कथा जारी है ....राजा दशरथ का देहान्त हो चुका है, भरत आ चुके हैं। सारी दुर्दशा और दुर्व्यवस्था की जड़ अपनी मां को फटकार चुके हैं। बिना राम के वह राजगद्दी लेकर क्या करेंगे? कौशल्या के सामने बहुत ही कातर होकर वह कहते हैं, 'मां, ये जो कुछ हुआ उसमें मेरी तनिक भी सम्मति नहीं है'। मुनि वशिष्ठ भरत को बहुत समझाते हैं कि पिता की आज्ञा, राजकाज तथा प्रजा की देखभाल के लिए आपको राजगद्दी संभाल लेनी चाहिए। मगर सोचवश भरत को यह बात अनुचित लगती है। उन्हें तो दुहरा आघात लगा है। राम का विछोह और पिता की मृत्यु...बड़े आहत हैं वह। अब वशिष्ठ उन्हें समझाते हैं जो बड़ा ही विचारोत्तेजक प्रसंग हैं। इस प्रसंग में अध्यात्म का जहां गूढ़ भाव है वही लोकाचार, जीवन दर्शन के अनमोल सूत्र भी हैं। कुछ आपके साथ साझा करना चाहता हूं। यद्यपि रामकथा पर कुछ भी टीका टिप्पणी मेरे बूते की बात नहीं है और न ही इस विषय की मेरी लेशमात्र की विशेषज्ञता ही है। मगर पूरे प्रसंग को पढ़ने पर जो भाव मन में उमड़ते हैं उन्हीं को आपसे बांटना चाहता हूं।
वशिष्ठ भरत को सोच निमग्न देखते हैं। खुद भी प्रत्यक्षतः और दुखी हो जाते हैं। मगर ज्ञानी हैं। एक ज्ञानी की तटस्थता भी उनमें है। एक बड़े पते की सीख देते हैं -
सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ।
हे भरत, भावी (भवितव्यता) प्रबल है। मनुष्य तो मात्र एक निमित्त भर है। उसके हाथ में कुछ नहीं है। परिस्थितियों पर उसका वश नहीं है - हानि-लाभ, जीवन-मृत्यु, यश-अपयश, यह विधाता के हाथ में ही है। जब इन पर तुम्हारा कोई वश नहीं ही नहीं तो फिर सोच क्यों? लगता है संतकवि की यह सूझ गीता के 11वें अध्याय के इस सूत्रवाक्य से प्रेरित है - कृष्ण कहते हैं, अर्जुन तुम भले ही धनुर्विद्या में निष्णात हो मगर हो तो तुम निमित्त मात्र ही ...तुम्हारे वश में कुछ भी नहीं है, कर्ताधर्ता तो कोई और है...हां धनुष उठा लेने पर तुम्हें कार्य का श्रेय अवश्य मिल जाएगा।
यह जीवन दर्शन का वह सूत्र है जो आज के तमाम उद्विग्न व्यथित लोगों को राह सुझा सकता है। हम नाहक ही चिंतामग्न हो जाते हैं, दुश्चिंताओं से घिर जाते हैं। जब हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं तो फिर किस बात की चिंता? करने वाला तो कोई और है, एक अदृश्य शक्ति। प्रत्येक परिस्थिति में मनुष्य को तटस्थ भाव, विरक्ति भाव से ही रहना चाहिए। यह हमारे आर्ष ग्रथों का एक प्रमुख विचार है। बहरहाल विषयांतर न हो जाए, इसलिए फिर लौटते हैं भरत की दशा पर...उन्हें वशिष्ठ फिर समझाते हैं।
वशिष्ठ कहते हैं - भरत, राजा दशरथ तो वैसे भी सोच करने के योग्य नहीं हैं - सोच जोगु दशरथ नृप नाहीं...तो फिर सोच के योग्य कौन है? वह तमाम उदाहरण देते हैं कि किसकी स्थिति सोचनीय है। पूरा प्रसंग संतकवि की विचारशीलता का अद्भुत उदाहरण है -
सोचिय विप्र जो वेद विहीना तज निज धरम विषय लयलीना
सोचिय नृपति जो नीति न जाना जेहिं न प्रजा प्रिय प्रान समाना
सोचिय बयसु कृपन धनवानू जो न अतिथि सिव भगति सुजानू
सोचिय सूद्र विप्र अवमानी मुखर मानप्रिय ज्ञान गुमानी
