मंगलवार, 18 अगस्त 2009

ताऊ के शोले में टंकी का सीन !

यह ताऊ ही कर सकते थे और उन्होंने कर भी दिखाया ! शोले फिल्म ने मानवीय संवेदना को इतना गहरे छुआ था कि दशकों बाद आज भी लोग उसकी अपनी अपनी तरह से याद करते रहते हैं -रामगोपाल वर्मा ने उसे आग केशोले के रूप में फिल्मांकित किया तो अब अपने ताऊ ब्लॉग के शोले का मूहूर्त करते भये हैं ! उनकी अपनी भरोसे की टीम है और वह यह प्रोजेक्ट पूरा कर भी लेगें -हमारी कोटिशः शुभकामनाएं है उन्हें ! मगर एक ख्याल रह रह कर मुझे परेशान कर रहा है कि वे ब्लॉग के शोले में किसे टंकी पर चढायेगें ! किसी ऐसे को जो टंकी पर चढ़ने में अभ्यस्त हो या फिर किसी नौसिखिये को ? भगवान उस ब्लॉगर को चिरंजीवी बनाए जिसने टंकी पर चढ़ने का ब्लागजग्तीय मुहावरा ही गढ़ डाला ! ब्लागिंग के आदि देव बताएगें ही कि आख़िर यह महान कल्पनाशीलता किसकी थी !

नवागंतुक ब्लॉगर मित्र जान लें कि टंकी पर चढ़ने के ब्लागीय मुहावरे का मतलब है ब्लॉग जगत छोड़ देने की धमकी देना -या ब्लागजगत से सहसा उदासीन हो उठना और इस आभासी दुनिया से वानप्रस्थ पर जाने की घोषणा कर देना /इच्छा जाहिर कर देना -बाद में भले ही यही से चिपके रहना -मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे की स्टाईल में ! शोले में धर्मेन्द्र के टंकी के सीन का तनिक सुमिरन कर लें ! यह लीला अनेक जन निपटा चुके हैं यहाँ तक कि ब्लॉग सम्राट तक भी -समीर लाल जी ने जब कहा था कि वे टंकी पर चढ़ने जा रहे हैं तो हमारे जैसे कितने ही भावुक ब्लागरों की रूहे काँप गयी थीं -बहरहाल वे मान गए थे ! ऐसे ही ज्ञानदत्त जी ने भी कभी ट्यूब खाली होने ,राजकाज की व्यस्तता आदि अन्यान्य बहानों से टंकी पर चढ़ने का मन बनाया तो हम लोगों ने उन्हें रोकने का हल्ला वैसे ही मचाया था जैसे युद्धिष्ठिर के नरक दर्शन से वापस होते समय उनके बन्धु बांधवों ने ! हे तात तुम चले गए तो फिर से नरक की बदबू और प्रेतिनियों की प्रताडनाएँ झेलनी होगीं ! और उन लोगों के कहने ही क्या जो बिना बताये धीरे से टंकी पर जा चढ़े और अभी भी चढे हुए हैं उतरते ही नहीं ! उन महान संज्ञाओं का नाम लेकर उन्हें सर्वनाम क्यों करुँ -जानकार लोग जानते ही हैं !

कुछ लोग यह कभी नहीं कहते हुए या सुने गए कि वे भी टंकी पर चढ़ जाने का इरादा और माद्दा रखते हैं जैसे दिनेशराय द्विवेदी जी और अपने आदिम ब्लॉगर अनूप शुक्ल जी ! भले ही इनके मन ने कितने ही आवर्त विवर्त झेले हों मगर मर्दानगी बरकरार रखी ! मेरे लिए तो यही अनुकरणीय ब्लॉग जन हैं ! कुछ ने ब्लॉग जगत छोड़ा मगर अचानक ही एक सुबह नमूदार हो गए यहाँ और वह सुबह खुशनुमा बन गयी -जैसे अपने विवेक भाई !
पर लोग ऐसी मनःस्थिति में पहुँच कैसे जाते हैं -कई कारण है ! कुछ सवेदनशील तो कबीलाई माहौल की तू तू मैं मैं से अचानक बहुत संतप्त हो उठते हैं और सीधे टंकी की ओर भागते हैं -फिर उन्हें कुछ और नही दीखता ! टंकी तक पहुँच कर सरपट चढ़ भी जाते हैं ! लोग लुगाई हाथ मलते रह जाते हैं ! कुछ लोग /लुगाई बिना कहे ही दुःख कातर हो पानी पी पी कर ब्लॉग जगत को कोसते हुए मगर बिना बताये टंकी पर चढ़ कर प्रायः वही बने रहते हैं, हाँ. बीच बीच में चारा पानी के लिए चुपके से नीचे उतर आते हैं मगर लोग बाग़ देखे इसके पहले फिर टंकी -आरूढ़ हो जाते हैं !

