आज गुरु पूर्णिमा है .गुरु की पूजा और आराधना का दिन .भारतीय वांगमय में गुरु की अनंत महिमा गाई गयी है -कभी एक गुरुकुल प्रणाली भी हुआ करती थी जब वन उपवनों में गुरु के पैरों के सानिध्य में ज्ञानार्जन होता था -यह उपनिषदीय परम्परा थी -जिसका शाब्दिक अर्थ ही है नीचे बैठना ....लगता है उपनिषद काल तक गुरु का स्थान बहुत ऊंचा था जिसकी प्रतीति कालांतर की इस उक्ति से भी होती है -गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पायं ,बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय ...मतलब ईश्वर साधना बिना गुरु कृपा के संभव नहीं!गुरु बिन ज्ञान कहाँ से पाऊँ !
आज विगत की यह गुरु परम्परा केवल संगीत की दुनियां में ही देखी जा सकती है और वहां भी यह अपनी अंतिम घड़ियाँ गिन रही है ...बावजूद इसके कि एकलव्य प्रसंग में गुरु की निष्पक्षता कटघरे में आने का महाभारतीय काल का दृष्टांत सामने था बाबा तुलसी का गुरु समर्पण जहाँ अचम्भित करता है वहीं कबीर गुरु चयन के मामले में बहुत सावधान से दिखे हैं...वे आगाह करते हैं ....जाका गुरु है आंधरा चेला निपट निरंध अँधा अंधरो ठेलियो दोऊ कूप परंत....किन्तु तुलसी का गुरु समर्पण अपनी उदात्तता पर है, वहां भ्रम या संशय की कोई गुंजायश ही नहीं! वे गुरु को ईश्वर से भी ऊपर मानते हैं ...और मानस का प्रारम्भ ही गुरु की चरण वंदना से करते हैं -बंदऊँ गुरुपद पदुम परागा ,सुरुचि सुवास सरस अनुरागा .....वे गुरु की पद धूलि को अमृत तुल्य मानते हैं, नाखूनों को दिव्य प्रकाश वाली मणियाँ मानते हैं -गुरु के प्रति यह समर्पण और उसकी सहज स्वीकारोक्ति मैंने कहीं अन्यत्र नहीं देखी -हाँ गुरु का नाम छिपा जाने की गुरुता तो कितनी और कितनो की ही देखी है ...
यह सही है कि लोकजीवन में गुरु शब्द नए अर्थ अपनाता गया है ..अब गुरु का अर्थ है चालाक ,माहिर ,शाणा..'काहो गुरु...' की अभिव्यक्ति में यही भाव छुपा है ....लगता है महाभारत काल के बाद से ही गुरु पद संदेह के घेरे में आता गया ....जहाँ पहले गुरु कृपा बिना किसी मूल्य के ही होती थी ..बाद में वह कतिपय शर्तों और मूल्य के बंधन में आती गई..उपनिषदीय परम्परा को उपाध्यायी परम्परा ने तिरोहित किया ..जब शिक्षा सशुल्क बनती गई ..लगता है इसी सशुल्क शिक्षा ने समाज में गुरु के सम्मान का तिरोहण किया ....और आज तो गुरु की जो (महा)दशा समाज में है कुछ न पूछिए ..अब तो गुरु किसी के लिए एक असहज उपाधि सी हो गई है ....
