बात बहुत पुरानी है तब मैं पांच साल का रहा होऊंगा ...एक पारिवारिक भ्रमण के दौरान होशंगाबाद जाना पड़ा था ...और मुझे तब की यादें बिलकुल ताजी हैं -नर्मदा में अठखेलियाँ करतीं महाशेर मछलियाँ ....लोग अपने साथ आंटे की गोलिया लिए नौकायन करते और जैसे ही उन आंटे की गोलियों को नदी में डालते मछलियों का हुजूम उमड़ पड़ता ....ऐसा लगता जैसे मछलियाँ पानी में न हों बल्कि मछलियों में ही पानी पनाह मांगे हुए हो ...मगर अब वह दृश्य लुप्त हो गया है ..नर्मदा ही नहीं देश की सभी नदियाँ लगभग मछली विहीन /मत्स्य संपदा श्री हीन सी हो चली हैं ..
इन लगभग पांच दशकों में ऐसा क्या हुआ कि हमारी नदियाँ मत्स्य संपदा से श्रीहीन हो गयीं ? यह एक लम्बी अकथ कहानी है ...जो मनुष्य की अदूरदर्शिता ,अविवेकी प्रवृत्ति और लालच से जुडी हुयी है . वैज्ञानिकों की सिफारिश है कि किसी भी मछली को कम से कम बिना एक बार प्रजनन का मौका दिए नहीं पकड़ना चाहिये....आम तौर पर व्यावसायिक लिहाज से मशहूर मछलियाँ दो वर्षों में जब वे डेढ़ किलो से ऊपर की हो जाती हैं तभी परिपक्व होती हैं और प्रजनन कर पाती हैं ..इसके पहले इन्हें नहीं पकड़ना चाहिए ...एक बार में इनकी डेढ़ किलो की मादा लगभग दो लाख बच्चे दे दती है ....मतलब अगर डेढ़ किलो के नीचे की मछली पकड़ ली गयी तो समझिये पहले वर्ष ही के इनके लाखों बच्चे और उनकी असंख्य पीढियां वजूद में नहीं आयेगीं!
अगर वे एक बार भी प्रजनन कर पायीं तो समझिये अपनी भावी पीढ़ियों की अकूत सौगात वे मानवता की उदर पूजा के लिए छोड़ गयी हैं ....मगर लालची मनुष्य का क्या कहिये वह तो सोने के अनवरत अण्डों के बजाय मुर्गी का पेट फाड़ एकबारगी ही सारे सोने के अंडे लूटने की नीयत रखता है ...हुआ यह कि लोगों ने ऐसे जालों का बेतहाशा प्रयोग करना शुरू किया जिसमें डेढ़ किलो से भी छोटी मछलियाँ फंसने लगी और यह प्रचलन जालों के छेद(मेश साईज) को निरंतर छोटा करने का रूप लेता गया और आज की हालत यह है कि अब मच्छरदानी जैसे जालों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है ... मतलब बड़ी मछली तो छोडिये उनके अन्डो बच्चों का भी समूल नाश होने लग गया है ....यह एक खौफनाक मंजर है !
मत्स्य संपदा का दुर्दिन :अभयदान की गुहार
कालान्तर में हुआ यह कि इन मछलियों की संख्या एक उस क्रांतिक संख्या से भी कम हो गयी जो किसी भी जैव पापुलेशन -जनसँख्या के अस्तित्व रक्षा के लिए जरुरी है ....और मछलियों के अकाल का दौर शुरू हो गया ...