हाँ यह तो विषयांतर हो गया -बात ताऊ के शोले की चल रही थी -टंकी पर चढ़ने का रोल किसे देगें वे -कोई गेस ?
क्यों नही वे रील लाईफ से किरदार चुनते ?-सुनते हैं कि अमिताभ बच्चन टंकी पर चढ़ने वाले हैं ! तो ब्लॉग जगत का अमिताभ बच्चन कौन ? ताऊ की मदद शायद कुश कर सकें ! उनका पटकथाओं आदि के लेखन में हाथ काफी खुल गया है ! मेरी गुजारिश तो है कि ताऊ मेरे जैसे अनुभवी को इस रोल के लिए ले लें -अभिनय ही तो करना है कौन ससुरा सचमुच टंकी पर चढ़ना है -इन दिनों मेरा मन भी कुछ उभ चुभ कर रहा है एक्टिंग से शायद कुछ शान्ति मिल जाय ! अगर मुझे वे न भी लें तो इतनी गुजारिश जरूर मान लें कि किसी नौसिखिये को तो बिल्कुलै टंकी का रोलवा न दें ! अब आप पून्छेगें काहें ? तो लीजिये इस पोस्ट के उपसंहार के रूप में भोजपुरी के प्रख्यात कवि पंडित चन्द्रशेकर मिश्र का यह संस्मरण सुन लें !

पंडित जी प्रायः सभी कवि सम्मेलनों में इसे सुनाते हैं ! कहते हैं जब उन्हें सायकिल सीखने का शौक छुटपन में चर्राया तो एक दिन कभी पैदल कभी कैंची (बिना सीट पर चढे फ्रेम में से टागें निकाल कर पैडल मारना ) वे एक बाग़ में सायकिल साधना करने लगे -आखिर अकस्मात सीट पर भी उछल कर आरूढ़ हो लिए ! उनकी खूशी का कोई ठिकना नही रहा जब उन्होंने देखा कि सायकिल बखूबी दौड़ पडी है ! वे सायकिल चलाना सीख चुके थे ! अभी उनका मन व् पैडल पर पैर कुलाचे ही मार रहे थे कि अचानक एक आशंका मन में उठ खडी हुयी -बन्दे चढ़ने को तू चढ़ गया अब उतेरेगा कैसे ? नौसिखियों के साथ अक्सर यही होता है और ब्लॉग जगत कोई अपवाद नही है -आव न देखा ताव बस चढ़ लिए ,उतरना मालूम ही नहीं ! मुझ जैसे अनुभवी के साथ यह लफडा नही आने को ..ताऊ आश्वस्त हो सकते हैं कि हम चढेगें भी सलीके से ( जानी ) और उतरेगें भी उसी ठाठ के साथ ! हमें यह हुनर मालूम है ! अब नौसिखिये चंद्रशेखर नही हैं हम कि उन्हें निर्जन बाग़ में चढे हुए घंटों बीत गए और ससुरी सायकिल ही उन्हें उतरने न दे !
मगर लोगों का क्या कहें वे नौसिखियों को ही तवज्जो दे देते हैं -ताऊ किसी नौसिखिये को तवज्जो दे दी तो जान लेना फिल्म में गतिरोध आ जाएगा हाँ ! मित्र हो चेताये दे रहे हैं !

31 टिप्‍पणियां:

  1. जानी /जिसके गले में थोड़ी सी डाल दोगे व्ही टंकी पर चढ़ जायेगा /अमा अपुन तो के रिये हेंगे चडाने के बाद उतंरने के लिए धन्नो कहाँ से लाओगे ,फिर एक अदद मौसी भी चाहिए ,कुछ मजमा भी चाहियेगा जिनसे वो कहेगा "गाव बालो मैं जा रहा हूँ ,भगवान् मैं आ रहा हूँ | वो तो सारी व्यवस्था करनी पड़ेगी ,एक ठो बसंती भी दरकार होगी -चलो करो तमाशा ,हम भी देखेंगे

