आखिर जो नहीं होना चाहिए वही शुरू हो गया ! चट्टाने दरक गयीं !ब्लॉग जगत के दो महनीय सर्व आदरणीय शख्शियतों में असम्वाद मुखर हो उठा ! जलजला आ ही गया समझो !और यह सब मौज लेने की फुरसतिया आदत के चलते हुआ ! हमलोगों की तरफ एक हिदायत भरी कहावत है -" हंसी हंसी में बडेर पड़ना" ! तो इहाँ बडेर पड़ गयी मानो ! वो गीता में एक श्लोक है -यद्यदा चरति श्रेष्ठः तद्देवो इतरो जनः ! मतलब श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण करते हैं बाकी जन वैसा ही अनुसरण करते हैं ! यह संकट की घडी है !
आईये मौज लेने की प्रवृत्ति की कुछ विवेचना का प्रयास किया जाय ! मनुष्यों में अन्य गुण दोषों के साथ यह एक नैसर्गिक प्रवृत्ति है -दूसरों का उपहास उडाना ! कुछ लोगों को खुद के सिवा दुनिया में सब कुछ असंगत ,अनुचित और अव्यवस्थित लगता है ! बचपन में यह प्रवृत्ति ज्यादातर लोगों में ठाठे मारती है -मगर आगे चल कर दुनियावी रीति रिवाजों को सीखते सीखते बहुतों में यह प्रवृत्ति लुप्त हो जाती है -मगर कुछ लोग फिर भी अपना पैनापन बनाए रहते हैं और हावभावों से विद्रोही ही बने रह जाते हैं -कबीर भी एक ऐसे ही विद्रोही रहे -मगर समय के साथ लोगों को यह लगने लगा कि कबीर का विद्रोह जायज है ,उसमें निःस्वार्थ और त्याग का सम्पुट है ! सत्य का तपोबल है -और उन्हें लोग बर्दाश्त करने लगे -कबीर बीच बाजार 'लुआठी' लेकर लोगों को अपना ही घर फूंकने को ललकारने लगे फिर भी लोगों ने कुछ नहीं कहा ,क्योंकि तब तक सब जान गए थे कि यह दिल का अच्छा इंसान है !
कबीर की परम्परा आगे चली -बड़े बड़े साहित्यकार -व्यंगकार हुए ! शौकत थानवी ,शरद जोशी ,हरिशंकर परसाई ,श्रीलाल शुक्ल आदि आदि -मौज लेने की इनकी भी बड़ी सात्विक प्रतिभा थी और इन्होने अपने मौज को ऐसा साहित्यिक जोड़ा जामा
पहनाया कि उसमें मौज लेने में परनिंदा और कटाक्ष का कुरूप भाव छिप गया और व्यंग हास्य के हंसमुख दूल्हे का ही रूप सामने आया ! जिसकी व्यापक जन स्वीकार्यता हुयी ! जानकार जानते हैं कई ऐसे साहित्यिक संस्कार-शिल्प और विधायें हैं जिनसे बात बन जाती है और किसी का दिल भी नहीं दुखाती -सीधी कड़वी बात को भी लक्षणा और व्यंजना में कह दी जाती है ! बुरी नहीं लगती ! और कहीं बडेर ( झगडा टंटा ) भी नहीं होता ! यह हुनर हमारे कई पूर्ववर्ती साहित्यकारों में सहज ही दिखता है ! मौज लेने की कोई सीमा रेखा तो होनी ही चाहिए ! मत भूलें कि हम यहाँ सार्वजानिक हैं ! निजी ब्लॉग की स्वतंत्रता की दुहायी दे दे कर दूसरों पर सतत चंचु प्रहार क्या उचित है ?
