रविवार, 28 अक्तूबर 2012

एक वैज्ञानिक चेतना संपन्न ब्लागर का निरामिष चिंतन!


निरामिष ब्लॉग पर मेरी टिप्पणियाँ विस्तार पाती गयीं तो सोचा क्यों न उन्हें संहत तौर पर यहाँ सहेज लिया जाय ..कई दिनों से कुछ लिख नहीं पाया तो मित्रों के उलाहने मिलने लग गए हैं . यह भी अजीब है कि लिखूं तो वे पढ़ने न आयें और न लिखूं तो लिखने को फरमाएं - :-) 

मुझे अपना दृष्टिकोण कुछ और स्पष्ट करना होगा .सबसे पहले यह कि मैं किसी भी तरह की ईशनिंदा या धर्म विरोध का पक्षधर नहीं हूँ -हिन्दू हूँ किन्तु अज्ञेयवादी (अग्नास्टिक) या कह सकते हैं नास्तिक हूँ . दुनिया के सभी धर्म मूलतः श्रेष्ठ हैं ,इस्लाम ने भी मानवता को बहुत सी अच्छी सीखें और विचार दिए हैं .किन्तु सभी धर्म समय के अनुसार बहुत सी नासमझी और गलतियां ओढ़ते गए हैं -अपनी चादर मैली करते गए हैं -हिन्दू धर्म में कभी हजारों अश्वों की एक साथ बलि दे दी जाती थी ,वैदिक काल घोर हिंसा से भरा था ...यहाँ तक कि कालांतर तक लोग उस हिंसा को वैसे ही जस्टीफाई(वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ) करते थे  -इसलिए ही हिंसा की प्रतिक्रया स्वरुप एक महान धर्म का उदय हुआ -बौद्ध धर्म और इसने भी दुनिया को अहिंसा ,प्रेम और शान्ति का सन्देश दिया -यह एक नास्तिक धर्म है ,मूर्ति पूजा का यह भी विरोध करता है मगर मजे की बात देखिये कि आज इसके अनुयायी विशाल और भव्य मूर्तियाँ बना रहे हैं -बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं ही तालिबानियों ने पहले तोडीं -धर्मों के बीच के ये सारे आपसी झगड़ें मूर्ख मुल्लों और पंडितों ने रचे बनाए हैं ....इसी में से एक कुर्बानी है जो कुछ और नहीं बस वैदिक काल की वीभत्स पशु हिंसा ही है -मुझे तो कभी कभी लगता है कि कालांतर के  कुछ तिरस्कृत वैदिक विचार और परम्पराएं ही इस्लाम में प्रश्रय पा गयी हैं ,
आज पूरी दुनिया में सह अस्तित्व की एक पारिस्थितिकीय सोच परिपक्व हो रही है . यह भी हमारी एक मूल सोच का ही आधुनिक प्रस्फुटन है -"सर्वे भवन्तु  सुखिन:  सर्वे सन्तु   निरामया........ कामये दुःख तप्तानाम प्राणिनाम आर्त नाशनं"  आज पेटा जैसी संस्थायें -(पीपुल फार एथिकल ट्रीटमेंट टू एनिमल्स)  पशु हिंसा का प्रबल विरोध करती हैं -और यह उचित भी है -इस धरती पर सभी प्राणियों का सह अस्तित्व है.  सामूहिक पशु हिंसा और वह भी बड़े जानवरों की -अब वो जमाना नहीं रहा -शिकार तक प्रतिबंधित हो गए हैं .दुनिया एक पर्यावरणीय संचेतना (कान्शेंस) से गुजर रही है ..हमें क्या हिन्दू क्या मुस्लिम अनुचित प्रथाओं का विरोध करना ही होगा! 
बड़े स्तनपोषी हमारे अधिक जैवीय करीबी है .उन्हें मारने में सहजतः एक विकर्षण भाव होना चाहिए मगर धर्म का लफडा देखिये -इस कृत्य का भी उत्सवीकरण शुरू कर दिया ....यह हमारा ही कर्तव्य है कि हम कठमुल्ले या पोंगा पंडित ही न बने रहें बल्कि अपने धर्मों का निरंतर परित्राण करते रहें . हिन्दुओं ने समय के साथ अपने रीति रिवाजों में बहुत से सामयिक परिवर्तन किये हैं -बलि अब मात्र क्षौर कर्म -मुंडन आदि तक सीमित होकर रह गयी है और "बड़ा" भोज केवल उड़द के 'बड़े' तक सिमट  चुकी है -अश्वमेध तो अब किताबों में ही हैं .....समय देश और काल का तकाजा है कि मुसलमान दिशा दर्शक अब आगे आयें और अपने यहाँ सामूहिक पशुवेध की परंपरा को बंद करें -ऊंटों की कुर्बानी तो अत्यंत वीभत्स दृश्य उत्पन्न करती है -कुर्बानी का मूल अर्थ जो है  उसका अनुसरण क्यों नहीं किया जाय? त्याग और आत्म बलिदान की -बिचारे निरीह पशु क्यों इस सनक के शिकार बनें! . 
कुर्बानी का अर्थ तो पशु अत्याचार कतई नहीं हो सकता -यह विकृत सिम्बोलिक परम्परा इतनी पुरानी होती गयी ,आश्चर्य है! समाज की कुरीतियों पर क्या हिंदू क्या मुस्लमान सभी को आगे बढ़कर सकारात्मक कदम उठाना चाहिए -तभी हम एक बेहतर भविष्य और रहने योग्य धरती की कल्पना कर सकते हैं!दुनिया के लगभग सभी धर्मों में एक अपरिहार्य सी बुराई घर कर गयी है -सभी बेहद जड़ हैं -कोई गति नहीं हैं उनमें -बस लकीर का फ़कीर बने हुए हैं जबकि विज्ञान कितना गतिशील है -आज आवश्यकता इस बात की है कि हम विज्ञान के नजरिये को अपना कर अपने धर्मों की कालिख और बुरी परम्पराओं का प्रक्षालन करें -यह मानवता का एक साझा कर्तव्य है -यहाँ धर्मों की श्रेष्ठता की कोई लड़ाई नहीं है -मैं हिन्दू धर्म की अनेक बुराईयों को सुनने और प्रतिकार करने को तैयार हूँ . 
मैं देख रहा हूँ कि बस बहस के लिए ही अब बहस हो रही है जो अनर्गल और अनुत्पादक है -ठीक है पेड़ पौधों में भी जान है और मनुष्य में भी जान है -तो क्या मनुष्य भी भोज्य बन जाना चाहिए? कुछ धर्म नरमेध को भी उचित मानते रहे -शुक्र है अब आख़िरी साँसे ले रहे हैं . किसी भी धर्म को अगर अपने श्रेष्ठ मूल्यों को बचाए रखना है तो उसे समय के साथ आ रही बुराईयों को पहचानना और प्रतिकार भी करना होगा .....और यह जितना ही शीघ्र हो उतना ही अच्छा .आज यह कितना दुखद है कि मानवता के बीच की कितनी ही खाइयां धर्मों ने तैयार की है -जहां हम अच्छे मित्र हैं ,सहपाठी हैं ,एक जगह काम करने वाले सहकर्मी हैं ,ब्लॉगर हैं -सब ठीक है मगर जैसे ही हम हिन्दू और मुसलमान होते हैं परले दर्जे के अहमक बन जाते हैं ....आखों के आगे पर्दा पड़ जाता है - अगर धर्मों का  यही उत्स है तो ऐसा कोई धर्म भी मुझे स्वीकार नहीं है. आईये हम सभी यहाँ धर्मों की बजाय अपने स्वतंत्र विचारों को प्रस्फुटित होने का मौका दें!
* 
 मुझे वैज्ञानिक  चेतना संपन्न ब्लॉगर का खिताब अता किया है अनूप शुक्ल 'फुरसतिया' जी ने और उतने ही ख़ुलूस और प्यार से मैं उन्हें ब्लॉग व्यंग विधा शिरोमणि की उपाधि  से नवाजता हूँ! :-)    

96 टिप्‍पणियां:

  1. अनूप जी को नवाजने के लिए आप को और उन्हें बधाई!