आज गुरु शिष्य का सहज स्नेह-श्रद्धा का सम्बन्ध ख़त्म हो गया है ....विश्वविद्यालयों के गुरु अपने ही शोध छात्र की खून पसीने के मेहनत से मिले परिणामों को अपने नाम से छपा ले रहे हैं ..अनेक मामले प्रकाश में आये हैं....आज उस उपनिषदीय गुरु की परम्परा ही विलुप्त हो गई है -सच्चे गुरु का मिलना असम्भव सा हो गया है ....इससे बढ़कर किसी सच्चे शिष्य की क्या व्यथा हो सकती है कि उसके लिए कोई गुरु ही अप्राप्य है ....मगर कोई सच्चा गुरु कहीं अंतिम साँसे ले भी रहा हो तो उसे भी एक अदद सच्चे शिष्य की तलाश है जो उसे दगा न दे जाय ....आज गुरु घंटालों का ज़माना है तो मक्कार कृतघ्न शिष्यों की भी कमी नहीं है.....आज किसी ऐसी मैट्रिमोनियल सेवा प्रदाता सरीखी सुविधा की नितांत आवश्यकता है जो किसी सच्चे गुरु को सच्चे शिष्य से मिला सके ....मेरी अपनी आपबीती तो बहुत ही बुरी रही ..जब गुरु की जरुरत में दर दर भटक रहा था तो मन का गुरु नहीं मिला और जब गुरु की उम्र सीमा तक पहुंचा तो शिष्यों की ऐसी जमात मिली की तबीयत हरी हो गई ....दोनों जहां बर्बाद हुए .... :( ....दोनों जहाँ तेरी मुहब्बत में हारकर वो जा रहा है कोई शबे गम गुजार कर ....!)
वैसे सीखने के लिए कोई उम्र बड़ी नहीं होती और गुरुओं की न ही कोई कमी -एक ऋषि हुए हैं दत्तात्रेय उनके तो २६ पशु पक्षी गुरु थे... शायद शिष्यत्व भाव ज्यादा मायने रखता है बनिस्बत इसके कि गुरु कौन है ...एकलव्य प्रसंग भी शायद यही इंगित करता है ....किन्तु यह नहीं होना चाहिए कि किसी गुरु को शिष्य धोखा दे जैसा कि कर्ण ने परशुराम को दिया था ...और श्राप ग्रस्त हुआ था ...गुरु भले अपनी गुरुता छोड़ दे मगर शिष्यत्व का अभाव नहीं होना चाहिए ....हमारी बोधकथाएँ भी यही संकेत करती लगती हैं !
वैसे सीखने के लिए कोई उम्र बड़ी नहीं होती और गुरुओं की न ही कोई कमी -एक ऋषि हुए हैं दत्तात्रेय उनके तो २६ पशु पक्षी गुरु थे... शायद शिष्यत्व भाव ज्यादा मायने रखता है बनिस्बत इसके कि गुरु कौन है ...एकलव्य प्रसंग भी शायद यही इंगित करता है ....किन्तु यह नहीं होना चाहिए कि किसी गुरु को शिष्य धोखा दे जैसा कि कर्ण ने परशुराम को दिया था ...और श्राप ग्रस्त हुआ था ...गुरु भले अपनी गुरुता छोड़ दे मगर शिष्यत्व का अभाव नहीं होना चाहिए ....हमारी बोधकथाएँ भी यही संकेत करती लगती हैं !
कहने को तो बहुत कुछ है ...आज गुरु पर्व पर सोचा ये कुछ बातें आप से साझा करूं!
इस दिन आप अपने उस गुरु के बारे में भी कुछ चर्चा क्यों नहीं करते जिसने आपके जीवन में सबसे ज्यादा असर डाल।
जवाब देंहटाएं@उन्मुक्त जी ,कोई हो तब करूं न ..इस मामले में बड़ा दुर्भाग्य रहा मेरा!
जवाब देंहटाएंमैं अपने पिता जी को ही अपना गुरु मानता हूँ -उनकी चर्चा का अलग स्लाट है !
bahut hee uttam prasang hai!
जवाब देंहटाएंगुरु -शिष्य परम्परा पर बेबाक चिंतन.
जवाब देंहटाएंशायद काल-अनुरूप कोई बेहतर परम्परा विकसित हो रही है. उपनषिद का शाब्दिक अर्थ, हम तो गुरु के पास या निकट बैठना मानते हैं, आपके सुझाए अर्थ को जांचने की कोशिश की है, लेकिन आश्वस्त नहीं हो सका हूं अभी तक.
