मशहूर ब्रितानी विज्ञान फंतासी लेखक एच जी वेल्स की फंतासी -जुगत टाईम मशीन में ही नहीं वास्तविक संसार में भी स्थान परिवर्तन करके आप अतीत गमन की अनुभूति बटोर सकते हैं -अतीत विरही हो सकते हैं ..खुद को समय में पीछे गया हुआ पा सकते हैं -डेजा वू या जामिया वू जैसी झुरझुरी महसूस कर सकते हैं -ऐसा ही कल कुछ हुआ जब मैं अपने मूल जनपद के ही एक उस भौगोलिक हिस्से में पंहुचा जो मेरी ननिहाल है ...और पूरे तीस साल बाद मैं वहां एक श्राद्ध अनुष्ठान जिसे गया का भात कहते हैं और जो पुरखों की स्मृति में किया जाता है में हिस्सा लेने पहुंचा ..मेरा ननिहाल जौनपुर शहर से दस किलोमीटर दक्षिण की ओर है जहां बगल से जौनपुर -इलाहाबाद रेलमार्ग गुजरता है -सटा हुआ रेलवे स्टेशन सल्खापुर है ....मैं बिलकुल बचपन में भी ननिहाल में नहीं रहा ...और नाना के सानिध्य सुख से ज्यादातर वंचित ही रहा यद्यपि उनका गौर वर्ण और लम्बी कद काठी मुझे आकर्षित करती -वे प्रायः मेरे घर पर (अपने समधियान ) ही आते रहते ...मेरे दादा जी और उनमें कहीं कुछ संवादहीनता सी थी ....और मुझे जान से भी ज्यादा प्यार करने वाले दादा जी को यह गुजारा नहीं था कि मैं ऐसे बीहड़ जगह जो तब चम्बल के बीहड़ों की सी प्रतीति कराता था जाऊं ....मगर यह कोई बात हुयी भला? ननिहाल से भी भला कोई बच्चा जहां उसकी माँ का जन्म हुआ हो पृथक किया जा सकता है ..मगर तब के अनुशासन बहुत कठोर थे -उन्हें तोड़ने की हिम्मत किसी को न थी ..मगर मैं भी तो कोई कम नहीं..बचपन से ही जड़ परम्पराओं का विद्रोही! ..जैसे ही स्नातक की शिक्षा पूरी हुयी नैतिकता और बुद्धि का आवेग उभरा ,मैं ननिहाल जाने लगा बिना माँ के साथ ही ...
यह दृश्य दिखते ही छठी हिस ने ननिहाल पहुँचने का संकेत दे दिया
और माँ ही कहाँ मायका प्रेमी थी और हैं ,आज भी? शायद विश्व की अकेली माँ हैं मेरी जो मायका प्रेम से सर्वथा मुक्त हैं कम से कम प्रगटतः तो अवश्य ही ....और यहीं वह धुर विरोधाभास भी है माता जी और पत्नी के व्यवहार का -पत्नी जी धुर मायका प्रेमी हैं -मैं वास्तव में इस मामले में तटस्थ रहने की कोशिश करता हूँ - मेरा झुकाव ननिहाल की ओर ही रहता है ..ननिहाल प्रेम मेरे वन्शाणुओं (जींस) में ही है... बचपन में विवश था वहां जा नहीं सकता था ...नाना घर ही आ जाते थे -मुझसे ही मिलने आते होगें ..विजयप्रकाश मामा भी आते और खूब साईकल पर घुमाते और फिर चले जाते मगर मुझे ननिहाल जाने की मनाही थी ...परवश मैं भला क्या करता ....इसलिए थोड़ा होशियार होते ही खुद ही ननिहाल जाने लगा ....जौनपुर के भंडरिया स्टेशन पर अल्लसुबह पांच बजे जा इलाहबाद पसेंजर (ऐ जे ) पकड़ता और अगले १० मिनट में सल्खापुर स्टेशन से पैदल मटरगश्ती करता ननिहाल जा पहुँचता .....उन्ही दिनों मेरे एक मामा जी जो बडौदा गुजरात में रेलवे के ऊँचे पद पर थे के कान्वेंटी स्कूल के पढ़े लिखे समवयी बेटे प्रमेश चौबे से मुलाकात हुयी जो बज्र देहात में भी मेरी सोहबत में सकून पाने लगे ...और वे आगे हर छुट्टियों में मामा के साथ आने लगे और हमारी जोड़ी जमने लगी ....उनका कान्वेंटी होना और मेरा बज्र देहाती होना कभी संवादहीनता का कारण नहीं बना बल्कि यह शायद सम्बन्धों के लिए सिनेर्जिक बन गया .....आज भी .....इस बार का बुलावा भी उन्ही की तरफ से था.....