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  2. क्यों नही वे रील लाईफ से किरदार चुनते ?-सुनते हैं कि अमिताभ बच्चन टंकी पर चढ़ने वाले हैं ! तो ब्लॉग जगत का अमिताभ बच्चन कौन ? ताऊ की मदद शायद कुश कर सकें

    बड़ा गजब का टंकी नामा रहा महाराज जी आनंद आ गया . लगता है बड़े बिग ब्लॉगर ही टंकी पर चढ़ते है अब अमिताभ बच्चन टंकी पर चढ़ने वाले हैं हा हा हा

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  3. टंकी और नौटंकी में केवल ‘नौ’ का अन्तर है। इसे करने पर क्यों तुले हैं भाई साहब? ज्ञानजी, समीर जी, विवेक भाई का नाम आपने लिया और एक ब्लॉग पर अपनी साथी लवली कुमारी जी को भूल गये। यह तो सख़्त ना-इन्साफ़ी है जी।

    आपकी बाकी प्रेत-प्रेतनियों के डर से जो कलेजा मुँह को अटका है शायद उसे दूर करने की कोई जुगत भिड़ानी पड़ेगी मुझे। एक तरीका ये है कि उनके बारे मॆं सोचिए ही नहीं । डर तो सोचने में ही लगता है।

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  4. डाक्टर साहेब आज तो वो मजा बांधा है, जो बहुत दिनों से इधर ब्लाग जगत में देखने को नहीं मिला। यह मजेदार लेखन है। मौज की मौज और बात कह ली सो अलग। लगता है बनारस में बरसात हो गई है।

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  5. @ सच द्विवेदी जी बनारस में बरसात हो गयी है -बड़ी ऋतम्भरा प्रज्ञा है आपकी !

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  6. वाह अरविंदजी ...आज का लेखने तो सचमुच मुझे बनारसी साहित्यिकों के ललित निबंधों की याद दिला गया। सच कहते हैं दिनेशभाई...मौज मजे में सब कह डाला। पर ऐसी अद्भुत दृष्टि के साथ!!!क्या खूब सोचा और क्या दूर तक देखा है आपने...
    संग्रहणीय लेख है...

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  7. टंकी पर चढ़ने का रिवाज किसने शुरु किया इस बारे में विद्वानों में मतभेद है। लेकिन सागर चंद नाहर पहले यादगार टंकी चढौवा रहे हैं। बाकी लोग जब-जब टंकी पर चढ़े हैं , उतरने पर उससे तेज बहे हैं।
    टंकी पर चढ़ने के तमाम कारण होते हैं। हरेक के केस में अलग-अलग! अब जब कोई टंकी पर चढ़ने के लिये धमकी देता है तो हंसी और दया दोनों आती है कि सहानुभूति और दिखावे के लिये इत्ता बेचारा हो लिया।

    लवली ने लिखना कम किया था। टंकी पर न चढ़ी थीं इसबार। अब कल ही एक पोस्ट लिख कर फ़िर बैटिंग शुरू कर दी।

    बकिया शोले की क्या कहें? वैसे इस वाली पोस्ट की लिखाई में अनीता कुमार जी का हाथ है।

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  8. आपके इस आलेख को उच्च साहित्यिक कोटि का माना जायेगा. बहुत लाजवाब अंदाज मे लिखा है आपने. अब हमारी ही शोले है तो आप कहो जिसको टंकी पर चढवा दें कोई मना थोडे ही ना करेगा. बस आप देखते जाईये कि कौन टंकी पर चढता है और कौन उतरता है. :)

    रामराम

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  9. हा हा हा हा हा हा हा हा क्या खूब चित्र खेंचा है शोले की टंकी का और क्या रिसर्च की है आपने इस विषय पर.....बेहद रोचक.....अब टंकी पर ताऊ जी किस को चड़ने का मौका देते हैं ये तो वक़्त हे बतायेगा..."

    regards

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  10. mujhe to pata hee nahee thaa ki itane log tankee par chad utar chuke hai !!!

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  11. ह्म्म ताऊ की शोले ने तो धमाल कर दिया…बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया आप ने

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  12. Aapki salaah kaabile gaur hai.
    Waise iska screanplay kaun likh raha hai? Lage haath bataana chaahoonga ki bande ki is baare men ek kitaab Hindi Sansthan se Chhap rahee hai. Tagra amount mile, to is baare men soch sakta hoon.
    Ha Ha Haaa.