ब्लॉग जगत के नए घमासान में शायद व्यंग हास्य की उस सहज स्वीकार्य परम्परा का उल्लंघन हुआ लगता है -जिससे "शस्त्र न उठाने को " प्रतिबद्ध ब्लागजगत के भीष्म आज "जो हरिहू शस्त्र न गहाऊँ " की मुद्रा में दीख रहे हैं ! यह बहुत अप्रिय है ! दुखद है ! एक बहुश्रुत और सुचिंतित संस्कृत के श्लोक से बात पूरी करना चाहता हूँ -
सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात
न ब्रूयात सत्यम अप्रियम
Alarma sobre creciente riesgo de cyber ataque por parte del Estado Islámico
-
Un creciente grupo de hacktivistas está ayudando Estado Islámico difundir
su mensaje al atacar las organizaciones de medios y sitios web, una empresa
de se...
9 वर्ष पहले
अरविंद जी, मौज लेना एक कला है, इस में सिद्ध होना आसान नहीं। इस का सब से पहला पाठ है कि पहले खुद की मौज लो। जो खुद की मजाक नहीं बना सकता उसे दूसरे की मजाक बनाने का हक नहीं।
जवाब देंहटाएंहोली पर जो पहले पुत ले उसे ही दूसरे को पोतने का अधिकार होता है। मौज सिर्फ मौज के लिए ही नहीं होती, मौज में कभी कभी सामाजिक हित भी साधे जाते हैं। यहाँ तक भी ठीक है, पर जब हित व्यक्तिगत रूप से साधें जाएं तब मुश्किल होती है।
मौजी को पहले खुद को काला रंगना पड़ता है। जिस से उस पर कोई और रंग न चढ़े। पर मौजी का सबसे बड़ा गुण होता है कि उस में राग द्वेष नहीं होता। उस का इरादा हमेशा नेक होता है।
"चट्टाने दरक गयीं ! "
जवाब देंहटाएं"जलजला आ ही गया समझो !"
"मनुष्यों में अन्य गुण दोषों के साथ यह एक नैसर्गिक प्रवृत्ति है -दूसरों का उपहास उडाना !"
अरविन्द जी, आपकी इस प्रतिक्रिया की नींव तो पहले से ही पड़ गई थी. दीवार तो आज उठ रही है. दीवार भी इसलिए उठ रही है क्योंकि सीमेंट, बालू, ईंट वगैरह सस्ते में मिल रही हैं. लेकिन जल्दबाजी में उठाई गई दीवार मज़बूत कम ही होती है.
ज्ञान के बोझ से दबा हुआ आदमी सीना तानकर चलता है और सामने से आते लोगों को कुछ नहीं समझता. आपका भी वही हाल है. संस्कृत, रामचरितमानस और गीता-ज्ञान से दबे हुए हैं आप. यही कारण है कि बाकी किसी को कुछ समझते ही नहीं. कहीं कुछ हुआ नहीं कि एक ठो श्लोक लाकर पटक दिए सामने वाले के ऊपर. सामने वाला अगर चित हो जाए तो आपको अच्छा लगता है. विजय-मुस्कान के साथ आप उसे रगड़ देते हैं. लेकिन समस्या तब होती है जब आप आपके तथाकथित ज्ञान की काट तर्क से की जाती है. तब आप तिलिमिलाने लगते हैं और फिर श्लोक खोजने निकल पड़ते हैं.
आपकी यह पोस्ट उसी तरह का एक श्लोक है.
"ब्लॉग जगत के नए घमासान में शायद व्यंग हास्य की उस सहज स्वीकार्य परम्परा का उल्लंघन हुआ लगता है -जिससे "शस्त्र न उठाने को " प्रतिबद्ध ब्लागजगत के भीष्म आज "जो हरिहू शस्त्र न गहाऊँ " की मुद्रा में दीख रहे हैं !"