एक और बड़ा कारण है नदियों के किनारों तक मनुष्य का बढ़ता अतिक्रमण ...शहरों में ही नहीं गावों से गुजरने वाली नदियों के किनारे तक भी मनुष्य के नित नए निर्माण जा पहुंचे हैं ...मछलियाँ अमूमन नदी की धारा में नहीं बल्कि किनारे आकर पानी के उथले और छिछले स्थानों में अंडे देती हैं ....अब किनारों तक के बढ़ते मानवीय अधिपत्य ने इनके प्रजनन स्थलों का तेजी से सफाया कर दिया है ..अब उन्हें प्रायः अंडे देने की माकूल जगह भी नहीं मिल पा रही हैं ...बची खुची मछलियाँ सहज बोध से पानी के बहाव के विपरीत दशा में ऊपर की उथली जगह तक प्रजनन के लिए पहुँचती तो हैं मगर वहां मानवीय दखलंदाजी (anthropogenic factors )के चलते इनकी सहज ब्रीडिंग नहीं हो पाती ...मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती नदी स्थानों पर पहले ऐसे कई मत्स्य प्रजनन स्थल चिह्नित तो हुए मगर कालांतर पर वहां लोगों ने कब्ज़ा कर लिया और जो कुछ स्थल अभी बचे भी हैं वहां जुलाई के आस पास नदियों के उफान पर इनका प्रजनन होता भी है तो स्थानीय लोग बड़ी छोटी सभी मछलियों पर जैसे टूट पड़ते हैं -इस समय कामातुर मछलियाँ अपनी आत्मरक्षा को लेकर बेखबर सी होती हैं और लोगों उन्हें हाथों से पकड़ लेते हैं और बड़ी होने की स्थति में पीट पीट कर मार देते हैं -स्थानीय भाषा में इसे "भडेर " पड़ना कहते हैं .बहुत दिल दहलाने वाला मंजर होता है ...मगर इन लोगों को रोक पाने में सफलता नहीं मिल पायी है ....
कहने भर के लिए भारत सरकार का एक मत्स्य अधिनियम 1897है जिसे आजतक संशोधित नहीं क्या जा सका और सामयिक नहीं बनाया जा सका है ..अब शायद उसकी जरुरत भी नहीं रह गयी है ..अब तो मत्स्य संपदा- पुनरुत्थान के एक सर्वथा नए आधिनियम की जरुरत है ... अड़चन यह भी है की मत्स्य और मात्स्यिकी राज्य के विषय के रूप में अधिसूचित हैं ....मतलब केंद्र और राज्य अपनी अपनी जिम्मेदारियों को एक दूसरे के ऊपर डालते रहते हैं ...मछलियों की फ़िक्र किसे हैं .....जब दूसरे कितने ही बड़े बड़े मुद्दे ..कामन वेल्थ गेम्स ..टू जी स्पेक्ट्रम आदि हों तो फिर छोटी नन्ही मछलियाँ किसे दिखेगीं?
एक और बड़ा कारण है नदियों के किनारों तक मनुष्य का बढ़ता अतिक्रमण ...शहरों में ही नहीं गावों से गुजरने वाली नदियों के किनारे तक भी मनुष्य के नित नए निर्माण जा पहुंचे हैं ...मछलियाँ अमूमन नदी की धारा में नहीं बल्कि किनारे आकर पानी के उथले और छिछले स्थानों में अंडे देती हैं ....अब किनारों तक के बढ़ते मानवीय अधिपत्य ने इनके प्रजनन स्थलों का तेजी से सफाया कर दिया है ..अब उन्हें प्रायः अंडे देने की माकूल जगह भी नहीं मिल पा रही हैं ...बची खुची मछलियाँ सहज बोध से पानी के बहाव के विपरीत दशा में ऊपर की उथली जगह तक प्रजनन के लिए पहुँचती तो हैं मगर वहां मानवीय दखलंदाजी (anthropogenic factors )के चलते इनकी सहज ब्रीडिंग नहीं हो पाती ...मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती नदी स्थानों पर पहले ऐसे कई मत्स्य प्रजनन स्थल चिह्नित तो हुए मगर कालांतर पर वहां लोगों ने कब्ज़ा कर लिया और जो कुछ स्थल अभी बचे भी हैं वहां जुलाई के आस पास नदियों के उफान पर इनका प्रजनन होता भी है तो स्थानीय लोग बड़ी छोटी सभी मछलियों पर जैसे टूट पड़ते हैं -इस समय कामातुर मछलियाँ अपनी आत्मरक्षा को लेकर बेखबर सी होती हैं और लोगों उन्हें हाथों से पकड़ लेते हैं और बड़ी होने की स्थति में पीट पीट कर मार देते हैं -स्थानीय भाषा में इसे "भडेर " पड़ना कहते हैं .बहुत दिल दहलाने वाला मंजर होता है ...मगर इन लोगों को रोक पाने में सफलता नहीं मिल पायी है ....
