मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अभी उनसे दोस्ती के जुमा जुमा चंद हफ्ते ही बीते हैं........

जी हाँ ,अभी उनसे दोस्ती के जुमा जुमा चंद हफ्ते  ही तो  बीते हैं ...आदमी बहुत उखमजी किस्मके हैं ,डूब डूब कर पानी पिए हैं ....बहते पानी के साथ और न जाने कितनी नौकाओं में कितने लोगों के साथ सैर सफ़र कर चुके हैं ....उस क्षेत्र से हैं जहां से हिन्दी के कई उद्भट विद्वान राष्ट्र स्तर पर सुशोभित और समादृत हो चुके हैं ..विवरण वे खुद इस लेख में अपनी टिप्पणी में दें यह उनसे करबद्ध निवेदन है ...बशर्ते इस पोस्ट के बाद वे टिप्पणी करने की मनस्थिति में रह पायें!मुझे याद है अभी कुछ महीने पहले ही मेरी एक पोस्ट पर वे कोई प्रशंसात्मक टिप्पणी तो किये मगर मुझे मठाधीश के अत्यंत अप्रिय संबोधन से संबोधित किये ....और मैंने उन्हें अपनी नाराजगी से तुरंत ही अवगत करा  दिया और यह भी जता दिया कि यह उपाधि श्रीयुत अनूप शुक्ल फ़ुरसतिया जी के लिए लिए ब्लॉग जगत द्वारा पहले ही सर्वाधिकार सुरक्षित किया जा  चुका है और कुछ भी हो यह उपाधि उनसे छीनकर मुझे देने से उनकी शान में गुस्ताखी तो नाकाबिले बर्दाश्त है मेरे लिए..तब वे बोले कि वे इस पर समझौता करने को कतई तैयार नहीं हैं और फुरसतिया के साथ मुझे भी वे इसी उपाधि से नवाजते रहेगें ....अब देखिये न कैसे मुंहफट इन्सान भी हैं ये महाशय !

अब आपके मन में इस महान शख्सियत के बारे में जिज्ञासा प्रस्फुटित हो चुकी होगी ..मगर इस लिहाज से कि धैर्य का फल मीठा होता है अभी अपनी जिज्ञासा पर अंकुश बनाए रखिये ...मेरे दिल्ली के अप्रिय प्रसंगों की एक लम्बी फेहरिस्त है और उसमें भी एक नयी आमद इन्ही महानुभाव ने करायी है ....वह यह कि दिल्ली की बोल चाल की भाषा बड़ी कटु है बड़े छोटों का कोई लिहाज नहीं है यहाँ ...वैसे दिल्ली के इस अप्रिय प्रसंग से मैं सौभाग्यवश सर्वथा अपरिचित ही रहा क्योंकि आज तक मेरे किसी भी दिल्ली के मित्र ने मुझसे दिल्लीनुमा अबे तबे की शैली में कभी बात नहीं की ....मगर अपने आज के चरित नायक इसका निर्वहन बड़ी सहजता से करते हैं -क्या कर रहे हो? ,फलां पोस्ट पढ़ा? चलो बाद में बात करते हैं ...रात ज्यादा हो गयी सो जाओ ...कल बात करना ....सुनो क्या कर रहे हो ....जैसे जुमलों का इस्तेमाल वे सहजता से करते हैं ...शुरू शुरू में और यदा कदा आज भी यह बातचीत की शैली से समझिये मेरा कुछ सुलग सा जाता है, मगर क्या करें इन दिनों तो यही महाशय यारों के यार की रेस में हैं तो कुछ कहते भी नहीं बनता ..मैंने अपनी समस्या अमरेन्द्र  जी के सामने रखी,उनसे गिड़गिड़ाया   तक कि भैया उनकी इस आदत के प्रति आप ही उन्हें सचेत कर कुछ तब्दीली का प्रयास करें  मगर वे भी लगता है धनुहा धर दिए हैं और उन्ही की तरफदारी करते हैं ..कहते हैं वे दिल्ली की आम बोलचाल की भाषा बोलते हैं और उनका ह्रदय मासूमियत से भरा है और  इसे झेलते रहिये ...अब मैं कैसे समझाऊँ इस भाषा से मेरा वास्ता बहुत कम पडा है और मैं इसे बिलकुल भी झेल नहीं पाता....

फिर मैं इस शख्सियत को झेलता क्यों हूँ? कारण इनकी अकादमीय प्रतिभा है और बेलौस बिंदास बोलने का जज्बा है ....महोदय कभी जनसत्ता जैसे प्रतिष्ठित अखबार के नियमित लेखक रहे हैं और अब भी गाहे बगाहे लिखते हैं वहां मगर अब ज्यादातर ब्लागजगत के अच्छे लेखों की अनुशंसा करते हैं छपने के लिए ....एक महीन संवेदना के धनी व्यक्ति हैं जिनका निदर्शन और दर्शन उनकी रचनाओं में होता है ...शेर वेर तो ऐसा लिखते हैं कि बस बलि जाऊं इनकी अंदाजे बयां पर और तो और वे भौकते भौंकतियों का ऐसा मुंह बंद  कराते हैं कि एकलव्य जैसा धनुर्धर भी शर्मसार हो जाय उनकी इस काबिलियत पर ....अब क्या ब्लॉग जगत को यह भी बताना पड़ेगा कि एक बार  एकलव्य ने एक बुरी तरह भौंकते कुत्ते (ग्रन्थों में जब  इसी जेंडर का उल्लेख है तो मैं भी कोई रिस्क क्यों लूं?:)  ) के मुंह को बाणों से ऐसा भर दिया कि उसकी भौंक तो बंद हो गयी मगर उसका बाल तक बांका न हुआ ...ऐसी प्रतिभाओं का जाहिर हैं ब्लागजगत में भी बेहद जरुरत है ....और मैं अपने इस चरित नायक की इस काबिलियत से पूरी तरह मुतमईन हूँ और इस पर मुझे फख्र भी है ...मेरे आराध्य चार्ल्स डार्विन के एक अनुयायी हक्सले साहब को लोग डार्विन का बुलडाग कहते थे...तो आखिर मुझे भी एक ऐसे भक्त और समर्पित फालोवर के सानिध्य से फख्र क्यों न हो?


