रविवार, 6 सितंबर 2009

घर के अखबार की रद्दी ऐसे बिकी ...आप भी आजमायें यह फार्मूला !

ज्यादातर नगरीय मध्य वर्गीय लोगों की मासिक आर्थिकी में अखबार पर खर्चे का बजट शामिल है -मैं हिन्दी और अंगरेजी के दो अखबार मंगाता हूँ जिन पर कुल ढाई सौ का बजट प्रावधान रहता आया है ! छठे छमासे इन अखबारों की रद्दी गृह मंत्रालय द्वारा बेंच दी जाती है और गृह आर्थिकी के ओपेन बजट में यह आमद दर्ज नही होती . कहाँ जाती हैं मैंने कभी पूंछा और ही बताया गया है ! मुझे मालूम है कि महिलायें एक कुशल गृह-आर्थिकी विद और प्रबन्धक होती हैं इसलिए उनकी व्यवस्था पर कोई प्रश्न चिह्न उठाने का सवाल ही नही है ! मैं यह बात गृहणियों के लिए कह रहा हूँ -वर्किंग वूमन के बारे में मेरी कोई फर्स्ट हैण्ड जानकारी नही है ! ज्यादातर गृहणियों को वेतन भोगी गृह स्वामी द्बारा एक मुश्त वेतन राशि थमा दी जाती है और 'गृह कारज नाना जंजाला 'से राहत भरी मुक्ति पा ली जाती है -कोई भी कुशल गृह स्वामी यही आजमूदा नुस्खा अपनाता है और रोज रोज की घरेलू चिख चिख से बरी हो जाता है -वैसे मैं ऐसे भी सज्जनों को जानता हूँ जो पूरा वेतन भूल से भी अर्धांगिनी को नही सौपते -'जिमी सुतंत्र होई बिगहिं नारी ' और पैसे की इस मामलें में बड़ी भूमिका के प्रवचन के साथ एक मामूली सा वेतन का हिस्सा सहचरी को टेकुली सेंधुर के नाम सौंप देते हैं -और उसे क्या चाहिए सब सुख तो ऐसे सज्जन उसे देते ही हैं -यह अकाट्य (!) तर्क भी उनके पास रहता है ! बहरहाल यह तो विषयांतर हो गया !
मैंने जब यह ढेर दरवाजे पर देखा तो हतप्रभ रह गया

अब मुद्दे पर ! अभी उसी दिन दफ्तर से घर पहुँचा तो क्या देखा कि ठीक दरवाजे के सामने /बाहर रद्दी अख़बारों का जखीरा लगा हुआ है बिल्कुल असुरक्षित और बेपरवाह ! डोर बेल बजाने और दरवाजे को खुलने के साथ यही जानकारी मैंने गृह मंत्रालय से तलब की तो एक बहुत रोचक दास्तान सामने आयी जिसे आपसे साझा करने का लोभ संवरण नही कर पा रहा !

तो मेरे आफिस जाने के बाद उस दिन इत्मीनान से अखबार की रद्दी बेचने का अनुष्ठान और ब्राह्मणी द्वारा कुछ दान दक्षिणा पाने का भी प्रयोजन था -रद्दी वाला आया तो था मगर बात बनी नहीं .वह भी पक्का मोल तोल वाला निकला और गृह मंत्रालय तो इसमें पहले से ही निष्णात ! उसने कहा हिन्दी वाला वह रूपये किलो लेगा और अंगरेजी वाला पाँच में ! गृह मंत्रालय को एक तो इस पर कड़ी आपत्ति थी कि हिन्दी और अंगरेजी के भावों में यह भेद भाव क्यों और यह भी कि वह दरें बहुत कम लगा रहा था ! और जब रद्दी खरीदने वाले ने यह देखा कि गृह मंत्रालय के पास एक सही भार लेने वाली मशीन है तो वह फिर भाग ही खडा हुआ ! डील कैंसिल ! अब मुसीबत में गृह मंत्रालय ! इतना बोझ घर के बाहर तो गया फिर घर के भीतर लाना स्वच्छता आदि के लिहाज से मुनासिब नही था -फिर वह पूरा गट्ठर वहीं रह गया !