कहने भर के लिए भारत सरकार का एक मत्स्य अधिनियम 1897है जिसे आजतक संशोधित नहीं क्या जा सका और सामयिक नहीं बनाया जा सका है ..अब शायद उसकी जरुरत भी नहीं रह गयी है ..अब तो मत्स्य संपदा- पुनरुत्थान के एक सर्वथा नए आधिनियम की जरुरत है ... अड़चन यह भी है की मत्स्य और मात्स्यिकी राज्य के विषय के रूप में अधिसूचित हैं ....मतलब केंद्र और राज्य अपनी अपनी जिम्मेदारियों को एक दूसरे के ऊपर डालते रहते हैं ...मछलियों की फ़िक्र किसे हैं .....जब दूसरे कितने ही बड़े बड़े मुद्दे ..कामन वेल्थ गेम्स ..टू जी स्पेक्ट्रम आदि हों तो फिर छोटी नन्ही मछलियाँ किसे दिखेगीं?
ऐसे में बस आपसे उम्मीद है ..आप जानते होंगे उस कहावत के बारे में जिसके अनुसार जिस महीने (के नाम) में आर (R ) हो केवल उसमें ही मछली खानी चाहिए ...एक कहावत इसी धारणा से उपजी कि मछलियों को उनके प्रजनन काल मई से अगस्त तक नहीं मारना चाहिए ...और सितम्बर से अप्रैल तक (आर महीने ) जब इनका प्रजनन नहीं होता इनका शिकार किया जा सकता है ....और यह भी सही है कि प्रजनन काल में इनके मीट(फिलेट ) की क्वालिटी भी अच्छी नहीं होती ..वह ढीली हो चुकी होती है और फ्लेवर भी उम्दा नहीं होता ....मछलियों के संरक्षण के लिए एक बड़े जन जागरण की जरुरत है! आप अगर मत्स्य भोजी हैं तो यह दरख्वास्त सबसे पहले आप से है!
जवाब देंहटाएंएक अनूठी और आवश्यक विषय पर लिखी आपकी इस पोस्ट का स्वागत है ...
मैंने आजतक इन छोटी मछलियों को बचाने के लिए कोई पोस्ट नहीं पढ़ी !
यह जानकार आश्चर्य हुआ की नदियों से मछलियाँ लगभग गायब हो गयी हैं , प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने के लिए हम लोग , राक्षसों की भूमिका अदा कर रहे हैं और भरपूर सफल भी हैं !
मछली तलकर खाइए और डकार मार सो जाइए क्या फर्क पड़ता है ....
vah keya lekha
जवाब देंहटाएंजागरूक करने वाली पोस्ट। अगर एक-दो साल के लिये मछली खाने से सन्यास लेकर उतना समय नदी-जल-स्वछता अभियान में लगाया जाये तो कैसा रहे?
जवाब देंहटाएंबस अभय-दान ही!! मात्र अभय-दान!!
जवाब देंहटाएंसच कहा आप ने कि बड़े -बड़े मुद्दों के आगे इन नन्हें जीवों की फ़िक्र किसे है.