बैसवारी के संतोष त्रिवेदी 
अब तक आपकी जिज्ञासा ब्रह्मान्ड की आख़िरी परत को दरेच रही होगी तो सुन लीजिये यह शख्सियत कोई और नहीं अपने प्रिय संतोष त्रिवेदी जी हैं जो आज इस ब्लॉग के स्तम्भ चिट्ठाकार चर्चा के अतिथि बने हैं .....वे बैसवारी के हैं ...और बैसवारी के बारे में वे आपको और विस्तार से बतायें तो मेरा भी और ज्ञानार्जन हो जाएगा...हम तो अभी तक बस बसवारी के बारे में जानते रहे हैं जो गाँवों में यत्र तत्र आज भी दिख जाती है और बच्चों को वहां जाने से मनाही रहती है ..कारण कि वहां तरह तरह के सांप गोजरों का जमावड़ा होता है .....संतोष त्रिवेदी की  तालियों की गड़गड़ाहट के साथ स्वागत किया जाय:)  

71 टिप्‍पणियां:

  1. @ ...और उनका ह्रदय मासूमियत से भरा है और इसे झेलते रहिये ...
    उपरोक्त वाक्य पढकर मन्द स्मिति अवश्य आयी कि शायद कहीं किसी को आपके बारे में भी यह सफ़ाई देनी अवश्य पड़ी होगी। खैर, हमें शुरूआत से ही अन्दाज़ हो लिया था कि किनकी बात हो रही है। चलिये इस पोस्ट के बहाने संतोष त्रिवेदी जी से बाकायदा परिचय हो गया। वैसे इस पोस्ट में तारीफ़ की जा सकने लायक एक बात और भी है मगर वह समझने की बात है, कहने की नहीं ...
    :)

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  2. पहले तो मैने समझा कि फिर कोई बवाली पोस्ट आ गई..! एकदम से हड़का दिया आपने। तारीफ करने का यह अंदाज गज़ब का है। अपनी शिकायत भी कर दी और तारीफ भी। मैं अभी कुछ पोस्टों से समझने का प्रयास कर ही रहा था कि आपने और खुलासा कर दिया। देखते हैं शाम तक क्या-क्या होता है यहां...

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  3. तालियाँ, तालियाँ, तालियाँ.

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  4. संतोष त्रिवेदी जी को पढता रहा हूँ...
    निस्संदेह वे प्रभावित करते हैं ! उनको शुभकामनायें !

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  5. बैसवाड़े का माधुर्य तो जगजाहिर है, अगर ऐसा है तो यह दिल्ली का ही प्रभाव है!

    दिल्ली का प्रभाव कब सही रहा है किसी स्म्स्कृति पर? बैसवारी से जुड़ना चाहिये यह सोचकर कि जायसी ने कहा है, ‘सो निबहुर अस दिल्ली देसू’!

    अंत तक आया तो समझा कि संतोष जी की बात हो रही है। संतोष जी के बारे में कही उसी बात को फिर दोहराउँगा, “ वे दिल्ली की आम बोलचाल की भाषा बोलते हैं और उनका ह्रदय मासूमियत से भरा है और इसे झेलते रहिये ...”!

    ब्लोगजगत में शुरुआत से ही हाहाकारी उपस्थिति से आक्रांत करने वाले हुजूर ने निस्संदेह शब्द-वाणों से बहुतों को बेधा है। अपने बारे में कहते भी हैं, ‘चलते बैल को अरई मारता हूँ’! कविता/गद्य दोनों में मति-गति दुरुस्त है साहब की।

    अब जब से अपन ब्लागरी से दूर हैं, हुजूर हमहूँ से दूर हैं! यह ब्लागरी कल्चर ही है। जब तक लेखन तभी तक पूछन-पेखन! :)

    संतोष जी के बेहतर भविष्य, उर्वर लेखन की शुभकामनाओं के साथ!

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  6. पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला भी बैसवाड़ा के थे। उनके संबंध में भी ऐसी बातें की जाती रही हैं।

    आपकी यह शैली तो बहुत झटकेदार है जी... :)

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  7. @अरविन्द जी अभी केवल कुछ बातों पर स्पष्टीकरण दूँगा,बाक़ी के जवाब बाद में...
    'जनसत्ता' का मैं महज़ पाठक रहा हूँ,कई सालों तक पत्र-लेखक ज़रूर वहाँ नियमित रहा.हाँ ,'समान्तर' में ज़रूर कुछ बार छपा हूँ और कुछ लोगों की अनुशंसाएं भी की हैं,पर उसमें उनकी रचनात्मकता का ही असर रहा है !

    बाक़ी, बहुत कुछ कहना है,जल्द लौटूँगा !

