संत कवि तुलसीदास तक भी रामचरित मानस के आरम्भ में ही खल वंदना के पुनीत कार्य को पूरे विधि-विधान और मनोयोग से निपटाते हैं -आईये उन्ही से कुछ सीखें ! रामचरितमानस की शुरुआत तो तुलसी धरती के देवताओं (महीसुर ) यानी ब्राह्मणों के च्ररण वंदन से करते हैं -बंदऊँ प्रथम महीसुर चरना --मगर कौन से ब्राह्मण ? -पोंगा पंडित नहीं बल्कि वे ब्राहमण जो "मोह जनित संशय सब हरना - यानि ऐसे ब्राहमण जो मोह /भ्रम से मानव मन में उपजने वाली सभी शंकाओं का समाधान कर दें -ऐसे ही ब्राह्मणों की तुलसी ने वंदना की -फिर गुरु और संतों की उपासना -वंदना की ! फिर वे किसकी वंदना करते हैं आईये उन्ही की लेखनी में देखें-
बहुरि बन्दि खल गण सतिभाये .जे बिन काज दाहिनेहु बाएँ
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरे . उजरे हर्ष विषाद बसेरे
{अब मैं सच्ची भावना से दुष्टों की वंदना करता हूँ जो बिना ही प्रयोजन ,
अपना हित करने वालों के प्रति भी प्रतिकूल आचरण करते हैं
(ब्लागवाणी प्रकरण को ध्यान रखें ) .दूसरों के हित की हानि ही जिनके दृष्टि में
लाभ है .जिन्हें दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है}
तुलसी का यह खल वंदना प्रसंग तो लंबा है मगर दुष्टों के कुछ और गुण -अवगुण तुलसी के ही शब्दों में यहाँ बताना चाहता हूँ -
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं .जिमि हिम उपल कृषि दलि गरहीं
बंदऊँ खल जस शेष सरोषा .सहस बदन् बरनई पर दोषा
{ वे दूसरों के नुक्सान के लिए उसी तरह अपने शरीर का त्याग भी कर डालते हैं
( ब्लागवाणी प्रकरण याद रखे ) जैसे ओला फसलों का नुक्सान करने में खुद गल कर नष्ट हो .जाता है
मैं दुष्टों की बंदना करता हूँ ,वे शेषनाग के समान हजार मुख वाले हैं और दूसरों के दोष
का अपने हजार मुंहों से वर्णन करते हैं}
अगर आप को रुचे तो यह पूरा प्रकरण और भी विस्तार से रामचरित मानस में पढ़ सकते हैं ! मुझे भी लगा कि मैंने अपने इस प्राण प्रिय ब्लॉग की अधिष्ठापना पर खल वंदना नहीं की थी ! सो अब ब्लॉग वाणी प्रकरण के बहाने ही उनका स्मरण कर लूं ! विनय करता हूँ कि क्वचिदन्यतोअपि को वे अपनी बुरी नजर से बख्श देगें ! मगर क्या सचमुच वे ऐसा करेगें ? ह्रदय कम्पित है ! क्योंकि -बायस पलिहै अति अनुरागा .होहिं निरामिष कबहुं न कागा
(कौए को कितने ही प्रेम -आदर से क्यों न पालिए ,
तरह तरह से उसकी सेवा सुश्रुषा भी कीजिये फिर भी
वह मैला खाना थोड़े ही छोड़ देगा ! )
ॐ शांतिः शांतिः
बिना खल वंदना के अपने गोबर पट्टी में कोई काम निर्विघ्न हो ही नहीं सकता . ...बिल्कुल सहमत.
जवाब देंहटाएंवैसे आपका कम्पित रहना स्वभाविक सा है. जो नहीं कम्पित हैं वे मौन तमाशा देखकर प्रसन्न हैं इसलिए हम बोल दिये. वरना अक्सर की ही भाँति हम भी मौन रह जाते.