जवाब देंहटाएंइस लेख से जो तथ्य ज्ञात हुए हैं वह चिंताजनक हैं.मनुष्य के अदूरदर्शी और स्वार्थी होने का प्रमाण है.मैं शाकाहारी हूँ इसलिए सिर्फ प्रार्थना ही कर सकती हूँ कि प्रकृति में जीव जंतुओं ,पेड- पौधे आदि का संतुलन बना रहे.
Ye jo pet hai na sabko nigalne ke baad bhi nahi bharta hai . Badhiya post , badhiya apeel , aabhar
जवाब देंहटाएंभाई हम तो किसी भी महीने में नहीं खाते . लेकिन आपका सुझाव अच्छा है . यदि इन मछलियों को बचाना है तो यह व्रत तो रखना चाहिए . लेकिन शायद आप गलत लिख गए हैं . मई से अगस्त होना चाहिए था . कृपया सुधार कर लें .
जवाब देंहटाएं@गिरिजेश ने कहा -
जवाब देंहटाएंजागरूक करता यह आलेख अच्छा लगा। आभार।
मत्स्य अधिनियम में जो अंक है वह इसके लागू होने का सन् है क्या
@@जी गिरिजेश जी १८९७ में यह अधिनियम जारी हुआ और कुम्भकर्ण बना हुआ है !
@डॉ .दराल जी ,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सुधार कर दिया गया है !
Badhiya likha hai aapne, aapki koshish rangat laye.
जवाब देंहटाएंमछलियाँ ही नहीं बहुत से जलचर नदियों से गायब हो चुके हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लेख ...हम तो किसी महीने में नहीं खाते ...चैन से इनको जीने दो ...यही कह सकते हैं
जवाब देंहटाएंएक आवश्यक जानकारी और सार्थक पोस्ट.ये R महीने वाली कहावत तो सुनी है. और कुछ नहीं तो कम से कम इसका पालन तो कर लेना चाहिए मछली खाने वालों को.
जवाब देंहटाएंहम तो वैसे भी नहीं खाते हैं, हमसे कोई खतरा नहीं है।
जवाब देंहटाएंलोग सावन में मांसाहार न करने की कहते हैं और इसके खत्म होने के अगले ही क्षण इनकी दुकानों पर आक्रामक ढंग से टूट पड़ते हैं. दिल और दिमाग के साथ जिह्वा पर भी नियंत्रण की आवश्यकता है.
जवाब देंहटाएंसभी महीनों में न खाएं तो भी क्या फर्क पड़ेगा ..... पर इन्सान का स्वाद का लालच उसे छोड़ता कहाँ है...हमने तो आज तक नहीं खाई ...एक अलग सी पोस्ट है ..जागरूक करती हुई...
जवाब देंहटाएंपंडित जी!
जवाब देंहटाएंविचलित करने वाली है यह पोस्ट.. मैं तो शाकाहारी हूँ.. किन्तु पिताजी से इस तरह की जानकारियाँ पाकर (प्रारम्भ में वे आपके ही विभाग में थे) हम लगभग वो सब देखते, सुनते, समझते थे.. कुछ महीने थे जब हमारे घर के लोग मछली नहीं खाते थे (घर के बाकी सदस्य मांसाहारी हैं),, शायद ये वे ही महीने रहे होंगे!!
मैंने तो गंगा को तबाह होते देखा है, कलकता के लोगों को आंध्र प्रदेश से आने वाली मछलियाँ खाते देखा है, जबकि स्वयं बंगाल में मछलियाँ तालाबों में पालने की परम्परा रही है!!
चिंतित करने वाला चिंतनीय विषय!!
यह तो बहुत चिंता जनक स्थिति है,जानकारी भरी पोस्ट.
जवाब देंहटाएंहम तो मतस्यभोजी नहीं है जी और ना ही हमारे कहने से कोई छोड़ेगा :(
जवाब देंहटाएंशाकाहारियों के लिए यह सब पढना , देखना ही तकलीफदेह है !