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  8. manai hum bhi murid hain unke 'belos andaz ke'.......apka kshob anuchit nahi........kya kariye....delhi ka
    apna ek alag bhasha aur shaili hai..

    bakiya, unko jhelna bhi 'dosti' me
    ghate ka souda nahi......but, phir
    bhi 'bable nu kahenge ke bare-bahi
    se adab-uduli na hoye.....

    pranam.

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  9. संतोषजी का स्नेह नियमित मिलता रहता है।

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  10. चिट्ठाकार चर्चा के पूरी होने का इंतज़ार है.

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  11. मैं भी इनकी फोलोवर हूं .. उन्‍हें शुभकामनाएं !!

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  12. ब्लागरी का यह अंदाज़ भी आपका नितांत मौलिक है .दो टूक कहनी में आपका सानी नहीं

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  13. इस मंच के जरिये एक और बढ़िया शख्स से मुलाकात,आनंद आ गया.

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  14. आज सुबह त्रिवेदी जी के ब्लॉग पर आपको संबोधित करने तक ज़रा भी अंदाज़ नहीं था कि आपने उनपर ही पोस्ट डाल दी है :)

    उनकी कुछ प्रविष्टियां और दूसरे ब्लाग्स पर टिप्पणियां पढ़ रखी हैं सो उनके बारे में हल्का फुल्का अंदाज़ तो था ही ,फिर आपने रही सही कसर पूरी कर दी :)

    मुझे लगता है कि उनके लिखने और बोलने (संबोधन) में मूल अन्तर शाइस्तगी और अक्खड़पन का है ये कहना गलत नहीं होगा कि हमारे समाज में यह दोनों ही शैलियाँ समान रूप से सम्मानजनक और स्वीकार्य मानी गई हैं पर एक ही व्यक्तित्व में दोनों धाराओं की सह उपस्थिति दुर्लभ मानी जायेगी ! संभव है घाट घाट में भटकते हुए शिक्षण कर्म और समाचार पत्र पत्रिकाओं से उनके सतत जुड़ाव ने उनमें ये रंग जोड़े हों !

    उनके ब्लॉग और आपके यहां उनके चित्र को देखते हुए सोच रहा था कि पार्श्व में हरियाली और पाषाण भित्ति ,नीचे एक खाली पात्र और नहाने योग्य स्थान के ठीक सामने कुर्सी पर ठाठदार अंदाज में फोटो खिंचवाने में उनके व्यक्तित्व के कितने ही रंग उजागर हो जाते हैं ! शर्ट का गहरा चटख नीला रंग , ब्ल्यू प्लेनेट के 'मूल पर आधिक्य' लिए हुए फिर उसपर श्वेत वर्ण पैंट का काम्बीनेशन थोड़ा सा 'शांति के सहअस्तित्व जैसा' और इसके साथ ही फाइबर कुर्सी का सिंहासननुमा इस्तेमाल जैसे साधारणपन की स्वीकार्यता के साथ एक ठाठपन ! चित्र में शारीरिक दुबलेपन को हाबी नहीं होने देने की झलक स्वयमेव स्पष्ट है ! आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए जो उन्होंने सबसे आगे लगभग रक्तवर्णी पादुकाओं को प्रस्तुत किया हुआ है ! उनके स्याह केश और चश्में की मौजूदगी पर कोई वक्तव्य ना भी दूं तो पढ़े गये बाकी सारे रंग उन्हें उद्घाटित तो करते ही हैं !
    कहने का आशय यह है कि उनके बारे में आपका अंदाज-ए बयां जो भी हो पर वे स्वयं भी अपने व्यक्तित्व को विविध रंगों और पाश्चर में उजागर करते हैं !

    एक प्रियजन की तरह उनका हार्दिक स्वागत है !

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  15. ये अंदाज भी खूब रहा.स्वागत है.

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  16. अरे काहे दिल्ली वालों की भासा पर टेंसन लेते हो भाई ।
    ई तो कुछ भी नाही है । दिल्ली बेल्ली देखी है ना ।
    ई है ससुर असली दिल्ली वाली भासा ।

    अच्छा है , एक लखनवी तो दिल्ली वाला हुआ । :)

    मज़ेदार पोस्ट ।

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  17. अली सा का कमेंट पढ़ने के बाद चित्र देखा और फिर कमेंट पढ़ा। या अल्लाह! नज़रें हैं या एक्सरे मशीन!!एक फोटा में इतना कुछ देख सकते हैं!!! मैने तो ढेरों पोस्ट की थी। उनका कमेंट भी आया था...बारी-बारी से नज़र उतारने की नेक सलाह थी।
    मान गये यूं ही नहीं कहते...ताड़ने वाले कयामत की नज़र रखते हैं।

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  18. @देवेन्द्र भाई ,हम भी आपकी ही तरह हैरान परेशां हैं रखने वाले कैसी क़यामत की नज़र रखते हैं :)
    और तभी वे किसी से धोखा नहीं खाते बल्कि इनसे लोग बाग़ भले ही धोखा खा जायं:)
    बाबू जी ज़रा बचना बड़े धोखे हैं इस राह में !