पितरों के श्राद्ध का अनुष्ठान समापन हवन:मेरी एक मामी श्रीमती सत्यप्रकाश जी पूरे घूंघट में
मेरा विवाह हुआ तो शायद मेरे स्वजनों की आशा जगी थी कि मेरी ननिहाल की उत्कट उन्मुखता कम होगी -मगर मैं अपने सर्वप्रिय कवि संत तुलसी की इस बात -'ससुरार पियार भई जबसे रिपु रूप कुटुंब भये तबसे' के भी विपरीत हो रहा और ननिहाल प्रेम बना रहा ....हाँ नौकरी में आने के बाद तो ननिहाल स्वप्न सा हो गया ....लेकिन जब प्रमेश ने यह बताया कि वे सपरिवार एक अनुष्ठान में हिस्सा लेने गाँव पधार रहे हैं तो मेरा फिर से वही सुषुप्त ननिहाल प्रेम उमड़ पडा ..माता जी से फोन पर बात हुयी... वे सहज ही अनुत्सुक लगीं मगर मैं गाँव गया और उन्हें लेकर ननिहाल पहुंचा ...रास्ता भूलते भटकते ....लेकिन जैसे ही बीहड़ जिसे यहाँ की बोलचाल की भाषा में नार खोर कहते हैं दिखा मेरी छठी हिस सजग हो गयी -माता जी से बोल पडा ..देखिये हम आ पहुंचे -और सामने ही तो घर दिखा मगर वो पुराना मकान नहीं, नए नए निर्माण ..मामा लोग जो रिटायर होकर आ गए हैं उनके ....एक मामा तो लखनऊ में हैं शिक्षा विभाग से रिटायर हुए हैं प्यारे मोहन जी -कितना आग्रह किया है कि मैं लखनऊ आऊँ ..माता जी के बिना कहे मैंने अनुष्ठान में ५०० रुपये का निमंत्रण दिया तो उन्होंने मुझे १०००/ रूपये वापस किया -बड़ी धरहरिया (आर्गूमेंट ) होने लगी मगर वे अडिग रहे की घर की बेटी के न्योता की वापसी का यही रिवाज है ...वाह रे भारतीय सामाजिकता कितने ही प्रवंचनो के बावजूद भी रीति रिवाज निभाये जा रहे हैं ..प्रमेश कोटा में फाईबर केबल बिछाने वाली और भारतीय रेलवे के एक उपक्रम में बड़े अफसर हैं दोनों बेटों को लेकर आये थे..मेरे दूसरे मामा रजनीश बडौदा से आये थे .....माता जी को मिली बडौदा की कीमती साड़ी पर उनकी दोनों बहुओं की आह निकल गयी -माँ का मायका /नैहर आज भी देनदारी में नंबर वन पर है -हंसी ठिठोली हुई:)
एक मामा प्यारेमोहन जी और उनके बाएं प्रमेश तथा अन्य कुटुम्बजन हविदान करते हुए
सब अपनी जड़ों की देख भाल के लिए वापस लौट रहे हैं और मेरे ननिहाल की रौनक फिर बढ़ने लगी है .....पूर्वजों के श्राद्ध को सब मामा और उनके पुत्रों ने मिलकर किया है ..उसी के क्रम में गया के भात का बड़ा अनुष्ठान था जिसमें नात रिश्तेदारों को निमंत्रित किया गया था....यह एक नेक काम था इसलिए यहाँ भागीदारी मैं अपना सौभाग्य समझ रहा था ....अतीत की कितनी ही स्मृतियाँ उमड़ घुमड़ आयी हैं मगर यहाँ व्यक्त कर पाना दूभर हो रहा है ....कभी रेखा श्रीवास्तव जी ने मुझसे गर्मियों की छुट्टियों पर संस्मरण मांगे थे ....मैं वही लिंक देना चाहता हूँ ....अतीत गमन से वापस वर्तमान में आ चुका हूँ ....
