहीं जा सकी हैं ..पढ़ ली गयी होतीं तो  अब तक शेल्फ में पहुँच चुकी होतीं ...विषय भी काफी डाईवेरसीफायिड है -वैदिक सूक्त संग्रह से लेकर आधुनिक  कविता संग्रह तक ....इनमे सभी में से कुछ न कुछ पढ़ चुका हूँ .मगर पूरा अभी तक कोई भी नहीं कर पाया ...उत्तरवर्ती दिनों में मेरी यह गंदी आदत होती गयी है कि कई जगह मुंह मारने लगता हूँ जबकि एक समय में एक ही जगह (इसे किताब और केवल किताब  के सन्दर्भ में समझा जाय ) ध्यान देना ज्यादा उचित है.मगर एक पुस्तक प्रेमी -बिब्लियोफाईल  ही समझ सकता है कि पुस्तकों का टेम्पटेशन ऐसा ही होता है जो बहुत परेशान   करता है...नई रूप कलेवर में मनमाफिक कोई नई आई नहीं की बस मन उधर ही ललक उठता  है ..... कंट्रोलै नहीं होता .........ऐसा ही कुछ गुजर रहा है इन दिनों इधर ....एक साथ कई किताबों पर ध्यान गड़ा दिए हैं और मगर  कोई पूरी होती नहीं दिख रही हैं .

सीमा गुप्ता जी की विरह के रंग का अपना ही शेड्स है ..उनकी कवितायें विरह की पीड़ा को मुखर करती हैं -विरह जो श्रृंगार का ही एक अनिवार्य और अविभाज्य पहलू है ...सीमा जी कहती हैं कि सुख तो सभी का दुलारा है -दुःख आखिर क्यूं अलग थलग गुमसुम  सा रहे -तो मैंने उसे ही अपना लिया है अपनी कविताओं में ...विछोह का दुःख .... विरह  का दुःख ,अपनों के पराये होते जाने का दुःख ..सर्वं दुखमयम जगत ....तो फिर दुःख से कोई दूरी क्यूं ? दुःख तो अपना साथी है ....अभी कुछ कवितायेँ ही पढ़ सका हूँ ,इस कुशल शब्द शिल्पी की रची हुई  रचनाएं जिसमें विछोह के  भावों को तराश तराश कर संगमरमरी सौदर्य दे दिया  है रचनाकार ने अपने इस पहले कविता संकलन में! पूरी पढने के बाद  ही यह टेबल से हट पायेगी!

 रीडिंग टेबल पर पडी किताबें 

फिर है मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर एक  पुस्तक  -जिसे बनारस के सरयूपारीण परिषद् की आमुख पत्रिका वैदिक  स्वर के एक विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया गया है -यह रामके ऊपर कई बेहतरीन लेखों का संकलन है -लेखकों में राम मनोहर लोहिया भी हैं और विद्यानिवास मिश्र भी ...राम का सीता  -परित्याग,बालि वध सरीखे प्रसंगों की मीमांसा हुई है -और बहुत तार्किकता के साथ लेखकों ने अपने पक्ष प्रस्तुत किये हैं -मित्र के लिए राम छल कपट भी कर देते हैं -बालि जो रावण से भी बड़ा और पराक्रमी योद्धा था इतनी आसानी से मरने वाला नहीं था  -रावण को ही मारने में राम की सब गति दुर्गति हो गयी -तब बालि से सीधे उलझना ठीक नहीं था और उसके पास  प्रतिद्वंद्वी के बल को आधा कर देने का वरदान /हुनर भी था .और सीता के निर्वासन के भी विवेचन प्रभावित करते हैं -इन पर फिर कभी विस्तार से चर्चा .

फंडामेंटल्स ऑफ़  माडर्न अस्ट्रोनोमी विज्ञान प्रसार दिल्ली का प्रकाशन है जिसे वहीं के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ .सुबोध मोहंती ने लिखा है .यह आधुनिक ज्योतिर्विदों की जीवनी और कृतित्व पर एक अच्छी किताब है मगर बहुत ज्यादा समय की मांग करती है अवगाहन का -इसे आद्योप[अंत पढने का मतलब है कई ब्लॉग पोस्टों पर टिप्पणियों के समय को यहाँ स्वाहा कर देना ..देखते हैं ऐसा दुर्योग /सुयोग कब बन पाता है .