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  19. बढ़िया परिचय कराया।

    वैसे गाली गलौज से इतनी चिढ किसी बनारसी को हो तो आश्चर्य होता है :)

    उ का है कि जहां - हर हर महादेव के नारे के बाद - भो** के जैसी शब्दावली से बन्द लगता हो वहां गलियउंझ से इतना नहीं चिढ़ना चाहिये। इसी की ओर इंगित करते 'काशी का अस्सी' में पहले ही पन्ने पर ही लिख दिया गया है कि -

    - जमाने को लौ* पर रख मस्ती से घूमने की मुद्रा आईडेंटिटी कार्ड है इसका :)

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  20. @अली सा का कमेंट पढ़ने के बाद चित्र देखा और फिर कमेंट पढ़ा

    मैंने भी , मानना पड़ेगा :)

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  21. आपको जो बात कहनी थी कह गये
    हम बस हक्का-बक्का देखते रह गये

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  22. @ अरविन्द मिश्र जी समझ नहीं पा रहा हूँ ,कहाँ से शुरू करूँ? आज दिन भर व्यस्त रहा पर इस पोस्ट के बारे में और कुछ विशेष टीपों के बारे में कई तरह के विचार गड्ड-मड्ड होते रहे फिर भी जो साबुत बचे हैं उन्हें 'निछावर' करता हूँ !

    मुझे अपने बारे में थोडा इलहाम तो पहले से है पर यह आपके द्वारा इस रूप में विस्फोटित होगा,सोचा न था!
    महाराज,ऐसी भी क्या ज़रुरत थी कि मुझे महिमामंडित करने के लिए एक मानवीय-वृत्ति का सहारा लिया जाए !
    मैं सबसे पहले यह स्पष्ट कर दूँ कि मेरी बोलचाल की शैली दिल्ली से कम बैसवारे से ही ज़्यादा प्रभावित है और उससे भी ज़्यादा मेरे व्यक्तिगत कुलच्छनों से ! इसमें थोड़ी आक्रामकता हो सकती है दिल्ली की आ गयी हो !
    इस बारे में सबसे सटीक टिप्पणी हमारे ख़ास मित्र -सहकर्मी (अब स्वर्गीय) शर्माजी किया करते थे,"तू लिखता अच्छा है पर बोलता घटिया है " ! सच में मुझे पता भी नहीं होता और मैं ख़ास दोस्तों से अनौपचारिक बातचीत कर बैठता हूँ !इससे एक फ़ायदा ज़रूर होता है कि कई दोस्त छन जाते हैं और यह सब अपने-आप होता है!

    मठाधीश की उपाधि मैंने तंज़ के रूप में दी थी जब आपने दिल्ली-यात्रा का वृत्तान्त लिखा था और आप में हमने ह्यूमर देख कर ऐसा टीपा था.आपकी नाराज़गी जानकर मैंने अनूप शुक्ल जी को फोनियाया तो उन्होंने कहा नहीं,मिसिरजी तुमसे नाराज़ नहीं होंगे! इसके बाद तो धीरे-धीरे आप मेरी पकड़ में आ ही गए !आप तो बनारस के हैं,कबीर और रामानंद का किस्सा भी जानते होंगे.जब रामानंद ने कबीर को गुरुमंत्र देने से मना किया था तो वे सुबह-सुबह मंदिर की सीढियों पर लेट गए थे.अचानक रामानंद का पैर कबीर के ऊपर पडा तो वे 'राम-राम' कह उठे और उसे ही कबीर ने गुरुमंत्र मान लिया,इस तरह उन्हें ज़बरिया गुरु बनाया !
    बैसवारे की कुछ विभूतियों के बारे में ज़रूर बताऊँगा.राणा बेनी माधव ,राजा राव राम बक्स सिंह,महावीर द्विवेदी,सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला',चन्द्र शेखर 'आजाद',पंडित रघुनन्दन प्रसाद शर्मा,राम विलास शर्मा,चन्द्र भूषण त्रिवेदी'रमई काका',शिव बहादुर सिंह भदौरिया,काका बैसवारी आदि ! कभी विस्तार में इन सबके बारे में !

    मिसिरजी,आप की लीला भी न्यारी है ! आप किसी को तो टंकी पर चढ़ा देते हो और किसी को झाड़ के पेड़ पर !आपने ज़रूर मेरे ऊपर थोड़ी रियायत करी है !

    हो सकता है कई सवाल अनुत्तरित हों पर यह ज़रूर कहूँगा कि आपकी पोस्ट लगातार संवाद बनाए रहती है.आप पता नहीं किस मसाले का तड़का लगाते हो कि टीप करने वाले बार-बार उचक-उचक कर झाँकते और टिपियाते रहते हैं !

    हम थोडा-बहुत तो लिख-लिखा लेते थे पर लिक्खाड़ और घाघ तो आपने ही बनाया है !बार-बार प्रोत्साहित करना यह बताता है कि हमारी लंठई को भी आपने विषधर की तरह अपने गले में लपेट लिया है !
    मुझे अब और अधिक ज़िम्मेदारी दे दी है,संभाले रहना,बहुत आभार इतने प्यार का !

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  23. @महराज,
    चलो रूह को कुछ राहत मिली ..बहुत व्यस्त हूँ ...कल अल्ल सुबह जिला सुल्तानपुर निकलना है ..लौट लाट कर कुछ बात होगी ..अब सो जाओ !

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  24. @ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी हुज़ूर आपका भी अपराधी हूँ.एक बार बातचीत में मारे अपनेपन के मैंने आपको 'डांट' दिया था पर अगले दिन इसके बारे में मुझे आपके द्वारा पता चला !सच में ,कई बार ऐसा होता है की हम कोई बात सहजता से कह देते हैं(परम आत्मीय हो जाने पर) लेकिन वह व्यक्ति उसे उस रूप में न लेकर गंभीरता से ले लेता है.का करें,हम चलत बैल को अरई मारने वाले मनई जो ठहरे ! पर यहाँ कोई बैल नहीं है,मेरे परम सुहृद हैं !

    सरकार,आपको भूले नहीं हैं,सोचते हैं कि का पता ,फिर कहीं नाराज़ हो गए तो ?