अपनी जड़ों को याद करना ही इतना सुखदायी लगता है, वहाँ पहुँचना तो सपने से कम नहीं ।
जवाब देंहटाएंबचपन की बातें बहुत मधुर होती है। बच्चों के प्रति बड़ों का प्यार स्वतः ही बहता है और बच्चों के मन में बड़ों का अनुकरण करने की उत्कण्ठा।
जवाब देंहटाएंजीवन के विविध रंग समेटे आपकी यह पोस्ट .....!
जवाब देंहटाएंआपके बहाने ननिहाल की हमें भी खूब याद आ गई ! मेरा ननिहाल गंगा नदी के पार है.बचपन नें माँ के साथ जाते थे और नाव से नदी पार करते थे .नानी बहुत साल हुए नहीं रहीं,पर हम भाई-बहनों को वहां तब से लेकर अब तक बड़ा मान मिलता है.हालाँकि अब कभी-कभार ही जाना होता है.मामाओं से भी बड़ा स्नेह रहा है !
जवाब देंहटाएंआपने बड़े रोचक ढंग से अपने स्वजनों से मिलवाया,अच्छा लगा !
ओह...तो मैंने सच ही सुना था कि ननिहाल प्रेमी बच्चे बहुत बिगड़ैल होते हैं :)
जवाब देंहटाएंमस्त....इतना सुन्दर ढंग से आपने विवरण लिखा है कि क्या कहूं....चित्र देखकर तो जैसे एकदम पहुंच ही गया हूं।
ननिहाल -ददिहाल पक्षों का अनबोलापन कई कई बातों पर मौजूं बन पड़ता है। कभी कोई इसलिये अनबोला बनाये रखता है कि विवाह के वक्त सिकड़ी नहीं दिये, या साईकिल-बाजा नहीं दिये थे इसलिये जिनगी भर न बोलूंगा....तो कोई इस बात पर अपना अनबोला जिनगी भर लेकर चलता है कि - उन्होंने ऐसा कहा कैसे :)
मां से ज्यादा आपको ननिहाल से प्यार रहा ! यह भी खूब रही भाई जी । हम तो जाते हुए बड़े शरमाते थे । लेकिन मज़ा बड़ा आता था ।
जवाब देंहटाएंयही सही है कि संबंधों को जी लिया जाये !
जवाब देंहटाएंबड़ी भावनात्मक और अपनी जमीन की याद दिलाती पोस्ट ....
जवाब देंहटाएंएक एक लाइन पढ़ी ...अपनी ननिहाल याद आ गयी !
आभार आपका !
यादों के साथ चलता सुन्दर विवरण.