वैदिक सूक्त संग्रह गीताप्रेस की है और मुझे बहुत ल्योर/टेम्प्ट  कर रही है -सूक्त एक ही अर्थ -भाव प्रकृति वाले कई मन्त्रों के समूह  को कहते हैं -पंचदेव सूक्त में लोक जीवन में प्रथमपूजा के अधिकारी गणेश  का स्तवन सहज ही ध्य्तान आकर्षित करता है =
श्रीगणपति-स्तवन
“ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः श्रृण्वन्नूतिभिः सीद् सादनम्।।”   (ऋग्वेद २।२३।१)
(हे अपनी गणों में  गणपति (देव) ,क्रान्तिदर्शी कवियों में श्रेष्ठ कवि ,शिव -शिवा के प्रिय ज्येष्ठ पुत्र ,अतिशय भोग और सुख आदि के दाता आप हमारी स्तुतियों को सुनते हुए  यहाँ विराजमान हों .....) मैंने तो अपनी ओर से गणेश का आहवान कर दिया है और उनकी कृपादृष्टि के आकांक्षी हैं .
..
इस वैदिक सूक्त -संग्रह से चयनित मन्त्रों को यहाँ भी समय समय पर जरूर प्रस्तुत करूंगा! अब आज्ञां दें ताकि मैं इन पुस्तकों का पारायण कर सकूँ अन्यथा ये अधपढी ही  रह जायेगीं !


दावात्याग:प्राप्त पुस्तकों की यहाँ समीक्षा नहीं की गयी है ...

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

आखिर एहसानमंद होना भी कोई बात है! शुक्रिया उन्मुक्त जी!

कौन इस पर ऐतराज करेगा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है .हम मिल जुल कर रहते हैं ,एक दूसरे के सुख दुःख में शरीक होते हैं . मदद मांगने वाले की मदद करते हैं -आज सारी धरती पर मनुष्य की विजय पताका ऐसे ही नहीं फहरा  रही है -हम अब अन्तरिक्ष विजय की ओर भी चल पड़े हैं -बिना एक टीम भावना और साझे सरोकार के ये उपलब्धियां हमें हासिल नहीं हुई हैं .मनुष्य ने आत्मोत्सर्ग (altruism ) की भी मिसाले कायम की हैं -वह अपनी जांन  की परवाह किये बिना डूबते को किनारे ले आता है और धधकती आग से बच्चे को बाहर  ला देता है जो खुद उसका अपना नहीं होता -आज भी जबकि लोगों की संवेदनशीलता के लोप होते जाने के किस्से आम हैं ऐसी घटनाएं दिख जाती हैं .मतलब मनुष्यता आज भी अपने को प्रदर्शित कर जताती रहती  है कि  वह  अभी पूरी तरह मरी नहीं है .

 ऐसा ही कुछ मामला मनुष्य के प्रत्युपकार की भावना का है -हम दिन ब दिन शायद अकृतज्ञ होते जा रहे हैं -जैसे राजनीति में तो यह एक कहावत सी बन गयी है कि नेतागण  जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ते हैं सबसे पहले उसी को नीचे फेक देते हैं -मतलब एहसानफ़रामोशी का नंगा नाच! इसलिए ही न राजनीति को गेम आफ स्काउन्ड्रेल्स कहते हैं ,मगर अब यह देखा जा रहा है कि राजनीति की अनेक नकारात्मक बातें /व्यवहार आम जीवन को भी प्रभावित कर रहा है -लोगों में कृतज्ञता का समाज -जैवीय भाव शायद  तेजी से मिट रहा है .हम लोगों से लाभ तो पा जाते हैं मगर उनके प्रति कृतज्ञ  तक नहीं होते ,धन्यवाद प्रदर्शन तक की जहमत नहीं उठाते ..शिष्टाचार वश भी इसका उल्लेख तक नहीं करते .यह भले कहा जाता है कि शिष्टाचार में दमड़ी भले नहीं लगती मगर वह खरीद सब कुछ लेती है -लेकिन समाज में बढ़ते अकृतग्यता भाव को देख कर तो ऐसा ही लगता है कि हम ऐहसानफरामोश ज्यादा है एहसानमंद कम ...मैंने इसी अंतर्जाल पर देखा है कि कुछ लोग दूसरों के श्रम का शोषण तो किये हैं मगर उसका समान और सम्माननीय प्रतिदान नहीं किया उन्होंने ..बस चालाकी से काम बनाकर निकल गए ....यद्यपि हमारे आचरण के सुनहले नियमों में प्रत्युपकार की चाह तक का भी निषेध  है -गीता में ऐसे लोगों को सुहृत कहा गया है जो प्रत्युपकार के आकांक्षी नहीं होते ..संतो की परिभाषा ही  है   नेकी कर दरिया में डाल......संत कबहुं ना  फल भखें ,नदी न संचय नीर : परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर .....यह तो उन लोगों की बात है जो प्रत्युपकार नहीं चाहते -मगर क्या हम उपकार के बदले दो शब्द कृतज्ञता के भी नहीं बोल सकते ? आज मेरे मन में यह सवाल बार बार उठ रहा है ....(मन कुछ और कारणों से भी संतप्त हुआ है ) ..
 शुक्रिया उन्मुक्त जी!