जवाब देंहटाएंक्षमा चाहता हूँ कि आपके लेख को पूर्णतया तो नहीं समझ पाया, लेकिन इतना जरुर समझा हूँ कि किसी ने किसी को साहित्यिक ठेस पहुचाई है, जो कि सरासर एक गलत बात है ! मैं एक और जहा आप की बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि किसी को भी कोई हक़ नहीं कि दूसरे का उपहास करे, मगर वही दूसरी और यह भी कहना चाहूँगा कि साहित्य अगर लिखा गया है और उसमे कही स्वस्थ ढंग से हास्य-व्यंग्य की गुन्जाईस है तो मेरे ख्याल से इसमें कोई बुराई नहीं ! आखिर साहित्य लिखा किस लिए जाता है ? मनोरंजन के लिए ! और अगर किसी के हलके फुल्के मजाक को हम दिल पर लेकर बैठ जाए तो मैं समझता हूँ कि उससे बेहतर है कि लिखो ही मत !
@शिव जी ,
जवाब देंहटाएंसीमेंट बालू ईटें कहाँ सस्ती हैं ? आसमान छू रहे हैं इनके दाम ! अब आपने मेरी ही मौज ले ली मगर अच्छा लगा ! ज्ञान के बोझ से दबा हूँ फिर भी सीना तान कर चल रहा हूँ -इस विरोधाभास को समझने में अब कमर भी टेढी हुई समझिये -हा हा !
आप आये अच्छा लगा ! आभार !!
हा हा हा..
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी, कमर टेढ़ी होकर समझ में आ जाए तो भी ठीक. नहीं आये तो बताइयेगा, एक पोस्ट ठेल दूंगा....:-) समस्या यही है कि बोल-चाल वाली हिंदी में लिखता हूँ इसलिए हो सकता है आपको समझ में न आये. लेकिन जो है सो है. अब संस्कृत की जानकारी नहीं है मुझे. आप तो बड़े हैं. थोड़ा एडजस्ट कर लीजियेगा......:-)
dr arvind mishra
जवाब देंहटाएंSeptember 19th, 2009 at 10:22 am
आपकी बात से पूर्ण सहमति -मात्र डिग्रियां ही किसी को विषयगत पारंगतता की गारंटी नहीं देतीं !
http://paricharcha.myindiya.com/opinion/2009/1398
लेकिन समस्या तब होती है जब आप आपके तथाकथित ज्ञान की काट तर्क से की जाती है
हमें क्यों ऐसा लग रहा है की आप भी मौज ले रहे है जी .......वैसे आखिरी में लिखे श्लोक का अर्थ क्या है जी
जवाब देंहटाएं@डॉ.अनुराग -सत्य बोलें ,प्रिय बोलें किन्तु अप्रिय सत्य मत बोले !
जवाब देंहटाएंसच है ,ठीक कहा आपने । जीवन का पूर्वाग्रह व्यक्ति को न जाने कौन से दिन दिखाता है । उसे देखने के लिये सामर्थ्य उसी के पास होता है । जिसका विवेक सही तरीके से काम करे । मौजा ही मौजा में यदि कहीं से सीमा का उल्लंघन जान बूझ कर बार - बार करना कहां तक उचित है । इसे बखूबी बयां किया है आपने --
जवाब देंहटाएंन बचा बचा के तु रख इसे
तेरा आईना है वो आईना
कि शिकश्ता हो तो अजीज तर
हो निगाहे आईना-साज में ।
शारदीय नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं
....जलजला आ ही गया समझो !और यह सब मौज लेने की फुरसतिया आदत के चलते हुआ ! पढ़ लिये हैं! लेकिन जबाब देने की कोई आवश्यकता नहीं महसूस कर पा रहे हैं। पढ़ लेने की सूचना इस लिये दे दिये ताकि आपकी उत्सुकता कम हो कि हमारी प्रतिक्रिया क्या है इस पर!
जवाब देंहटाएं@अनूप जी ,यह तो देख लिया है और देख लेगें जैसा कुछ सन्देश है ! हा हा हा !
जवाब देंहटाएंहोशियार चन्द से होशियारी ?
जवाब देंहटाएंअप्पड़िया ?
सत्य बोलें ,प्रिय बोलें किन्तु अप्रिय सत्य मत बोले
जवाब देंहटाएंयदि आपने जो ठेला है वो सत्य है तो फिर यह अप्रिय सत्य.....:)
शुरू हुआ संवाद फिर से विवाद का रूप लेता नजर आ रहा है...
