दुलहन सी दिखी दिल्ली -एक और दिल्ली संस्मरण!
अब आगे ....
कामनवेल्थ के पहले हम जब भी दिल्ली एअरपोर्ट पर उतरे हैं ,वही परम्परागत तरीके से सीढ़ी का आकर यान से जुड़ने और फिर सीढ़ी से उतर कर फेरी बस पर बैठ एअरपोर्ट के आगमन भवन तक पहुंचने की स्मृति थी ...इस बार तो पूरा मंजर ही बदला हुआ था -सीढ़ी की छोडिये पूरा एअरपोर्ट भवन ही एक एअर टनेल के जरिये विमान से आ जुडा था ....यात्री बस सीधे उसी में से होते हुए खूबसूरत दरियों/कारपेट पर कदमताल करते हुए आगे बढ चले ....प्रौद्योगिकी का कमाल अपनी पूरी भव्यता के साथ हमारे सामने था ..एक क्षण को लगा कि जैसे मैं खुद अपनी विज्ञान कथा मोहभंग के नायक की ही तरह चंद्रतल पर लैंड कर चुका हूँ .....सब कुछ वायुरोधी एक बड़े कैप्सूल सा लगा और सामने ट्रैवेलेटर जो समतल आगे की ओर भाग रहे थे और जो असहाय ,अशक्त यात्रियों के लिए बनाए गए थे मुझे बेधड़क बनारसी की उन लाईनों की याद दिला रहे थे-ऐसी कब होगी दुनिया बेधड़क ,जब रुक जाएगा आदमी और चलने लगेगी सड़क ....जी हाँ वही मंजर सामने था और हम चलती सड़कों-ट्रैवेलेटर पर पैर जमाये आगे की ओर भागे जा रहे थे-हमारे रास्ते में ऐसी कई भागती सडके मिलीं ....कुछ छोटी जीपें भी दिखीं जिसे मैंने चंद्र्बग्घियों का प्रोटो टाईप माना,जो इधर से उधर यात्रिओं की फेरी में जुटी थीं ...यह सब चंद्रमा की भावी बस्ती का एक ट्रेलर ही तो लगा ....आज की इन प्रौद्योगिकियों से अगर हम कोई संकेत लें तो निश्चय ही हम सौर मंडल में अन्यत्र की बसाहटों का सहज ही एक पूर्वानुमान लगा सकते हैं ....और विज्ञान कथाकारों के लिए ऐसे ही दृश्य भविष्य की कल्पनाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाते हैं!
रुक गया है आदमी और चलने लगी है सड़क -इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय एअरपोर्ट नई दिल्ली टर्मिनल तीन
मुझे अपना लगेज लेना था और इतने भव्य और तिलिस्मी से लग रहे भवन में अपना समान कहाँ से लूं यह दुविधा मन में थी ..बहरहाल फ्लाईट संख्या आदि का पता बता कर निचली मंजिल पर पहुँच एक इनक्वायरी विंडो पर जानकारी मिली कि कन्वेयर बेल्ट संख्या तीन पर अभी अभी आ पहुंचे जेट ऐअरवेज और इंडियन एअरलाईन के हमारे विमान आई सी ४०५ का सामान डाल दिया गया है ..मैं मित्र गुप्ता जी के साथ वहां पहुंचा तो कन्वेयर बेल्ट पर सामानों के आने का सिलसिला शुरू हो गया था ....सबकी नजरें अपने अपने सामानों पर गडी थीं ,समान को सामने आते ही पहचान कर तुरंत उठाना था क्योंकि अगले पल इंगित सामान एक विशाल वलयाकार कन्वेयर बेल्ट पर घूमते हुए आगे बढ जाता था ..अचानक मैं असहज हो उठा क्योंकि इस बार मैं जो स्ट्राली ले गया था वह बहुत कामन माडल वाली थी ... बच्चे मेरी वाली स्ट्राली कब्जिया चुके थे और इस काले रंग की स्ट्राली जैसी कई स्ट्रालियाँ दीर्घ वलयाकार बेल्ट पर घूम रही थीं ...