 ऐसे परिदृश्य में ही कुछ ऐसे व्यक्तित्व उभरते हैं जिनसे यह आश्वस्ति भाव जगता है कि अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है -उन्मुक्त जी उनमें से एक हैं -ये उन चन्द  बेनामियों में से हैं जिन पर न जाने कितने सनामी न्योछावर किये जा सकते हैं .मुझे खीझ तो होती है कि वे बेनामी क्यों हैं मगर उनकी मजबूरी मुझे समझ में आने लगी हैं -बहुत छोटी बातों के लिए भी उन्मुक्त जी कितना सहिष्णु और संवेदित हैं इसका एक उदाहरण देता हूँ -उनकी एक श्रृंखला उल्लेखनीय रही -"बुलबुल मारने पर दोष लगता है " जिसका पॉडकास्ट यहाँ उपलब्ध है ..इसमें बुलबुल के नामकरण  का उनका रोचक संस्मरण है -वह इसलिए कि मूल अंगरेजी पुस्तक में दरअसल माकिंग बर्ड की चर्चा है जो छोटी सी चिड़िया है मगर उक्त प्रजाति  भारत में नहीं मिलती -अब इसका नाम हिन्दी पाठकों के लिए क्या रखा जाय -उन्म्कुत जी ने मुझसे मेल पर विचार किया -मैंने सोनचिरैया बताया , उन्होंने शास्त्री  जी से भी राय ली -अब भारतीय सोंन चिरैया (गोडावण ) बड़ी चिड़िया है -माकिंग बर्ड के अनुकूल नहीं था यह नाम तो उन्होंने फिर मुझसे पूछा ,मैंने सहज ही उन्हें कह दिया तो सोंन  चिरैया की जगह बुलबुल रख दीजिये -बात उन्हें जंच गयी -दिन आये गए हुए -कल अचानक उनकी पॉडकास्ट सुनी तो मैं विस्मित और उनके प्रति कृतज्ञ  हुए बिना नहीं  रह सका कि भला इतनी छोटी सी बात का भी इतना ध्यान रखा उन्मुक्त जी ने और पूरा संदर्भ दिया .....जबकि यहाँ कथित सम्मानित अकादमीय लोग भी लोगों के ग्रन्थ तक अपने नाम से छाप देते हैं और चूँ तक नहीं करते  ...आज मेरे आधे दर्जन मित्र ऐसे हैं जिन्होंने मुझसे विज्ञान संचार का कभी ककहरा सीखा था मगर आज उनमे से अधिकाँश मेरा नाम तक नहीं लेते,दिल्ली में  बड़े पदों पर हैं ..मगर आज उन्हें मेरे अवदान को स्वीकार करने में शर्म आती है -मैं भी चुप रहता हूँ -नेकी कर दरिया में डाल ..आज मन  उद्विग्न हुआ तो इतना भर कह दिया और उन्मुक्त जी का उदाहरण भी ऐसा रहा कि ये बातें सहज ही चर्चा में आ गयीं ..
क्या हम भी कृतज्ञता ज्ञापन /प्रत्युपकार के मामले में इतना सचेष्ट हैं? आत्ममंथन कीजिये!

