मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

यह नेह क्यों, अनुराग क्यों?


भावों को शब्द -बद्ध करना  कितना  मुश्किल है :-( शब्द साधना एक तपस्या है . गुणी  मित्र गण माफ़ करेगें इस अनाधिकार चेष्टा के लिए -


यह नेह क्यों, अनुराग क्यों?

जो  दीन है औ  शीर्ण है 
 जर्जर  जरा अधीन है 
 तुम्हे अब क्या दे सकेगा 
 जो आर्त है,पराधीन है 

 क्षितिज की ओर देखो 
उभरती तरुणाई  जहां है 
नव चेतना का आह्वान औ
आ पहुंचा  शुभ  विहान  है  

कर सकेगा सम्पूर्ण  तुमको 
अभिसार  कर हर विध वही 
हो सकेगी संतृप्ति रसमय 
मिटेगी चिर प्यास   भी 

अब नहीं  है शेष कुछ भी 
दे सकूं जो प्राण प्रिय को 
छीजती जाती  है प्रतिपल 
जीवन की डोर अब तो 


फिर भी हूँ  विस्मित  भला 
 नेह पर जिसके   पला 
क्यों अचंचल बन गयी वह 
स्वभाव से ही  जो चंचला 

पूछता जाता हूँ विस्मित 
छोड़ नव आकर्षणों को 
मुझी पर है किसी का 
 नेह क्यों,अनुराग क्यों?







33 टिप्‍पणियां:

  1. ...कोई पीर है जो दबोचे हुए है आपको,
    इससे उबर जाना भी बेमजा होगा !

    जवाब देंहटाएं
  2. प्रेम में विस्मृत जगत है, मिल रहा कारण नहीं,
    वह हृदय जा छिप गया है, व्यर्थ हम ढूढ़ें मही।

    जवाब देंहटाएं
  3. उस सुधि की साँस से गल
    खोल निज स्निग्ध उर-तल
    ध्वनन कर पुण्यतम क्षण है!
    वरण कर पुण्यतम क्षण है!

    जवाब देंहटाएं
  4. हमारे जैसे आठवीं पास ( हिंदी में ) को तो भाव और शब्द बद्धता दोनों ही कठिन लग रहे हैं . :)
    ऐसे में तो यही कह सकते हैं -- उत्कृष्ट रचना .

    जवाब देंहटाएं
  5. एक छोर पर आत्म करुणा दूसरे पर आत्म गुमान आत्माभिमान प्रश्नवाचक -


    जो दीन है औ शीर्ण है
    सब विध जरा अधीन है
    क्या तुम्हे अब दे सकेगा
    जो स्वयं आर्त है, दयार्द्र है

    पूछता जाता हूँ विस्मित
    छोड़ नव आकर्षणों को
    मुझी पर है किसी का
    यह नेह क्यों, अनुराग क्यों?

    जवाब देंहटाएं
  6. वीरू भाई कुछ सम्पादन हुआ है रचना फिर से पढ़ें -यद्यपि आपका आरोपण तो वही रहेगा ! :-)

    जवाब देंहटाएं
  7. जब कोशिश कर ही डाली,,,,तो माफ करने जैसी क्या बात,,रही बात रचना की,,,,तो

    अब नहीं है शेष कुछ भी दे सकूं जो प्राण प्रिय को छीजती जाती है प्रतिपल जीवन की डोर अब तो....

    अरविंद जी ,,,आपने तो कमाल कर दिया,,,,,,बधाई,

    RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,

    ,

    जवाब देंहटाएं
  8. कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही सही ....
    :)

    जवाब देंहटाएं
  9. .
    .
    .

    कविता अच्छी है... पर...

    पूछता जाता हूँ विस्मित
    छोड़ नव आकर्षणों को
    मुझी पर है किसी का
    नेह क्यों,अनुराग क्यों?


    यह सवाल बेमानी है सर जी...

    People with 'real class' are known to love 'classy antiques' since ages... :))


    ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मुबारक हो प्रवीण शाह सही जवाब के लिए ....
      अब ऐसे बुड्ढे भी नहीं हैं कि क्लासिक ना कहला पायें , मगर एंटीक क्यों कह रहे हो यार ??
      आपके इस कमेन्ट के चक्कर में अरविन्द भाई का काम सही हो गया अब कमेन्ट के जवाब दे पायेंगे :)
      बधाई अरविन्द सर !

      हटाएं
    2. @सतीश भाई-इस अनुग्रह का ऋण रहा मुझ पर आपका
      बनारस से आपको कुछ चाहिए तो बंदा हाज़िर नाज़िर है !