जवाब देंहटाएंकुल-श्रेष्ठों से अनुनय ही कर सकते हैं हम बालकगण तो !
-सत्य बोलें ,प्रिय बोलें किन्तु अप्रिय सत्य मत बोले
जवाब देंहटाएं--saty vachan-
-आज ashish जी की पोस्ट पढ़ कर अंतर्जाल और ब्लॉगजगत के bhavishy के प्रति sanshay की sthiti है.
-ishwar हिंदी blog jagat को shanti और samridhi दे.
-shardiy navratron में यही prarthna kar lete हैं.
हम सब जानते हैं कि यह सब होना ही था, मौज तो मौज है सब बहा ले जाती है।
जवाब देंहटाएं---
तकनीक दृष्टा
यहाँ पर होशियारचन्द कौन है और होशियार किससे हो रही है मेरे समझ में नहीं आ रहा है:)
जवाब देंहटाएंआप बतायेगे ?
मौज, मौजी....
जवाब देंहटाएंते मौज्जां इ मौज्जां
वाह
सत्य ठेलने में का हर्जा . सही कथन
जवाब देंहटाएंजलजला आने में अभी वक्त है मित्र. अभी तो बस हवायें चल रही हैं. :)
जवाब देंहटाएंनवरात्रि की मंगल कामनाएं.
@पंकज मिश्रा
जवाब देंहटाएंहम भी इसी खुलासे का इंतज़ार कर रहे हैं की विवेक जी बताएं
की कौन होशियार चंद है और यी अप्पडिया क्या बला है जो
कुछ कुछ थप्पड़ मारने सा भाव दे रहा है -लप्पडिया सा !
मौज लेने की कोई सीमा रेखा तो होनी ही चाहिए ! मत भूलें कि हम यहाँ सार्वजानिक हैं ! निजी ब्लॉग की स्वतंत्रता की दुहायी दे दे कर दूसरों पर सतत चंचु प्रहार क्या उचित है ?
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत के नए घमासान में शायद व्यंग हास्य की उस सहज स्वीकार्य परम्परा का उल्लंघन हुआ लगता है -जिससे "शस्त्र न उठाने को " प्रतिबद्ध ब्लागजगत के भीष्म आज "जो हरिहू शस्त्र न गहाऊँ " की मुद्रा में दीख रहे हैं ! यह बहुत अप्रिय है ! दुखद है ! एक बहुश्रुत और सुचिंतित संस्कृत के श्लोक से बात पूरी करना चाहता हूँ -
आपके विचारों से १००%सहमत | जो हो रहा है वह वाकई दुखद है |
का बताएं अरविन्द जी! हमके त बुझाबे नहीं करता है कि ई बिलॉग जगत में रह-रह के धत्तेरे की-लत्तेरे की काहे होने लगता है. ख़ैर, का किया जा सकता है! सबका अपना-अपना बिचार है! वैसे ई जान के बढ़िया लगा कि आपकी कमर टेढ़ी हुई जा रही है. का भया इसका मतलब यही न, कि कमर में लचक आई जा रही है!
जवाब देंहटाएंअप्पडिया......कुछ कुछ थप्पड़ मारने सा भाव दे रहा है -लप्पडिया...
जवाब देंहटाएंवाह वाह...मजा आगया..कोई मद्रासी पढेगा तो हंस हंस के लौट पोट हो जायेगा.:)
रामराम.
