सोमवार, 21 सितंबर 2009

वर्षा : एक विदा गीत !

वर्षा अवसान पर है, इस बार बिना बरसे ही ! चाहे रीतिकाल की नायिका रही हो या फिर भगवान राम ही -वर्षा ने  विरही विरहनियों को जहां रुलाया है ,संयोग को भरपूर उद्दीपित भी किया है ! घन घमंड गर्जहिं घनघोरा ,प्रिया हीन डरपहिं मन मोरा -यह राम जैसा  स्थितिप्रग्य  भी कह उठता है ! मगर मुई,निगोड़ी  इस बार बिना बरसे (भरपूर बरसे ) ही जा रही है ! कितनी ही कामनाएं मन में रह गयीं ! मैं हर बार वर्षा की घनघोर फुहार/झापस  के साथ पद्माकर के इन पंक्तिओं का सस्वर पाठ करते नहीं थकता था ! प्रिय हिमांशु से अनुरोध है कि वे पद्माकर की इस वर्षा गीत -कविता को कविता कोष में दर्ज कर दें -यह वहां नहीं है !

और साथ ही प्रमाणिक पाठ और भावार्थ भी सुधी पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत करें जिससे वे लाभान्वित हो सकें ! और मित्रगण आपसे अनुरोध  है कि एक बार दुबारा भी यहाँ लौट कर इस अद्भुत वर्षा -कविता की भावानुभूति जरूर कर लें ! इस वर्ष वर्षा रानी तो जम के नहीं बरसी ,मगर जाते जाते उनकी विदाई इस कविता से करके उन्हें अगले वर्ष झूम के बरसने की मनुहार भी आपके साथ कर  देता हूँ -

चंचल चमाकै चहु ओरन ते चाय भरी 
चरजि गयी थी  फेरी चरजन  लागी री 
कहें पद्माकर लवन्गन की लोनी लता 
लरजि गयी थी फेरि लरजन लागी री 
कैसे धरौ धीर वीर त्रिविध समीर तनै 
तरजि  गयी थी फेरि तर्जन लागी री 
घुमणि घमंड घटा घन की घनेरे आवे 
बरसि  गयी थी फेरि बरसन लागी री 
मेरे पास जो पाठ मिला है इस कविता का, वह कुछ इस तरह है -


चपला चमाकैं चहु ओरन ते चाह भरी 
चरजि गई ती  फेरि चरजन  लागी री ।
कहैं पद्माकर लवंगन की लोनी लता 
लरजि गयी ती फेरि लरजन लागी री ।
कैसे धरौ धीर वीर त्रिबिध समीरैं तन 
तरजि  गयी ती फेरि तरजन लागी री ।
घुमड़ि घमंड घटा घन की घनेरी अबै 
गरजि  गई ती फेरि गरजन लागी री ।


"विरहिणी नायिका पावस ऋतु की प्रबलता, उसकी बार-बार चढ़ाई, उसकी अंगीभूत विद्युत, समीर तथा घनगर्जन की पुनरावृत्ति से विचलित हो रही है । एक बार तो वह किसी तरह बरसात की मार सह गयी, किन्तु दुबारा वही दृश्य होने पर वह कहे जा रही है कि चपला (बिजली) की चारो ओर से जो चमक उमंग के साथ दीख रही थी, वह रह-रह कर फिर चमक रही है । चमकी थी, फिर चमकने लगी है । पद्माकर कहते हैं कि नायिका ने लवंगलता का सिहरना अभी-अभी देखा था, लेकिन पावसी तरंग में वह फिर हिल गयी, फिर हिल गयी । वह व्यथित होकर कह रही है कि मैं कैसे धीरज धरूँ ? त्रिविध समीर (शीतल, मंद, सुगंध) बह रहा है । यह मेरे शरीर को तर्जना (दुख) दे गया है और फिर-फिर मुझे छू-छू कर कष्ट पहुँचा रहा है । वह कंपित है, बादल की घनी उमड़ती-घुमड़ती घटा अभी-अभी गरजी थी लेकिन वह फिर-फिर गरजने लगी है । 

इस प्रकार बार-बार एक ही दृश्य और एक ही क्रिया का आघात-प्रतिघात विरहिणी नायिका को विचलित कर रहा है, और पद्माकर ने उसकी इसी दशा का वर्णन किया है ।"


स्नेहाधीन
हिमांशु

24 टिप्‍पणियां:

  1. पद्माकर जी की पंक्तियां तो अद्‍भुत हैं ही, लेकिन ऊपर भूमिका में लिखा गया अनुच्छेद भी कम रस लिये हुए नहीं है।

    हिमांशु जी द्वारा किये गये भावार्थ की प्रतिक्षा रहेगी!

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  2. मैं क्या कहूँ। रीतिकालीन कविता की भाषिक और वर्णना शक्तियाँ पूरे सौन्दर्य के साथ आ गई हैं।
    ...
    वर्षा को समर्पित एक कविता अपने ब्लॉग से देने की छूट ले रहा हूँ। आगे आप जैसा समझें:
    "गोमती किनारे
    बादर कारे कारे
    बरस रहे भीग रहे
    तन और सड़क कन
    घहर गगन घन
    धो रहे धूल धन
    महक रही माटी.