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  25. एक बहुत अच्छे ब्लॉगर से जिस आत्मीय शैली में परिचय करया गया है वह निश्चित ही ताली के क़ाबिल है।
    तालियां ...!

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  26. @ अली साहब आपको तो कुछ जवाब देने में भी डरता हूँ,पता नहीं कहाँ से दबोच लें !पहले मेरी पोस्ट पर आपकी हाहाकारी टीप देखी,लगा कि आप यह 'प्रशंसा-पुराण' पढ़ लिए हैं,पर बाद में आपने बात साफ़ करी.वैसे वह टीप यहाँ बहुत उपयुक्त लगती.उस टीप में भी आपने पता नहीं कहाँ-कहाँ निशाने लगाकर मिसिरजी को और हमें गुदगुदी की है !
    का कहें,वहाँ आपने 'क़हर' ढाया है तो यहाँ 'जुलुम' !अरविन्दजी ने शब्द-चित्र बनाया तो आपने चित्र को शब्द दे दिए हैं. ग़ज़ब की घ्राण-शक्ति है आपकी,'जहाँ न पहुंचे रवि,वहां पहुंचे कवि' की तर्ज़ पर आपने मज़मा लूट लिया है !आपने मुझ ख़ाकसार पर अपनी नज़र डाली मैं हरा हो गया.
    भाई देवेन्द्र जी के वक्तव्य से पूर्ण सहमत हूँ !
    एकठो शेर मचल रहा है,सँभाल लेना :

    बेतक़ल्लुफ़ हूँ मैं,बेअदब भी सही,
    दोस्ती के लिए क्या ज़रूरी नहीं ?

    एक बात और है,मेरी दोस्ती बुज़ुर्गवारों से ज़्यादा है,इसका क्या सबब हो सकता है ?

    तहे-दिल से आपका आभार !

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  27. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  28. हमें समझने और झेलने के लिए अनुरागजी,देवेन्द्र पाण्डेय जी,प्रवीणजी,संगीताजी ,सतीश जी (इस बार दोनों वाले)पी एन जी ,मनोज जी(दोनों),Global ji,kajal ji, sanjay jhaji,gautamji ,सिद्धार्थजी,विवेकजी,अभिषेकजी,दराल साब,शिखाजी,तुषारजी,वीरू भाई,महेन्द्रजी,वर्माजी और आने वाले अन्य साथियों का आभार !

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  29. एकदम अपरिचित अध्‍याय जैसा (मेरे लिए).

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  30. संतोष जी और उनके ब्लॉग विषय में बड़े अच्छे से बताया ....आभार

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  31. संतोष जी को तो हम भी पढ़ते है बहुत अच्छा लिखते है रहस्यमय पोस्ट के लिए आभार

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  32. जय हो पोस्ट की
    जय हो टीप की

    जय जय कार हो.

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  33. आपने अपने ही अंदाज़ में परिचय करवाया संतोष जी का ... उनका ब्लॉग तप पढता रहता हूँ ... आज उनकी शक्सियत से भी मिल लिए ... शुक्रिया अरविन्द जी ...

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  34. तालियाँ, तालियाँ । अब वे इत्ते बडे हैं तो आपको भी बडे लोगों की छोटी बातों को नजरअंदाज कर देना चाहिये ।

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  35. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  36. आदरणीय महोदय,
    ब्लागों के अपने नियमित भ्रमण पर आज की सैर के बाद आपके ब्लाग पर आकर ठिठक सा गया हूँ । शुरूआती पंक्तियाँ कुछ दूरी पर स्थित किसी (?) से जुडे विशाल बम के डेटोनेटर पर लगी आग की चिंगारी की मानिंद हैं जिन पर ठहर कर विस्फोट की कल्पना ही कर रहा था कि अंतिम पंक्तियों तक आते आते अचानक सत्तर के दशक में अमिताभ बच्चन की बहुचर्चित फिल्म ‘सिलसिला’ में महानायक की आवाज में की गयी वह ऐतिहसिक घोषणा याद हो आयी है (जिसे मेरी ही तरह के कुछ शैतान से टिप्पणीकारों ने भाँप भी लिया है!):-

    ‘....क्यों दिल में सुलगते रहें ? दुनिया को बता दें .....हाँ हमको मुहब्बत है ! मोहब्बत!!....बस अब यही बात ......इधर भी है और उधर भी...... ’

    आदरणीय संतोष त्रिवेदी जी बधाई के पात्र है कि आपकी सधी लेखनी की सुखद छाँह पा सके। आपके इस आलेख केा पढने के बाद अब मेरे लिये श्री संतोष त्रिवेदी जी को नियमित पढना आवश्यक हो जायेगा।
    तुम्म्हारी आँच !!

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  37. संतोष जी को हम पहले से ही जानते हैं. खासकर इसलिए कि वो बैसवारा के हैं और हमारा पालन-पोषण भी वहीं हुआ है- खांटी बैसवारी क्षेत्र में.
    संतोष जी से मेरी बातचीत तो नहीं हुयी है, लेकिन अगर उनका अंदाज़ आपके बताए अनुसार ही है, तो ये बैसवारा का ही असर होगा, दिल्ली का नहीं क्योंकि बैसवारा की अबे-तबे वाली भाषा में प्यार होता है और दिल्ली की भाषा में अहं और खुद को बीस दिखाने की प्रवृत्ति.
    अब आएगा मज़ा, जब गुरू को चेला शक्कर मिल गया :)

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  38. @आराधना जी, हमें इतनी जल्दी जानने,समझने का आभार !
    बैसवारा के प्रति आपका मोह हमें भी कुछ पता है,हर क्षेत्र की कुछ खासियत होती है. कोई भी व्यक्ति अपने लोगों और अपनी मातृभाषा में ही सहज होता है.मुझे वैसे भी बनावटीपन पसंद नहीं है !उम्मीद करता हूँ कि आपसे भी कुछ सीखने को मिलता रहेगा !