वह ब्राह्मण सोचनीय है जो ज्ञानी नहीँ है। मात्र ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने से ही ब्राह्मण की पात्रता नहीँ हो जाती। संतकवि बालकाण्ड के शुरू में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि 'बंदऊ प्रथम महीसुर चरना मोहजनित संशय सब हरना" कौन सा ब्राह्मण वन्दनीय है? जो मोह से उत्पन्न होने वाले सभी संशयों को दूर करने की क्षमता रखता हो। वह ब्राह्मण जो ज्ञानी नहीँ है और अपने इस ज्ञान धर्म को छोड़कर विषयों में आसक्त हो रहता है, वह सोचनीय है। वह राजा सोचनीय है जो नीति नहीँ जानता और जिसे प्रजा प्राणों सी प्यारी नहीँ है। और वह धनवान सोचनीय है जो कंजूस है जो अतिथि सत्कार और शिव भक्ति में रमा नहीँ है। वह संस्कारहीन मूढ़ व्यक्ति सोचनीय है जो ज्ञानियों का अपमान करता है और वाचाल है। मान-बड़ाई चाहता है और अपने ज्ञान का घमंड रखता है। यहां भी शूद्र के अर्थबोध के बारे में "जन्मना जायते शूद्रः संस्कारेत द्विज उच्यते" को ध्यान में रखना होगा।
आगे भी वशिष्ठ बताते हैं कि कैसे वह गृहस्थ सोच के योग्य है जो मोह में पड़कर कर्ममार्ग का त्याग कर देता है और किस तरह वह संन्यासी सोचनीय है जो दुनिया के प्रपंच में पड़कर ज्ञान-वैराग्य से हीन हो गया है। सोच तो उसका करना चाहिये जो चुगलखोर है, बिना कारण क्रोध करने वाला है, माता-पिता गुरु और भाई बंधुओं के साथ विरोध रखने वाला है। और वह सोचनीय है जो अपने ही उदर पोषण करने में लगा रहता है, निर्दयी है, दूसरों का अनिष्ट करता है। वशिष्ठ भरत को सांत्वना देते हुए कहते हैं कि हे भरत, राजा दशरथ तो किसी भांति सोचनीय नहीँ हैं अर्थात् वह उक्त श्रेणी के लोगों में नहीँ आते।
सोचनीय नहिं कोशल राऊ भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ...ऐसा राजा न अब तक हुआ और न कभी होगा ही...उनके गुणों को तो चौदह लोकों में सभी जानते हैं।
मानस का यह प्रसंग जहां अध्यात्म के गूढ़ दर्शन को आम आदमी के सामने प्रत्यक्ष करता है वहीं लोक जीवन के कतिपय श्रेष्ठ आचरण को भी एक रूपक के जरिये प्रस्तुत करता है।
अब आगे किसी और प्रसंग के साथ भेट होगी...जय श्रीराम!
जय हो...
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग करते-करते अनमोल सूत्र हाथ लगेंगे, आपके पुन्य प्रताप से सभी ब्लॉगर लाभान्वित होंगे, यह आशा जगी है।
आभार , आभार , आभार , आभार , .... बहुत आभार यह प्रसंग हम सब से शेयर करने के लिए |
जवाब देंहटाएं@हम नाहक ही चिंतामग्न हो जाते हैं, दुश्चिंताओं से घिर जाते हैं। जब हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं तो फिर किस बात की चिंता? करने वाला तो कोई और है, एक अदृश्य शक्ति। .... सत्य वचन | हमारे हाथ में परिस्थितयां बिलकुल नहीं हैं, outcomes बिलकुल नहीं हैं | लेकिन अपने प्रयास हमारे ही हाथ में हैं | सद्प्रयास करेंगे या कुप्रयास - यह हमारे हाथ में है | हम सकाम कर्म करेंगे या निष्काम कर्म - यह भी हमारे हाथ में है | फल से निर्लिप्त रहते हुए भी कर्म में संलिप्त रहना ही भरत जी का मार्ग था |
यदि सकाम कर रहे हैं - तो वह कामना सतो या रजो या तमोगुणी हो - यह हमारे हाथ में है |
यदि निष्काम कर रहे हैं , तो जिस कर्तव्य के अधीन हम कर रहे हैं, वह कर्तव्य सतो, रजो या तमोगुणी हो सकता है |
मैं शायद अभी आपसे ज्यादा अपने आप से बात कर रही हूँ :) ... यह पंचतत्त्व वाली सीरीज ख़त्म होने पर शायद इस पर लिखूं |
फिर से एक बार आभार |
मानस प्रसंग जनमानस तक ..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
धन्य हुए .