ापके साथ बिलकिल सहमत हूँ ।हम जैसे अनजान लोगों के लिये तो ये बहुत बुरा हुया। मगर अभी भी आशा नहीं छोडी है शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंअरे वाह खल वंदना का इतना तात्कालिक लाभ -बालवाणी वापस आ गयी है -खुशी का लावा संभाले नहीं संभल रहा -बहुत बहुत आभार मैथिली जी और प्रिय सिरिल !
जवाब देंहटाएंआईये हम मिल कर खल वंदना करे -जो सद्य और तत्काल प्रभाव देने वाला है !
(E-mail )
जवाब देंहटाएंनमस्कार
आपकी बात कतई ठीक है।
वैसे भी डरना कायरों का काम है।
ब्लागवाणी से कोई ब्लाॅग नहीं वाणी बंद हो गई।
मतलब हम गूंगे हो गए।
अरे ब्लाॅग से ध्वनि प्रदूषण नहीं होता ओर ब्लाग में लिखे हुए को कोई मिटा नहीं सकता। अर्थात् कोई मुकर नहीं सकता।
ब्लाॅगवाणी की टीम से हम अनुरोध करते हैं कि बिना किसी देरी के इसे फिर से शुरू करने की कृपालता करें ।
धन्यवाद।
रमेश सचदेवा
एचपीएस सीनियर सैकंडरी स्कूल
शेरगढ (मंडी डबवाली)
क्या कहें? कभी कभी मौन भी बहुत कुछ कह जाता है.
जवाब देंहटाएंरामराम.
इस प्रकरण ने एक तरफ -हिंदी ब्लॉग्गिंग के एक अवयस्क भद्दे चेहरे को उजागर किया दूसरी तरफ bloggers ki संगठित शक्ति से भी parichay कराया जिस के कारण ब्लोग्वानी वापस aayi.
जवाब देंहटाएं[एक बात फिर साबित हुई ki मुफ्त की सेवाओं का उपयोग करना भी एक कला है!]
बहुत बढ़िया.
जवाब देंहटाएंॐ शांति।
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंलौट आयी ब्लॉगवाणी ... अंत भला तो सब भला ...!!
जवाब देंहटाएंक्लिनिक जाने में बिलम्ब हो रहा है,
लौट कर टिप्पणी करूँगा । यह पोस्ट पढ़ना और गुनना जरा ’ आराम का मामला है ! ’
अप से सहमत है जी, चलो अब सब खुशियां मनाओ ओर मैथिली जी और प्रिय सिरिल जी को धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया. गोसाईं जी को आपने कलिजुगी हिसाब से बहुत सही संदर्भ में याद किया है.
जवाब देंहटाएंआपको पढ़ कर मज़ा आगया, पहले पढी होने के वावजूद गोस्वामी जी की इस लाइन पर कभी ध्यान नहीं दिया, आपका आभारी हूँ इस तरफ ध्यान दिलाने के लिए ! वाकई मिश्र जी रोमांचित भी हूँ यह अनुभव कर कि हमारे ऋषि मुनि कितने उस काल में भी कितने व्यावहारिक थे !
जवाब देंहटाएंसाधारणतया देखने में आपका यह महत्वपूर्ण उद्धरण, सिर्फ एक व्यंग्य का पुट लिए सामयिक लेख ही लगता है , मगर मुझे लगता है कि यह आज का सर्वथा सत्य है , और खल बंदना नितांत आवश्यक है खास तौर पर सामान्य व्यक्तियों के लिए ! बंदना न करने की स्थिति में यह हज़ार मुखों से जहर उगलते आज भी देखे जा सकते हैं और किसी खलनायक के नाराज़ होने की स्थिति में, सामान्य एवं सीधे प्रकृति के आपके मित्रगण, आपको छोड़ने में ही अपनी भलाई समझेंगे !
आपके सुझाव पर कुछ लिखने की ध्रष्टता नहीं करना चाहता मगर आपसे अनुरोध है कि इस विषय पर खल वंदना से शुरुआत कर कुछ और विस्तार दें !