गुरुवार, 7 जून 2012

ग्रीषम दुसह राम वन गमनू ....(मानस प्रसंग-१)


प्रत्येक  वर्ष मेरा एक बार मानस पारायण हो ही जाता है। अमूमन यह जाड़े में होता है और आराम से पढ़ते हुए मुझे तकरीबन 4 महीने बीतते हैं- कारण थोड़ा-थोड़ा और सस्वर पढता हूं। सस्वर इसलिए कि बिना श्रोता भले ही घर का वह कोई अकेला सदस्य ही क्यों न हो मुझे मानस पाठ नहीं सुहाता। पिता जी बचपन से ही कहते थे और बहुत सच कहते थे कि रामचरित मानस की चौपाईयां कई रागों में गाई जा सकती हैं और मैंने इसे अपने कालांतर जीवन में देखा, सुना और परखा। मैं भी उपहास की परवाह किये बिना चौपाईयों को गाने के प्रयोग करता रहता हूं और आनन्दित होता हूं। इस मामले में दूसरों की रुचि-अरुचि की मुझे परवाह नहीं रहती। ...और कहते हैं न घी का लडडू टेढ़-मेढ़ भी चलता है तो मानस की चौपाईयां भी ऐसी ही हैं। चाहे उन्हें आल्हा सरीखा गाईये या सोहर लचारी के तर्ज पर, आनंद घनानंद में कोई कमी नहीं। मगर इस बार व्यतिक्रम कुछ ऐसा हुआ कि जाड़े के बजाय इस बार मानस पाठ का सिलसिला रामनवमीं से शुरू हुआ और अब जाकर राम वन गमन तक आ पाए हैं।


कितनी ही बार मानस पढ़ा-सुना है और जीवन के इस पड़ाव पर कितनी ही मोहभंगता, तटस्थता, निःसंगता क्यों न हुई हो, किन्तु राम वन गमन का हेतु और प्रसंग हर बार रुला जाता है। सस्वर पढ़ते हुए गला रुध जाता है, आंखें भर आती हैं और श्रोताओं को भुलावा देने के तमाम कोशिशों के बाद भी उन्हें मेरी मनःस्थिति का भान हो ही जाता है। मगर उनकी भी तो स्थिति कमोबेश वही रहती है- कौन किस पर हंसे? :) 



इस बार राम वन गमन का प्रसंग भीषण गर्मी में आ पड़ा है और दुसह दुःख की अब दुहरी मार आ पड़ी है। और दुर्संयोग ही कहिये मानस का राम गमन प्रकरण भी मृगशिरा नक्षत्र के भीषण आतप के समय ही आया है। शायद इसलिए मानस पाठ/आत्मानुशीलन मेरे पुरनियों द्वारा जाड़े में ही किया जाता था, ताकि संभवतः राम वन गमन का पाठ गर्मी में न पड़ जाये और दोनों के दुखद संयोग की दुहरी पीड़ा पाठक/श्रोता को न झेलनी पड़े। क्या इसलिए ही तमाम अनुष्ठानों और धार्मिक कार्य-आयोजनों के कतिपय विधि-विधान बनाए गए हैं। रामायण और राम चरित मानस के भी नवाह्न पारायण/मास पारायण की व्यवस्था इसलिए ही तो नहीं है? जिससे संकल्प/कार्य निर्विघ्न पूरे हो जायें। अब बिना इस ध्यान के इस बार हम भीषण गर्मी में उतना ही वेदनापूर्ण राम वन गमन का प्रसंग झेल रहे हैं।



पता नहीं अब के वास्तुविद या भवन शिल्पी घरों/भवनों में कोप कक्ष का प्रावधान करते हैं या नहीं (मैंने तो कहीं देखा नहीं) राजा दशरथ की अयोध्या में तो एक पूरा कोप भवन ही था और कैकेयी के पहले और बाद में भी शायद ही उसका कोई उपयोग/दुरूपयोग हुआ हो। कोपभवन की अवधारणा बहुत विलासिता भरी लगती हैं और यह मानिनी नायिका के श्रृंगार पक्ष से ही जुड़ा एक तामझाम लगता है। अब यह भी कोई कम नखरा है कि रूठने की बात सीधे तौर पर न कहकर कोपभवन में चले जाना और खुद के मान मनौवल की भूमिका तैयार कर देना। यह श्रृंगारिकता का ही एक पहलू लगता है। मगर सीधे-साधे सज्जन सहृदय राजा दशरथ यहीं तो गच्चा खा गए बिचारे और उनके इस गफलत से उनकी जान पर बन आयी। मुझे अक्सर लगता है राजा दशरथ एक सीधे-सादे पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें हम और आप भी अपना अक्स देख सकते हैं। मगर कैकेयी उतनी ही दुष्ट, धूर्त/चालाक नारी का प्रतिनिधित्व करती है। राजा दशरथ की मासूमियत तो देखिये कि जब वे बहुत अनुनय के साथ कैकेयी से उसकी नाराजगी का सबब पूछते हैं और उसे हाथ से स्नेहिल स्पर्श करते हैं तो वह उनके हाथ को झटक देती है मगर उसकी यह झटकन राजा को काम-कौतुक लगता है- तुलसी कहते हैं:



जद्यपि नीति निपुण नरनाहू नारि चरित जलनिधि अवगाहू (यद्यपि राजा नीति में निपुण हैं मगर कैकेयी सरीखी नारी का चरित्र अथाह समुद्र है) खुद का अनुभव भी यही बताता है कि यह एक कालजयी सत्य है मात्र एक काव्य सत्य नहीं :) 



कोपभवन में ही राम के वन गमन की प्रस्तावना लिखी जा रही है। राजा बेबस निरीह श्रीहीन होते जा रहे हैं। कैकेयी के सामने अधमरे हो उठते हैं, कितना बिचारगी भाव से कहते हैं- भरत के राज्याभिषेक में उन्हें कोई ऐतराज नहीं मगर राम को वन मत जाने को कहो। कैकेयी को पूरा आभास है कि राम के वियोग में दशरथ प्राण त्याग देगें मगर वैधव्य की कीमत पर भी वह अपनी जिद नहीं छोड़ती। राम आते हैं उनका मन वन गमन की बात सुनते ही बल्लियों उछल पड़ता है। राजा मरणासन्न हो चुके हैं। उनकी ओर से राम सहज सहर्ष वन जाने की हामी भर लेते हैं। ये वही राम हैं जिन्हें राज्याभिषेक की खबर सुन कर यह संताप हो रहा था कि आखिर बड़े भाई के ही राज्याभिषेक का नियम क्यों है? राम क्यों न जन जीवन में समादृत और पूज्यनीय हों?



राजा दशरथ कैकेयी को सबसे अधिक मानते थे। कौशल्या को तो उन्होंने उपेक्षित ही रखा इसके बावजूद कि वे राम की मां बनी। उन्हें जिस तरह उनकी सबसे प्रिय रानी कैकेयी ने ही दंश दिया, उनकी जानलेवा बनी इसकी मिसाल विश्व साहित्य में भले ही अन्यत्र कम हो मगर शायद लोक जीवन में कैकेयी चरित्र के ऐसे मामले कम नहीं हैं जहां दशरथ सरीखे सहज सरल इंसानों को कैकेयी सरीखी प्रवृत्तियों का शिकार आये दिन न बनना होता हो और इसलिए ही यह बहु उद्धृत कहावत भी आम हो गयी- त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम देवो न जानति कुतो मनुष्यः। और यह निश्चय ही कैकेयी की प्रवृत्ति पर ही लक्षित कहावत है- नहीं तो एक नारी सीता भी हैं जिन्होंने सभी ऐश्वर्य वैभव को तिलांजलि देकर पति के साथ वनगमन का मार्ग चुना, उर्मिला हैं जिन्होंने बिना प्रतिकार अकारण ही पति का लम्बा वियोग सहा।



आज के प्रसंग में सीता को राम वन न जाने की सलाह दे रहे हैं और इसके पक्ष में कई तर्क दे रहे हैं मगर सीता कहां मानने वाली हैं। सीता कोई कैकेयी थोड़े ही हैं। चरित्र का कितना बड़ा अंतर है यह। एक नारी अपने जीवन संगी की मौत का कारण बन जाती है तो दूसरी उसके लिए खुद का जीवन त्याग करने को तत्पर है। बाकी कोई प्रसंग फिर कभी। जय श्रीराम!

27 टिप्‍पणियां:

  1. कोपभवन की अवधारणा भी अपने आम में ही अलग है. बड़े लोग अपना दु:ख सार्वजनि‍क नहीं करते...

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  2. कोप भवन पर काजल जी के अभिमत से सहमत !

    आज आपका सस्वर पारायण बेहद पसंद आया ! सुना तो नहीं पर सुने जैसा अनुभव किया !