जवाब देंहटाएंअपनी बुनियादी जड़ों से जुडी यादें भी बहुत सुकून देती हैं.... सुंदर वृतांत
जवाब देंहटाएंपुत्र को माता से और पुत्री को पिता से अधिक स्नेह होता है। दादा-दादी के लिए पोते-पोती अनायास ही उपलब्ध रहते हैं। मगर,नाना-नानी अपने नातिनों को हंसता देखकर ही बेटी विदाई की पीड़ा भूलने की कोशिश करते हैं। इसलिए,जब कभी संभव हो,जाना अच्छा है।
जवाब देंहटाएंआपके इस आलेख का शीर्षक देख कर याद आया कि हम भी पच्चीस तीस साल पहले ही ननिहाल गये होंगे।
जवाब देंहटाएंsundar sansmaran.
जवाब देंहटाएंआप बहुत किस्मतवाले हैं. मैं अपने ननिहाल अपने जीवनकाल में सिर्फ़ दो बार गयी हूँ एक बार ढाई साल की उम्र में फिर पन्द्रह की उम्र में. बहुत धुंधली सी यादें हैं. मेरी माताजी को भी अपने मायके से कुछ खास लगाव नहीं था, शायद बहुत कम उम्र में विवाह हो जाने के कारण ऐसा होता था. बाऊजी और हमलोगों के भी वहाँ जाने से हिचकने का कारण बहुत रोचक था और यहाँ नहीं बताया जा सकता :)
जवाब देंहटाएंदेजा वू पर इसी नाम से बनी फिल्म बहुत रोचक है. उसके हीरो डेंजल वाशिंगटन मेरे मनपसंद हीरो हैं. मेरे ख्याल से देजा वू का मतलब पूर्वाभास होता है. और इसमें अतीत का नहीं बल्कि भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास होता है.
अतीत के झरोखों में इस आलेख के बहाने से ही सही में झाँकने का मौका मिला |
जवाब देंहटाएंकितनी यादों को ताजा कर दिया आज आपने.बिलकुल.....बिलकुल ठहरे हुए पानी में कंकर मार देने सा काम. सुबह सुबह उठते ही मेल बॉक्स में देखा.ननिहाल का नाम पढकर इंतज़ार नही किया कि शाम को पढूंगी.
जवाब देंहटाएंसर्वप्रिय बचपन -अपना भी सब भाई बहनों और माँ का भी-जुड़ा होता है ननिहाल से इसीलिए शायद सबको प्रिय लगता है हमेशा.
आपके सुखद अनुभवों मीठी यादो को आपके साथ हम भी जी रहे हैं जैसे और एक मुस्कराहट लगातार चेहरे पर बनी हुई है मेरे.
घूंघट शायद पूरे भारत के ग्राम्य-जीवन में अब भी बसा हूआ है????
एक ख़ूबसूरत प्यारा भाव,उत्सुकता जगाता था यह घूंघट हा हा हा
अरे ! ननिहाल से खाने के लिए क्या लाये वो नही लिखा है ???
बड़े होशियार हो डाक्टर साहिब!
मैं नही छोड़ने वाली अपने हिस्से की.शराफत से मेरे हिस्से की बचा रखना. :P
@इंदु जी ,
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ बचाते रहे हैं आपके हिस्से का ..बस इंतज़ार कीजिये ताकि जो भी मिले और भी मीठा लगे .... :)
@ इंदुजी डॉ.साहब ने आपके लिए दवाओं का पूरा थैला हमारे पास भेज दिया है,जब घर आऊँगा बाकी सामान के साथ लेता आऊँगा :-P
जवाब देंहटाएंबचपन को याद करना बहुत अच्छा लगता है ....बहुत कुछ याद आया अपने बचपन का ननिहाल का आपकी यह पोस्ट पढ़ कर ....
जवाब देंहटाएंखरगोश की दौड़ लगाने के बीच में रुककर पीछे घूम कर देखने के बाद अहसास होता है कि कितना कुछ हमसे छूट जाता है . आपका सुन्दर संस्मरण आपको तो भर ही दिया पर हममें एक खालीपन भर गया . मन तो वहीं भागता है जहाँ बहुत कुछ मिला करता है . ननिहाल कुछ ऐसा ही होता है.