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  39. १. संतोष त्रिवेदी तो अभी कुछ महीने पहले आये ब्लॉगिंग के मैदान में। लेकिन आपको तो पता होना चाहिये कि ब्लॉग जगत में मठाधीशी किसी की नहीं चल सकती। मठाधीशी के भ्रम से जो भी पीड़ित हो वह जित्ती जल्दी इससे उबर जाये उत्ता अच्छा।
    २. अबे-तबे की शैली दिल्ली की है कि नहीं इसके बारे में दिल्ली वाले जाने लेकिन यह बैसवारे, अवध क्षेत्र की सहज बोलचाल की शैली है। संतोष त्रिवेदी इसको अपनाते हैं तो इसका मतलब वे सहज बातचीत करते हैं।
    ३. "...मेरा कुछ सुलग सा जाता है" -इससे सिद्ध होता है कि आपके कुछ की विशिष्ट ऊष्मा बहुत कम है। जरा सी बातचीत में ही सुलग जाता है। :)
    ४. "...वे भौकते भौंकतियों का ऐसा मुंह बंद कराते हैं कि एकलव्य जैसा धनुर्धर भी शर्मसार हो जाय उनकी इस काबिलियत पर"
    इससे एक बार फ़िर लगा कि कुछ घटनाओं से आप इतना आक्रांत हैं कि वे हर हाल में आपका पीछा करती हैं। मुझे तो यह भी लगता है कि आप अगर न्यूटन का जड़त्व नियम भी किसी को समझायें तो उसमें भी कोई न कोई उदाहरण ऐसा होगा जिसमें "भौकते भौंकतियों" का जिक्र अवश्य होगा।
    ५. संतोष त्रिवेदी से बजरिये अमरेन्द्र बातचीत की शुरुआत हुई। मुलाकात भी। उनके व्यक्तित्व के और बेहतरीन शेड्स भी हैं। अच्छे मन के। पढ़ने-लिखने का शौक भी है। संबंध बनाने और बनाये रखने की ललक वाले। संवेदनशीलता ही कहेंगे इसे कि अगर अपनी समझ में कोई बात कड़ी कही तो वह बुरी तो नहीं लगी इसकी पुष्टि के लिये फोनियाया भी ज्याता है। ब्लॉगिंग से जुड़ने के बाद नये आयाम जुड़े हैं इस ललक में फ़िर चाहे घर-परिवार तरसता रहे उनकी संगत को।
    ६. लेकिन इस पोस्ट में उनके व्यक्तित्व के एक पहलू "....का ऐसा मुंह बंद कराते हैं " का जिस तरह महिमामंडन किया है आपने उससे इस बात का खतरा बढ़ता है कि वे अपने इसी गुण को शान पर चढ़ाते रहें और उनके बाकी बेहतर गुणों को उबरने का मौका ही न मिले।
    ७. ब्लॉगिंग की प्रवृत्ति ही कुछ ऐसी है कि हर किसी को किसी के नहले पर दहला मारने को उकसाती है। संतोष जी की तथाकथित एकलव्य कौशल वाली पोस्ट इसी प्रवृत्ति वाली है जिसे संबंधित लोगों के अलावा और शायद समझे भी न हों। मेरी समझ में संतोष जी को इस तरह की वीरता से परहेज करना सीखना चाहिये। बाकी वो आपके बुलडाग हैं आप उनको जो सिखायें। :)

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  40. @शुकुल महराज ,
    मुझसे ज्यादा तो आप उस कथित इंगित मामले से संवेदित लगते हैं झट से कैच करते हैं!

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  41. जो जितनै बड़ा खिलाड़ी होता है ऊ उतनै उपदेशक बनता है। मिसिर जी थोड़ा बचि गये नहीं तो एक ब्यूह-रचना अनूप जी फिर करते। बहरहाल..!

    जिन लोगों को लगता है कि अबे-तबे अवधी है, उन पर मुझे अब आश्चर्य नहीं है। ये वाकही बड़े पारखी हैं। लिखना आता है तो इससे अथारिटी तो आ ही जाती है। नहीं तो मैं अपनी अल्पमति से यही जानता हूँ कि कोई भी अवधी गाँव नहीं मिलेगा जहाँ किसनऊ अबे-तबे बोलत हुवैं! हाँ, नगर के मिलावटी भाषायी संस्कार को जिन लोगों ने अवधी समझा है, उनके ऊपर से अलग से क्या कहना। निवेदन बस इतना की अपनी सीमा को अवधी की सहजता में न टाँकें। इलाहाबाद भी अवधी इलाका है, जहाँ नगर में ‘कस मे/कस बे ..’ जैसे प्रयोग मिलते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसे भी अवधी की सहजता कह दी जाय। बैसवाड़े में भी उकार की तरजीह है ओकार पर, साथ ही आद्य वर्ण ह्रस्व को जाता है। पश्चिमी भाषाओं का ‘खेलो’ बदलकर ‘ख्यालउ’ हो जाता है। फतेहपुर में पश्चिमी भाषा बुंदेली का प्रभाव हो सकता है( तब भी नगर के ही संदर्भ में यह बात सही लग रही)।

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  42. @ अनूप जी आखिर आप अखाड़े में कूद ही पड़े,आप जब तक नहीं आते तब तक महफ़िल सही सजती नहीं !
    मिसिरजी तो आपके सुलगाने से नहीं सुलगे,कुछ बातों से हमीं निपट लेते हैं !