मैंने अपनी वाली के चक्कर में दूसरों की कई स्ट्रालियों को उठा लिया और तुरंत ही उनके वास्तविक स्वामी के टोंकने पर झेंपना पड़ा ..सबसे बड़ी झेंप तो तब हुई जब मुझे एक दूसरी स्ट्राली खुद अपनी ही लगी और ठीक यह फैसला लेने कि यह मेरी ही है के नैनो सेकेण्ड पहले उसके असली दावेदार ने अपना दावा ठोक दिया ....मैं अपना सा मुंह लेकर रह गया ..गलती यह हो गयी थी कि अपनी स्ट्राली पर मैंने कोई प्रमुख पहचान का चिह्न नहीं बनाया था ..अब मैं कुछ कुछ नर्वस सा होने लगा था और उधर मित्र गुप्ता जी बार बार यह कहकर कि इसलिए मैं लगेज बुक कराने का लफड़ा ही नहीं पालता मुझे खिझा रहे थे... एअर लगेज में बुक करने वाले समान पर एक सहजता से दिख जाने वाला पहचान चिह्न प्रमुखता से न लगाकर मैंने बड़ी भूल कर दी थी ...धीरे धीरे सब सामानों के दावेदार अपना अपना सामान लेकर चलते जा रहे और मेरी स्ट्राली का कहीं अता पता नहीं था ...आखिर का बैग भी उठ गया और कन्वेयर बेल्ट खाली हो गया ....
हम थोड़ी देर वहीं ठगे से रह गए ...आयोजकों का फोन आ रहा था और जानकारी मिल रही थी कि दिल्ली का तापमान १० डिग्री के नीचे आ चुका था ...मेरे सारे गरम कपडे उसी स्ट्राली में थे .. ..गुप्ता जी ने मुझे तनाव में देखकर कहा कि चलिए बाहर से स्वेटर इत्यादि खरीद लेते हैं ....."मगर ,आखिर मेरा समान गया कहाँ ,कहीं वही से तो लोड होने से नहीं रह गया ...." कहकर मैं गुप्ता जी को वहीं रोक कर अगले १० मिनट में इस बारे मैं औपचारिक शिकायत वगैरह में लगा रहा ..वापस आया तो गुप्ता जी को कन्वेयर बेल्ट के सुदूर दूसरे किनारे की ओर टकटकी लगाये देखते पाया ..जाहिर था वे अभी भी आस लगाए बैठे थे...मैंने निःश्वास लेकर कहा चलिए कम्प्लेंट कर दी है ..छोडिये जो होगा देखा जायेगा ..बनारस के एअरपोर्ट पर अपने मित्र के पी सिंह जी तो हैं ही ,वे सब कुछ ठीक करा देगें ....और तभी एक काली हिलती डुलती चीज अकेली कन्वेयर बेल्ट पर आगे सरकते हुई दिखी ....अरे कहीं वही तो नहीं है मेरी स्ट्राली ...हाँ हाँ वही थी मेरी स्ट्राली ...उतारने के बाद पूरी संतुष्टि हो गयी ...लौटते वक्त मैंने इस पर अपने बड़े से कांफ्रेंस बैज को ही पहचान के लिए स्थायी रूप से लगा दिया है ...जैसे मेरे पूर्व के बैग्स और स्ट्रालियों पर लगे हैं और जिन पर अब बच्चे कब्ज़ा जमा चुके हैं ....
एअरपोर्ट पर प्री पेड टैक्सियों का रेट रीजनेबल है ....हमने ३२० रुपये में आयोजन स्थल राष्ट्रीय कृषि विज्ञान परिसर (एन ऐ एस काम्प्लेक्स ) ,देव प्रकाश शास्त्री मार्ग टोडापुर /दसघरा पूसा के लिए टैक्सी ली और गन्तव को चल पड़े ....
अभी जारी है!