जवाब देंहटाएं@राहुल जी ,
जवाब देंहटाएंमहाभारत के एक आख्यान के अनुसार राजा वेणु के हाथ के मंथन से एक काला कलूटा पुरुष उत्पन्न हुआ जिसे उपेक्षित भाव से निषद -नीचे बैठना ..कहा गया जो कालांतर में निषाद कहलाये ...
उपनिषद की व्युत्पत्ति भी संभवतः यही है ....नीचे बैठना ...अब कोई गुरु के सानिध्य में उसके सिर पर थोड़े बैठेगा ..चरणों के पास ही तो बैठेगा ....आप तो स्वयं विज्ञ हैं!
जवाब देंहटाएंगुरुदेव नमस्कार !
आजकल मक्कारों और नक्कालों की दुनिया में आप गुरु ढूँढने निकले हैं तो बेहतर होगा कि आप अपने ज्ञान में ही संतोष अनुभव करलें अथवा कल्पना गुरु को ही ह्रदय में बिठा कर ध्यान लगायें !
कहीं ऐसा न हो कि कुछ समय बाद पछतावा होने लगे कि जिन्हें गुरु बनाया, वे तो गुरु घंटाल निकले !
जहाँ तक शिष्यों का सवाल है एक शिष्य आपकी सेवा में प्रस्तुत है अगर पसंद आ जाए तो गुरु कृपा से निहाल करें !
हार्दिक शुभकामनायें अगर अब भी गुरु ढूँढने की इच्छा हो ....
गुरु की जो (महा)दशा समाज में है कुछ न पूछिए... well said.
जवाब देंहटाएंthere lies a great scarcity of literally "good" teachers in our society. Its not like that such teachers don't exist at all. They do... but u can count them on figures. Hardly 1 or 2 teachers in your lifetime u will find dignified (provided that u r lucky) :)
Insightful post !!
जिसकी जैसी मानसिकता होती है, उसे वैसा गुरु मिल ही जाता है। अतः मन निर्मल रखें।
जवाब देंहटाएंसही लिखा है आपने आज कल के गुरु शिष्य के बारे में
जवाब देंहटाएंओशो कहते हैं कि गुरू के बिना,शास्त्र भी खूंटे से बंधी नाव जैसे हैं। शब्द अपनी जगह हैं,मगर उनका अर्थ समझाने वाला चाहिए। इन्हीं अर्थों में,मीरा ने "सत की नाव खेवटिया सतगुरू" कहा अर्थात्, सत्य की नाव ही काफी नहीं,उसे पार लगाने वाला कोई सतगुरू भी चाहिए। समर्पण का वह भाव जाता रहा और ज्ञान भी अब डिग्री अथवा रोज़गार के अर्थों में सिमट कर रह गया है। पूरब और पश्चिम के बीच का असली भेद गुरू के होने-न होने का ही है।
जवाब देंहटाएंगुरु की महिमा को आज के दिखावटी गुरुओं ने बिगाड़ कर रख दिया है | गुरु वही हो सकता है - जो सिर्फ सिखाना चाहता है - वह नहीं जो पैसे के बदले अपने ज्ञान को बेच रहा है | मैं खुद भी शिक्षण के क्षेत्र में हूँ , बच्चे बहुत रेस्पेक्ट देते हैं टीचर्स को यह देखती हूँ , किन्तु मैं खुद को या अपने संगियों को भी "गुरु" की श्रेणी में नहीं मानती - क्योंकि गीता में कहा गया है कि - तू जिस भी कर्म को मुझे समर्पित कर के करेगा - वह तो निस्वार्थ कर्म है, संचित है - किन्तु जिस कर्म को तू किसी फल के लिए करेगा - उसका असर उस फल के मिलते ही पूर्ण हो जाएगा |