    बही चउआई
    सहेज रही गोरी
    केश कारे बहक लहक कपड़े
    कजरारे नयन धुन
    गुन चुन छुन छहर
    फहर बिखर शहर सरर
    चहक उठे पनाले.

    बिजली हुई गुल
    पहुँची गगन बीच
    हँसती कड़क नीच
    ऊँची उड़ान छूटी जुबान
    जवान जान खुद को
    नाच उठी
    भुनते अनाज सी.

    ....
    ....
    सब कुछ हो गया
    खतम हुआ
    खोया रहा साँस रोके
    सब कुछ सोच लिया
    घर घुस्सी तू आलसी !"

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  3. बहुत सुंदर! पर इस में चाय का मतलब समझ नहीं आया।

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  4. अद्‌भुत। बाँटने का आभार।
    द्विवेदी जी की बात पर ध्यान दें। मेरी जिज्ञासा भी शान्त हो जाएगी।

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  5. अर्थ तो हिमांशु जी बताएगें -उन्ही की आतुर प्रतीक्षा चल रही है !

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  6. सच है प्रासंगिक शोधवृत्ति के धनी हैं आप । कायल हो गया मैं । अपनी इस वृत्ति से आपने जो यह यात्रा करायी है, बहुत ही लुभाने वाली है ।
    आभार ।

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  7. नायिका के हृदयंगम भाव वर्षा ऋतु में जिस तरह से आये हैं उन्हें भावानुवाद करने के लिये हिमांशु भाई का कोटिशः आभार ।

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  8. हमें तो चाय के साथ बढ़िया लग रहा है कवित्त! बरसात में ग्रीन लेबल का मजा!

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  9. सुन्दर कविता का चयन.. पर हिमांशु के भावार्थ के बिना मतलब समझ ही नहीं आता...
    विरहणी नायिका का बिजली और बारिश से चमकना ...यहाँ चमकना का मतलब डरना और घबराना ...एक तरफ बिजली का चमकना ...तो दूसरी ओर नायिका का ..क्या बात है ..!!

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  10. अद्भुत पंक्तियाँ...आपका कलेक्शन बेहतरीन है हर मौके के लिए...मौका-ए-अनुरुप!!आपको तो शायर होना था:

    ऐसा वाला:

    शायरी ख़ुदकशी का धंधा है, लाश अपनी है अपना कंधा है
    आईना बेचता फिरा शायर, उस शहर में जो शहर अंधा है.

    प्रो.नंदलाल पाठक

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  11. बेहद सुन्दर , मगर भावार्थ पूरी तरह समझ नहीं आया , इंतजार है ...

    regards

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  12. कवित्त के पाठक कम हैं क्या ? क्या छन्द की कविता मन को छान्दिक सुख नहीं दे पा रही !
    इस अदभुत वर्णन की कविता की सायास प्रस्तुति का आभार ।

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  13. SUNDAR KAVITA AUR HIMAANSHU JI KI ATISUNDAR VYAKHYA ... AABHAAR HAI AAPKA IS RACHNA KE LIYE ...

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  14. अद्भुत सुन्दर रचना हमे भी इसके पूरे भावर्थ का इन्तज़ार रहेगा आभार मिश्रा जी क्षमा करेम मैने अपने ब्लाग पर आपके सवाल का जवाब दिया है जरूर पढें अगर उपकार कर सकें तो जवाब भी चाहूँगी।धन्यवाद्

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  15. अच्‍छी व्‍याख्‍या।
    बारि‍श की यादें ही रह गई है अब तो।

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  16. हमें तो लगा मिश्रा जी चाव से चाय पी गए. चाय तो नशा है बरसात हो न हो कमबख्त को पीना ही पड़ता है, पर बरसात हो, चाय हो तो पकौडी भी चाहिए...............

    खैर इस साल नहीं तो अगले साल ही सही.

    चन्द्र मोहन गुप्त
    जयपुर
    www.cmgupta.blogspot.com

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  17. चाहे जो भी पाठ सही हो, पर इतना तो तय है कि इसमें वर्षा की विरहणी का सुंदर वर्णन है।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  18. वर्षा अपने आप में ही सुन्दर भाव जागृत कर देती है .....

    अद्भुत रचना !!

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  19. भाव विभोर हो गये हम तो।
    अमृत वर्षा अच्छी रही!

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  20. बारिश तो बहुत कष्‍ट दे रही है, हमारे यहाँ तो न चपला है और न ही गर्जना। बस केवल सूर्य की प्रखरता है। कोई कैसे बरखा गीत का स्‍वागत करे? बरसि गयी थी, फेर बरसन लागी रे। हाय इन पंक्तियों को कहाँ से अपने शहर में बरसाऊँ?

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