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    1. जहां तक वैज्ञानिक चेतना संपन्न ब्लॉगर का खिताब अता करने की बात है तो मिसिरजी ने अपने कई लेखों में खुद को वैज्ञानिक चेतना संपन्न बताया है। उसी को देखते हुये हमने मौज लेने के लिये उनको ’वैज्ञानिक चेतना संपन्न ब्लॉगर ’कहना शुरु किया जिसे उन्होंने भोलेपन के साथ खिताब अता करना बताया। हम तो उन्हें वैज्ञानिक चेतना संपन्न ब्लॉगर इसलिये कहते हैं क्योंकि हमें पता है कि जब हम यह लिखते हैं तो उसे पढ़कर वे सुलग जाते हैं ( मिसिर जी के ही शब्दों में - हाँ जब वे मुझे वैज्ञानिक चेतना संपन्न कहते हैं तो मेरी सुलग जाती है :)।

      बाकी हम तो सवाल भी किये हैं: मिसिरजी वैज्ञानिक चेतना संपन्न कैसे हुये? क्या कुछ सौ वैज्ञानिक लेख लिखकर कोई वैज्ञानिक चेतना संपन्न कहला सकता है?
      लेकिन कौन पूछेगा भला? मिसिरजी से सब डरते हैं। :)
      हम भी पूछ थोड़ी रहे हैं एक बात कह रहे हैं बस्स! :)


      कुल मिलाकर हम यही बताना चाहते हैं कि मिसिरजी को यह खिताब अपन ने सिर्फ़ और सिर्फ़ सुलगाने के लिये अता किया है। यह मात्र उनकी सुलग चेतना से संबंधित है। इसका उनकी या अन्य किसी की वैज्ञानिक चेतना से कुच्छ लेना-देना नहीं है। हमारी दी हुई उपाधि के आधार पर अगर कोई मिसिरजी को वैज्ञानिक चेतना संपन्न मानता है तो उसके लिये मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है। वैसे भी फ़ैशन के दौर में गारन्टी चलती नहीं है।

      मिसिरजी अनूप शुक्ल’फ़ुरसतिया’ को खुलुस और प्यार से ब्लॉग व्यंग्य विधा शिरोमणि की उपाधि से नवाजते हैं उसके लिये फ़िलहाल तो हम आभार प्रकट कर देते हैं और यह बयान जारी करते हैं कि हम उनकी इस उपाधि के काबिल बनने की कोशिश करते रहेंगे।

      यह टिप्पणी इसी प्रयास के चलते की गयी। इसका मिसिरजी की वैज्ञानिक चेतना से कुछ लेना-देना नहीं है।

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    2. *मूल विषय पर तो कुछ लिखे ही नहीं फुरसतिया महराज !
      एक तथ्यात्मक गलती कहीं मेरी मूल विनम्रता के चलते बनी न रह जाय -
      अपनी टिप्पणी में 'कुछ सौ लेखों' के बजाय 'कुछ हजार लेखों' कर लीजिये ....कुछ सौ तो यहीं ब्लॉग संसार में ही हो गए हैं यत्र तत्र अन्यत्र !
      यह भी कि एक वैज्ञानिक आलेख परिश्रम ,अध्ययन के सापेक्ष व्यंग विधा ब्लॉग शिरोमणि के कम से कम दस के बराबर तो होने ही चाहिए :-)

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    3. "मिसिरजी ने अपने कई लेखों में खुद को वैज्ञानिक चेतना संपन्न बताया है।"
      व्यंग विधा शिरोमणि जी,
      ऐसा कब और कहाँ कहाँ कहा कृपया लिंक दें ! अन्यथा इमेज टार्निश करने का अपना पुराना धन्धा बंद करें !

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    4. मूल विषय पर लिखने के लिये कोई विचार था नहीं इसलिये लिखा नहीं।
      ’कुछ सौ लेख’ वाली बात पुरानी टिप्पणी से टोपकर लिखी। कोई नया बयान जारी नहीं किया। हम कुछ हजार क्या कुछ लाख करने की सोच रहे हैं। आखिर हजार भी लाख का हिस्सा ही होता है। व्यंग्य और तथाकथित वैज्ञानिक आलेख में तुलना दो असमान विधाओं की तुलना है।

      आपके ब्लॉग/टिप्पणियां खंगालनी पड़ेंगी यह बताने के लिये कि कब/कहां आपने यह कहा/लिखा कि आप वैज्ञानिक चेतना संपन्न हैं। मिलने पर इसी पोस्ट के नीचे लिंक सटाऊंगा।

      जहां तक रही इमेज वाली बात तो आपकी इमेज कब से इतनी छुई-मुई हो गयी कि कोई उसे टार्निश कर सके। आप अपनी इमेज के स्वयं निर्माता हैं। हम तो दर्शक मात्र हैं।

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    5. शुकुल जी, आपकी सुलगाने वाली प्रवृति के हम मुरीद हैं । उस समय खूब अच्छा लगता है जब आप मिसिर जी की सुलगाने के चक्कर मे ट्रैक से उतर जाते हैं और चेतना की संपन्नता को ही फ्यूज कर डालते हैं । वैसे मेरा मानना है कि वैज्ञानिक चेतना संपन्न ब्लॉगर की प्रामाणिकता के लिए कुछ सौ, कुछ हजार या कुछ लाख लेख लिखने की आवश्यकता नहीं है । आप भी खुबई जानते हैं कि गुलेरी जी ने कुछ सौ, कुछ हजार या कुछ लाख कहानियाँ नहीं लिखी थी । फिर भी बन गए प्रामाणिक कथाकार ।

      जहां तक रही इमेज के स्वयं निर्माता बनने या बनाने की बात तो यहाँ हम आपकी बतकही से पूरी तरह सहमत हैं शुकुल जी,क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से आत्म निरीक्षण करना सीखना चाहिए । लोग कहते हैं कि अंतरनिरीक्षण वह दर्पण है जिसमें आप अपने मन के उन दर्रों में झांक सकते हैं जो अन्यथा आपसे छुपी रह जाती है ।

      खैर छोड़िए इन बातों को कुछ मीठा हो जाए ब्लॉग व्यंग विधा शिरोमणि की उपाधि के उपलक्ष्य में । बहुत-बहुत बधाइयाँ और शुभकामनायें ।

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    6. mana jai ke koram poora hua........ya??????

      khair, 'kuch mitha ho jai'.......ko pura karne ka adhikarik rasta aaphi ke 'parikalpana' puraskar se hokar gujarta hai...
      ummeed hai 'o' kam bhi aap poora karenge????

      in dono ke 'chemistry ka real physics' to research karne pe hi
      pata chalega......filhal ke kai sal to aapke haath blogging ke itihas-bhugol banane cha bigarne ka project hai...use karmathta se poora karne ka koshish karte rahen.....kyonki abhitak usme hi kai loche lage hue hain.....

      pranam.

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    लिखने से बचने व ब्लॉग को हरा भरा रखने का यह तरीका भी खूब रहा... ;)

    आपका ही अनुसरण करते हुऐ अपनी वहाँ दी गयी टीप ही थोड़े फेरबदल से यहाँ चेप दे रहा हूँ...
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    कुछ भी बात करने से पहले स्पष्ट कर दूँ कि एक उच्च जीवन आदर्श के रूप में हर सम्भव हिंसा से बचने व यदि हिंसा अपरिहार्य हो, तो सूक्ष्म से सूक्ष्म, न्यून से न्यूनतम, अल्प से अल्पतम हिंसा का चुनाव होना चाहिये, इसमें संदेह नहीं... मैं स्वयं भी शाकाहारी बनने की राह पर हूँ...

    'अलग-अलग परिवेश में पालन, अलग-अलग मान्यताएं, अलग अलग किस्म का जीवन, अलग अलग धार्मिक विश्वास व आस्थायें' हमारे विचारों का आधार तय करता है... अन्यथा न लें, तो निरामिष आहार के प्रचारकों में ब्राह्मणों व वैश्य/जैनों की बहुलता व दलित-अन्य वर्ण के हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाइयों का प्रतिनिधित्व न के बराबर होना अनायास ही नहीं है...परिवेश अलग होने के कारण व बचपन से ही मांसाहार का प्रयोग अपने इर्दगिर्द देखने के कारण वे लोग उन्मादी शाकाहार प्रचारक नहीं बन पाते/बनना चाहते...

    मेरा हमेशा से मानना रहा है और यह सही भी है कि हमारे धार्मिक विश्वास-आस्थाओं-परंपराओं को तर्क के तराजू पर तौल कर नहीं आंका जा सकता, यह व्यर्थ होगा व इससे कुछ हासिल भी नहीं होगा... क्या सही है और क्या गलत, यह उद्घाटन व्यक्ति के अंतर्मन से होना चाहिये... और होता भी है ही...

    हिंसा कई प्रकार की होती है, केवल जीव को काटना ही हिंसा नहीं है, वह वाचिक, लिखित, वैचारिक व अप्रत्यक्ष भी हो सकती है... यह आप मुझ से बेहतर समझ सकते हैं...

    धर्म के मामले में हम सभी को दूसरे के घर की सफाई करने की सोचने तक का हक तभी है जब हमने अपना घर अच्छे से साफ कर लिया हो, और वहाँ कोई गंदगी न बची हो अब...