जवाब देंहटाएंबस आशीर्वाद चाहिए की इस सोच का पालन भी कर सकें .
बढ़िया प्रस्तुति .
पूरा समाजशास्त्र है हमारा धार्मिक साहित्य
जवाब देंहटाएंजिस काल /कार्य /घटना पर अपना वश नहीं , उस पर निरर्थक चिंतन से क्या यश -अपयश सब प्रभु के हाथ है , हम सिर्फ निमित्त मात्र हैं . गीता के कर्मण्ये वाधिकारस्ते जैसा ही सन्देश है ! इन सूत्रों के साथ चलने से जीवन आसान हो जाता है !
जवाब देंहटाएंजैसी भी स्थिति हो, उत्तरोन्मुख रहें।
जवाब देंहटाएंऐसा लग रहा है कि रामचरित मानस के ऊपर टीका पढ़ रहे हों. बहुत सुन्दर मनभावन टीका.
जवाब देंहटाएंअत्यंत ही प्रेरणास्पद और शुकुन दायक है ये श्रंखला, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम
मनुष्य तो मात्र एक निमित्त भर है……………करने वाला कोई और ही है जिस दिन से हम इस बात को समझ लेते है और अपने सब किये और न किये कर्म सब उसे ही अर्पण कर देते हैं निश्चिंत हो जाते हैं और एक द्रष्टा की तरह जो होरहा है उसमे खुश रहते हैं बस वो ही वास्तविक जीवन मुक्ति है।
जवाब देंहटाएंआपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है साप्ताहिक महाबुलेटिन ,101 लिंक एक्सप्रेस के लिए , पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक , यही उद्देश्य है हमारा , उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी , टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें
जवाब देंहटाएंjisne nishkaam karma ko apna liya vah to sukh aur dukh se hi pare ho jayega....achcha prasang ...
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर! जारी रहे!
जवाब देंहटाएंजो प्रसंग सबसे अच्छा और मार्मिक रहा उससे आप बचकर निकल लिए.दसरथ-विलाप को पढ़ते हुए वास्तव में रोना आता है.हमारे एक जानने वाले के यहाँ अखंड पाठ का आयोजन चल रहा था.यह प्रसंग सुनते ही गृहस्वामी चल बसे,पर पाठ नहीं रोका गया !
जवाब देंहटाएंभरत-कौशल्या और भरत-कैकेयी प्रसंग भी अच्छा है !
रोचक विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंजब हर करी के लिए मनुष्य नीमित्त मात्र है तो फिर सोचना ही क्या .... लेकिन बिना सोचे रहा भी नहीं जाता ...
जवाब देंहटाएंमन को संतुलित करने वाली पोस्ट
हर परिस्थिति में जीवन के प्रति सहज सकारात्मक सोच रखने का मार्ग सुझाता मानस प्रसंग..... बहुत सुंदर प्रस्तुति...आभार
जवाब देंहटाएंइस भयानक गर्मी में यह पोस्ट शीतलता का अनुभव कराती है ...
जवाब देंहटाएंआभार !
इसीलिए तो हमारी संस्कृति में जीवन का अविछिन्न सम्बन्ध धर्म अथवा धार्मिक पात्रो से है..
जवाब देंहटाएंpresenting Ramcharitmanas in a very interesting way..
जवाब देंहटाएंenjoyed reading it :)
जीवन में कई बार ... रामायण ही हमारा पथ-पदर्शक बन राह को अवलोकित करती है.
जवाब देंहटाएंधन्य है डॉ साहेब.
अपने प्रिय प्रसंग तो इस सबके बाद में आयेंगे, जारी रहे ये मानस पाठ|
जवाब देंहटाएंजय श्री राम|
सियावर रामचन्द्र की जय. :)
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