    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  13. हम तो शीर्षक पढ़कर ही लेख की गंभीरता समझ गये। ;)
    ---
    ना लाओ ज़माने को तेरे-मेरे बीच

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  14. भगवान उस ब्लॉगर को चिरंजीवी बनाए जिसने टंकी पर चढ़ने का ब्लागजग्तीय मुहावरा ही गढ़ डाला ! ब्लागिंग के आदि देव बताएगें ही कि आख़िर यह महान कल्पनाशीलता किसकी थी !haha....


    वैसे किसकी थी ये creativity ???
    मुझे तो डर लगता है सो मैं तो नहीं चढने वाली टंकी पर :))

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  15. आप सब मित्रों का शुक्रिया।
    जब जब कोई ब्लॉगर टंकी पर चढ़ता है, मुझे सहर्ष याद किया जाता है। यानि भले ही यह मुहावरा मैने नहीं गढ़ा हो पर इस महान मुहावरे की रचना में सबसे बड़ा योगदान मेरा ही रहा।
    वह मैं ही हूं जिसने अरविन्द जी सहित अनेक चिट्ठाकारों को टंकी पर चढ़ने विषयक पोस्ट लिखने की प्रेरणा दी, मसाला दिया।
    कई बार बड़ी तकलीफ होती है जब कोई ब्लॉगर टंकी पर चढ़ने और उतरने की प्रक्रिया के दौरान मुझे याद भी नहीं करता। मैं अनुरोध करता हूं भई कि पोस्ट लिखकर समय बर्बाद करने की बजाय मेरी पोस्ट का लिंक ही दे दिया करो, ताकि टंकी पर जल्दी चढ़ा जा सके और बचे समय में सबको चैट में टंकी से उतारने का न्यौता दे सको। ( जैसे आज तक आप अपनी नई पोस्ट का लिंक दिया करते हो)
    एक बात की खुशी भी होती है कि चिट्ठाजगत का जब भी इतिहास लिखा जायेगा तब मेरे लिये एक पन्ना जरूर लिखा जायेगा।

    और अंत में यह रही वह महान पोस्ट :)
    अलविदा चिट्ठाजगत

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  16. वैसे इस बार बहुत दिन हो गये कोई चढ़ा नहीं टंकी पर.. :)

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  17. ये टंकी चिंतन भी खूब रहा :-)

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  18. आपकी इस प्रविष्टि ने तो जी हल्का कर दिया मेरा । ऐसा साहित्य भी रचा जा रहा है यहाँ - बहाना कुछ भी बन जाय - किसी का टंकी पर चढ़ जाना या उतर जाना ।
    साहित्य में हास्य का एक प्रकार है -स्नेहनहास । इसकी अंग्रेजी है Humour | यद्यपि अंग्रेजी के इस शब्द का हास्य के व्यापक अर्थ में भी व्यवहार होता है । स्नेहनहास सजल हास है, मुक्तक हास है । जितनी भी वक्रता, आकस्मिकता या कोणत्व - सबमें दिखती है एक प्रकार की हार्दिकता । तब आलोचना और उपहास के अवसर खो जाते हैं ।
    स्नेहनहास का कोई निहित लक्ष्य नहीं, कोई प्रयोजन नहीं । सच कहूँ तो यह आत्मनिवेदन है। निवेदन भी ऐसा, जिसकी नैसर्गिकता पर हम मुग्ध होने लगते हैं । आपकी किसी भी प्रविष्टि में यह तत्व अनायास ही सुलभ नहीं ?

    स्नेहनहास किसी दिख गयी गलती (किसी की भी ) या सीमा का विदूषक नहीं । यह तो आभ्यंतरिक प्रमाद को प्रदर्शित करता है । इसलिये ही तो इसमें एक वैयक्तिक नैतिकता होती है (श्री चन्द्रशेखर मिश्र जी के संस्मरण से आपने अपनी बात को नैतिक बनाया या नहीं ? ) । इसलिये आपका स्नेहनहास जो विनोद करता है उसमें स्वभाव की आवश्यक अभिव्यक्ति है, हार्दिकता की अनिवार्य प्रतीति है ।

    ज्यादा हो रहा है । यूँ लिखेंगे, तो सब गये - सबमें स्नेहनहास कहाँ ?