कुछ कमियां रह गई हे इस एयर पोर्ट पर,जेसे कलीण की जगह अगर फ़र्श होता तो ज्यादा सुंदर लगता,जितने भी खम्बे लगे हे, उन्हे नीचे से सही रुप मे नही सजाया, बडे बडे शीशे तो लगे हे लेकिन इन की सफ़ाई पर ध्यान पुरा नही दिया,सारे स्टाफ़ की बर्दी पर ध्यान दिया जाना चाहिये चाहे वो सफ़ाई कर्मी ही क्यो ना हो, क्यो कि यही छोटी छोटी बाते लोगो की नजरो मै पडती हे, लेकिन बुरा नही, लेकिन अभी भी वहां सिस्टम ठीक नही, इमॊग्रेशन के लिये घंटो इंतजार करो,आती ओर जाते समय , जब देश मे इतने नोजवान बेरोजगार घुमते हे उन्हे नोकरी दी जाये,ऎयर पोर्ट की तरफ़ जाने वाली सडके बहुत ही खराव हालत मे हे, इस के चारो ओर कम से कम पेड लगा दिये जाये ताकि कुछ हरियाली दिखे, बाहर निकलते ही टेकसी खडी मिली जब उन से रेट पुछा तो १८०० रुपये शाली मार बाग तक, (शायद गोरो के लिये यह रेट होगा)लेकिन यह गलत हे, कुछ आगे जा कर एक टूटा सा केबिन बना हे जो हम भारतियो को टेकसी उपलब्द्ध करवाता हे, वो भी मन माने दाम पर, लेकिन पहले एयर पोर्ट से हजार गुणे सुंदर लगा, शायद सुधार हो जायेगा धीरे धीरे. इस सुंदर लेख के लिये आप का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबढि़या तस्वीर. आपके साथ हम भी जारी रखे हुए हैं.
जवाब देंहटाएंहम भी आपकी तरह चाँद पर उतरने वाले थे कि तभी भाटिया जी ने जमीन पर ला दिया .अब तो वहां जाकर ही देखना होगा.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा तस्वीर देखकर और ब्यौरा पढ़कर ..... चार बाद हमें भी इसी चाँद पर उतरना है.... देखते है कैसा दिखता है ......
जवाब देंहटाएं@ शिखा वार्ष्णेय - :)
जवाब देंहटाएंस्ट्राली प्रकरण का चित्रण सहज ही उत्सुकता के भँवर में घुमाने लगा।
प्रवाही यात्रावृत्त। आगे की प्रतीक्षा रहेगी।
आप और कथाएँ क्यों नहीं लिखते?
बहुत बदलाव आया है हाल में , काशी यात्रा अगर निकट समय में कर सका तो टर्मिनल ३ देखेंगे ! बढ़िया यात्रा विवरण के लिए बधाई !
जवाब देंहटाएंउड़नखटोले की दुनियाँ का वर्णन पढ़कर अपनी आँखों से देखने की इच्छा जाग रही है।
जवाब देंहटाएं..रोचक।
राज भाटिया जी ,शिखा जी ,
जवाब देंहटाएंआप अपने नजरिये से ठीक कह रहे हैं ,राज जी जिस सड़क की बात आप कर रहे हैं वह अभी भी निर्माणाधीन है ...आपने ही माना है कि दिल्ली हजार गुना बदली है ,मैं केवल एअरपोर्ट की बात कर रहा था और वह भी टर्मिनल तीन का जो वाकई बेहद खूबसूरत हो गया है ! शिखा जी गारंटी है कि इस बार जब आपके कदम यहाँ के अन्तराष्ट्रीय एअरपोर्ट पर पड़ेगें तो पैरो तले जमीन भी खिसक जायेगी ...फिर तो चाँद ही सहारा होगा ....
राज जी ,एक बात और ,हमेशा टैक्सी प्रीपेड ही लें हवाई अड्डे पर !
जवाब देंहटाएंachha chitran kiya , ghum aaye wahan
जवाब देंहटाएंदिलवालों की दिल्ली और दिल्ली की दुल्हन, आपको यही सौन्दर्य दिखता रहे।
जवाब देंहटाएंआपको अपना सामन मिल गया ...नहीं तो सारी खूबसूरती कम हो जाती ....अच्छा प्रकरण ..
जवाब देंहटाएंअच्छा वृतांत.टर्मिनल ३ का एक वृतांत मैं भी लिखने वाली हूँ, जल्द ही.
जवाब देंहटाएंसही बात है. अच्छा लगता है ये. वर्ना पहले केवल हैदराबाद का नया हवाई अड्डा अंतर्राष्ट्रीय स्तर का लगता था. पर अभी भी इसमें बहुत से सुधारों की आवश्यकता है दूसरे अधिकांश विदेशी हवाई अड्डों से मुक़ाबला करने के लिए...