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  3. कैकेयी एक पल में इतनी निर्मम कैसे हो गयी ... राम और सीता के वनगमन पर दशरथ का विलाप , हां राम करते हुए प्राण त्याग , पूरा प्रसंग ही मार्मिक है !
    रामचरित मानस का यह प्रसंग पढ़ते हुए स्वतः गला अवरुद्ध हो जाता है !

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  4. वाह, प्रातःकाल उठकर रामकथा का रसास्वादन करने का सुख अद्‌भुत है। आभार।

    “राम क्यों न जन जीवन में समादृत और पूज्यनीय हों?” (पूजनीय/पूज्य)

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  5. kaikai ek desh-bhakt thi dhashrath ke sath yuddh me bhi jati thi aur virangna bhi thi dashrath ke rath ke pahie ki dhuri tutne pa ko apni ungli se hi rath chalva diya tha

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  6. राम-कथा बांच रहे हैं,अच्छा है.इससे गज़ब की आत्मिक-शांति मिलती है.मैं तो रोजाना बांचता हूँ |

    कैकेयी के बहाने नारी-निंदा ठीक नहीं लगती.कैकेयी में मानव-जनित कमियां रहीं,जिस प्रकार दशरथ में थीं.दशरथ को रूप-सौंदर्य और वासना की कीमत भी तो चुकानी थी.कैकेयी ने अगर गलती की तो दशरथ भी पूर्ण निर्दोष नहीं थे !

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  7. ramayan kabhi padhi to nahi par haan ramanad sagar ji ki ramayan kai baar dekhi hai ...har ek drishya poori tarah se yaad hai...kai baar dekhte dekhte rona aa jata tha ....van gaman ka drishya bhi kuch aisa hi hai....

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  8. कोपभवन का सिद्धान्त बहुत उपयोगी है, क्या राजनीति में इस तरह का भवन बनाया जा सकता है। आजकल तो पूरा देश कोपभवन बना हुआ है।

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  9. जय श्री राम :)आज यह पोस्ट पढ़ कर बहुत अच्छा लगा | आभार |

    और हाँ - राम वन गमन के समय आँखें भरना और गला रुंध आना - यह मेरी अपनी भी कहानी है | तो हँसना है यदि - तो मुझ पर भी हंस लीजिये :)

    अगली बार सर्दियों से ही शुरुआत कीजियेगा - घाम में यह पढना सच ही असह्य सा हो जाता है |

    once again - जय श्री राम :)

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  10. रामायण कभी पढ़ी नहीं और राम की महानता भी मुझे आकर्षित नहीं करती.
    वैसे कोपभवन की बात पर लग रहा है कि अब इतने बड़े घर संभव नहीं जहाँ अलग से एक कोपभवन बनाया जा सके तो अब शायद कैकईयाँ अपना बेडरूम ही बंद करके बैठ जाती होंगी.:):).

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  11. @अली भाई,
    मेरे ब्लॉग पर कथावार्ता लेबल पर जाकर कोई पुराना पाठ आप सुन सकते हैं!

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  12. @सिद्धार्थ जी ,
    धन्यवाद ,त्रुटि ठीक करता हूँ!
    @ संतोष त्रिवेदी जी ,
    अगर आप सच्चे ह्रदय से जो बात कह रहे हैं तो विचार भी किया जा सक्ता है ..मगर नारीवाद का नया चस्का लगा हो तो आपके भगवान राम ही मालिक हैं :)
    जहाँ तक राजा दशरथ की बात है वे चक्रवर्ती सम्राट भले हों मगर सहज सरल व्यक्तित्व वाले ही लगते हैं !

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  13. @शिल्पा जी ,
    सचमुच इस बार दुहरा संताप हुआ ....बेटे ने भी यही फोन कर पूछा कि जाड़े के बजाय इस बार मानस इस मौसम में क्यों ?
    आगे से जाड़े में ही पारायण का कार्यक्रम बनेगा !

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  14. @शिखा जी ,
    रामायण तो विश्व काव्य है,,,आपको तो पढना चाहिए ....आलतू फालतू किताबों पर समय जाया
    करने के बजाय एक बार अंगरेजी में ही मानस/रामायण पढने का प्रयास करें ...आप पाएगीं कि आपका विजन
    कितना समृद्ध हुआ है ....