    मैं लिखना नहीं चाहता था पर आपकी यह पोस्ट मुझे बाध्य सा कर रही है, इसीलिये लिख रहा हूँ कि हिंसा अप्रत्यक्ष भी होती है... मतलब हमारे कर्मों-आचरण से यदि किसी को उसका देय नहीं मिलता और परिणाम स्वरूप उसकी मौत हो जाती है तो यह भी हिंसा होती है...

    हम हिंदू अपनी धार्मिक आस्थाओं के चलते हर साल अरबों लीटर दूध मूर्तियों-नदियों पर चढ़ा देते हैं, करोड़ों किलो देशी घी आग में जला देते हैं, अरबों लीटर तेल के दिये जला देते हैं, अरबों किलो खाद्म जिसमें फल, मेवे, गुड़, चावल, जौ, दालें, मिठाई, पान, सुपारी आदि अनेकों पदार्थ शामिल हैं, यज्ञ-महायज्ञ-हवन के नाम पर आग में फूंक देते हैं...यानी भोजन की बर्बादी करते हैं...

    और दूसरी ओर हमारे गरीब देश में करोड़ों बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, लाखों पूरा भोजन न मिल पाने के कारण मर भी जाते हैं... इनका मरना अप्रत्यक्ष तरीके से की गयी हिंसा है... यह हिंसा निश्चित तौर पर जानवर को मारने में हुई हिंसा से बड़ी है... जिम्मेदार कौन है ?... आशा है आप इस पर भी प्रकाश डालेंगे...


    सादर !




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    1. @उफ़ न लिखने पर तोहमत और लिखने पर भी तोहमत! हरियाली किसे नहीं भाती?

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    2. @ "उन्मादी शाकाहार प्रचारक"

      वाह!! क्या बात है, सुन्दर वाक्याँश!!
      बडा सौम्य करूणामय अहिंसक लगता है. :)

      हटाएं
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      आदरणीय सुज्ञ जी,

      आपकी आपत्ति सही है, क्षमा चाहता हूँ, हिन्दी में मेरे पास ज्यादा विशद शब्दावली नहीं, इसलिये ऐसा हुआ, Aggressive Vegetarianism को हिन्दी में लिखते समय मेरी कमी से ऐसा हुआ, 'आक्रामक' ज्यादा सही रहेगा... :)


      ...

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    4. जो भी आपके दिल से निकले,मंजूर!! निसन्देह वह आपके तो अंतर्मन का यथार्थ ही होगा. :)

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  3. जानवरों में भी प्राण हैं, यह समझें...

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  4. सभी प्रकार के पाखंड और हिंसा का विरोधी होते हुए भी मैने मित्रों को बकरीद की मुबारकबाद दी है और कुर्बानी के मजे उड़ाये हैं। इसलिए इस विषय में कुछ भी लिखते नहीं बनता। योगी बन सकूं तो कुछ कहूँ, अभी तो भोगी हूँ।

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    1. "...और कुर्बानी के मजे उड़ाये हैं।"
      कृपया व्याख्या करें -मतलब पशुओं के मूक आर्तनाद का आप आनन्द उठाये हैं? -या दावत उडाये हैं -दोनों अलग अलग बाते हैं !

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    2. जब तक अनुचित हिन्दू मुस्लिम परम्पराओं का मुखर और पुरजोर और निरंतर विरोध नहीं करते रहेगें सामजिक बदलाव नहीं आने वाला ...
      इतिहास साक्षी है क्रांतिकारी बदलाव सतत विरोध से ही आये हैं -संगठित और मान्य वैदिकी हिंसा को भी अतीत होना पडा और गौतम बुद्ध को लोगों ने अपनाया ,,
      अति सर्वत्र वर्जयेत .......

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    3. हा हा हा..शब्द पकड़ना कोई आपसे सीखे। कुर्बानी के बाद 'की दावत' जोड़ लें।

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    4. मनुष्य को मात्र अपने आनन्द से मतलब है, तुच्छ से मजे या अपने उत्साह मात्र के कहाँ देख पाता है अन्य का आर्तनाद् !!

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  5. पंडित जी! मैंने सोचा अपनी टिप्पणी आदरणीय प्रवीण शाह जी की तरह वहाँ से चेपकर थोड़ा परिवर्तन के साथ यहाँ लगा दूं.. लेकिन देखा कि वहाँ समस्त टिप्पणियों की बलि दे दी गयी है.
    आपकी बात से वहाँ भी सहमत था और यहाँ भी सहमत हूँ.. बचपन से देखा है घर के सामने देवी मंदिर में पडती बलि को और इलाहाबाद में पिताजी के एक मित्र के यहाँ बकरीद के मौके पर आलमारी पर सजे हुए (रखे हुए)पशु-मुंड को... और इन सबने मुझे एक भरे पूरे मांसाहारी परिवार में शाकाहारी बना डाला.. और धर्म के प्रति अपने अंदर छिपे परमात्मा की तलाश और उसकी स्तुति..
    ये नास्तिक भी नास्तिक कहाँ होते हैं पंडित जी! उनकी दृढ आस्था होती है इस बात में कि वो नहीं है.. वो उनकी आस्तिकता है.. फिर भला ये नास्तिक कहाँ से आया..
    बहुत ही संतुलित पोस्ट!!

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    1. तब तो अच्छा हुआ हम अपनी पोटली लिए इधर आ गए :-)

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    2. @ वहाँ समस्त टिप्पणियों की बलि दे दी गयी है.
      बलि नही, जरा बेध्यान ने विलुप्त कर दिया था, टिप्पणियों को अभयदान मिल चुका है. स्वागत है.

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  6. मिश्रा जी... आज सन्डे है... फिर भी बिजी हूँ.... लिंक देखते ही मैं पढने लगा.... लेख अच्छा लगा... काफी सेंसिबल भी है.... मैं यहाँ सिर्फ अपनी बात करूँगा... वो यह कि इसे मैं भी ढकोसला मानता हूँ... बहुत सारी चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें हमें ढोना नहीं चाहिए... नॉन-वेज खाने की परम्परा तो आदि काल से रही है.... पर उसे किसी न किसी बहाने जायज़ ठहराना ठीक नहीं है... और धर्म विशेष से तो जोड़ कर बिलकुल भी नहीं... धर्म हमारी मजबूरी है.. क्यूंकि हम जिस कुल में पैदा हुए हैं.... हमें वही सिखाया गया है... और बताया गया है... पर धर्म हमारी ज़रूरत नह्ही है.... यह सिर्फ हमारे नामों के टाइटल बताते हैं... मैं नॉन-वेज खाता हूँ.... लेकिन सिर्फ चिकन (चिकन नॉन-वेज में नहिः आता)... महीने में पन्द्रह बीस किलो चिकन तो मैं खा जाता हूँ.... और आठ-नौ सौ अंडे तो मेरे लिए आम बात है... यह हम पहलवानों के लिए ज़रूरी भी है... क्यूंकि हम सप्लीमेंट्स नहीं लेते हैं तो हाई प्रोटीन... के लिए ज़रूरी है... और नॉन वेज मैं इसलिए नहीं खाता क्यूंकि नॉन-वेज आपको वक़्त से पहले बूढा कर देता है... स्किन श्रीन्केज ज्यादा होती है... और मैं अपनी फेस वैल्यू और मार्किट वैल्यू कम नहीं करना चाहता :) बाकी नॉन-वेज का किसी भी धर्म से कोई लेना देना नहीं है... जिसका जो मन आये खाता ही है... के.ऍफ़.सी. / मैकडी वगैरह ऐसी ही नहीं खुल रहे हैं... बाकी मैं तो जानवरों से बहुत प्यार करता हूँ... मेरा घर खुद एक चिड़िया घर है... इसीलिए मैं जानवरों का डिसटौरशन हमेशा कनडेम करता हूँ... बाकी आपकी यह लाइंस काफी सटीक हैं.... किसी भी धर्म को अगर अपने श्रेष्ठ मूल्यों को बचाए रखना है तो उसे समय के साथ आ रही बुराईयों को पहचानना और प्रतिकार भी करना होगा . आज बहुत सालों बाद किसी ब्लॉग पर टिप्पणी किया हूँ... आपकी इसी इंटेलेकचुयलटी का तो मैं फैन हूँ.... नहीं तो मैं खुद का ही सबसे बड़ा फैन था... बाकी सब तो ठीक है... - मगर जैसे ही हम हिन्दू और मुसलमान होते हैं परले दर्जे के अहमक बन जाते हैं .... कमाल हैं आप भी...

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    1. महफूज भाई
      सच पूछिए तो आप ही असली वैज्ञानिक चेतना संपन्न ब्लॉगर है ,आप चाहें तो मैं अपनी पदवी जो मुझे भार स्वरुप लग रही है आपको ही दे दूं मगर तभी जब अपनी प्रशंसा -हांक कुछ कम कर दें :-)

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    2. मिश्रा जी।।। कभी कभी एक्जेजरेशन (Exaggeration) करने का मज़ा ही अलग होता है न ... ही ही ही ....