      हटाएं
    3. @प्रवीण शाह जी हैं सामान धर्मा,सामान मनसा -वे जब भी जो कुछ भी कहते हैं मेरे मन का ही कहते हैं !

      हटाएं
  10. सोनभद्र ने अच्छा- ख़ासा कवि बना दिया है !
    अच्छी कविता !

    जवाब देंहटाएं
  11. http://www.youtube.com/watch?v=o1Pnj1tjN2g&feature=fvst :)

    वैसे कविता बहुत अच्छी है, गंभीर और परिपक्व।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. संजय भाई!
      खूबसूरत गीत के तोहफे के लिए बहुत आभार

      हटाएं
  12. बहुत खूबसूरत कविता.....
    आपके ब्लॉग पर इसे पढ़ कर आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ :-))

    आभार

    अनु

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. @आपकी यह सदाशयता कविता के सूक्ष्म भावों की आपकी समझ की परिचायक है! आभार!

      हटाएं
  13. यदि यह अनाधिकार चेष्टा है तो जब कविता के क्षेत्र में आपका साधिकार प्रवेश होगा तो क्या जलवा दिखाएँगे!!
    बधाई पंडित जी!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुभेच्छा के लिए शुक्रिया सलिल जी ..मेरी दाल वहां गलने से रही -थोक की मंडी में फुटकरिया की पूंछ ? :-)

      हटाएं
  14. अच्छी कविता है .
    लगता है कि सोनभद्र की आबो हवा में आप के भीतर का कवि जाग उठा है !

    जवाब देंहटाएं
  15. यदि यह अनाधिकार चेष्टा है तो साधिकार क्या होगा ?

    अब नहीं है शेष कुछ भी
    दे सकूं जो प्राण प्रिय को
    छीजती जाती है प्रतिपल
    जीवन की डोर अब तो

    वैसे तो जैसे जैसे उम्र बढ़ती है कुछ ऐसे ही भाव हृदय में आते हैं ....पर अभी से क्यों ? और दूसरी बात कि नेह हमेशा कुछ पाने के लिए नहीं होता ...

    पूछता जाता हूँ विस्मित
    छोड़ नव आकर्षणों को
    मुझी पर है किसी का
    नेह क्यों,अनुराग क्यों?
    इस प्रश्न का उत्तर तो वही दे सकता है जिससे यह प्रश्न किया गया है ...

    बहुत सुंदर कविता ... साढ़े हुये शब्दों में मन के भावों को खूबसूरती से पिरोया है ... आगे भी आपकी कविताओं का इंतज़ार रहेगा ...

    जवाब देंहटाएं
  16. यदि यह अनाधिकार चेष्टा है तो साधिकार क्या होगा ?

    अब नहीं है शेष कुछ भी
    दे सकूं जो प्राण प्रिय को
    छीजती जाती है प्रतिपल
    जीवन की डोर अब तो

    वैसे तो जैसे जैसे उम्र बढ़ती है कुछ ऐसे ही भाव हृदय में आते हैं ....पर अभी से क्यों ? और दूसरी बात कि नेह हमेशा कुछ पाने के लिए नहीं होता ...

    पूछता जाता हूँ विस्मित
    छोड़ नव आकर्षणों को
    मुझी पर है किसी का
    नेह क्यों,अनुराग क्यों?
    इस प्रश्न का उत्तर तो वही दे सकता है जिससे यह प्रश्न किया गया है ...

    बहुत सुंदर कविता ... सधे हुये शब्दों में मन के भावों को खूबसूरती से पिरोया है ... आगे भी आपकी कविताओं का इंतज़ार रहेगा ...

    जवाब देंहटाएं
  17. खड़ी , भव्य दीवारें मेरी
    कलश कंगूरे ध्वज और तोरण
    घंट ध्वनि, मंत्रोच्चारण से
    लगता घर, मेरा मंदिर सा
    यह सब सच है मगर कामिनी, पूजा यहाँ न अर्पण करना
    तुमको दुःख होगा कि यहाँ पर, मंदिर है पर मूर्ति नहीं है !

    जवाब देंहटाएं
  18. अरे वाह! यह तो छूटा ही जा रहा था। आनंद आ गया पढ़कर।

    जवाब देंहटाएं

यदि आपको लगता है कि आपको इस पोस्ट पर कुछ कहना है तो बहुमूल्य विचारों से अवश्य अवगत कराएं-आपकी प्रतिक्रिया का सदैव स्वागत है !

मेरी ब्लॉग सूची

ब्लॉग आर्काइव