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

क्या आप मेरे साथ तुलसी के राम का नमन नहीं करेगें ?

 किसबी ,किसान -कुल ,बनिक,भिखारी, भाट ,
चाकर ,चपल नट, चोर,  चार,  चेटकी  
पेटको पढ़त,गुन गढ़त ,चढत गिरि ,
अटत गहन -गन अहन अखेटकी 
ऊंचे -नीचे करम ,धर्म -अधरम  करि
पेट ही को पचत ,बेचत बेटा- बेटकी 
'तुलसी ' बुझायी एक राम घनश्याम ही ते ,
आगि बड़वागिते बड़ी है आगि पेटकी
(तुलसी कहते हैं कि श्रमिक ,किसान ,व्यापारी ,भिखारी ,भाट ,सेवक,चंचल नट ,चोर, दूत और बाजीगर अर्थात हम सभी इस कलियुग में पेट के लिए ही सब कर्म कुकर्म कर रहे हैं -पढ़ते ,अनेक उपाय रचते ,पर्वतों  पर चढ़ते और शिकार की खोज में दुर्गम वनों का विचरण करते फिरते हैं ..सब लोग पेट ही के लिए ऊंचे नीचे कर्म तथा धर्म -अधर्म कर रहे हैं ,यहाँ तक कि अपने बेटे बेटी को बेच तक दे रहे हैं (दहेज़ ?) ----अरे यह पेट की आग तो समुद्रों की बडवाग्नि से  भी बढ गयी है ;इसे तो केवल राम रूपी श्याम मेघ के आह्वान से ही बुझाया जा सकता है )

अब आगे पढ़ें 


गिरिजेश जी  ने पिछले दिनों तुलसी की कवितावली से कुछ उद्धरण दिए थे जिसमें मध्ययुगीन इस संत महाकवि के जीवन के कुछ निजी पहलू अनावृत हुए थे-आश्चर्यजनक संयोग  यह कि इन्ही दिनों मैं भी कवितावली पढ़ रहा था और तुलसी के जीवन के कुछ भावपूर्ण पहलुओं को समझने का अच्छा -बुरा अवसर मिल रहा था ...गिरिजेश जी से मैंने वायदा किया था कि कुछ उल्लेखनीय मैं भी इस ब्लॉग पर पोस्ट करूंगा -अनुज अमरेन्द्र का आग्रह भी यही था ,कवितावली को पढ़ते हुए लगता है कि महाकवि ने जैसे उसे कुछ आत्मकथात्मक बना दिया हो ...जगदीश्वर चतुर्वेदी के तुलसी विवेचन की एक बात मुझे मुझे बहुत सटीक लगी कि तुलसी का राम के प्रति अनन्य प्रेम किसी धर्मग्रन्थ या देवोपासना से प्रेरित नहीं है  बल्कि दुःख और दरिद्रता से उद्भूत  दैन्य की ही एक तार्किक परिणति है!

दिन अनुनैन्दिन अनेक कष्टों और असह्य दुखों को भोग रही मानवता के त्राण का  क्या कोई सार्वकालिक और सार्वजनींन  समाधान सूत्र है ? तुलसी ने निरंतर सोचा विचारा  होगा और अनुभव से इसी मुकाम पर  पहुंचे और  फिर वहीं ठहर ही गए सदा सनातन  के लिए  -रामहि केवल एक अधारा ! आज दुखों से बिलबिलाती असंख्य जनता के सामने राम से बढ़कर कोई और भरोसा है ? तुलसी ने राम को पुनः आविष्कृत किया और प्राण प्रतिष्ठा दी -वे तो बिसराए हुए से हो गए थे .राम के ही जरिये तुलसी ने मनुष्य मात्र को एक भरोसा  एक आत्मबल और एक आत्मसम्मान का फार्मूला सब एक साथ थमा दिया ...हाथ पसारो तो सबको देने वाले राम के आगे न कि किसी मनुष्य के सामने जो कि खुद दरिद्र है ..जाचक है -उसके सामने हाथ क्या फैलाना ? तुलसी ने लिखने का काम साठ वर्ष की अवस्था से शुरू किया ..साठा सो पाठा-पूरे जीवन के अनुभव से  उन्होंने रचनाकर्म कर देश दींन  दुखिया से अपने विचारों का साझा किया .