जवाब देंहटाएंआप एयरपोर्ट की बात कर रहे हैं, मुझे तो मेट्रो ही दूसरी दुनिया की चीज़ लगती है, भारत के अन्य छोटे शहरों की तुलना में. भाटिया जी विदेश से तुलना करके देख रहे हैं, तो उनको कमियां दिख रही हीं, हमलोग तो इतने पर ही फूले नहीं समाते.
जवाब देंहटाएंस्ट्राली पप्रकरण वास्तव में बेहद रोचक है, बिल्कुल ऐसा ही मेरे साथ घाट चुका है, जब सामान खो जाने का पूरा विश्वास हो गया तभी हमारा सामान लावारिस की तरह सबसे पीछे रखा आता दिखा :-)
श्रद्धेय मिश्रा जी प्रणाम!
जवाब देंहटाएंसंस्मरण की अगली कड़ी और भी रोचक रही। स्ट्राली न मिलने से आपकी परेशानी हमें भी परेशान कर गयी। जब तक स्ट्राली मिल नहीं गयी तब तक हमें भी लग रहा था कि कहाँ रह गयी? आपकी भाषा में वह प्रवाह है एवम् विचारों में वह तारतम्य है जो अन्त तक पाठक को बाँधें रहता है, तथा पाठक अगली शृंखला पढ़ने के लिये प्रतीक्षारत हो जाता है। अपके इस संस्मरण से राहुल जी के प्रसिद्ध यात्रा-वृतान्त –वोल्गा से गंगा, तथा जयनारायण कौशिक जी के-‘राइन नदी से सिन्धु तक’ की याद ताज़ी हो जी है। आशा है कि शीघ्र ही हम पाठकों के समक्ष अगली कड़ी होगी।
ऐसी कब होगी दुनिया बेधड़क ,जब रुक जाएगा आदमी और चलने लगेगी सड़क '
जवाब देंहटाएंये तो आप जैसे अमीरों के लिए है जो हवा में उड़ते है, उन गरीबों के लिए सड़क नहीं बस फुटपाथ है... और वह भी ठहरे हुए सड़क के किनारे :(
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (13/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
ये तो हमें मालूम ही था कि आपके साथ ये वाला खेल तो होगा ही, और मत पिलाईये चाय हमको.:)
जवाब देंहटाएं२९ दिसंबर को सुबह जा रहा हूं दिल्ली, अपनी आंखों से देख लूंगा तब बेधडक बनारसी की बातों को सही मानूगां वर्ना क्या पता कहीं स्टार वार्स वाली फ़ोटो छाप दी हो तो?:)
रामराम.
रोचक वृत्त।
जवाब देंहटाएंअसली घटना स्थल (सेमिनार) की बातों की प्रतीक्षा है।
ताऊ जी
जवाब देंहटाएंदिल्ली आयेंगे
तो मुझे बिना मिले
मत जाइयेगा
फोन बजने का इंतजार रहेगा
और
अरविंद जी
टर्मिनल 3 देखने के लिए
क्या टिकट भी खरीदना होगा
हवाई जहाज का
टर्मिनल देखने के बाद
करा सकते हैं क्या कैंसिल भी
अविनाश मूर्ख है
@एक छोटी यात्रा कर ही न डालिए :)
जवाब देंहटाएंअब तो सबको मानना ही पड़ेगा कि दिल्ली में कुछ काम हुआ है ।
जवाब देंहटाएंस्ट्रोली प्रकरण से अनुभव चटपटा हो गया ।
दिल्ली एयरपोर्ट का सुन्दर ब्यौरा पढ़ कर अच्छा लगा. हाँ कुछ कमीयाँ एयरपोर्ट के रख रखाव में है जो शायद धीरे धीरे ठीक हो जायेंगी फिर भी अन्दर से किसी स्वप्न लोक से कम नहीं लगता.
जवाब देंहटाएंregards
दिलचस्प !
जवाब देंहटाएंस्ट्राली नहीं मिलती तो गुप्त जी जीवन भर बखेडा खडा करते रहते !
Maza aa gaya ye warnan padhke!
जवाब देंहटाएंbadhiya vritant!
जवाब देंहटाएंबहुत चमकउआ जगह है!
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