मौज लेने की प्रवृत्ति की सच कहिये तो परीक्षा हो रही है इस वक्त ।
जवाब देंहटाएंआपने उपहास की बात की - सही है कि जहाँ हास विशुद्ध आनन्द या रंजन को त्यागकर प्रयोजन से जुड़ जाय वहाँ वह उपहास की राह पकड़ लेता है । किसी की उपेक्षा, या भर्त्सना का भाव लेकर बढ़ने वाला हास अगर सम्मुख तो वही उपहास कहलाने लगता है ।
और यह भी खयाल में रखिये कि उपहास में निन्दा ही नहीं हास की स्थिति भी अपेक्षित होती है । जहाँ एक प्रयोजन खड़ा हो जाय वहाँ न हास होगा, न उपेक्षा या तिरस्कार ही । बात ही बदल गयी ।
कितनी बातें की जा रही हैं, व्यवहार को लेकर । लड़कपन के सातत्य को लेकर । हम सोचें कि उपहास का विषय सामान्य होता है, व्यक्ति विशेष नहीं । कैसी मौज है जहाँ सब कुछ किसी एक या दो पर केन्द्रित हो गया है । मौज तो ऐसी हो कि जिसकी मौज ली जाय जब वह मौज के दर्पण में अपना बिंब देखे तो उसे यह संतोष रहे कि इस दर्पण में बहुतों का बिंब नजर आयेगा । सामान्यीकरण अभीप्सित है यहाँ । वाह रे प्रक्षेपित मौज !
सुना था कि उत्साह की एक विवेकशून्य तात्कालिकता होती है । समझ में आ रही है यह बात ।
प्रविष्टि के पीछे का आकुल-अन्तर देख रहा हूं । चट्टानें दरक गयीं कहने का प्रयोजन और क्या होगा सिवाय किसी टीस के - जिसे अभिव्यक्त करने का उपकरण न आप ढूँढ़ पा रहे हैं न कोई दूसरा ब्लॉग-पुरुष । भीष्म की प्रतीज्ञा भी भंग हो जाय - क्या वह कोई मौज होगी ? गैर जरूरी है यह मौज !
चिट्ठाजगत में तो ये तय करना भी मुश्किल हो गया है कि जो हम पढ रहें हैं...वास्तव में वो गंभीर लेखन है या कि उसमें भी किसी की मौज ली जा रही है।
जवाब देंहटाएंहमारे विचार से तो सबके लिए एक नियम बना देना चाहिए कि जो कोई भी पोस्ट लिखे,उसके शीर्षक में ही यह क्लियर कर दिया जाए कि ये पोस्ट मौज के लिए लिखी जा रही है या कि बिना मौज के:)
अकेली मत जइयो राधे जमुना के तीर
जवाब देंहटाएंओ जी ओ
तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा
हो रहेगा मिलन, ये हमारा
हो हमारा तुम्हारा रहेगा मिलन
ये हमारा तुम्हारा
अगर तू है सागर तो मझधार मैं हूँ, मझधार मैं हूँ
तेरे दिल की कश्ती का पतवार मैं हूँ, पतवार मैं हूँ
चलेगी अकेले न तुमसे ये नैया, न तुमसे ये नैया
मिलेंगी न मंज़िल तुम्हे बिन खेवैया, तुम्हे बिन खेवैया
चले आओ जी, चले आओ जी
चले आओ मौजों का ले कर सहारा, हो रहेगा मिलन
ये हमारा तुम्हारा रहेगा मिलन, ये हमारा तुम्हारा
भला कैसे टूटेंगे बंधन ये दिल के, बंधन ये दिल के
बिछड़ती नहीं मौज से मौज मिलके, है मौज मिल के
छुपोगे भँवर में तो छुपने न देंगे, तो छुपने न देंगे
डुबो देंगे नैया तुम्हें ढूँढ लेंगे
बनायेंगे हम, बनायेंगे हम
बनायेंगे तूफ़ाँ को लेकर किनारा, हो रहेगा मिलन
ये हमारा तुम्हारा रहेगा मिलन, ये हमारा तुम्हारा
मौज से शरू हुयी यह पोस्ट मौज से संपन्न की जानी चाहिए इसलिए @RS के लिए यह जवाबी गीत -
जवाब देंहटाएंजरा सामने तो आओ छलिये
छुप छुप छलने में क्या राज़ है
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा
मेरी आत्मा की ये आवाज़ है
ज़रा सामने ...