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    3. सहज स्पष्ट महफूज भाई !!

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  7. * मुझे विज्ञान चेतना संपन्न ब्लॉगर का खिताब अता किया है अनूप शुक्ल 'फुरसतिया' जी ने और उतने ही ख़ुलूस और प्यार से मैं उन्हें ब्लॉग व्यंग विधा शिरोमणि की उपाधि से नवाजता हूँ! :-)

    भाई साहब बड़ा दिल बड़ी बात बधाई स्वीकारें

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  8. यह ठीक वैसा ही है जैसे होली पर हरे पेड़ों को बचाने की चिन्‍ता और बकरीद पर पशु वध को रोकने की कवायद.... काश, इन कोशिशों का कुछ असर भी दिखता।


    फेसबुक पर व्‍यंग्‍कार प्रमोद ताम्‍बट जी ने भी इसी मुद्दे पर सवाल उठाए हैं। मैंने अपनी समझ और विचार शक्ति के आधार पर जो विचार वहां पर व्‍यक्‍त किए हैं, यहां भी उन्‍हें ही चेंप रहा हूं-


    ''मेरे विचार में यह परम्‍परा मांसाहार की लोकप्रियता और पैसे/धर्म के दिखावे के कारण दिन दूनी रात चौगुनी गति से फल फूल रही है। जब तक समाज में इन दोनों चीजों का बोलबाला है, तब तक हम इस तरह की परम्‍पराओं पर सिर्फ चर्चाएं ही कर सकेंगे....। ये परम्‍परा भी उसी तरह दिन दूनी रात चौगुनी गति से फलती-फूलती रहेगी, जैसे कि अन्‍य धार्मिक आडम्‍बर....''

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    1. यहाँ सवाल मांसाहार या शाकाहार का नहीं है पशु अत्याचार का है -अब पशु मांस के उतकीय संवर्धन से कृत्रिम मांस भी व्यापारिक स्तर पर उपलब्ध हो सकेगा -
      आशंका यही है कि मजहब के नाम पर तब भी पशु बलियां दी जाती रहेगीं -जब की उसकी कोई आवश्यकता नहीं है -उस दिन का इंतज़ार करना होगा जब कानूनन जैसे शिकार अब प्रतिबंधित है यातनापूर्ण पशु बलि भी प्रतिबंधित होगी और एक दिन यह होना ही है !

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    2. तत्काल असर न भी दिखे,कोशिशेँ व्यर्थ नही जाती. जाक़िर भाई!!

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  9. देवेन्‍द्र पाण्‍डेय जी ने बहुत ईमानदारी से अपनी बात रखी है। उनके इस साहस को सलाम करता हूं।
    ....और हां, प्रवीण शाह जी ने जिस गम्‍भीरता के साथ इस बहस को वैचारिक प्रतिपक्ष प्रदान किया है, उसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। आशा है गुणी जन उसपर भी विचार करेंगे।

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    1. जाकिर भाई, हालांकि बड़े भाई ने संतुलित लिखा है मगर मुझे त्यौहारा दिन में किच्चाइन अच्छी नहीं लगती। रंग में भंग डालने जैसा लगता है। स्वाद किरकिरा हो जाता है।

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    2. देवेन्द्र जी,
      आराम से त्यौहार मनाएं -मेरा तनिक भी इरादा त्यौहार को प्रभावित करने का नहीं है!

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    3. वैसे मैं वैज्ञानिक सलाह दूंगा कि बकरे के बजाय मछली खायें अगर ऐसी ही तलब लगी है तो !

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    4. जी..सही है। वैसे भी अब मांसाहार की उम्र नहीं रही। बारहो महीने शाकाहारी रहता हूँ। यदा कदा सबकी खुशी में साथ हो लेता हूँ, कोई परहेज नहीं। फिर इत्ती च्वाइस वाली दावत कौन देता है :(

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  10. यह एक ऐसी पोस्ट है जो पढ़ने वालों को कुछ न कुछ प्रतिक्रिया देने के लिये ललचाती भी है और उकसाती भी है।
    पोस्ट और आई हुई टिप्पणियों मं बहुत से बातों से सहमत, निरंतर सुधार के लिये प्रयासरत रहना बहुत जरूरी है।
    फ़िर भी एक बात गौर करने लायक है कि किसी कुरीति का जिक्र होते ही(विशेषकर दूसरे धर्म से संबंधित हो तो) डिफ़ेंडर की भूमिका में हिन्दू प्रबुद्धजन ही आते हैं मानो सदाशयता, सद्भावना की ठेकेदारी में एकाधिकार हमारा ही है। पहले इन बातों पर खीझ होती थी लेकिन अब नहीं होती, यह सोचता हूँ कि शायद ये बुद्धिजीवी किसी और धर्म में जन्म लिये होते तो इतना स्पेस कहाँ मिलता? फ़िर तो वही बोलना पड़ता जो सैकड़ों साल पहले..।

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    उत्तर
    1. .
      .
      .
      @ मानो सदाशयता, सद्भावना की ठेकेदारी में एकाधिकार हमारा ही है।

      संजय जी,

      अगर वाकई ऐसा है तो क्या यह सनातन भारतीय धर्म पर गर्व करने का एक और कारण नहीं देता हम सबको... सदाशयता इसमें इतनी है कि बौद्ध व जैन धर्म को इसने इस तरह अपना लिया कि आज वे भी इसी का एक प्रकार सा लगते हैं... सभी को अपने आंचल में समेट लेता है यह...अन्य धर्म अपनी अलग पहचान कायम रखने के लिये इसी सदाशयता के कारण संघर्ष सा करते नजर आते हैं भारत देश में... पर दुख तो तब होता है जब अपने मूल चरित्र को भूल हममें से कुछ संकीर्ण नजरिये को अपनाते को आतुर रहते हैं...


      ...

      हटाएं
    2. आदरणीय प्रवीण साहब,


      भय, प्रलोभन या द्वेष के कारण मिली ठेकेदारी मेँ गर्व लेने जैसा कुछ भी नही होता.

      द्वेष = एक से द्वेष होने के कारण दूसरे से सद्भावना दिखाना)

      हटाएं
    3. .
      .
      .
      आदरणीय सुज्ञ जी,

      'भय, प्रलोभन या द्वेष'... किस से, किस का, किस को और क्यों ?... आप यह नतीजा अपनी समझ व सुविधा से निकाल रहे हैं... पर हम में से कई ऐसा नहीं सोचते कभी भी...


      ...

      हटाएं
    4. आदरणीय प्रवीण साहब,
      यह नतीजा मात्र मेरी समझ व सुविधा से नही है, सँजय जी की टिप्पणी से प्रेरित मेरे विचार है. "ठेकेदारी" शब्द तो आप समझ ही गए लगता है. रही बात् किस से, किस का, किस को और क्यों ? तो एक बार पुनः दृष्टि कर लीजिए- "किसी कुरीति का जिक्र होते ही(विशेषकर दूसरे धर्म से संबंधित हो तो) डिफ़ेंडर की भूमिका में हिन्दू प्रबुद्धजन ही आते हैं मानो सदाशयता, सद्भावना की ठेकेदारी में एकाधिकार हमारा ही है।" ....आपके प्रश्नो के सभी उत्तर इसी मेँ है. अब बताइए ऐसी ठेकेदारी मेँ गर्व लेने जैसा क्या है. द्वेष का कारण स्पष्ट कर चुका हूँ और भय व प्रलोभन अपने आप मेँ स्पष्ट है.

      हटाएं
  11. एक संभावना ये भी है कि जैसे सूर्य को जल चढ़ाना, पूजा के दौरान शंखध्वनि करना आदि का स्वास्थ्य के साथ और पर्यावरण के साथ गहरा संबंध है लेकिन हर मनुष्य इतनी बारीकियाँ\पेचीदगियाँ नहीं समझता इसलिये इन्हें हमारे धर्म के साथ जोड़ दिया गया था। सरल लोगों ने इसे दिनचर्या का हिस्सा बना लिया, उद्देश्य तो पूरा होने ही लगा। कहीं ऐसा ही कुछ इस पशुबलि वाली प्रथा के साथ तो नहीं? मेरा मतलब ये है कि शुरू से ही एक ऐसी मानसिकता को तैयार करना कि जिसे शौक से खरीदकर लाया जाये, खिलाया जाये, परिवार के साथ रखा जाये, अवसर आने पर उसे ही ..। विज्ञान का या फ़िर धर्मशास्त्र का अच्छे से अध्ययन किया रहता तो कुछ और विस्तार से इस बारे में लिख सकता था। :(

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    उत्तर
    1. सामान्य समझ और चेतना की बात के लिए धर्मशास्त्र पढ़ना क्या जरुरी है ?