मैं तो एक अग्येयी हूँ -अगोनोस्टिक -मगर तुलसी के राम से मुझे भी प्रेम है .मैं भी चाहता हूँ वे मेरी भव  बाधा हरें और इस नश्वर से जीवन को एक सार्थकता  प्रदान करे ..क्या आप मेरे साथ तुलसी के राम का नमन  नहीं करेगें ?
आज पुरुषोत्तम माह का आरम्भ है! 

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

चिलचिलाती धूप ,मनरेगा और औरतें!

अप्रैल माह में ही चिलचिलाती भयंकर  धूप ,गर्मी के थपेड़ों ने बनारस के जन जीवन को जहां बेहाल कर रखा है -मनरेगा के काम में धूप गर्मी की परवाह किये बिना औरतें भी  हाड तोड़ परिश्रम कर रही हैं -मैंने बनारस के हरहुआ ब्लाक के  उंदी गाँव में  कड़ी धूप में महिलाओं को भी पुरुषों से कन्धा से कन्धा मिलाकर काम करते हुए देखा और मानव जिजीविषा  के आगे नतमस्तक हो गया -आसमान से बरसती आग और चमड़ी को जला सी देने वाली मिट्टी को वे काट खोद कर अपने सर पर उठाये हुए दिख रही हैं जबकि पारा ४५ डिग्री तक जा पहुंचा है   -यह दृश्य अब आम है ...यह है नारी शक्ति और उत्साह का साकार होना .....और नारी की पुरुष के आगे बराबरी का हक़ का जोरदार इज़हार!

 मनरेगा का बढ चढ़ कर काम करती औरतें -ग्राम उंदी, बनारस

वह शारीरिक शक्ति में भी पुरुष से पीछे नहीं है और न ही परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ सर पर उठाने में नाकाबिल ...वह आगे बढ़कर चुनौतियों और अवसरों का लाभ उठाने में अब पुरुषों से कतई पीछे नहीं हैं ...आलसी, निकम्मे पुरुषों अब चेत जाओ ,नारी शक्ति अब मुखर है  -अब सामाजिक और राजनीतिक हस्तक्षेपों के लिए भी पूरी तौर पर तैयार हैं ...उसे कम कर आंकना आज एक बड़ी भूल है ...मैंने अपने निरीक्षण में यह भी देखा कि पुरुषों की अपेक्षा वे  अपने काम में ज्यादा सिन्सियर,और केन्द्रित है और उन्हें अपना काम और  लक्ष्य भली  भांति मालूम होता  है ...वे प्रश्नों को सही सही समझती हैं और सटीक उत्तर देती हैं जबकि साथ के पुरुष मजदूर कई बार पूछे गए सवाल का सही मतलंब ही नहीं समझ  पाते और आयं शायं बकते हैं -हमें सचमुच इस नारी शक्ति को सलाम करना होगा और प्रशंसा करनी होगी .

उन्हें कड़ी मिट्टी काटते और खोदते देख मैं तनिक विचलित भी हुआ -यह भी दिमाग में आया कि हाय मनुष्य की परिस्थितियाँ उससे जो न करा दें -सुकोमल हाथ क्या कुदरत ने इतना कठोर /कडा काम करने के लिए बनाया है -मगर उनके चेहरों  पर एक प्रतिबद्धता और आत्मविश्वास की झलक ने मेरे मन में सहज ही आ गये  ऐसे भावों को तिरोहित कर दिया ..जब उनमें ऐसा कोई दौर्बल्य नहीं है तो फिर इस पर  क्या सोचना ....उन्हें मजदूरी के केवल सौ रूपये ही रोज मिलते हैं जो की आज की महंगाई के हिसाबं से क्म है -जब अरहर की दाल आज करीब सौ रूपये किलो मिल रही है -१०० रूपये की कीमत आखिर है ही क्या ? मगर यह उनके परिश्रम से कमाया हुआ धन है ,आत्मविश्वास और ईमानदारी की कमाई है जो करोडो रूपये की काली कमाई से लाख गुना  बेहतर है ...वो कहते हैं न जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान ! 

नारी शक्ति तुझे सलाम !

मेरी ब्लॉग सूची

ब्लॉग आर्काइव