हमें डरने की जग में क्या बात है
जब हाथ में तिहारे मेरी लाज है
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा
मेरी आत्मा की ये आवाज़ है
ज़रा सामने ...
प्रेम की है ये आग सजन जो
इधर उठे और उधर लगे
प्यार का है ये क़रार जिया अब
इधर सजे और उधर सजे
तेरी प्रीत पे बड़ा हमें नाज़ है
मेरे सर का तू ही सरताज है
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा
मेरी आत्मा की ये आवाज़ है
ज़रा सामने ...
मौज पर एक गीत ये भी है
जवाब देंहटाएंएक प्यार का दरिया है, मौजों की रवानी है
जिंदिगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है.
बहुत खूब ...का मिसर जी .....मौजों की रवानी है एक प्यार का दरिया है...इहां मौज मौज में जाने डूबी कतनों की लुटिया है...मुदा लोटा हो कि लुटिया ..डूबता न न है...
जवाब देंहटाएंमेरा ऐसा विश्वास है कि हिन्दी ब्लॉग जगत की चट्टानें, यदि वास्तव में ऐसी कोई चीज अस्तित्व में है तो, दरकने वाली नहीं हैं। वैसे इस बौद्धिक और जीवन्त अनुष्ठान में पाषाण जैसी किसी वस्तु की कल्पना मैं नहीं कर पा रहा। यदि पाषाण सदृश कोई शक्ति यहाँ है तो दरक जाय वही अच्छा है।
जवाब देंहटाएंयहाँ तो समुद्र के भीतर कुछ ऊँची लहरें उठती-गिरती दिख रही हैं। लेकिन उन्हें अभी ‘सुनामी’ टाइप कुछ नाम देना ठीक नहीं है। ज्वार-भाटा की सामान्य प्रक्रिया ही लगती है यह। वैसे भी जहाँ चार बर्तन रहेंगे और नित्य प्रयोग किए जाएंगे तो आपस में टकराकर खनकेंगे ही। धातु का गुण यदि है तो...। अचानक ये रबर के तो हो नहीं जाएंगे।
मुझे तो अच्छा लगा जब मैने देखा कि सबकी उत्सुकता को भेदती हुई रचना जी प्रस्तुत हुईं और अपनी उसी तीक्ष्णता से संधान को उद्यत दिखीं।
आपकी हाइपोथेसिस के उलट मैं तो यह सोच रहा हूँ कि हिन्दी ब्लॉगिंग का शैशव अब जा रहा है, तरुणाई आने वाली है और गरीब की बेटी की तरह जल्दी ही यह जवानी की दहलीज पर कदम रख देगी। आजकल की घटनाएं मुझे मात्र साँप के केंचुल छोड़ने जैसी लग रही हैं।
शुभ-शुभ बोलिए जी, नवरात्रि के अवसर पर कुछ गड़बड़ तो हो ही नहीं सकती। उधर ईद का जश्न भी दस्तक देने वाला है। बस एक सावधानी बरतिए कि जब दुर्गा जी रणचण्डी का रूप धरकर ब्लॉगजगत के कुंठासुरों का संहार करने निकलें तो किसी भले मानुष द्वारा गलतफ़हमी में उनका अनादर न हो जाय। उस क्रोध को बचा लीजिए तो आगे सब कुछ ठीक ही होगा।
मेरा पसन्दीदा श्लोकसूत्र:
सत्यम शिवम् सुन्दरम्
मौज ले लेकिन किसी का दिल दुखा कर नही, कया हम कही भी मिलजुल कर नही रह सकते? नही मै ऎसे किसी भी व्यक्ति के संग नही जो अपने अंह के लिये दुसरो का मजाक उडाये ओर मोज लै,ऎसे लोगो से अपनी तो राम राम दुर से ही भली, मेने आज तक ब्लांग जगत मै ्दो तीन को छोड कर किसी को नही देखा, लेकिन मेरे लिये सब प्यारे है, इस लिये छोडो यह मन मुटाव,ऎसा मजाक जो दुसरो को चुभे, मत करो ऎसी बाते, ब्लांग जगत को एक परिवार सा पबित्र ही रहने दो.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सिद्धार्थ जी की बात ही ठीक प्रतीत होती है:
जवाब देंहटाएंशुभ-शुभ बोलिए जी, नवरात्रि के अवसर पर कुछ गड़बड़ तो हो ही नहीं सकती.