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  12. जिनकी जुबान पर किसी प्रकार के मांस का स्वाद चढ़ा है, उनकी आंखें चलते—फिरती जिन्दगी को उस तरह से नहीं देख पातीं जैसे कि वो अपना ही जिस्म है। प्राकृतिक भोजन चक्र की बातें करने वालों का किसी शहर या सभ्य समाज में रहने का क्या स्थान होना चाहिए, या स्थान होना भी चाहिए या नहीं, यह भी विचारणीय है? सच ईश्वर ही जाने...ये भी सुना गया है आदमी मुश्किल परिस्थितियों में अपने ही जैसे आदमियों को खाता हुआ भी पाया गया है 'भोजन श्रंख्ला'जैसे बड़े ही तार्किक तरीके से। कुदरतन मरे हुए आदमी को एक आदमी खा जाये तो क्या बुराई... आदि कहते हुए। पर आदमी इस धरती पर इस मक्सद से आया है कि उसे मौका मिला है पशु से निकलकर अन्य उच्च स्तर पर जाने का...इस बारे कोई सोचता है या नहीं इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है.. जनाब, इस बारे में भी विचारें कि अगर किसी को बकरा काटने पर कोई फर्क नहीं पड़ता तो किसी आदमी को भी वैसे ही काटने पर उसे क्या फर्क पड़ना है? हिंदू मुसलमान पारसी या अन्य बातों को बीच में ना घुसेड़ें... ना ही यह कहें कि यह आपकी सोच है और वो मेरी... जहां आप किसी का जिन्दगी और मौत का फैसला कर रहे हों...वहां किसी के पूर्वाग्रहों की क्या कीमत हो सकती है.. यह भी विचारें कि अतीत में कई सारी प्रजातियों मनुष्यों के धर्मों के देवी देवताओं ने मांस खाने और खून पीने के स्वाद में आनंद रखने वाले दैत्यों के संहार के लिए अवतार लिये हैं...और यह भी विचारें कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी मांस और खून का आहार करने के क्या शारीरिक मानसिक परिणाम होते हैं...

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    1. जिनकी जुबान पर किसी प्रकार के मांस का स्वाद चढ़ा है, उनकी आंखें चलते—फिरती जिन्दगी को उस तरह से नहीं देख पातीं जैसे कि वो अपना ही जिस्म है।
      ...सर्वदा अतार्किक भाष्य। जिसके जुबान में किसी प्रकार के मांस का स्वाद न चढ़ा हो वह ऐसा दावा कैसे कर सकता है? यह तो उसकी कोरी कल्पना ही हुई।

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    2. देवेन्द्र पाण्डेय जी,

      सर्वथा अतार्किक भाष्य कैसे? कोई यदि विष का परिणाम मृत्यु या शारीरिक हानि का दावा करे तो कोरी कल्पना? यह जरूरी तो नही प्रत्येक विष भोग करके ही बुरे परिणामोँ का दावा करे.

      हटाएं
    3. विष का परिणाम मृत्यु है यह प्रयोग के बाद सिद्ध हुआ है। महर्षी वाल्मीकी दस्यु वृत्ति अपनाने वाले रत्नाकार थे। जिन्होने जघन्य पाप कर्म किये थे। महर्षी वाल्मीकी का कवि हृदय क्रौंची के करूण क्रंदन से आहत हुआ था और उन्होने प्रथम काव्य की रचना कर डाली।

      कहने का मतलब यह कि मांसाहार के कारण जिन्हें आप पापी समझते हैं और यह मानकर चलते हैं कि वे दूसरे जीवों को उस नजरिये से नहीं देख पाती जैसे के यह उनका जिस्म हो, सर्वथा अतार्किक वाक्य है।

      हटाएं
    4. कृपया रत्नाकार को रत्नाकर पढ़ने का कष्ट करें।

      हटाएं
    5. रत्नाकर उदाहरण से ही स्पष्ट है परपीडा के करूण भाव आने पर ही सम्वेदनशील महर्षी वाल्मीकी बने. जघन्य पाप कर्म जारी रखते हुए रत्नाकर, कदापि कोमल हृदय महाकवि वाल्मीकी न बन सकते थे.

      करूणा भरा नजरिया उत्पन्न होते ही कैसे कोई असम्वेदनशील रह सकता है. तथापि रहता है तो कल्पना यकिन मेँ बदल जाती है कि वह करूण भाव अभी स्थायी नही है.

      हटाएं
    6. चलिए, आपने यह मान लिया न कि एक बार जिह्वा में मांस का स्वाद चढ़ जाने के बाद भी परपीड़ा का करूण भाव व्यक्ति के ह्रदय में आ सकता है। स्थाई करूणा!.. तमो गुण, सतो गुण से यह जीवन बार-बार उलझता है, बार-बार शांत होता है, बार-बार उग्र होता है। सत्य का ज्ञान होने तक वह ऐसे ही हाँ..हाँ..ना..ना करता रहता है। सत्य क्या है! यह कोई नहीं जानता। सभी अपने-अपने सत्य के ढिंढोरची हैं।

      शेष फिर कभी..पोस्ट से विषयांतर बहस हो रही है, बड़े भाई नाराज हो रहे होंगे।

      हटाएं
    7. देवेन्द्र भाई बिलकुल नाराज नहीं हो रहे हैं ०अपनी सुविधा देखिये ..नहीं तो आप की सदाशयता से कमेन्ट संख्या बढ़ रही है -उन्हें जलन हो रही होगी -क्या पाटा वे जल भुन कर आ ही जायं! :-)

      हटाएं
    8. .
      .
      .
      यह किसे 'जलन' होने की बातें चल रही हैं, बनारसियों के बीच में ;)

      मतलब किसी को जलाने और यहाँ बुलाने के लिये ही बाकी सब को टोपी पहनाई जा रही है... :))



      ...

      हटाएं
    9. चलो बडे भाई उल्हास मूड मेँ है. हो ही जाय.....

      देवेन्द्र जी,
      मानना नही यह तो शाश्वत सत्य है, पापी सदाकाल पापी नही भी रहता. त्याग, आत्म-आलोचना,और प्रायच्छित कर कईँ आत्माएँ परिशुद्ध और महान हो गई. यह सभी भाव आते है जाते है, धारणा सम्यक बनती है तो शुभ भाव स्थायी भी हो जाते है. अन्यथा वही चक्कर :)

      यह सच है कि अधिकांश अपने अपने सत्य के ढिंढोरची हैं. सम्यक दृष्टि आते ही व्यक्ति सत्य के निकट आ ही जाता है.

      हटाएं
    10. प्रवीण जी,
      न भूलें हम ब्लॉगर हैं और हमारी एक ख़ास स्टाईल है ,धर्म है :-) दूजे वातावरण को हल्का करने के लिए ,विषय तनिक गंभीर है !

      हटाएं
  13. जब तक श्रद्धा ना हो किसी भी ईश्वर या धर्म को मानने का कोई फायदा नहीं | अंधविश्वासी श्रद्धा ताश के पत्ते के बने महल सी ढह जाती है | श्रद्धा में तर्क होना बहुत ज़रूरी है | सारे ही धर्मों में आयी गलत परम्पराएँ , उलटे रीति-रिवाज़ धर्म को ही पंगु और अतार्किक बना रहे हैं | मुझे हिंदू धर्म में भी बहुत सी बातें ढोंग लगती हैं, बाकी धर्मों के बारे में ज्यादा नहीं कह सकता |

    आपके विचारों से सहमत हूँ !!!!

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    उत्तर
    1. "हिंदू धर्म में भी बहुत सी बातें ढोंग लगती हैं"
      सच है!यहाँ भी कोढ़ मगजों की कमी थोड़े ही है !

      हटाएं
  14. मेरा धर्म मुझे मांसाहारी होने को बाध्य नहीं करता लेकिन मांसाहारी होने से रोकता भी नहीं है... मेरे विचार से पशु हो या जीव-जंतु दोनों मनुष्य के उपयोग के लिए बनाए गए हैं. और मेरे विचार में दोनों में कोई अधिक फर्क भी नहीं है...

    जहाँ तक बात कुर्बानी की है, तो कुर्बानी किसी जानवर की नहीं होती है, बल्कि कुर्बानी तो अपने घरवालो, गरीब रिश्तेदारों और अन्य गरीबों के लिए भोजन की अच्छी व्यवस्था करने में उस नियत की होती है... कुर्बानी करने वाला चाहता तो अपने पैसे या पशु को अपने किसी और काम में ला सकता था...

    कुर्बानी में पशु को मांस को खाने में इसलिए प्रयोग किया जाता है क्योंकि मुस्लिम समाज में मांसाहार करने वाले के तादाद अधिक है... और उसपर यह बात भी है कि मेरे और आपके सोचने के ढंग में भी बहुत ज़्यादा फर्क है...