जवाब देंहटाएंछोटे बड़े सभी पारिस्थितिकी तंत्र आदमी के दखल के चलते टूट रहें हैं .मुंबई नगर तो इसी भूमि हड़प (चाहे वह फलता फूलता समुन्दर का किनारा हो,मेंग्रूव्ज़ का कुदरती आवास हो ,तभी तो मुंबई रोज़ जल समाधि लेता है )चिल्का झील हो या कुछ और .बँगला भाषी जल तुरई के लिए सचमुच में आन्ध्र का मुंह निहारे हैं .अपना फिलवक्त आवास मुंबई का नेवी नगर ,कोलाबा ही बना हुआ है यहाँ से लौटके बारास्ता दिल्ली मुंबई ही पहुंचना है .हमारी मैड बांग्ला देशी है सब्जी के साथ मिलाके आलू गोभी टमाटर के संग बेहतरीन सुस्वादु मच्छी बनाती है .उस जुबानी सारा वृत्तांत पता चलता है .अब तो सही में यही हाल है -पानी में मीन प्यासी रे ,मोहे सुन सुन आवत हांसी रे ....मछली जल की रानी है ,जीवन उस का पानी है ,हाथ लगाओगे डर जायेगी ,बाहर निकालोगे मर जायेगी .ये बाल कविता गंधाती नदी प्रणाली को देखते खतरे में पड़ने के पूरे आसार है .मत्स्य -अधिनियम क्या इस देश में किसी भी अधिनियम की पालना नहीं होती .इधर एक शार्क सबको चलाए है ,पांच साला रोबो पैदा करती है .राजनीति के समुन्दर पर इसकी बपौती है .ये पूरी तरह संरक्षित है चर्च का साया है .गुरु देव अच्छी चीज़ लाते हो .बधाई इस अप्रतिम पोस्ट के लिए .जीव हैं तो हम हैं .और फिर मच्छी घनत्व हमारी नदियों के स्वास्थ्य की नव्ज़ नहीं तो और क्या है ?आयल स्पील के अपने खतरे रहतें हैं .वो विदेशी जहाज हमने पूरे ६ महीने तक मुंबई के पोमिनेद पे तेल फैलाता देखा ही जो एक और वेसिल से टकराया था .तमाम अमरीकी क्लब ,नेवी क्लब समुद्र तट के साक्षी है जिन्होंने तेल सनी मछली की लाशें देखी हैं .
जवाब देंहटाएंमछली खाये मुझे कम से कम चार पांच साल तो हो गये हैं, इस बीच काफी मछलियां फल फूल गई होंगी :)
जवाब देंहटाएंएक अलग विषय को सामने रखता सार्थक आलेख।
`जिस महीने (के नाम) में आर (R ) हो केवल उसमें ही मछली खानी चाहिए '
जवाब देंहटाएंअब बंगालियों को यह बात कौन समझाएं बाबू मोशाय :)
सर बहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आपको बधाई |वन्य जीवों का जल जीवों का विलुप्त होते जाना वाकई चिंता का विषय है |
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख...
जवाब देंहटाएंबाकि मेरे बिहारी मित्रों द्वारा उत्साहित करने पर ही मैंने अभी हाल में ५-७ बार राहू खाई होगी.. अब लगता है गलत किया है.. .. वैसे पंजाबी मछली कम खाते है...
जवाब देंहटाएंजिस मछली(के नाम) में आर (R ) हो केवल वो ही खानी चाहिए?
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं.
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वैसे तो ध्यान रखता हूँ मई से अगस्त तक न खाने का... पर कल यह गलती कर बैठा... अब आप की पोस्ट पढ़ पछतावा हो रहा है... :(
...
अब तो गाँव में भी आन्ध्रा मछली ही बिकता है. नदी से मछली विलुप्त हो गयी है . आपने सही विवेचन किया है . उपयोगी पोस्ट
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