-यूँ भी मैं शुद्ध क्षमा मांग चुका हूँ, आपने देखा ही. तो बात तो खत्म ही समझिये. दरकन कैसी-फिर फेविकोलनुमा आप हैं ही..दरकने देंगे भला? :)
मौज लें मौजा पहनें
जवाब देंहटाएंसंग रहें अंग लगाएं
मौजे और मौज का
असली महत्व तभी
असल में जान पाएं।
अपने पर मनाने दें मौज
दूसरों पर मत मनाएं मौज
जूते पहने तों मत भूलें
पहनना मौजे को,
मौजे पहनने में भी
मजा लें जो आता है
जूता पहनने में।
जूता बचाता है पैर को
मौजा बचाता है पैर को
दोनों पैर को बचाने की
मौजा जूता मौज है।
जब गंभीर होने का करे दिल
तो मौजे जूते उतार दें और
पहन लें सैंडिल, पर यहां पर
सब मौज लेने वाले दिख रहे हैं
इतना आध्यात्मिक चिंतन
समझने वाले सिर्फ तीन।
वे तीन कौन हैं
फैसला बिना बीन बजाये करें
चलें तब तक तो हम
खुदे ही मौज करें।
मौज, द्वेष, जवाबी हमला, विवाद इन सबमे सिर्फ समय बिताया जा सकता है.. ब्लोगिंग में टिकेगा वही जिसका लेखन मौलिक हो..
जवाब देंहटाएंरचनात्मक कार्य ही अंतिम सत्य है और प्रिय भी..
:)ऐसा लग रहा है दोनों महानुभाव मौज ले कर बैठ गये , मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं और बाकी सब अपनी अपनी तरफ़ से अटकल लगाये जा रहे हैं कि क्या कह गये ये दोनों। इसे समझने के चक्कर में श्लोक, गीत सब आ गये। और वो विवेक जी जो इस सारी मौज के केंद्र थे, लगता है उनकी भी मिली भगत थी वो भी तो मुस्कुरा रहे हैं मानों गुनगुना रहे हों
जवाब देंहटाएं'हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है, अपुन कूऊऊछ नहीं बोलेगा'
अब जब गीतों का समां बंध गया है तो एक गीत हमारे जेहन में घुमड़ रहा है
छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी, नये दौर में लिखेगें मिल कर नयी कहानी……
रोचक पोस्ट! Trying hard to follow "न ब्रूयात सत्यम अप्रियम" at least for a day. ;)
जवाब देंहटाएंna bruyat satyam adhikam
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंमौज लेना आदमी की मूल प्रवृत्ति है, इससे कहां बचा जा सकता है?
जवाब देंहटाएं( Treasurer-S. T. )
जवाब देंहटाएंविद्या ददाति वियनम ।
सॉरी सॉरी.. अँग्रेजी वर्जित है.. अब सँस्कृतौ ऎतराजित हुई गवा, अब का करी ?
जो हिन्द के प्रति प्रेम रखता हो वही हिन्दी बने
जो भी जन्में यहाँ, न क्यों वह हिन्द का सुत बने
लेकिन कुपुत्रों पर सदा ही ध्यान रखना चाहिये
दामन छुड़ा उनसे हमें अब एक बनना चाहिये
( अ० प्र० क्राँति-रेखण से )
मन्नैं तो लाग्यै के यो टिप्पण देण आला कुपुत्तर ने बिलागिंग छोड़ई देण चाहिये,
शर्त यो है के, आप सब पट्ठे लक्कड़ के गट्ठर तरियों एक होकै मज़बूत बणो !