    १)विशिष्ट ऊष्मा के बारे में हमने भी बचपन में पढ़ा था,आपने मिसिरजी को इंगित करके बताया है कि वे विशिष्ट हैं तो सुलगने वाली ऊष्मा भी विशिष्ट होगी !आप अपना मेल्टिंग पॉइंट नहीं बताये हैं,तनिक आसानी होती !
    २)भौंकते-भौंकतियों का ज़िक्र आप भी मजे से कर लेते हो,पर थोडा फर्क है ! मिसिरजी डंडा मारकर मुँह बंद करते हैं तो आप गुड की ढेली देकर ! खाने वाले को भरम होता है कि आप उसे पोषित कर रहे हो,पर वह गुड़ उसके लिए 'हाराकिरी' बन जाता है !
    ३) हमारी मुलाक़ात वाकई बजरिये अमरेन्द्र रही पर मिसिरजी तक रास्ता आपने ही दिखाया है ! जब मैंने उनको अपना गुरु बना लिया है तो फिर किसी 'सान' पर हमें चढ़ावें ,हम काहे को फिकर करें !
    एक बात जो मिसिरजी में है वह औरों में नहीं है.वे सही बात और अपने चेले के हित में खुले आम लट्ठ (कलम)लेकर मैदान में आ जाते हैं,रजाई में दुबकते नहीं !
    ४)आप जानते ही हो कि बैसवारे का हूँ तो यूं ही कोई 'यूज़' नहीं कर सकता.आपसे भी बहुत कुछ सीख रहा हूँ,सीखना चाहता हूँ पर शायद आपकी वरीयताएँ और हैं !
    ५) अभी नया हूँ ,पहले लिखना शौक था अब नशेड़ी बन चुका हूँ तो यह हमारे गुरु का ही असर है !
    ६)आपने पहले ही कहा है कि हममें कई शेड्स हैं तो मुतमईन रहें,मैं आपको निराश नहीं करूँगा,क्योंकि आप हमारे गुरु से कम नहीं हैं !
    ७) मैं तो अपने शेर जैसे गुरु के लिए बुलडॉग नहीं पामेरियन भी बन जाऊँगा !!

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  43. @संतोष जी,
    आपका बुलडाग ही बने रहना श्रेयस्कर है काहें कि पाम्रेनियन हमारे पास पहिले से ही हैं और हम इन दोनों प्रजातियों को कुत्तों और कुत्तियों से ऊपर वर्गीकृत करते हैं ...और शुकुल महराज का तनिक वैश्विक साहित्य अवगाहन ढीला सा है इसलिए वे ई नहीं जानते कि हक्सले रूपी बुलडाग को डार्विन ने कुच्छौ नहीं सिखाया था -वह खुद ही एक प्रबुद्ध डाग था ..और स्वामी के पक्ष में की गयीं भौकों को डार्विन सुन तो लेते थे मगर निर्विकार रहते थे ........

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  44. देर से पढने का फायदा है कि टिप्पणियों के माध्यम से भी बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त हो जाता है ...
    संतोषजी के ब्लॉग से हम भी अभी ही परिचित हुए हैं ...
    उनके उज्जवल ब्लौगियाना भविष्य के लिए शुभकामनायें!

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  45. शुक्रिया दादा !इस पोस्ट के अनोखे अंदाज़ के लिए ,हौसला अफजाई के लिए भी .

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  46. प्रशंसा का अच्छा अंदाज़ !

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  47. @ त्रिवेदी जी ,
    सबब चाहे जो भी हो , बुजुर्गों की ओर आपका दोस्ताना रुझान क़ाबिल-ए-तारीफ है पर...अफ़सोस ये कि इस जगत के बूढों का ध्यान कहीं और ही है :)

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  48. बहुत बढ़िया ब्रह्म चर्चा चल रही है भाई ।
    अली सा'ब की बात कुछ कुछ समझने का प्रयास हम भी कर रहे हैं । :)

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  49. @ अली साहब आपकी चिंता जायज़ है पर सुनते है बुजुर्गों का 'टैम-पास' भी नहीं रहा.बहुत दुखद खबर है यह !

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  50. बाप रे...! यह पोस्ट है या कैप्सूल जिसे गटकते ही मन का मैल बाहर आ जाता है !!

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  51. कल ही संतोष जी से बात हुयी थी, आज उनके बारे में और जानकर अच्छा लगा।

    बैसवारी का मतलब भी इस पोस्ट के बाबत ही पता चला। हम बहुत दिनों से सोच रहे थे संतोष जी से इसका मतलब पूछें।

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  52. यह देखना एक सुखद अनुभव है कि विज्ञान पृष्ठभूमि के लोग साहित्य में न सिर्फ अच्छा काम कर रहे हैं,बल्कि उनका हास्य-बोध भी कइयों से बेहतर है। यह विश्वास भी पुष्ट होता है कि ब्लॉग एक आभासी दुनिया नहीं है। यह वास्तविक है,जहां लोगों का दायरा बढ़ रहा है और हो न हो,ऐसी मुलाक़ातों से ही वह प्रेम-वाण छूटेगा जो भौकते भौंकतियों का मुंह बंद करा सकेगा। अच्छा है, दुनिया देखे कि ग्लोबलाइजेशन का अर्थ केवल व्यापार नहीं होता।

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  53. यह ब्लोगरी ही है जिसने हमारा परिचय संतोष जी से करवाया ....भले हैं ....सबसे बढ़िया यह कि कि उनकी नए खून की पूरी जवानी फतेहपुर में बीती तो दुनाली फतेहपुरी का एफ्फेक्ट आ जाना लाजमी होगा?