मगर यह दास्तान मुझे आश्चर्यजनक तरीके से काफी प्रफुल्लित होकर सुनायी जा रही थी और मुझे कुछ असहज सा लग रहा था ! मैंने कारण पूंछा कि आखिर इस विषम परिस्थिति में यह अकारण प्रसन्नता क्यों ? जवाब सुन कर मैं भी मुस्कुराए बिना और ब्राह्मणी को बधाई दिए बिना नही रह सका -आप भी धैर्य खोएं और सुनें ! किस्सा कोताह यह कि रद्दी खरीदने वाला फेरी वाला जब चला गया तो कुछ ही देर बाद एक बनारसी साडी बेचने वाला नमूदार हुआ और विस्मय के साथ उसने रद्दी के अखबारों की ढेर के मामले में पूंछा और उसमें से सात रूपये किलो देकर तीन किलो अख़बार ले गया साडियों के बीच लगाने के लिए ! वाह प्रति किलो तीन रूपये मुनाफा ! फिर आया धोबी उसने भी यह दृश्य देखा तो पहले से ही तय राशि पर दो किलो वह उठा ले गया इस्त्री किए कपडों की तह लगाने ! अगले दिन अल सुबह अखबार देने वाले ने जब यह खुली प्रदर्शनी देखी तो उसने कहा कि उसे माह जुलाई -अगस्त का अंगरेजी का पूरा अख़बार एक ग्राहक को चाहिए -वह भी सात रूपये किलो में उठा ले गया ! बची खुची प्रदर्शनी के बारे में पड़ोस के दरजी को पता चला तो वह उठा ले गया पहले से ही तयशुदा कीमत पर ! मतलब आर्थिक शास्त्र का एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत हो गया कि विक्रेता को भी फायदा और क्रेता को भी -बीच की एक कड़ी जो गायब हो गयी थी ! सच है खुदा जब देता है तो छप्पर फाड़ के देता है ! अब देखिये आगे यह रद्दी कैसे बेची जाती है ! दूसरे गृह मंत्रालय भी इस वाकये से फायदा उठा सकते हैं !
और ऐसे बिकती रही दिन भर अखबारों की रद्दी

हल्का फुल्का

45 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा है, व्हाट एन आईडिया सर जी।

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  2. सचमुच बढिया फार्मूला है .. पाठकों से साझा करना आवश्‍यक था .. रद्दी ऐसे भी बेची जाती है !!

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  3. होलसेल और रिटेल में इतना तो फर्क होगा ही। फिर रिटेलिंग आसान नहीं है। हम तो अदालत या बाजार जाते वक्त इन गट्ठरों को कार में लादते हैं और वहाँ एक गत्ता बनाने वाली फेक्ट्री की दुकान पर बेचते हैं। पहले वह छह रुपए किलो खरीदता था अब उस ने पौने छह का भाव कर दिया है। पर इस भाव में एक साथ रद्दी विक्रय बुरा नहीं है। इस में किसी भी तरह का यहाँ तक कि बुरी तरह इस्तेमाल किया हुआ कागज भी शामिल हो जाता है। बनारस में भी यह जुगाड़ जरूर होगा। बस पता करने भर की देर है।

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  4. हमारा तो फोकट में ही चला जाता है. काम वाली बाई कभी-कभी तो ढंग से 'सफाई' करती है. वैसे इतने लोग भी तो आने चाहिए घर पर. और घर पर कोई होना भी चाहिए दिन भर. हमारे हालात पर तो फिलहाल ये सिद्धांत काम नहीं करता लग रहा है.

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  5. बढ़िया है १००, १५०रुपये का शुद्ध लाभ हुआ

    हमारे पास भी एक जुगाड़ है जिसे दूकानदार महोदय ही इस्तेमाल कर सकते हैं
    हम पन्नी के बैग नहीं डेट और किताब का बण्डल बना कर देते हैं अखबार में लपेट कर सुन्दर सी पैकिंग कर देते है ग्राहक भी प्रभावित होता है और हर महीने के ३००, ४०० रुपये बच जाते हैं

    वीनस केसरी

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  6. भाई आप रहते कहां से जल्दी से पता लिखवाये, हम भी अपनी रद्दी ले कर आ रहे है..
    बहुत मजेदार, सच मै कमाल की बात है... ओर हमारी बीबी तो हंसे जा रही है...
    धन्यवाद

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  7. भाई लेकिन इसके लिये दिन भर दुकान खुली रखनी पड़ेगी ।

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  8. गुरुआनी जी से आग्रह है, कि वह सामान्य पेपर-क्राफ़्ट के ज्ञान का उपयोग करते हुये,
    दो तीन निर्बल वर्ग की महिलाओं को अखबार के लिफ़ाफ़े बनाना सिखला दें,
    जिसे बनारस में ठोंगा कहते हैं । आपके घर का कचरा निकल जायेगा,
    और उनकी कुछ ज़रूरतें पूरी हो जायेंगी ।
    कबाड़ी की किचकिच से मुक्ति अलग से ।

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  9. यह घटना तो बड़ी सुखद रही. अगले महीने से तो रद्दी-व्यापार में से रद्दी वाले की स्थायी छुट्टी करके सीधे धोबी, इस्त्री-वाला आदि से ही डील किया जाए. संभव हो तो एक साल की रद्दी का करार अडवांस में ही कर लिया जाए.