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  19. @सिद्धार्थ जी ,गौर से देखें मैं किसी को छोड़ने वाला नहीं -

    @यूरेका यूरेका -यह मुहावरा छुपे रुस्तम ई स्वामी का दिया है -सागर नाहर जी की ऊपर लिंकित पोस्ट पोर ई स्वामी की यह टिप्पणी -
    जैसे फ़िल्म शोले में धर्मेंद्र पानी की टंकी पे चढ गया था “अलविदा गांव वालों” वैसे “अलविदा चिट्ठाजगत” ना करें – नीचे आकर मुझे जरा आराम से बात समझाएं.
    किसी का दावा और हो तो बताये -नहीं तो इस ब्लॉग मुहावरे के जनक के रूप में ई स्वामी पक्के
    @ @हिमांशु जी आपकी यह व्याख्या मुझे आत्मानुशीलन को उकसाती है ! क्या कहूं ,शुभेच्छु हों तो ऐसे ! गुह्यम च गुह्यत गुणान प्रगटी करोत -इस तरह के पर - उत्साह वर्धन से आप बड़े हो जाते हैं ! मुझमें गौणता का प्रादुर्भाव हो जाता है !

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  20. आप ने apne lekh mein कहा--:
    ' मेरी गुजारिश तो है कि ताऊ मेरे जैसे अनुभवी को इस रोल के लिए ले लें -अभिनय ही तो करना है ....-इन दिनों मेरा मन भी कुछ उभ चुभ कर रहा है एक्टिंग से शायद कुछ शान्ति मिल जाय ! ....मुझ जैसे अनुभवी के साथ यह लफडा नही आने को ..ताऊ आश्वस्त हो सकते हैं कि हम चढेगें भी सलीके से ( जानी ) और उतरेगें भी उसी ठाठ के साथ!'

    ----वैसे ताऊ जी और अनीता कुमार जी पोस्ट देख कर जा चुके हैं और आप की गुजारिश नोट भी कर ली हो [??]
    --aur to aur अभिषेक मिश्र जी ने फोतोफुनिया से आप की मॉडलिंग वाली तस्वीर भी बना दी...[kal ki unki post mein]---
    अब इतने 'strong' प्रोफाइल को टंकी पर चढ़ने से कौन रोक सकता है?
    वैसे अगर रोल अब भी न मिले तो धरम जी के अंदाज़ में कहियेगा--
    'ये रोल मुझे दे दे ताऊ !'
    -----

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  21. पहली बार किसने प्रयोग किया तो पता नहीं पर मैंने ये शब्द शायद पहली बार तब पढ़ा था जब अनूप जी ने समीर लाल जी के टंकी आरोहण का समाचार सुनाया था. बढ़िया पोस्ट.

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  22. @नहीं अल्पना जी ,
    मैं तब गब्बर (ब्लॉग पर जब्बर ) की स्टाईल में कहूंगा की ये रोल मुझे दे दे ताऊ ! नहीं तो ......

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  23. मजेदार ...........इतने महान महान ब्लोग्स लिख रहे हैं तो अपनी तो क्या बिसात है .......... बहुत ही अच्छा लिखा .......

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  24. अद्भुत!!

    ससुरा, टंकिया पर पैर राखे खातिर जगहिये न होई अब तो!! के चढ़ी भीड़ भड्ड्का में. कई तो वहीं जा बसे हैं.

    कोई फूलसूंधा बदनी हो तो बात बने..हमारे आपके लिए नहीं रह गया यह रोल अब!!

    सागर नहारिय परम्परा के परिपालक युगों युगों तक पाये जायेंगे.

    सबके साथ आपको पढ़ हम भी एक छटाक हल्के हो लिए. आपका आभार. :)

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  25. यह टिप्पणी मेल से प्राप्त हुयी है-

    जब मित्रगन वैचारिक मतभेदों के कारन सामूहिक सार्थक प्रयासों की बलि चढा देंगे ..हम जैसे पूर्णकालिक टंकी आरोहित्त लोगों को वापस आना ही होगा ..सुन्दर पोस्ट :-)

    L.K.Goswami

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  26. हा हा .. वो भी क्या दिन थे नाहर भाई! :)
    हां जी ये मुहावरा मेरा ही दिया हुआ है!

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  27. ऊपर टिप्पणियों में पूछा गया है कि यह मुहावरा किसने गढ़ा ?

    तो नाहर जी के उसी लेख 'अलविदा चिठ्ठा जगत' पर e-swami की टिप्पणी देखें !

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  28. आपने भी क्या दिलकश समां बाँधा है
    दिल खुश हो गया पढ़कर !

    मुझे लगता है अब वक्त आ गया है -
    जाकिर भाई को टंकी पर परमानेंट बैठना पड़ेगा

    पहले टिकट लो फिर चढो !

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