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  15. @अनाम /अनामिका ,
    कैकेयी का जो भी पूर्व जीवन रहा हो मगर एक भयंकर भूल ने उन्हें शाश्वतकाल तक लोकमानस में निन्दित कर दिया ..यहाँ तक कि स्वयं उनके बेटे ने उनका त्याग कर दिया जिनके राज्याभिषेक की शर्त को मनवाने के लिए उन्होंने वैधव्य तक का मार्ग चुना!

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  16. चौपाईयों के गाने का प्रयोग कर रहे हैं और आनंदित हो रहे हैं.
    जानकर आनंदित होने का हक हमें भी है

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  17. अपने को सती-शिव प्रसंग, परशुराम-लक्ष्मण प्रसंग, जड़ समुद्र के विनय से न मानने पर राम का कुपित होने वाला प्रसंग,बालिवध प्रसंग, काकभुशुण्डी-गरुड़ प्रसंग विशेष रूप से प्रिय हैं|और इसके अतिरिक्त 'श्री राम चन्द्र कृपालु भजमन' और 'भये प्रकट कृपाला' के अलावा 'ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया' बहुत बहुत पसंद हैं|

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  18. एक बार मैं भी बड़े धीमे स्वर में (लगभग मन ही मन) मानस पारायण कर रहा था, तो मेरे अध्यात्मिक गुरु ने कहा था कि मानस पाठ सस्वर किया जाना चाहिए। तब से मैं भी ऐसा ही करता हूं। जब डूब के पाठ हो तो प्रसंग के अनुसार मन के भाव भी हो ही जाते हैं।
    हां पाठ के लिए जाड़ा गार्मी क्या? लोग एकाह, नवाह और मास पारायण करते हैं, इसमें मौसम क्या। ईश स्तुति के लिए हर मौसम एक समान है। बाक़ी रही पात्रों के चरित्र के बारे में तो कुछ पात्रों को बहुत अच्छा दिखाने के लिए कुछ पात्रों को रचनाकार बुरा बनाते ही हैं। मैं तो इसी रूप में देखता हूं।
    ***

    आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।
    लोकारिभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्॥
    आपत्तियों को हरनेवाले तथा सब प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाले लोकाभिराम भगवान् राम को बारंबार नमस्कार करता हूं।

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  19. और कहते हैं न घी का लडडू टेढ़-मेढ़ भी चलता है तो मानस की चौपाईयां भी ऐसी ही हैं। चाहे उन्हें आल्हा सरीखा गाईये या सोहर लचारी के तर्ज पर, आनंद घनानंद में कोई कमी नहीं।

    बस मानस पढना कुछ ऐसा ही है, मेरा तो रोम रोम आनंदित हो उठता है रामायण की चौपाइयां पढ़कर या सुनकर , आज के दौर का कोप भवन यही हो सकता है कुछ समय हम अपने लिए एकांत तलाश लें....

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  20. बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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  21. उतना अमृत है भरा, जितनी गहरी प्यास
    एक्कै साधै सब सधै जय हो तुलसी दास।

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  22. मानस पाठ सस्वर करना अवसाद रोधी भी साबित हुआ है श्रोता और प्रस्तोता दोनों के लिए डॉ मौदगल्य ,मसि कागद वाले ,मानस पाठ से इलाज़ करते रहें हैं आजकल हरयाना साहित्य अकादमी के सिरमौर हैं कवि हैं ,ग़ज़ल कार हैं .और भाई साहब आजकल कोप भवन और कैकई तो हर घर में शोभायमान हैं .जहां माशूका रूठ जाए वही जगह कोप भवन हो जाती है चाहे फिर वह राजधानी एक्सप्रेस हो या बेड रूम .बढ़िया प्रस्तुति .मानस की सांगीतिकता एक दम से निर्दोष है .कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    शुक्रवार, 8 जून 2012
    फिरंगी संस्कृति का रोग है यह
    प्रजनन अंगों को लगने वाला एक संक्रामक यौन रोग होता है सूजाक .इस यौन रोग गान' रिया(Gonorrhoea) से संक्रमित व्यक्ति से यौन संपर्क स्थापित करने वाले व्यक्ति को भी यह रोग लग जाता है .
    http://veerubhai1947.blogspot.in/

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  23. मतलब टू बी एच के + कोप भवन , टोटल कितने स्क्वायर फिट हुआ घर जी??? :) :) :)

    आजकल के बजट में तो गुस्सा करने का स्कोप भी खतम हो गया है :) :) :)

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  24. तनी गाते हुए ऑडियो/विडियो डालिए.

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