    और जब मांसाहारी इस विश्व में मौजूद हैं, जहाँ हर रोज हजारो-लाखो पशुओं को मांसाहार के रूप में प्रयोग किया जाता है वहां कुर्बानी पर एतराज़ क्यों?

    आपको पेड़-पौधों और पशुओं के मांस में बहुत अधिक फर्क दिखाई देता है और मुझे नहीं... मेरे विचार में तो दोनों बराबर है, मैं उनको उतना ही सम्मान देता हूँ जितना कि उनका हक़ है... परन्तु इसके साथ-साथ वह मेरे भोजन का हिस्सा भी होते हैं... क्योंकि मेरी मान्यताओं स्वरुप उन्हें मेरे भोजन के लिए बनाया गया है...

    आपको कुर्बानी कुरीति लग सकती है मगर मुझे नहीं लगती, मुझे आपके धर्म की बहुत से बातें कुरीति लगती हैं, लेकिन मैं उनके विरोध का झंडा बुलंद नहीं करता हूँ, क्योंकि मुझे मालूम है कि आपकी और मेरी सोच में फर्क है... और सोच के इसी फर्क के कारण ही तो दुनिया में अनेक धर्म हैं...

    अगर मुझे मांसाहार में कोई परेशानी नहीं है तो मुझे अपने घरवालों, रिश्तेदारों तथा अन्य लोगो के लिए मांसाहारी भोजन की व्यवस्था करने में आपके क्यों और कैसे परेशानी हो सकती है????

    जवाब देंहटाएं
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    1. शाह नवाज़ जी ,
      बिलकुल सही कहा आपने सोच के फर्क के कारण ही दुनिया में धर्म हैं -
      लेकिन धर्म क्या है -क्या यातनापूर्वक जानवरों को मारा जाना धर्म है?
      आखेटकों का भी युग चला गया -आज आप वन्य जीव अधिनियम के अधीन
      खुले जंगल में जानवरों का शिकार नहीं कर सकते ....जबकि पहले ऐसे नियम नहीं थे ..
      एक कर्नल पोलोक था जो रोज एक गैंडा मारता था और उसका ही नाश्ता करता था बन्धु
      बांधवों के साथ ..मगर सोच बदली और फिजां भी बदल गयी . ....
      अब नयी तकनीकें आ रही हैं जो मन चाहे ऊतक संवर्धित पशु मांस को यूटिलिटी स्टोर में उपलब्ध करता देगीं
      फिर यातनापूर्ण पशु वध की जरुरत ख़त्म हो जायेगी!
      मैं केवल तौर तरीकों पर आपत्ति कर रहा हूँ -खान पान पर नहीं!
      हिन्दू धर्म में भी अनेक कुरीतियाँ हैं जो हमें सारी दुनिया में हास्य का पात्र बनाती हैं और शर्मसार भी करती हैं .मुझे तो यह स्वीकारने में कतई कोई हिचक नहीं है .
      मगर आपको अपने मजहब की कुरीतियाँ स्वीकारने पर इतना उज्र है ? यह सोच का अंतर तो है ही ! मगर ऐसा नहीं होना चाहिए यही तो मैं कह रहा हूँ!

      हटाएं
    2. @ मैं केवल तौर तरीकों पर आपत्ति कर रहा हूँ -खान पान पर नहीं!
      अरविन्द जी,

      इस मंतव्य से असहमत!! खान पान मेँ छूट का अर्थ है यातना बिन-यातना मेँ सीमारेखा या भेदरेखा कैसी?

      हटाएं
    3. अभी तो निकट के लक्ष्य पर कार्यरत हूँ!

      हटाएं
    4. @Arvind Mishra28
      शाह नवाज़ जी ,
      बिलकुल सही कहा आपने सोच के फर्क के कारण ही दुनिया में धर्म हैं -
      लेकिन धर्म क्या है -क्या यातनापूर्वक जानवरों को मारा जाना धर्म है?
      आखेटकों का भी युग चला गया -आज आप वन्य जीव अधिनियम के अधीन
      खुले जंगल में जानवरों का शिकार नहीं कर सकते ....जबकि पहले ऐसे नियम नहीं थे ..
      एक कर्नल पोलोक था जो रोज एक गैंडा मारता था और उसका ही नाश्ता करता था बन्धु
      बांधवों के साथ ..मगर सोच बदली और फिजां भी बदल गयी . ....
      अब नयी तकनीकें आ रही हैं जो मन चाहे ऊतक संवर्धित पशु मांस को यूटिलिटी स्टोर में उपलब्ध करता देगीं
      फिर यातनापूर्ण पशु वध की जरुरत ख़त्म हो जायेगी!
      मैं केवल तौर तरीकों पर आपत्ति कर रहा हूँ -खान पान पर नहीं!
      हिन्दू धर्म में भी अनेक कुरीतियाँ हैं जो हमें सारी दुनिया में हास्य का पात्र बनाती हैं और शर्मसार भी करती हैं .मुझे तो यह स्वीकारने में कतई कोई हिचक नहीं है .
      मगर आपको अपने मजहब की कुरीतियाँ स्वीकारने पर इतना उज्र है ? यह सोच का अंतर तो है ही ! मगर ऐसा नहीं होना चाहिए यही तो मैं कह रहा हूँ!


      आप पिछली पोस्ट से ही यह कहते आ रहे हैं कि यह जीव हत्या है और मैं यह तर्क देता आ रहा हूँ कि मेरी नज़र में शाकाहार और मांसाहार अर्थात भोजन के दोनों ही तरीकों में जीव हत्या होती है... और इसके सिवा भोजन का कोई रास्ता मुझे दिखाई नहीं देता... सिवाए दलहन या फिर फलों के, जो कि पूर्ण भोजन नहीं है...

      लेकिन हम दोनों ही अपनी-अपनी बातों पर अड़े हुए हैं... ना तो आपने और ना ही किसी और ने यह बताया कि फिर भोजन की क्या व्यवस्था रहेगी? शायद आपको शाकाहारी भोजन में जीव हत्या नज़र नहीं आती, लेकिन यह भूल जाते हैं कि मुझे आती है...

      जहाँ तक शिकार करने की बात है तो प्रतिबंधित जानवरों के शिकार अथवा भोजन जैसी आवश्यकता छोड़कर किये गए पशुवध के मैं पूरी तरह खिलाफ हूँ... क्योंकि वह भोजन नहीं बल्कि दिखावे के लिए होता है...

      मुझे कुरीति स्वीकारने में उज्र है या नहीं, यह बात तो तब आएगी जबकि आप यह साबित करें कि यह कुरीति है!

      आप बिना किसी तर्क के केवल यह कह रहे हैं कि यह यातनापूर्वक पशु हत्या है... जबकि मैंने बताया है कि वोह तो शाकाहारी भोजन में भी होती है...

      आप बेशक मांसाहार को बुरा कह सकते हैं, किसी को कोई आपत्ति नहीं है.... लेकिन मुसलमानों की भी यही सोच हो, यह ज़बरदस्ती अपनी सोच दूसरों पर थोपना नहीं है क्या?

      और जानवरों को मारा जाना धर्म नहीं बल्कि घर वालों/पडौसियों/ रिश्तेदारों/गरीबों के लिए भोजन की व्यवस्था है... और इस तरह भोजन की व्यवस्था कराना धर्म है...

      हटाएं
    5. "आप बेशक मांसाहार को बुरा कह सकते हैं, किसी को कोई आपत्ति नहीं है.... लेकिन मुसलमानों की भी यही सोच हो, यह ज़बरदस्ती अपनी सोच दूसरों पर थोपना नहीं है क्या?"
      का महराज? मैंने मांसाहार का कब विरोध किया?
      मैं खुद मोहकमये मछलियान में हूँ-
      पशु बलि और खासकर उनके यातनापूर्ण मारने का विरोध है ,
      बहुत से हिन्दू बड़े पशुओं को यातना दे देकर मारा जाना बहुत कारुणिक मानते हैं -
      मेरा विरोध इस कुप्रथा से है -मांस खाने के और तरीके और तथा बहाने हो सकते हैं -
      ईश्वर के नाम पर क्रूरता पूर्वक पशु हत्या अत्यंत निर्मम और अनैतिक तथा पापपूर्ण है !
      भारत के हिन्दुओं से इससे लगभग किनारा कर लिया है .
      मुस्लिम भाईयों से यह अपील है कि वे भी इस नृशंस परम्परा का परित्याग करें जिससे
      हमारे भातृत्व ,भाईचारे और साहचर्य का मार्ग और भी प्रशस्त हो !