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  10. बेहद दिल्चस्प। मुझे नही पता था कि आप् इतना अचछी फ़ुलझ्डी भी लिखते है।

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  11. खूब छप्पर फटा आपके यहाँ तो. चलो बासी ही सही समाचार तो पहुँचे इनके पास भी.

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  12. बहुत नुक्सान हो गया..साढे छ के भाव बेच दी हमने तो..पहले लिखनी चाहिए थी ना ये पोस्ट ..
    रोचक रहा यह पढना भी..शुभकामनायें..!!

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  13. यहाँ तो बिकने का सिस्टम नहीं है...री साइकिल में निपट जाता है.

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  14. मेरे घर की भी रद्दी बिकवानी है। पता बताईये, आ रहा हूँ :)

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  15. वाह! मज़ेदार किस्सा

    लेकिन मुझे याद आता है बचपन में माँ ऐसा ही करती थी, शायद यह 40-42 वर्ष पहले की बात है। उस सूदूर निर्जन सरकारी टाऊनशिप में उन दिनों व्यवसायिक गतिविधियाँ शुरू ही हुईं थी।

    बिचोलिये तो अपना हिस्सा लेंगे ही :-)

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  16. मुझे काम करने वालियों की जानकारी है। वे अपना पैसा छूती ही नहीं हैं :-)

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  17. रोचक प्रविष्टि । मेरे छोटे से कस्बे में भी अंग्रेजी और हिन्दी के अखबारों की रेट अलग अलग है । एक रुपये का अंतर आ ही जाता है - पर यहाँ तो हिन्दी का अखबार ही सात रुपये में बिक जाता है ।

    मैं तो आर्थिक जुगाड़ के बारे में नहीं, पोस्ट के जुगाड़ के बारे में सोच रहा था - आप कम नहीं । वैसे ब्लोग का नाम सार्थक हुआ ।

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  18. हमने चेन्नई में अखबार बेचने चाहे तो रद्दी वाले ने हिन्दी ४ और अंग्रेजी ६ रुपये प्रति किलो बताया,

    हमने उसे कहा कि हमारे यहाँ दिल्ली में हिन्दी ८ और अंग्रेजी १० रुपये किलो बिकता है,

    वह सौदेबाजी के बाद हिन्दी ६ और अंग्रेजी ८ रुपये प्रति किलो में ले गया,

    उस पर भी मुग्गम में बिना तौले ही २० किलो ठहरा दिया,

    आगे से उसने हमारे अखबार खरीदना ही बन्द कर दिया,

    उसे घाटा हो गया था !

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  19. बेहतरीन है जी । वैसे ये सवाल अनुत्‍तरित है हिंदी अख़बार यहां भी सस्‍ता क्‍यों बिकता है रद्दी में । जबकि रद्दी अंग्रेजी अखबार के दाम ज्‍यादा । दिलचस्‍प बात ये है कि हॉकर हिंदी अखबार का बड़ा बिल बनाता है जबकि महीने भर में अंग्रेजी अखबार उससे कम पैसों में आ जाता है । ये कैसा गणित है जी ।

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  20. आदरणीय अमर कुमार जी की टिपण्णी को बेस्ट टिपण्णी का अवार्ड दिया जाए..

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  21. अमर कुमार जी के विचारों से सहमति.

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  22. डॉ अमर कुमार की बात पे गौर करियेगा डॉ साहब

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  23. BHAI HAMAARE DUBAI MEIN TO RADDI FENKNI PADHTI HAI ... ROCAK LIKA HAI AAPNE ....... DHANDHE KE NAYE GUR SIKHA DIYE AAJ ...........

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  24. अमर कुमार जी का सुझाव सही है !!