जवाब देंहटाएंजैसे - * कोई एक मजबूर अपंग भिक्षुक को इसलिए भीख दे कि आस पास वाले उसे महान समझें - तो उसके कर्म का असर उसी वक़्त पूरा हो गया | * यही कोई और मृत्यु के बाद होने वाले फायदे को सोच कर करे - या कि "तू एक रूप्या देगा तो मालिक तोहे दस लाख देगा " की गरज से करे - तो उसका फल मिलने के बाद वह कर्म प्लस माइनस जीरो | * किन्तु कोई उसे इसलिए दे कि वह भिखारी ज़रूरतमंद है , उसकी ज़रुरत देने वाले को सच्ची लगी (फिर भले ही भिखारी खुद एक फ्रौड़ क्यों न हो) तो ही वह निष्काम कर्म होगा |
आचार्य वाशिष्ठ ने जब राम को शिक्षा दी - तो गुरुदक्षिणा के लिए नहीं | जब द्रोण ने शिक्षा दी तो गुरुदक्षिणाके लिए | यह फर्क है गुरु और गुरु में | आज जब हम (मैं भी) टीचिंग जॉब करते हैं - तो ज्ञान देने के लिए नहीं - हम महीने के अंत में सैलरी लेते हैं | मैं यह नहीं कह रही कि सैलरी लेना बुरा है - यह भी एक जीविका उपार्जन का साधन है - जैसे दूसरे साधन हैं | किन्तु यह टीचर "गुरु" कहलाएगा क्या? सैलरी न ले कर भी कुछ लोग गलियों में बच्चों को पढ़ाते हैं | वे सच्चे गुरु हैं |
वक्त के साथ सबकुछ बदलता है.परम्पराएं भी.
जवाब देंहटाएंअनुभवों से बढ़ कोई गुरु होता है क्या ? .. कटु अनुभव मतलब "गुस्से वाले गुरु जी" (दिल से बुरे नहीं हैं) , मीठे अनुभव : "गुरु जी खुश हैं"
जवाब देंहटाएंमेरे ख़याल से लफडा तब होता है जब हम "गुरु जी" (अर्थात अनुभवों) से सीख नहीं लेते
जवाब देंहटाएंहैप्पी गुरु-पूर्णिमा :)
गुरू में 36 गुण होने अनिवार्य है और शिष्य में मात्र दो…विनय और ज्ञानार्जन की कामना!!
जवाब देंहटाएं@ अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंसामान्यतः गुरु शब्द से वज़न / श्रेष्ठता का बोध होता है ! अब इसे ज्ञान से जोड़कर देखें याकि घंटाल से अथवा (गुरु)डम से !
बहरहाल माइनस कहें या प्लस , दोनों ही दिशाओं में इसका कोई जोड़ / सानी नहीं है !
तबियत हरी करने वाले शिष्यों को श्राप नहीं देकर आपने सतगुरु की लाज रखली !
सही लिखा है अरविन्द जी . गुरु शिष्यों के सम्बन्ध अब हर क्षेत्र में खात्मे की ओर हैं . दुःख होता है हालात को देखकर .
जवाब देंहटाएंभीतर अगर शिष्यत्व हो तो गुरु के दर्शन हर जगह होते हैं। शिक्षा और गुरुता के कई स्तर होते हैं और अनुभूति के हर स्तर पर गुरु सदैव पूजनीय हैं। एक ही गुरु नहीं हो सकता । गुरु एक दीपक की तरह है जो रोशनी देता है चलना काम है शिष्य का ।
जवाब देंहटाएंगुरु और लघु का हमेशा युग्म रहा है , अगला व्यक्ति अगर गुरु है तो आप स्वतः लघु हो जाते हैं और उसकी गुरुता आपके लघुता के एहसास की मात्रा के समानुपाती होती है ।
जवाब देंहटाएंऒऎ.. तेरी की,
जवाब देंहटाएंईहाँ गुरुअई की बातें हो रहीं है,
अउर ऊहाँ गुरुअन का डाइभर्जीफिकेसन तेजी से चल रहा है..