      हटाएं
    6. @आपको कुर्बानी कुरीति लग सकती है मगर मुझे नहीं लगती, मुझे आपके धर्म की बहुत से बातें कुरीति लगती हैं, लेकिन मैं उनके विरोध का झंडा बुलंद नहीं करता हूँ, ....

      kyon ? virodh karna chahiye n ? yadi aapko koi baat galat lagti hai to virodh avashya karna chahiye .

      tabhi charcha hogi, pata chalega ki galat hai ya nahi - tabhi sudhar kee sambhaavna hogi

      हटाएं
  15. इस मामले में मुझे पामेला एंडरसन ( बेवाच की हिरोइन ) का रवैया बड़ा पसंद आया.

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  16. एक विशेष अवसर पर जब साबुत टर्की को भूनकर सामूहिक भोज बनाया जाता है , उस दिन पामेला ने टर्की फार्म जाकर टर्कियों को दाने खिलाये. यह मात्र एक सांकेतिक क्रिया हो सकती है लेकिन हमें अपनी सोच को इसी तरह बदलना पड़ेगा.

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    उत्तर
    1. बड़ा गार्जियस रिकमेन्डेशन दे दिया है आपने डाक्टर साहब!

      हटाएं
  17. कबीरा तेरी झौंपडी गलकटियन के पास ,

    करेगें सो भरेंगे ,तू क्यों भयो उदास .

    दिन में माला जपत हैं ,रात हनत हैं गाय .

    जवाब देंहटाएं
  18. एक महत्वपूर्ण विषय पर सार्थक विचार प्रस्तुत किया है आपने, बशर्ते सभी पक्ष इसपर सकारात्मक विचार करें...

    जवाब देंहटाएं


  19. बकरी पांति खात है ,ताकी मोटी खाल ,

    जे नर बकरी खात हैं ,तिनको कौन हवाल .

    जवाब देंहटाएं


  20. -बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं ही तालिबानियों ने पहले तोडीं -धर्मों के बीच के ये सारे आपसी झगड़ें मूर्ख मुल्लों और पंडितों ने रचे बनाए हैं ....इसी में से एक कुर्बानी है जो कुछ और नहीं बस वैदिक काल की वीभत्स पशु हिंसा ही है -मुझे तो कभी कभी लगता है कि कालांतर के कुछ तिरस्कृत वैदिक विचार और परम्पराएं ही इस्लाम में प्रश्रय पा गयी हैं ,
    -जहां हम अच्छे मित्र हैं ,सहपाठी हैं ,एक जगह काम करने वाले सहकर्मी हैं ,ब्लॉगर हैं -सब ठीक है मगर जैसे ही हम हिन्दू और मुसलमान होते हैं परले दर्जे के अहमक बन जाते हैं ....आखों के आगे पर्दा पड़ जाता है - अगर धर्मों का यही उत्स है तो ऐसा कोई धर्म भी मुझे स्वीकार नहीं है. आईये हम सभी यहाँ धर्मों की बजाय अपने स्वतंत्र विचारों को प्रस्फुटित होने का मौका दें!

    अति सार्थक सुन्दर प्राणि मात्र के प्रति प्रेम से आप्लावित आवाहन .

    महाशिवरात्रि भी शिव लिंग पर अपने दुर्गुण चढ़ाने का पर्व है ,ईदुल जुहा भी .कुबानी दुर्व्यसनों की कीजिए सिगरेट और मयखोरी की कीजिए ,देहखोरी की कीजिए किसी देही की बलि

    क्यों ?
    ram ram bhai
    मुखपृष्ठ

    रविवार, 28 अक्तूबर 2012
    तर्क की मीनार

    http://veerubhai1947.blogspot.com/

    डेंगू पर चौतरफा जानकारी देता बेहतरीन प्रासंगिक आलेख .शुक्रिया डॉ .साहब का .

    कबीरा तेरी झौंपडी गलकटियन के पास ,

    करेगें सो भरेंगे ,तू क्यों भयो उदास .

    दिन में माला जपत हैं ,रात हनत हैं गाय .

    पति-पत्नी तो व्यस्त, बाल मन बनता लावा-
    नैतिक शिक्षा पुस्तकें, सदाचार आधार |


    महत्त्वपूर्ण इनसे अधिक, मात-पिता व्यवहार |


    मात-पिता व्यवहार, पुत्र को मिले बढ़ावा |


    पति-पत्नी तो व्यस्त, बाल मन बनता लावा |


    खेल वीडिओ गेम, जीत की हरदम इच्छा |


    मारो काटो घेर, करे क्या नैतिक शिक्षा ||



    महत्वपूर्ण ,मौजू मुद्दा उठाया है .

    शरद के आगमन का मनोहर चित्र .प्रकृति के प्रति सम्मोहन

    पैदा करता सा .


    रविवार, 28 अक्तूबर 2012
    तर्क की मीनार

    http://veerubhai1947.blogspot.com/

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  21. महत्वपूर्ण ,मौजू मुद्दा उठाया है .


    बकरी पांति खात है ,ताकी मोटी खाल ,

    जे नर बकरी खात हैं ,तिनको कौन हवाल .

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आश्चर्य है कबीर ने इस दुष्प्रथा का पुरजोर विरोध किया तब भी यह खत्म नहीं हो पायी !

      हटाएं
  22. मेरे विचार में अज्ञेयवादी और नास्तिक में कुछ अन्तर तो है ही।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. उन्मुक्त जी,
      दरसाल पब्लिक अज्ञेयता को हृदयंगम नहीं कर पाती -मैंने ऐसे लोगों के लिए आस्तिक शब्द का भी इस्तेमाल कर लिया ..
      आप अज्ञेयवादी हैं मुझे मालूम है -इस पर एक पोस्ट क्यों न अलग से हो जाय ? यहाँ दरअसल यह मुख्य विषय नहीं था ...
      वैदिक ऋषि भी वास्तव में अज्ञेयवादी ही है -वह नेति नेति कहता है ,वह कहता है कस्मै देवाय हविषा विधेंम -स्पष्ट है
      उसे परमेश्वर के सही रूप का ज्ञान नहीं हो पा रहा है -वह एक असमंजस में है ! अनुमति दें तो एक पूरी पोस्ट इस विषय पर
      लिखने की चेष्टा करूं=यद्यपि मेरा ज्ञान इन विषयों पर बहुत सीमित है !

      हटाएं
  23. धर्म जितना गूढ़ विषय है उतना ही आसान भी ! मेरे लिए इसका आसान अर्थ यही है कि धार्मिक व्यक्ति ईमानदार,गर्वहीन,अहिंसक(शब्द और स्वाद दोनों से )और समदर्शी होता है !

    जवाब देंहटाएं
  24. हम तो मांसाहारी हैं अत: इस पर कुछ भी कहने का हक नहीं. हाँ हर धर्म में बहुत कुछ ऐसा है जो अब बदला जाना चाहिए इससे पूरी तरह सहमत.

    जवाब देंहटाएं
  25. धर्म के नाम पर बलि चढाना यह उचित नही है,चाहे वह किसी समाज का क्यों न हो,,,

    RECENT POST LINK...: खता,,,

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  26. गीता में कृष्ण कहते हैं -अधर्म के विनाश के लिए और धर्म की रक्षा के लिए तू उपकरण बन जा . फिर तो परमात्मा के नाम पर हिंसा की पूरी आजादी मिल ही गयी है . अब चेतना सम्पन्न व्यक्ति आत्म-धर्म स्थापित करे . अपनी पीड़ा सी ही हर पीड़ा का अनुभव करने पर परिवर्तन संभव है.

    जवाब देंहटाएं
  27. बहुत बढ़िया लगी आपकी पोस्ट।
    प्रणाम !

    जवाब देंहटाएं
  28. तुलसी हाय गरीब की कभी न खाली जाए ,

    बिना सांस के जीव से ,लौह भसम हो जाए .

    लुहार की धौकनी पशु चरम से ही बनी होती है ,ये मृत पशु की आह ही है की लुहार के इधर से फूंक मारने पर उधर रखा लोहा भी भस्म हो जाता है .निस्सहाय को कत्ल करने का हिसाब कयामत के दिन मांगा

    जाएगा .जीव की कराह भी असर दिखाएगी।मान मत मान ,तेरा अभिमान ,अपने को पहचान .

    जवाब देंहटाएं
  29. हम शस्य श्यामला वसुंधरा के निवासी आसानी से मांसाहार का विरोध कर सकते हैं. लेकिन जहाँ खाने को सिर्फ सूखी घास होती है या जो बेहद ठन्डे हैं, उन प्रदेशों के निवासियों के लिए मांसाहार सामान्य बात है. और इस्लाम ऐसे ही प्रदेशों में पैदा हुआ और पला-बढ़ा. इसलिए ना मैं मांसाहार का विरोध करती हूँ, और न शाकाहार का. और इसे धर्म से जोड़कर तो बिलकुल नहीं देखती क्योंकि खाने वाले हिन्दू धर्म में भी कम नहीं हैं, हाँ बस वो छिपाकर खाते हैं.