जवाब देंहटाएंबहुरंगी जीवन कभी कभी मूल रंग ही चुरा ले जाता है जीवन से ....फिर उन रंगों के पीछे का श्याह पटल छिप जाता है दुनिया से ...और हम समय समय पर उसे महसूस करते रहते हैं ...
जवाब देंहटाएं@सतीश जी ,
जवाब देंहटाएंकहें जुलुम करते हैं .आप भी मुझे बिगडैल मानते हैं ? मिलने के बाद भी ? :(
@मुक्ति ,ठीक है मुझे वह वृत्तान्त कभी और बता दीजियेगा मिलने जुलने पर :)
आखिर तब बतियाने का मसाला भी तो होना चाहिए :)
डेजा वू का एक अर्थ यह भी जो आपने बताया है ..मगर विस्तृत विमर्श के लिए साई ब्लॉग के लिंक पर जाएँ ...
'माता जी के बिना कहे मैंने अनुष्ठान में ५०० रुपये का निमंत्रण दिया तो' भारतीय मानसिकता नहीं और 1000 लौटा दिया गया तो भारतीय मानसिकता…वाह जी। वैसे वहाँ जाकर भी देख आए खुराफ़ात। यही सब तो है बचपन के बाद…
जवाब देंहटाएंकाफी नॉस्टैल्जिक बना दिया आपने... हम तो बड़े रेगुलर रहे हैं..इधर कुछ सालों में नौकरी ने परेशान कर रखा है... !
जवाब देंहटाएंआपके ब्लाग की सबसे अच्छी बात मुझे लगती है कि आप बेहद पारिवारिक इंसान हैं और परिवार भी आपका संकीर्ण न्यूक्लियर फैमिली वाला नहीं है आपने ननिहाल का जो सुंदर वर्णन किया, उससे बहुत सी पुरानी बातें अपनी भी याद हो आईं।
जवाब देंहटाएंदिलचस्प और सार्थक पोस्ट के लिए आपका आभार।
जवाब देंहटाएंटी0वी0100 ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बचपन की यादें सुकूनदेह होती हैं हमेशा...चलिये, आपकाअ ननिहाल भी देख लिए.
जवाब देंहटाएंकितने सौभाग्यशाली है आप जो ननिहाल का स्नेह पाया ,,, हम तो न नाना को देख पाये न मामा को:(
जवाब देंहटाएंयादों में एक आकर्षण अपनी और बार बार खींचता है ...और फिर यादों की नगरी की सैर तरो ताज़ा कर देती है ...
जवाब देंहटाएंसुंदर जीवंत संस्मरण ....
यादों के गलियारे से होते बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंअतीत की यादो को ताजा करता सुंदर आलेख,....
जवाब देंहटाएंमेरे पोस्ट 'शब्द'में आपका इंतजार है,..
बीते बचपन को फिर से नए अहसास में सजाकर देखना सच में बहुत सुखद होता है और जो चीज़ हमसे दूर होती जाती है उसके छुटने का भय हमें उसके और करीब लाने लगता है |
जवाब देंहटाएंसुन्दर पोस्ट |
याद न जाए बीते दिनों की....
जवाब देंहटाएंसादर.
तीस वर्ष बाद ननिहाल की सैर ... पर यादें हैं जो ज्यों की त्यों बनी हुई हैं ..रोचक संस्मरण ..
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्रण....
जवाब देंहटाएंarvind bhaiya, has had a very deep impact on me during my formative years when i was in xth class i came in his contact. his interest in literature and his writings in magazines, journals, his uncle joining nasa etc. had impressed me , as i was inclined to academics in those days. his presence is a silent motivation to me even now after 30years.i am fortune enough to have his company, thanks for coming to your nanihal on my call
जवाब देंहटाएं@प्रमेश जी ,हमारा आपका साथ तो जीवन भर का है -ऐसे सम्बन्ध भी तय कहीं और होते हैं बनते धरती पर हैं !
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