क्रैश-कोर्स है जी, जो चाहिये चुन लीजिये मैनेजमेन्ट गुरु, हाई-टेक गुरु, योगा गुरु, भोगा-गुरु, हड़ताली गुरु, खड़ताली गुरु, ढीले-लँगोट गुरु, पहुँचे गुरु, गुरुओं के गुरु ... कहाँ तक गिनवायें ।
हम चुप्पै अपने उन गु्रुओं को स्मरण कर शीष नवा लेते हैं, जिन्होंनें मुझे यहाँ तक पहुँचाया कि अपनी अलग पहचान बन जाये ।
@शिल्पा मेहता
जवाब देंहटाएंशब्द शब्द से सहमत !
अभिव्यक्ति की सांद्रता रचना और ग़ज़ल में एक रिदम बनाए चलती है .कोई दूरी नहीं दोनों में -चाँद पे बस्ती बन गई तो बच्चा कैसे कहेगा -मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लूंगा ..शुक्रिया विद्या जी आप ब्लॉग पर आई .अक aa
जवाब देंहटाएंगुरु पर्व पर गुरु महिमा में जो कुछ कहा गया इससे आगे अब कहने को कुछ शेष नहीं है .अप्रतिमविंड भाई पोस्ट .विश्लेषण परख पारखी दृष्टि.शुक्रिया अरविन्द भाई .स्केनिंग इलेक्त्रों माइक्रो -स्कोप सी नजर रखतें हैं आप .
गुरु पर्व पर गुरु महिमा में जो कुछ कहा गया इससे आगे अब कहने को कुछ शेष नहीं है .अप्रतिम .अरविन्द भाई आपकी पोस्ट .विश्लेषण परख पारखी दृष्टि.शुक्रिया अरविन्द भाई .स्केनिंग इलेक्त्रों माइक्रो -स्कोप सी नजर रखतें हैं आप .
जवाब देंहटाएंअरविन्द भाई मुआफी चाहता हूँ मेरी टिपण्णी में दो स्टेशन एक साथ लग गए .कोपी करने में त्रुटी रह गई
सत की नाव खेवटिया सत गुरु भाव सागर से तारे .उधों मोहे संत सदा अति प्यारे .हम इस मामले में बड़े भाग्य शाली रहे .कक्षा १० के पहले की कोई छाप नहीं सिर्फ बैंत की मार याद है हाफ़िज़ साहब की (मुस्लिम स्कूल ,बुलंदशहर )या याद है कादिर साहब की पी टी .सूफिजी का पानदान जो वह कक्षा में भी ले आते थे उस दौर में (१९५८-५९ ).लेकिन उसके बाद इंटर -मीडिएट साइंस (डी ए वी इंटर कोलिज बुलंद शहर )में हिंदी -अंग्रेजी -रसायन शाश्त्र के बेहतरीन शिक्षक मिले .बाद उसके सागर विश्विद्यालय (सीधे यूनिवर्सिटी टीचिंग डिपार्टमेंट्स )में बी एस सी २ईयर में प्रवेश से एम् एस सी तक एक से बढ़ कर एक प्रभाव शाली शिक्षक मिले .हम ताउम्र उस स्तर न आ सके .कोशिश करते रहे उनके पद चिन्हों पर चलें .गुरु की प्रासंगिकता सार्वकालिक और सार्वत्रिक है .बहुत अच्छे लेख के लिए बहुत बहुत बधाई .शुक्रिया अरविन्द भाई .शिष्य भाव से जीनी के अपना लुत्फ़ोआनन्द है .
जब मैं था तब गुरु नहीं .........प्रेम गली अति सांकरी टा मैं दो न समाई .
पोस्ट तो मस्त है ही, टिप्पणियां भी बहुत रोचक हैं।
जवाब देंहटाएंगुरु पूर्णिमा के बहाने पहले तो आपने गुरु की विषद व्याख्या की,फिर उपदेश देते हुए आपने गुरु होने का लाभ भी ले लिया.वैसे आप 'गुरु-घंटाल' की श्रेणी में नहीं आते हैं !
जवाब देंहटाएंguruparv pe is jagat me avasthit sabhi guruon ko mujh balak ke taraf
जवाब देंहटाएंse hardik abhinandan...............
pranam.