    और मुझे तो बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आप जैसा वैज्ञानिक चेतना वाला व्यक्ति ऐसी बातें कर रहा है, जो सेक्स आदि के मामले में पुरुषों के 'नैसर्गिक रूप से एक्टिव पार्टनर' होने का बायोलाजिकल तर्क देता है. यहाँ आपका बायोलाजिकल तर्क कहाँ गया? क्या बायोलाजिकली इंसान मांसाहारी नहीं है, क्या उसके अन्य मांसाहारी जीवों की तरह कैनाइन दांत और पंजे नहीं होते?

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    2. मुक्ति जी आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ.मनुष्य के खान पान का उसकी भौगोलिक स्थितियों से सम्बन्ध होता है ना कि धर्म से.आप जानती ही होंगी कि सबसे शांत धर्म के अनुयायी माने जाने वाले तिब्बत्ति लोग जो कि बुद्धा के उपासक हैं ,अधिकतर भैसे वा याक के मीट ही दिन भर खाते रहते हैं.लद्दाक में इसके अलावा कुछ नहीं होता.अपनी नौकरी के दौरान अरुणाचल प्रदेश में लोगों को हर वक्त मांसाहार करते ही पाया,जबकि वे बेहद शांत प्रवृत्ति के लोग थे.जिस ने जहाँ जो पाया वो ही उसका आहार बना .इसमें धर्म कहाँ से आ गया.वास्तव में जो भी रीतिरिवाज बने हैं वो भौगोलिक जरूरतों का ही रूपांतर हैं.हमारे यहाँ कुछ सालों पहले तक बलि प्रथा थी जो अब स्वत ही बंद हो गयी क्योंकि उसकी अब आवश्यकता ही नहीं रही. हर घर में जानवर पाले जाते थे.हर साल गाँव में कई बकरे पैदा हो जाते थे जो ना तो खेती के ही काम आते थे ना ही दूध देते थे.पहाड़ों में वैसे ही घास कि जगह कम होती थी ,ऊपर से ये बकरे जहाँ भी चुग्ते थे घास को जड़ से उखाड़कर खाते थे ,जिस कारण अन्य दुधारू पशुओं को घास नहीं मिलती थी,साथ ही गाँव में एक खेत यहाँ तो एक वहाँ ,किसी प्रकार कि बाड़ संभव ही नहीं थी .ये बकरे सारी खेती चौपट करने लगे.यही हाल भैंसों का था.इस के निवारण के रुप में बलि प्रथा आरंभ हो गयी.अब पहाड़ों से लोगों का पलायन हो रहा है,जानवर कम पाले जा रहे हैं तो बलि भी बंद हो रही है.क्या आपने कभी भी बैलों या गाय या बकरी की बलि के बारे में सुना?नहीं ना .बलि केवल उन्हीं जानवरों कि दी जाती थी जो जीवन में दुश्वारियाँ पैदा कर रहे होते थे.और उपलब्ध औजारो के अनुसार ही उनका तरीका रहा होगा,होता था.मैं कहीं से भी बलि के पक्ष में नहीं किन्तु मैं जानता हूँ कि पहले लोगों कि क्या मजबूरी रही होगी.भोजन पर भी कुछ नियम लागू होते हैं.आप राजस्थान के आदमी से चावल खाने का आदि होने कि उम्मीद नहीं कर सकते (वहाँ होता ही नहीं था) ना ही आप बंगाल के आदमी से रोटी खाने का शौकीन होने का भ्रम पाल सकते हैं(वहाँ केवल धान ही होता है) इसी प्रकार पहाड़ों में शरीर कि आवश्यकताओं कि पूर्ति के लिए मांसाहार होता था,बाकी वहाँ कुछ भी नहीं था.यही बात सती प्रथा ,बाल विवाह आदि पर भी लागू होती है.वे सब समय विशेष कि जरूरतें रही होंगी.वरना उस काल में भी लोग बुद्धिजीवी रहे होंगे,उन्हें भी भले बुरे का ज्ञान रहा होगा.

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  30. मुक्ति,
    पोस्ट और मेरी टिप्पणियाँ ध्यान से पढ़िए,फिर से बार बार एक ही बात मैं दुहराना नहीं चाहता .
    मैं वैदिक हिंसा की ही तर्ज पर धर्मातिरेकी यातनापूर्ण पशु बलि/मेध को अनुचित मान रहा हूँ .
    "जो सेक्स आदि के मामले में पुरुषों के 'नैसर्गिक रूप से एक्टिव पार्टनर' होने का बायोलाजिकल तर्क देता है."
    इस वाक्य में पुरुषों के बजाय स्त्रियों कर लीजिये तब मान्य है !
    और मनुष्य के कैनायिन दांत अब दिखाने को ही रह गए हैं तःथा नाखून महज मैनीक्योर के लिए

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    1. बायोलाजिकल तर्क न तब था न अब है। मनुष्य के कैनायिन दांत तब भी पशु शिकार को चीरने फाड़ने में समर्थ नहीं थे न पंजे माँसाहारी प्रणियों के समान है कि वे मोटे क्या साधारण चमडे को चीर फाड़ कर आहार बना सके ऐसे पंजे नहीं है। तब भी मनुष्य ने तीक्ष्ण पत्थर के औजार बनाए तब जाकर शिकार में सफल हो सका। मनुष्य के कैनायिन दांत इतने भर है कि वह फल सब्जी को काट सके।

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  31. मिश्र सर - इस पोस्ट के लिए आपका आभार । बहुत सी बातें हैं कहने को, किन्तु वही न जो आपके प्रोफाइल में लिखा है ---- "क्या कहूं जो अब तक नहीं कहा ?" :)

    बहरहाल - इतना अवश्य कहूँगी कि मैं इस बात से बिलकुल सहमत नहीं हूँ कि सब मासाहारी "जिनकी जुबान पर किसी प्रकार के मांस का स्वाद चढ़ा है, उनकी आंखें चलते—फिरती जिन्दगी को उस तरह से नहीं देख पातीं जैसे कि वो अपना ही जिस्म है। " की केटेगरी में आते हैं । जीज़स स्वयं भी मांसाहारी थे यह मैंने अपने कुछ क्रिस्चियन मित्रों से सुना है (नहीं जानती कि यह सच है या नहीं) - और उनसे बढ़कर जीवदया युक्त व्यक्ति इस धरा पर हुआ हो - संभव नहीं लगता । इसी तर्ज़ पर कुछ शाकाहारियों को भी जानती हूँ जो बहुत क्रूर हैं ।

    बहुत से मान्साहारियों को जानती हूँ जो बहुत भले हैं, लेकिन वे भोजन को भोजन की तरह देखते और सोचते हैं । उसमे ह्त्या क्रूरता दुःख दर्द आदि की बात उनका एजुकेटेड माइंड भले ही जानता हो, किन्तु वे हमेशा इस बारे में नहीं सोचते रहते । वे भोजन को भोजन के रूप में भर देखते हैं ।

    हाँ, मैं निजी तौर पर मांसाहार को बुरा इसलिए समझती हूँ कि उसमे मुझे एक तड़पते हुए जीव की जान जाती हुई दिखती है । लेकिन आवश्यक नहीं कि हर एक को यह दिखे ही । उन्हें दिखाने के प्रयास करती हूँ, उन्हें बताना चाहती हूँ - किन्तु यदि वे नहीं देख - तो उन्हें अपने से कमतर नहीं मानती । यह सोच भी मुझे दंभ लगती है ।

    मांसाहार के विरुद्ध हो कर भी मैं मांसाहारियों के विरुद्ध नहीं हूँ । मैं हर मांसाहारी के खिलाफ नहीं हूँ, मैं हर शाकाहारी के साथ नहीं हूँ ।

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  32. वैज्ञानिक चिंतन और कुरीतियों पर प्रहार करता आलेख ।

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  33. किसी भी धर्म को अगर अपने श्रेष्ठ मूल्यों को बचाए रखना है तो उसे समय के साथ आ रही बुराईयों को पहचानना और प्रतिकार भी करना होगा .....और यह जितना ही शीघ्र हो उतना ही अच्छा

    सही चिंतन सही विचार ।

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  34. आपकी और अन्य टिप्पणीकारों की वैज्ञानिक चेतना से मूल विषय पर अच्छा विमर्श हुआ .
    यह सही है की धर्म /जाति /लिंग /प्रान्त आदि की बात होते ही हमारा व्यवहार असामान्य हो जाता है !
    अपने धर्म /समुदाय में व्याप्त गलत प्रथाओं का विरोध कर उन्हें प्रासंगिक बनाया जा सकता है , बिना वैर भाव के !

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