    बकिया उर्जावान आदमी हैं .....बूढों और जवानों से एक लौ और रौ में बात करते हैं शायद बैसवारे , फतेहपुर और दिल्ली का भाषाई काकटेल असर हो ?

    बकिया अली जी की टीपों से दिल फूल के कुप्पा हुआ जा रहा है!

    इत्ता कहने के आलावा हमरे पास कुछ बचा नहीं !!

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  54. हा हा हा मैं समझ गई थी कि यह जरूर उस शख्स के लिए है जो बहुत प्यारा इंसान है.एक मासूम बच्चे जैसा है जो मैं उन्हें सन्तु दा बुलाती हूँ.अक्सर लिखती हूँ ब्लॉग,बज़ और फेसबुक पर चंद ऐसे लोग मिले ...चंद... जो ईश्वर के दिए खूबसूरत तोहफे हैं मेरे जीवन मे.कभी ईश्वर से शिकायत न रही न रहेगी कि वो अच्छे लोग बनाना भूल गया है. यह अपनी कमियों के बारे मे खुलकर बतलाते हैं.कितने लोगों मे है यह साहस हा हा हा सन्तु दा! तेरे जैसे लोगों के कारण यह दुनिया खूबसूरत बनी हुई है बनी रहेगी खास करके .....औरतों के लिए. तेरे जैसे शख्स को तो मैं जब गले लगाऊंगी तब भी अपने कृष्णा के करीब होने का अहसास होगा. देख तुझे खुश करने के लिए नही लिख रही. मैं.पचपन साल से तेरी इस दुनिया मे बिता चुकी .इतनी परख तो इंसानों को पहचानने की हो चुकी है मुझे. तु लेखक ,कवि से ज्यादा एक बहुत अच्छा इंसान है सन्तु दादा थेंक्स टू गोड तेरे जैसे इंसान से ईश्वर ने मुझे मिलाया.

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  55. प्रवीण त्रिवेदी और इंदु पुरी जी ,
    मेरी नालायकियों को लायक बताने के लिए आभार !

    अन्य सभी का भी आभार !

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  56. संतोष जी का स्नेह मुझे भी मिलता रहता है. मैं भी उनका बहुत बड़ा प्रसंशक हूँ.
    प्रणाम

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  57. @शिवजी आप स्वयं एक बलिष्ठ और वरिष्ठ ब्लॉगर हैं,बढ़िया ट्विटियाते हैं और हमसे बुज़ुर्ग भी हैं ! हमारे ऊपर काहे को पाप चढ़ाते हैं.आपका स्नेह यूँ ही मिलता रहे !

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  58. आपका ब्लॉग भी बहुत ख़ूबसूरत और आकर्षक लगा । अभिव्यक्ति भी मन को छू गई । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद . ।

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  59. @अमरेन्द्र,
    अबे-तबे अवधी की नहीं, बल्कि बैसवारी की खासियत है. हम बैसवारा के गाँवों के लोगों के बीच पले-बढे हैं और वहाँ गाँवों में इसका इस्तेमाल खूब होता है.
    और हाँ, इलाहाबाद की भाषा में भी कस बे-कस मे वहाँ के गाँव वाले खूब इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि मेरे दोस्तों मे बहुत से इलाहाबाद के लोकल है. फर्क इससे पड़ता है कि वो इलाहाबाद के किस क्षेत्र के हैं.
    मैंने अवधी-बैसवारी भाषाओं के बारे मे बिलकुल नहीं पढ़ा है, इसकी व्याकरण भी नहीं आती, लेकिन जो कुछ कह रही हूँ, अपने अनुभव से कह रही हूँ. हो सकता है कि इन भाषाओं मे अबे-तबे पश्चिमी भाषाओं का प्रभाव हो, लेकिन अब इनकी स्वाभाविकता बन गया है. अब ये उचित है या अनुचित, ये अलग बहस का विषय है, जैसे कि कुछ क्षेत्रीय भाषाओं मे गालियाँ सहज प्रवृत्ति हैं, भले ही सामाजिक रूप से सम्माननीय ना हों.

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  60. अच्छी लगी पोस्ट। यह जान कर संतोष हुआ कि ब्लॉगजगत में बड़ा स्नेह बंट रहा है।

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  61. मुझे ये आलेख और ऊपर की टिप्पणियाँ बहुत ही रोचक लगी|
    अच्छा लेखन!
    बहुत कुछ सिखने को मिला...|

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  62. इत्ता कुछ तो कहा-सुना जा चुका
    अब लगता है दिल्ली से दल्ली वापस बुलाना पड़ेगा :-)

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  63. @ज्ञानजी आपका स्नेह ज्यादा मायने रखता है ! आभार


    @पाबला जी हम तो कब से तैयार बैठे हैं क्योंकि दल्ली अभी भी दिल्ली पर भारी है ! आभार

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  64. @...........जो दिल्ली के तू-तामड़े और `अवधी'(?) के अबे-तबे के मिक्सर हैं, अवधी व बैसवाड़े का सायास भेद देख रहे, उनसे अब क्या संवाद किया जाय! अयाचित हस्तक्षेप के लिए क्षमासाहित!

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