@shilpa mehta
जवाब देंहटाएंवेतन लेकर पढ़ाना किसी प्रकार से गुरुता में कमी नहीं लाता। लेकिन वेतन लेकर न पढ़ाना या गलत शिक्षा देना जरूर गम्भीर बात है। ऐसे शिक्षम अधम होते हैं जो वेतन मिलने के बाद भी अपना काम नहीं करते। यदि आपको ऐसा अवसर मिला है कि आप अपनी जीविका की चिंता किये बिना अपने शिष्यों को ज्ञान दे सकते हैं तो इसमें कोताही नहीं होनी चाहिए। जो शिक्षक अपने छात्रों को समय की पाबंदी से पढ़ाते हैं उन्हें (वेतन के साथ) अत्यधिक सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
न गुरु मिले न गोविंद.... अब गुरुगंटाल की प्रतीक्षा है :)
जवाब देंहटाएंमैकाले का अनुसरण करेंगे तो इस तरह के पतन की पुनरावृत्ति स्वाभाविक है..
जवाब देंहटाएंbahut dneya vad aap mare blog ko sarake lekha muje aacha laga
जवाब देंहटाएंabhut sundar
बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ ,दी जो ज्ञान हरी गुण गाऊँ ,
जवाब देंहटाएंसब गुनिजन पे तुमरो .राज ,
.......
शुक्रिया गुरु देव .
वीरुभाई .
अति श्रेष्ठ चिंतन, शुभकामनाएं,
जवाब देंहटाएंरामराम.
गुरु पर्व पर शुभकामनाएँ...अच्छा चिन्तन!!
जवाब देंहटाएंआपके ज्ञान के आगे नतमस्तक हूँ . सदैव की भांति उत्तम पोस्ट.
जवाब देंहटाएंगुरु पौर्णिमा के अवसर पर बहुत ही सरस लेख । सांदीपनी ऋषि और उनके शिष्य आरुणि की एक कथा याद आ रही है । गुरु शिष्य की परीक्षा लेनेा चाहते थे । उन्होने आरुणि को खेतों की रखवाली की जिम्मेदारी दे दी आरुणी ने खेत की चारों तरफ मींड बनाना शुरु किया क्यूं कि बारिश के दिन थे । एक कच्चे बांध से खेतों के लिये पानी की व्यवस्था थी । एक दिन भयंकर बारिश और तूफान के चलते बांध टूट गया और खेतों में पानी घुसने लगा तो आरुणी ने बहुत कोशिश की कि वह बांध की दीवार को फिर बना ले पर हुआ नही तो वह स्वयं ही वहां लेट गया और शाम तक वहीं लेटा रहा पर खेत बचा लिये । शाम को आरुणि को ना पाकर गुरु ढूँढते हुए खेतों में आये तो उसे वहां अचेत पाया । गुरु आरुणि की इस गुरु निष्ठा से बहुत प्रसन्न हुए । तो ऐसे शिष्य भी थे । एकलव्य तो शिष्योत्तम था ही ।
जवाब देंहटाएंआप मेरे ब्लॉग पर आये बहुत अच्छा लगा ।
मै तो मेरी बडी ननद कुसुम ताई को ही गुरु मानती हूँ । उनसे मैने काफी कुछ सीखा है ।
जाका गुरु है आंधरा चेला निपट निरंध अँधा अंधरो ठेलियो दोऊ कूप परंत
जवाब देंहटाएं.....कबीर की वाणी है इस युग में भी शत- प्रतिशत सही !
मेरे विचार में गुरु हो तो चाणक्य की तरह ...
जे पर के अवगुण लखे, अपने राखे गूढ़,
जवाब देंहटाएंसो भगवत के चोर हैं, मंदमती जड़ मूढ़।
मंदमती जड़ मूढ़, करे निंदा जो पर की,
बाहर भरमें फिरे, डगर भूले निज घर की।
गंगादास बेगुरु पते पाए न घर के,
वो पगले हैं आप, पाप देखें जो पर के।
These were the lines I wanted to post which I miss ,regarding Guru .