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  25. बहुत अच्‍छा अमर जी की टिप्‍पणी वाकई काबिलेतारीफ है

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  26. कहानी घर घर की, जितने लोग उतनी बातें, अब कोई यह न कह दे कि एक ठेला लेकर घर घर से 5 के भाव में खरीद कर 7 के भाव में बेचों 2 रूपये का शुद्ध लाभ। वैसे आईडिया बुरा नही है। :)

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  27. बहुत क्रियेटिव पोस्ट! मजा आ गया पढ़ने में।

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  28. यानि कि अब काम धंधा छोड कर रद्दी बेचनें में सारा दिन खोटी किया जाए:)

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  29. @स्मार्ट इन्डियन ,ये एडवांस वाला आईडिया धाँसू है !
    @ पंडित वत्स जी ये अपने आप रद्दी बिकती रही बिना उपक्रम के ! यह क्यों भूल रहे हैं ?

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  30. Raddi wala business UAE main hota hai nahin...
    varna yahan to har din ka ek newspaper 1.5-2 kilo ka hota hi hai..

    -- Sare akhbaar har week majbooran Dustbin ke paas rakh ke aane padte hain...mere shahar mein dubai ke tarah newspaper bins bhi to nahin hain..
    -is jaankari ka kya laabh uthaayen..

    [Transliteration kaam nahin kar raha..kya karen!]

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  31. मुस्कुराने का एक अच्छा मौक़ा देने के लिए धन्यवाद अरविन्द जी. बहुत रोचक पोस्ट के साथ पाठकों की टिप्पणियाँ भी रोचक लगीं.

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  32. ये बताइए कि रद्दी वाला, या बाकी वाला जो भी हों, का फोटो किसने खींचा? सोचने की बात है कि आपो इस अन्धेरगर्दी में शामिल रहे हो लेकिन बता नहीं रहे।
    अन्धेरगर्दी इसलिए कह रहा हूँ कि बनारसी ठग (रद्दीवाला, बाकी बनरसिए मुँह न बनाएँ) को भी ठग देना और क्या हो सकता है ! ससुरा भाव खा कर गया होगा कि कल अपने भाव पर सौदा कर लेगा वो भी अपने कुतराजू से तौल कर... लेकिन आप मियाँ बीवी तो उसके भी वस्ताद निकले..
    अतिरिक्त मूल्य (कम्युनिस्ट भाई लोग ध्यान दें !) को बचा कर रखिएगा। बनारस आने पर लंका की लौंगलता की पार्टी होगी..

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  33. @गिरिजेश भाई ,फोटुआ मम्मी के लाडले ने खींचा था ! मैं बीच में नहीं हूँ केवल तटस्थ श्रोता ही रहा पूरे घटना क्रम का और फोटो पाया तो पोस्ट विवरण के साथ टीप दी बस !
    और अब तो कहते हैं सिगरा चौराहे की लौंग लता खाने से सीधे सुरग ही मिलता है ! आईये वह भावातीत यात्रा साथ ही साथ की जाय!

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  34. देखो भईया.....ई धन तो सबको पियारा ही होता है......हमरी वाली को भी एही पियारा है.....कुडा से धन मिल जाए तो काउन ससुरा अयिसा नहीं करेगा....बाकी आपका पोस्टवा हमको भी अच्छा लगा.....!!झूठो का नहीं बोल रहे हैं ना.....!!

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  35. आपकी टिप्पणी स्वीकृति के बाद दिखने लगेगी......ee svikriti----vikriti kis baat kaa bhaayi.....ham koi galat kah gaye kaa......????...aap log naa jhootho-mootho darte hain....sab kuchh aanaa-jana hai.....!!

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  36. वाह यह हुई न सुघड़ गृहणी :) आगे से रद्दी बेचते वक़्त इस पोस्ट को ध्यान में रखा जाएगा :)

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  37. बहुत ही दिलचस्प और बढ़िया पोस्ट! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!

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  38. ये सोचिये कि ब्लाग की रद्दी होती तो कितने में बिकता......
    अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...

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  39. मैंने यह पोस्ट अपनी गृहिणी को पढ़ा दिया है। देखें कितना सीख पायी हैं जेठानी जी का नुस्खा...। ये तौल करने वाली मशीन कैसे ली आपने?

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  40. वाह जी वाह ----पढ़ कर मज़ा आ गया। बहुत ही बढ़िया।

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  41. गनीमत, रद्दी में रद्दी ही निकलती रहे, क्‍योंकि बुक शेल्‍फ भी तो काफी जगह घेरे रहते हैं और किताबें फैली भी इधर-उधर रहती हैं.

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